February 19, 2010

उन दिनों -52

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अभी तो यही सच है, जो मैं लिख रहा हूँ यह क्या कम था कि पत्नी की मृत्यु से पूर्व बिटिया की सगाई, और शादी भी धूमधाम से निपट गयी हाँ, अब मैं अकेला हो गया हूँ नितांत, निपट, और विकट भी सोचता हूँ कि प्रद्युम्न के घर चला जाऊँ उसने तो बिटिया की शादी में हँसते-हँसते कह भी दिया था, "अब कौस्तुभ भैया हमारे साथ रहेंगे " बचपन में मैं और प्रद्युम्न (मेरा भाई) ख्वाब देखते थे कि बड़े होकर एक ही मकान याने 'अपने घर' में रहेंगे बड़े होते-होते लेकिन अब उस बारे में सोचना तक मुश्किल हो गया था वहाँ रहने की बात मज़ाक तक ही ठीक थी उसका आशय शायद यही था, कि मैं और उसकी भाभी लेकिन प्रद्युम्न के कहने से क्या ? क्या अब उसके घर पर रहा जा सकता है ? उसके घर की विसंस्कृति में शायद एक दिन या चौबीस घंटे भी रह पाना असंभव है और अब अतीत को बदला भी तो नहीं जा सकता
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लेकिन कभी कभी लगता है कि सारे 'समय' कंटेम्पररी होते हैं जैसे सागर में बहुत सी धाराएँ होती हैं, या आकाश में बहुत से मेघ होते हैं सबका अपना-अपना अस्तित्त्व है, फिर भी सब जुदा-जुदा होते हैं 'महाकाल' की नगरी (उज्जैन) में बचपन से अब तक का समय गुज़ारने के बाद 'इस समय' से परे की एक कौंध कभी-कभी मन में हिलोर लेती है, तो सारे 'समयों' को पार कर 'कहीं और' ले जाती है ठीक है, वहाँ मेरी 'यह' वैयक्तिक पहचान भी खो जाती है, लेकिन 'मैं' तो रहता हूँ ! शायद इसे कहने की कोशिश बेकार है 'सर' से ज़रूर पूछूँगा, -अगर याद आया तो !
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काल' और स्थान को समझने के प्रयास वैज्ञानिकों ने किये हैं आईन्स्टाइन के सापेक्षता के सिद्धांत के बाद डेविड बॉम तक का दृष्टिकोण समझने का प्रयास मैंने अपनी 'स्थूल' बुद्धि से किया है बुद्धिवाद पदार्थ (matter), काल (Time), और स्थान (Space), या संक्षेप में पदार्थ और 'दिक्काल' के पारस्परिक संबंध को अत्यंत जटिल प्रश्न समझता है और फिर घूम-फिरकर उसे 'दृष्टा' और 'दृश्य' के धरातल पर लौटना होता है यहाँ से 'विज्ञान' का रास्ता और अनिश्चित हो जाता है फिर वह पदार्थ के 'मूल-कणों' के 'व्यवहार' को समझने के लिए 'प्रायिकता' (probability) के सिद्धांत की भाषा में विवेचना करने की असफल चेष्टा करता है फिर वह बौद्धिक रूप से इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि 'दृष्टा' की उपस्थिति से पदार्थ के व्यवहार में फर्क पड़ जाता है किन्तु प्रश्न यह भी है कि क्या इसका सीधा तात्पर्य यही नहीं हुआ कि 'दृष्टा' ,'दृष्ट' को प्रभावित करता है ?
(इस बारे में एक आश्चर्यजनक सन्दर्भ के रूप में श्री निसर्गदत्त महाराज की चर्चा याद हो आती है , जिसमें उन्होंने डेविड गॉडमैन से कहा था, :
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तुम्हें कैसे पता है कि 'दृष्टा' ही 'दृष्ट' को प्रभावित करता है ? 'दृष्ट' भी 'दृष्टा' को प्रभावित नहीं करता, इसका कौन सा प्रमाण तुम्हारे पास है ?")
कहने का तात्पर्य यह कि ही 'चेतना' (प्रज्ञान) (Consciousness, i.e. Intelligence), जिसमें 'दृष्टा', 'दृश्य' दोनों अवस्थित हैं, इस सारी गतिविधि का सूत्रधार, नियंता, संचालक है वह 'सत्ता' न सिर्फ 'आत्म-परक' (subjective) ही है, बल्कि वह विषयपरक (Objective) भी है 'बुद्धि' के लिए यह असंभव है कि उसकी संचालन प्रक्रिया 'कैसे' होती है, इसे समझ या व्यक्त कर पाए 'बुद्धि' के 'प्रयास' 'विचार' तक सीमित होते हैं 'विचार' 'ज्ञात' है, और ज्ञात कितना भी विस्तीर्ण हो, सीमित होता है , क्योंकि जिसे 'विचार' कभी जानता है, वह ज्ञात ही हो सकता है विचार तो तब घटित होता है जब अस्तित्त्व 'दृष्टा','दृष्ट' और 'दर्शन' में विभक्त हो चुका होता है विचार, अस्तित्त्व का विषयविषयी (subject), और उनके पारस्परिक 'संबंध', विषयबोध (consciousness) का एक आभासीविभाजन' घटित कर देता है, जो पुन: 'चेतना' में हो रही एक प्रतीति भर हैचूँकि वह बनती-मिटती है, इसलियसमय' का आभास भी पैदा होता हैवह आभास भी चेतना के ही अंतर्गत हैबुद्धि का एक 'देह-विशेष' से संबद्धहोना, 'वैयक्तिक-मैं' की कल्पना का कारण है , और उसे देह से संयुक्त समझकर, 'मैं यह फलाँ-फलाँ हूँ' का 'परिचय' मन में पैदा हो जाता हैक्या ये सारे विभाजन वास्तव में होते भी हैं ? या केवल 'विचार' का सातत्य ही उनकी गतिविधि का एकमात्र कारण है ? लेकिन वस्तुत: ऐसा कोई विभाजन अस्तित्त्व में कहीं नहीं है । विचार पदार्थ, ऊर्जा, काल स्थान आदि 'विषयों' में 'अस्तित्त्व' को विभाजित कर अपने-आपको 'विषयी' की तरह उनसे 'भिन्न' घोषित करता है । इनमें से पदार्थ और ऊर्जा इन्द्रियगम्य हैं, काल, स्थान, और 'विषयी' अनुमान, निष्कर्ष और परिणाम पर आधारित मान्यता । वे किसी धारणा का ही रूपांतरण, शाब्दिक आभिव्यक्ति, नामकरण भर हैं । विचार उन्हें इंगित करता है, वे उसके 'अध्ययन' के अंतर्गत होते हैं, ..... ..... "
-कौस्तुभ उर्फ़ 'मैं' सोचता हूँ
(डेविड
गॉडमैन से संबंधित लिंक :
http://www.maharajanisargadatta.com/
देखें । )
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