~~~~~ उन दिनों -49.~~~~~
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"देखो, हम समझते हैं कि हम अतीत को, खासकर 'अपने अतीत को ' जानते हैं । है न ?"
"हाँ !"
लेकिन थोड़ा गौर करें तो पता चलेगा कि हम अतीत्र को कतई नहीं जानते, अतीत में तो अनगिनत घटनाएं हो चुकी हैं, उनमें से बहुत ही इनी-गिनी के क्रम को हम अपनी याददाश्त में 'इमेज' बनाकर रख लेते हैं । हम बस अगर अतीत के बारे में कुछ जानते हैं तो वह ऐसी 'इमेजेस' को, ऐसे स्मृति-चित्रों को ही जानते हैं । और क्या दूसरा कोई भी इस तरह केवल उसके स्मृति-चित्रों भर को ही नहीं जानता ? हमारे कुछ स्मृति-चित्र, -हम कह सकते हैं कि हम आपस में 'शेयर' भी करते हैं । उनकी साझेदारी, सहभागिता भी करते हैं ऐसा हमें लगता है । उसे हम 'दुनिया' या इतिहास कहते हैं । "
यह सचमुच कठिन था । क्या मेरा कोई अतीत है ही नहीं ?
"ठीक है, जीवन की मोटी-मोटी घटनाओं को तो हम स्पष्ट रूप से 'याद' रख सकते हैं, लेकिन ढेर सारी उन छोटीछोटी घटनाओं में से भी अपनी पसंद-नापसंद की महत्वपूर्ण घटनाओं की 'इमेजेस' को छाँट लेते हैं,जिन्हें 'क्रमबद्ध' कर उसे हम 'मेरा जीवन' कहने लगते हैं । इस क्रम में भी हम बार-बार रद्दो-बदल करते रहते हैं । कुछ जोड़ते, और कुछ घटाते रहते हैं । उनमें से वस्तुत: कौन सा क्रम-विशेष हमारी यथार्थ 'इमेज' हो सकता है ? या, क्या हम स्वयं ही 'अपने' जीवन की क्षण-क्षण एक नई 'इमेज' नहीं बनाते रहते हैं ? फिर अतीत का क्या होता है ? क्या अतीत एक तहखाना भर नहीं होता, जहाँ हमारी बहुत सी चीज़ें बेतरतीब बोख्री होती हैं, और उनमें से कुछ इनी-गिनी चीज़ों को बाकी के मुकाबले तरजीह देकर हम उसे 'अपना' कहने लगते हैं ?"
वे मुझे कहाँ ले जा रहे थे ? क्या मेरा अतीत है ही नहीं ? और अगर अतीत नहीं तो 'मैं' ? मेरा क्या होगा तब ?
"इस हिसाब से तो मेरा कोई अतीत ही नहीं है । "
-मैंने पूछा ।
"अभी हम इतना समझने की कोशिश करें कि जिसे हम अपना अतीत कहते हैं, वैसा कोई अतीत है या नहीं !
पहली बात, अतीत हमारे साथ घटी घटनाओं का हमारी याददाश्त में बनाया गया एक चित्र भर है । अतीत होता ही नहीं, ऐसा कहना तो सरासर जल्दबाजी होगी । वर्त्तमान का यह 'क्षण' जिसे हम भूलवश ही 'क्षण' समझते है, यद्यपि वस्तुत: अक्षुण्ण है, लेकिन अतीत और भविष्य के जिस 'काल' को हम जानते हैं, उस काल के अंतर्गत उनके 'क्षणों' को आधार बनाकर हम उनकी तुलना में वर्त्तमान को भी किसी 'क्षण-विशेष' में बद्ध मान बैठते हैं ।यदि उस दृष्टि से कहें तो अवश्य ही वर्त्तमान का यह क्षण, जो काल के प्रवाह का कण मात्र है, अतीत का ही समग्र परिणाम ही तो है । फिर वर्त्तमान को हम किस-किस तरह ग्रहण करते हैं इस पर भी हमें चर्चा अलग से करनी होगी । लेकिन फिलहाल इतना तो समझ ही सकते हैं कि जिसे हम अतीत और अपना/मेरा अतीत कहते हैं, या हमारा साझा अतीत कहते हैं, वह किन्हीं बहुत सी घटनाओं की ऊपरी सतह भर को याददाश्त के माध्यम से नाक-नक्श देकर अपने मन में संजो रखने के सामान है । आप तालाब पर हवा के चलने से बनती और मिटती रहनेवाली तरंगों के क्षण-क्षण बदलते क्रम के बहुत से फोटोग्राफ्स ले सकते हैं । शायद फिल्म भी बना सकते हैं उनकी । वह सब तालाब के चरित्र के बारे में शायद कुछ बतला सकेगा । लेकिन जिन चित्रों को हम उस फिल्म के माध्यम से देखेंगे, उनमें से कोई भी चित्र तालाब के वर्त्तमान का, या किसी भी kaalaavadhi का यथार्थ चित्र नहीं हो सकता ।"
"तो क्या जीवन की अपनी समझ की दृष्टि से हम बस एक निरंतर भ्रम में ही जीते रहते हैं ?"
