~~~~~~~~~उन दिनों -56.~~~~~~~~
__________________________
*********************************
पाँच मिनटों तक हमारे आसपास एक सहज मौन व्याप्त रहता है, एक आत्मीय मौन, जिसमें न कुछ घुमड़ता है, और न एक दूसरे से कोई दूरी होती है । बोलने के लिए कुछ नहीं होता, लेकिन 'खालीपन' नहीं होता, ऊब नहीं होती, आशा या आशंका नहीं है, डर या अवसाद तो कतई नहीं है । उस मौन में कोई अद्भुत चीज़ बिजली की लकीर की तरह लेकिन बेआवाज़, मुझे काटकर गुज़र जाती है ।
उनके मौन में न तो व्याकुलता है, न अधीरता, न व्यग्रता है, न क्षुब्धता, न शोक, प्रेम या स्नेह तो है, लेकिन निस्संगता भी अवश्य है, आसक्ति नहीं पर अपनत्त्व ज़रूर है । वे अविचल दृष्टि से मुझे देखने लगते हैं । उस दृष्टि में क्या है, मैं नहीं जानता, -बस एक शिशु सी निर्दोष दृष्टि है वह, बस । न अपेक्षा है, न शिकायत, न दु:ख है, न कामना, विनम्रता नहीं, तो उद्धतता भी नहीं है । क्षण भर में ही वे दृष्टि हटा लेते हैं ।
बहुत देर बाद मैं 'सोचने' में लौटकर, शब्दों को जोड़कर, उनसे कुछ कहने का प्रयास करता हूँ, लेकिन फिर रुक जाता हूँ ।
"तुम अजय को जानते हो ?"
वे पूछते हैं ।
मैं कोशिश करता हूँ । वहाँ पर एक रिक्तता है, -स्मृति में, 'अजय' के नाम की कोई फ़ाइल वहाँ नहीं दिखलाई देती ।
"अजय मेरा बेटा था । था याने कि है । "
वे सरलता से कहते हैं, और मुझे झटका लगता है । अजय के बारे में उन्होंने मुझे उस दिन बतलाया तो था जब मैं दफ्तर के काम से उनके शहर गया था ।
मैं चुप रहता हूँ । मैं समझ रहा हूँ कि अजय उनके जीवन का केन्द्रीय हिस्सा है । होने/न होने पर भी । थोड़ा अपराध-बोध मुझे कचोटने लगता है । वे उदासीन हैं । न दु:खी है, और न उनके मन में मेरे प्रति कोई शिकायत है ।
"एक्सीडेंट में उसकी एकाएक मृत्यु हो जाने के बाद मैं टूट सा गया था , बिखर गया था । पर मेरे साथ मेरी पत्नी थी, जो उसकी माँ भी है । आपने तो देखा ही है उसे ! "
वे अचानक ही मुझे 'तुम' के बजाय आप कहने लगे थे ।
"और अजय से छोटी अपर्णा भी तो थी, मेरी बेटी । मैंने उनमें अपने बिखराव को समेटने की कोशिश की । टूटन की रिपेयरिंग करने का प्रयास किया । आपने तो देखा है उन्हें । "
हाँ, मुझे अपर्णा और उसकी माँ, दोनों याद आ गए थे ।
"हाँ, जब मैं दूसरी बार आपके घर आया था तब उन्हें देखा था । याद है मुझे । "
"उसकी शादी का उस समय बस ख़याल ही था । वह कॉलेज जाने लगी थी । सेकण्ड-ईयर में पढ़ रही थी । शायद ग्रेजुएशन कर लेती, लेकिन, ..."
-वे कहते कहते रुक गए ।
अगले ही पल बोले,
"तो मैं आपसे कह रहा था कि क्या हमारे सोचने या उम्मीदें करने से ज़िंदगी की धारा का प्रवाह रुक जाता है ?"
मैं सुन रहा था ।
"आप साहित्य या शायद कला के क्षेत्र में कुछ सीखना-करना चाहते हैं । "
मैं उनके अगले वाक्य की प्रतीक्षा करने लगा ।
"हम, अभी क्या करना है, यह तो सोचते हैं, लेकिन हमारा ऐसा सोचना ही क्या हमारे लिए बंधन नहीं बन जाता है ?"
"कैसा बंधन ? "
मैंने सोचा । वे किस बंधन की बात कर रहे थे ?
"आप इसे बंधन क्यों कह रहे हैं ?"
-मैंने पूछा ।
"क्या इससे हम जीवन के स्वाभाविक प्रवाह को किसी ख़ास दिशा में ... ... ... "
वे पल भरके लिए रुके, फिर बोले,
""किसी ख़ास सपने की शक्ल में मोड़ना या ढालना नहीं चाहने लगते ?"
