February 16, 2010

उन दिनों -51

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दफ्तर का काम पूरा होने पर दूसरी शाम वापस घर के लिए निकल पड़ा था । पिछले दिन का 'ईवनिंग-वॉक' और रात्रि-विश्राम लगभग शांतिपूर्ण थे । शायद बातचीत से हम थोड़ा थक भी गए थे । या, कुछ और था, जो उनकी बातों के माध्यम से मन को किसी दूसरे आयाम में ले गया था । एक शान्ति और चैतन्य था जो मेरी नींद जैसी स्थिति में भी मानों जागृत था । स्वप्न-रहित निद्रा में मौन के अनुनाद बिखर रहे थे । और क्या कह सकता हूँ ? जैसे जागृति के समय मैं दुल्मोहर के उस वृक्ष के हरेपन को देखते-देखते निर्विचार हो गया था, और विचारों की दुनिया से परे किसी मौन लोक में यात्रा कर रहा था, कुछ-कुछ वैसी ही स्थिति थी मन की । लेकिन सुबह मैं अचानक 'लौट' सकता था, अपनी चिर-परिचित विचारों की दुनिया में और नींद में वैसा होना शायद मुश्किल था ।
ज़िंदगी रोजमर्रा के ढर्रे पर चल रही थी । लेकिन 'सर' के यहाँ बिताया दिन भुलाए नहीं भूलता था । सबसे बड़ी खासियत यह थी कि जब भी मुझे उस दिन की याद आती, मन धीरे-धीरे शांत होता चला जाता, मानों 'सर' ने कोई जादू डाल रखा हो । अपने ही मन से अपनी ही दूरी होने लगी, तो मन का कोलाहल कम होने लगा । कभी लगता कि क्या 'सर' ने कोई 'दीक्षा' दी थी मुझे ? या 'शक्तिपात' किया था मुझ पर ? लेकिन मुझे ऐसा सोचना भी मन की मूर्खता लगती थी । 'सर' कैसे भी हों, मुझे नहीं लगता कि वे ऐसी ऊट-पटाँग हरकतों में दिलचस्पी रखते होंगे ।
लेकिन मुझे इस सबसे कोई शिकायत नहीं थी । पत्नी कभी-कभी मुझे हैरत से देखती । मेरी अपनी बिटिया को फुर्सत नहीं थी कि 'पापा' के बारे में कुछ सोचे । 'पापा' की तुलना में उसका लगाव उसकी माँ से कहीं अधिक था । बेटा नौकरी से लग गया था, और राउरकेला चला गया था । बिटिया की शादी के लिए दौड़-धूप कर ही रहा था, जब एक दिन उसी सिलसिले में 'सर' के गृहनगर जाना हुआ था, और मेरी ज़िंदगी एकाएक ही, अप्रत्याशित रूप से एक नए धरातल पर जा पहुँची थी । तब ख़याल था कि बिटिया की शादी हो जाना ज़्यादा ज़रूरी है । फिर आराम करूंगा । लिखना ? लिखना तो 'सर' के यहाँ से आने के बाद कम होता चला गया था । मुझे लगने लगा था कि क्या लिखना एक शगल ही नहीं था ? क्या होगा लिखने से ? ज्ञानवर्धन ? व्हॉट नेक्स्ट ? 'छपने' की बजाय अब मुझे दुनिया से 'छिपना' ही ज़्यादा उचित और ज़रूरी भी लग रहा था । कई कहानियों के 'प्लॉट' इंतज़ार कर रहे थे अपनी मुक्ति का । और मैं उन प्रेतों को ऊपर टांड पर रखकर अधिक खुश था । पहले सोचता था कि बिटिया की शादी की चिंता से निवृत्त हो जाऊँ, तो आराम से लिखूँगा, -खूब लिखूँगा । आराम ? अभी तो यह लग रहा है कि क्या मैं वाकई आराम करना चाहता भी था ? 'सर' के यहाँ से लौटा हूँ तो सोचने लगा हूँ, 'क्या फर्क पड़ता है ? कहानियाँ लिखूँ, कोई 'सम्मान' पा लूँ, कुछ 'स्टेटस' बना लूँ, या यह सब न भी करूँ तो क्या होना है ? किसी भी चीज़ का क्या मतलब है ? इन चिंताओं का, क्या मतलब है ? जब मैं अतीत को ही नहीं जानता, और भविष्य को भी नहीं जान सकता, तो उस झंझट में पड़ने की ज़रूरत ही क्या है ?' लोगों को भी मेरे बारे में ऐसा ही लगता है , थोड़ी सी बेफिक्री आ गयी है । लेकिन जिसे मैं जानता ही नहीं, उसकी क्या तो फ़िक्र, और कैसी चिंता करना ? वह तो पत्नी की टोकाटाकी चलती रहती है, इसलिए दिखावे के लिए ही सही, चिंताएं 'ओढ़' लेता हूँ । चिंता तो नहीं, लेकिन अनागत की आशंका और अनहोनी के डर से जरूर कभी-कभी व्याकुल भी हो जाता हूँ । कैसी अनहोनी ? कैसा डर ? बेटे का पत्र हफ्ते भर तक न आये तो जी घबराने लगता है । बिटिया के भविष्य का ख़याल भी बीच-बीच में बेचैन कर जाता है । नौकरी करने लगी है, एल आई सी में ट्रेनी ऑफिसर है, अभी छ: माह ही तो हुए हैं ज्वाइन किये हुए !
और जिसका डर था, वही हुआ भी । उसके दफ्तर में काम करनेवाले एक युवक से उसकी घनिष्ठता हो रही है, ऐसा लगा । मैं नहीं जानता बिटिया से क्या कहूँ, उसकी माँ से कहा तो बोली, 'हाँ, मुझे भी लग रहा है, लेकिन क्या कर सकते हैं !'
बहरहाल इन्तज़ार और चिंता के सिवा करने को कुछ था भी नहीं । कुछ समय तक उसके लिए 'प्रपोज़ल' लेकर सुयोग्य वर की तलाश में संभावित स्थानों पर चक्कर लगाते रहे, और इस बहाने यह भी टटोलते रहे कि उसके दिल में क्या है, लेकिन फिर एक दिन पता चला कि उस युवक का ही कहीं किसी दूसरी लडकी से विवाह तय हो गया है, और फिर उसका प्रश्न ही समाप्त हो गया । इस बीच बिटिया को एक लड़का पसंद आ गया, और उसके लिए बात चलाई, और जब उस लड़के ने भी हामी भर दी, तो मैं मानो गंगा नहा लिया ।
लेकिन फिर ? फिर थोड़ा समय और गुज़रा, और अभी मैं दादा या नाना बनता इसके पहले ही एक दिन अनपेक्षित रूप से पत्नी हृदयाघात से चल बसी । नाते-रिश्ते और मित्रों का सहारा था तो जैसे-तैसे उस विपत्ति से उबर पाया । लेकिन हम कितने अकेले हैं, इसका अहसास सर उठाने लगा था । सच, हम भविष्य को, या वर्त्तमान को भी कितना जान पाते हैं ?हाँ, अतीत की किरचों को ज़रूर हथेलियों में तौलते रहते हैं । क्या मैं असंवेदनशील हो रहा हूँ ?या कठोर ? या फिर क्रूर, निष्ठुर, ... ?
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