"यह ख़याल आना कि मैं निरंतर एक भ्रम में जीता चला जा रहा हूँ, भ्रम के अंत का पूर्वाभास है । "
-वे बोले ।
लेकिन मेरा प्रश्न अब भी वही था, कि वे मुझे 'कहाँ' ले जा रहे हैं ? वे मुझसे क्या कहना चाह रहे हैं ?
"और वर्त्तमान का यह क्षण ?"
-मैंने पूछा ।
"वर्त्तमान को अतीत और भावी के सन्दर्भ में रखते ही, हम उसे 'बीतने वाले समय' का एक हिस्सा बना लेते हैं । क्या वर्त्तमान कभी बीत सकता है ?"
मैं निरुत्तर था ।
"वर्त्तमान क्या अतीत या भविष्य का टुकड़ा है ? सोचो ! अतीत वह है, जो बीत गया , भविष्य वह , जो आयेगा, लेकिन बीत भी जाएगा, और वर्त्तमान ? क्या यह कहना ठीक होगा कि वर्त्तमान बीतता है ? अगरबत्ती जब जलती है , तो उसका अंगारा एक यात्रा पर होता है, जब वह कुछ दूरी तय कर चुका होता है, तो उसका उतना हिस्सा जलकर समाप्त हो चुका होता है, जो कभी अंगार था । बाकी हिस्सा अंगार बन रहा है, बनेगा, फिर राख हो जाएगा । लेकिन अंगार ? अंगार न राख है, न अनजली अगरबत्ती । अगरबत्ती के जीवन के साथ अंगार भी समाप्त हो जाता है, अज्ञात से आया था और वहीं लौट जाता है, इसलिए वह 'समाप्त' हो जाता है, ऐसा कहना ठीक नहीं होगा । वह 'प्रकट' और 'विलुप्त' भर होता है । अंगार न तो अनजली, जली या बुझ चुकी अगरबत्ती है, और न उस अर्थ में उसका भविष्य, अतीत, या उनके सन्दर्भ में उसका 'वर्त्तमान' । हम 'वर्त्तमान' को दो तरीकों से समझ सकते हैं । एक है, अतीत या स्मृति के सन्दर्भ में, और दूसरा है, भविष्य या कल्पना के सन्दर्भ में । लेकिन ये दोनों सन्दर्भ 'वर्त्तमान' के यथार्थ स्वरूप को न सिर्फ हमसे छिपाते हैं, बल्कि हमारे सामने उस यथार्थ 'वर्त्तमान' का एक विरूपित चित्र ही प्रस्तुत करते हैं । वर्त्तमान के यथार्थ को जाने बिना, बिना परखे, और बिना यह जाने कि हमें वर्त्तमान के बारे में वस्तुत: कुछ पता ही नहीं है, हम उस विरूपित चित्र को वर्त्तमान की तरह स्वीकार कर लेते हैं । "
"तो वर्त्तमान के वास्तविक स्वरूप को कैसे जाना जाए ?"
"क्या इतना जानना ही काफी नहीं है कि हम जिसे वर्त्तमान समझकर उससे सुखी-दु:खी, त्रस्त या चिंतित, उद्विग्न, भयभीत या प्रसन्न हैं, वह हमारे अतीत की स्मृतियों और भविष्य की कल्पनाओं से बने चित्र का एक हिस्सा है ?"
वे मुझे अवश्य ही 'कहीं-और' ले जा रहे थे । लेकिन मैं कुछ नहीं कर सकता था । मैं उनका विरोध तक नहीं कर पा रहा था। मुझे याद हो आई सुबह की वह घटना, जो अब 'अतीत' का हिस्सा थी, जो अब स्मृति थी, लेकिन तब, उस समय वह उस गुलमोहर की छाया में कहीं गम थी, जब 'सर' ने मुझे कनखियों से देखा होगा ।
और अब शाम हो रही थी । हम बैठे-बैठे थक गए थे ।
"मैं ज़रा 'फ्रेश' होने जा रहा हूँ, कहकर वे बाथरूम में घुस गए । थोड़ी देर बाद लौटे तो मैं उनकी प्रतीक्षा कर रहा था । शॉवर के नीचे बैठा, तो देह की अकड़न दूर हो गयी । झंझोड़कर मसलकर पूरे शरीर को नहलाया, लग रहा था कि अतीत की धुल भी मेल के साथ-साथ बह रही है । मन यदि मेल-रहित हो तो कहाँ बच पाता है ? पर उसे बुद्धि के दायरे से बाहर ही रहने देना है, -एक ख़याल मुझे सतर्क करता है ।
फिर हम वॉक पर निकले । इस बीच हमने शायद ही एक दूसरे से कोई बातचीत की हो । एक लंबा वॉक करने का इरादा था ।
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February 14, 2010
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