"हाँ, शायद । "
"लेकिन, जैसा कि स्वाभाविक रूप से होना है, वह ज्ञात न होने की वज़ह से ही तो हम जो 'होता है', उसका, याने कि 'भावी' का कोई काल्पनिक चित्र बनाकर उसे सँवारने की कोशिश नहीं करने लगते हैं ?"
"हाँ, शायद । "
"तो क्या यह एक अमूर्त्त बंधन ही नहीं होता ?"
"अमूर्त्त ?"
"हाँ, अमूर्त्त इसलिए, क्योंकि उसकी गिरफ्त में रहने पर भी हमें उसका ख़याल तक नहीं आता । इससे वह ख़त्म तो नहीं हो जाता । "
वे किसी 'अमूर्त्त' बंधन को यथार्थ कह रहे थे, और मेरे यथार्थ को कल्पना ! कैसा विरोधाभास था !
"अजय की मृत्यु के बाद अपर्णा की शादी हमें करनी पड़ी । उसका एक मित्र था, यूँ तो क्लास-फेलो था, लेकिन न जाने कब और कैसे उनकी दोस्ती 'प्यार' में बदल गयी और इसमें सबसे बड़ी बात जो दिखलाई दी वह यह कि दोनों बहुत सीरियस थे इस बारे में । मैं नहीं कह सकता कि वह उनकी उस कच्ची उम्र की भावुकता भर थी, या सचमुच उन्होंने सोच-समझकर एक दूसरे को अपना जीवनसाथी बनाने का फैसला किया होगा । वैसे मुझे नहीं लगता कि उन्हें एक दूसरे से वाकई ऐसा कोई गहरा 'प्रेम' था भी । शायद भावुकता भी नहीं थी, बस एक उनकी समझ में एक 'व्यावहारिक सोच' भर था इसकी वज़ह । जैसा कि मैंने कहा, कि जीवन के यथार्थ को जैसा वे समझते थे, उस आधार पर उन्होंने एक-दूसरे को अपने लिए बहुत उपयुक्त महसूस किया होगा, और उस फैसले पर दृढ़ रहे । यह तो मानना होगा कि उन्होंने तमाम 'रिस्क्स' और दूसरी आशंकाओं के बारे में भी ज़रूर सोच लिया था । उस के 'दोस्त' के घर के लोगों को भी कोई ऐतराज नहीं था । सच तो यह भी है कि उसके घर के लोगों में आपस में इतनी गहरी आत्मीयता भी नहीं थी । वे सभी बहुत 'व्यावहारिक' किस्म के लोग हैं । यदि ऐसा न होता तो सब कुछ इतना आसान नहीं होता । लड़के के पिता का लंबा-चौड़ा कारोबार था, और वे पढ़ने के लिए उसे विदेश भेजना चाहते थे । फिर उन्हें जल्दी थी कि यदि उसकी शादी भी हो जाए तो कोई हर्ज़ नहीं । सो शादी कोई बहुत महत्त्वपूर्ण मुद्दा नहीं था उनके लिए । फिर अपर्णा की शादी हुई, और वह पति के साथ विदेश चली गयी । हालाँकि वहाँ उसने किसी बड़ी यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया, और वे दोनों वहाँ पढ़ भी रहे हैं, और घर के कारोबार में हाथ भी बँटा रहे हैं । खैर,मैं तो यही सोचता हूँ कि उन्हें उनकी ज़िंदगी जीने का तरीका चुनने का हक़ था, और आगे कोई परेशानी आती है, तो मुझे उनके लिए शायद कुछ करना पड़ सकता है । मैं उनके भविष्य के बारे में इससे ज़्यादा कुछ नहीं सोचता । बिटिया की माँ ज़रूर दु:खी है, लेकिन इंसान को दु:ख की भी आदत हो जाती है, सो ... ... । "
"और अपने भविष्य के बारे में आप क्या सोचते हैं ?"
"वह अपनी चिंता स्वयं ही कर लेगा । "
"क्या भविष्य की चिंता करने या योजना बनाने को आप ज़रूरी नहीं समझते ?"
"पहले समझता था, फिर धीरे-धीरे यह बात दिल में घर कर गयी कि जो कुछ होता है, वह किन्हीं ऐसे कारणों से होता है जिन पर हमारा कोई वश नहीं हो सकता । और वश तो ठीक, हमें उनकी कल्पना या ख़याल तक नहीं होता ।
मुझे निर्मल वर्मा के लिखे किसी उपन्यास की एक पंक्ति याद आई,
"बहुत बाद में कोई फर्क नहीं पड़ता । "
_____________________________
************************************
>>>>>> उन दिनों 57.>>>>>>>>>
February 28, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment