February 10, 2010

जब भी.

~~~~~~~~~ जब भी ~~~~~~~~
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जब भी पढ़ता हूँ कोई रचना तुम्हारी,
याद आता है नीले आकाश में,
रुई से सफ़ेद बादलों में छिपता-खुलता चाँद ।
जैसे कोई खूबसूरत चेहरा, जो घूँघट की ओट में,
आधा दिखलाई दे, और बाकी झीने से परदे में छिपा होकर भी दिखलाई दे ।
मैं मानता हूँ,
कि ,
हर बार चेहरा दिखलाई भी देता है,
और ओझल सा भी होता है ।
हर बार वही चेहरा,
बदलते झीने पर्दों के पीछे,
बदलता भी ज़रूर रहता है,
फिर भी रहता है खूबसूरत,
- नया,
जाना-पहचाना सा,
और अजनबी सा भी ।
बादलों से आँखमिचौली खेलते चाँद की तरह,
तुम्हारी रचना,
तुम्हारी कल्पना,
तुम्हारी रचना की शैली,
आधी-अधूरी दिखलाई देते हुए भी,
अपने-आप में होती है,
सौन्दर्य का एक अखंड,
-समूचा उपहार !
हर बार दे जाती है,
-एक नई अनुभूति ।
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