~~~~~~~~~ उन दिनों -50 ~~~~~~~~~
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शाम हो रही थी, सूर्य अस्त हो रहा था, शाम के रंग अन्धकार की प्रतीक्षा कर रहे थे । और अन्धकार उनसे खेल रहा था ।
पिछली बार जब 'सर' के घर पहली बार आया था, तो नारायण-मंदिर की पृष्ठभूमि सिंदूरी नहीं थी । उधर पूर्व है । दूसरी तरफ पश्चिम । हम 'सर' के घर से निकलकर पार्क तक चले आये थे । पार्क बहुत खूबसूरत और साफ़-सुथराथा । मौसम स्वच्छ था । पार्क काफी बड़ा था लेकिन संकीर्ण लग रहा था । यदि कभी आपने बिलासपुर(छत्तीसगढ़) के केंद्र में अवस्थित वह पार्क देखा हो, जो सतीश रेस्टोरेंट के सामने थोड़ा आगे चलकर मिलता है, तो आप इस पार्क की कल्पना कर सकते हैं । यहाँ भी सुपारी या / और नारियल के बड़े-बड़े वृक्ष थे, जिनके तने मानों किसी कलाकार ने मशीन से तराशे हों, ऐसा लगता है । तीन-चार छोटे-छोटे पानी के जलाशय या कुण्ड जैसे पात्र थे । मात्र ५ मीटर से लेकर १५ मीटर तक की चौड़ाई वाले । एक लम्बी नहर सी बीचों बीच थी, जो करीब क५ मीटर चौड़ीऔर २० मीटर लम्बी थी । उसके चारों तरफ एक गलियारा था,और गलियारे के दोनों ओर दूसरे भी कई वृक्ष थे । वेकिसी सुनिश्चित क्रम में लगाए गए हों, ऐसा नहीं लगता था । उनके बीच-बीच में दूसरे छोटे कुञ्ज और लताएँ, औरऊँचे-ऊँचे बोगनविला थे, जिन पर 'कागज़' के फूलों की बहार थी । उन्हें देखकर डार्विन की याद आती थी । पत्ते किसप्रकार 'हरे' से बदलकर सफ़ेद, सिंदूरी, किरमिजी, गुलाबी, जामुनी या पीले, यहाँ तक कि नीले भी हो जाते हैं, यहदेखकर 'एवोल्यूशन' के सिद्धांत के जनक की संवेदनशीलता की ओर ध्यान जाना स्वाभाविक ही है । मुझे लगता है, जैसे न्यूटन को 'गुरुत्त्वाकर्षण' के सिद्धांत की खोज की प्रेरणा 'सेब' के टपकने को देखकर हुई होगी, वैसे ही डार्विनजी को 'एवोल्यूशन' के सिद्धांत का ख़याल बोगनविला नामक वनस्पति को देखकर आया होगा । एक कुण्ड में एक सद्यस्नाता पनिहारिन एक घड़ा सर पर और दूसरा बाएँ हाथ के सहारे से कटि पर रखे हुए थी, सर पर रखे घड़े को दाहिने हाथ का सहारा था । दोनों ही घड़े छलक रहे थे, और वह सद्यस्नाता भी फुहारे की बूँदों से और रंगीनजलते बुझते बिजली के बल्बों के प्रकाश से सतत अभिषिक्त हो रही थी । काँस्य-प्रतिमा सी वह पनिहारिन साँवलेरंग की थी, उसके केश खुले और अलकें बिखरी हुईं थी । उसे देखकर आपको किसी कवि की वह पंक्ति अचानक याद आ सकती थी, :
"किसी भाँति ढोती गागर यौवन का दुर्वह भार, "
(यदि मेरी याददाश्त सही है तो यह पंक्ति मैंने मेरी पाठ्य-पुस्तक 'निर्झरिणी' में, श्री रामाधारीसिंह 'दिनकर', श्री सुमित्रानंदन पन्त, या श्री सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' में से किसी एक की कविता में पढी थी । )
मैंने जब कक्षा नौवीं में यह पंक्ति पढी थी, तो उसका अर्थ समझने में कठिनाई आई थी । मैं यह नहीं समझ पा रहाथा कि यौवन-रूपी भार गागर के लिए दुर्वह क्यों है ? फिर मेरे मित्र ने मुझे समझाया था कि गागर कभी बूढ़ी नहींहोती । वह 'युवा' होती है, नाज़ुक होती है, लेकिन कभी भी 'टूट'कर समाप्त हो सकती है। लेकिन आज उस पंक्ति का दूसरा अर्थ अचानक मेरे सामने उस पनिहारिन को देखकर स्पष्ट हो उठा । किसी काले-भूरे रंग की उस प्रस्तर प्रतिमा पर जमी काई उसके शरीर की लज्जा ढँकने के लिए पर्याप्त थी । बच्चे, स्त्रियाँ, पुरुष, हर उम्र और हर भाँति के लोग वहाँ आ जा रहे थे । कोई मनोरंजन के लिए, कोई अकेलेपन से मुक्ति के लिए, कोई गपशप करने, कोई किसी और उद्देश्य से, या निरुद्देश्य ही ।
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>>>>>>>>> उन दिनों 51 >>>>>>>>>
February 16, 2010
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