February 05, 2010

उन दिनों -45.

~~~~ उन दिनों -45. ~~~~~~
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धूप तीखी हो चली तो हम उठ खड़े हुए । उनके 'मैगपाई'-विचार ने मुझे कई कथासूत्र दिए इसमें शक नहीं ।
ड्रॉइंग-रूम में भोजन करने पहुँचे तो भोजन की सुवास से भूख जागृत हो उठी । सादा दाल चाँवल, सब्जी, रोटी, और कढ़ी, पापड़, चटनी, इतना सब कैसे बना लिया होगा उनकी पत्नी और बिटिया ने ? एक स्वीट डिश भी थी, 'कस्टर्ड' की । 'सर' खाने के शौक़ीन हैं, यह तो बता ही चुका हूँ, लेकिन सारा खाना 'सात्त्विक' था । प्याज या लहसुन की गंध तक नहीं थी वहाँ ! और मेरे लिए वह अमृतोपम था । भोजन नहीं, महाप्रसाद कहूँ तो अतिशयोक्ति न होगा । कुछ देर पहले छत पर हुई 'महापूजा' के बाद का 'प्रसाद' । मुझे गीता याद हो आई कि दान-रूपी 'यज्ञ'-कार्य 'अन्न-दान' के बिना 'अपूर्ण' ही होता है ।
भोजन के बाद थोड़ी देर विश्राम कर मैं अपने 'दफ्तर' के कार्य से निकला । उन्हें भी जाना था । मुझे जानकार आश्चर्य हुआ कि आज उन्होंने छुट्टी ले रखी थी !
"क्या मेरे लिए ?", मेरे मन में ख़याल आया ।
जब दो घंटे बाद काम निपटाकर लौटा, तो वे बस दफ्तर से आये ही थे । 'छुट्टी' लेकर भी वे 'दफ्तर' गए थे, और मैं 'दफ्तर' के काम के बहाने से उनके सान्निध्य का लाभ ले रहा था ।
"ट्रेन में हुई अपनी वह चर्चा मुझे काफी उपयोगी प्रतीत हुई । "
-मैंने कहा
"
हम शायद 'नए' और 'पुराने' के बारे में कुछ बातें कर रहे थे । "
-उन्होंने याद दिलाया ।
वे चर्चा को कैसे एकदम भिन्न परिप्रेक्ष्य प्रदान कर देते हैं, यह इसका एक उदाहरण था । मैं उस मुद्दे को नहीं देख पाया था ।
"हाँ, वैसे एकदम उसी के इर्द-गिर्द बातें हुईं हों ऐसा तो नहीं लगता । हमने कुछ दूसरे और भी अधिक महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को भी छुआ था ।"
"हा! जैसे ?"
"मुझे लगता है कि क्या साहित्य में वस्तुत: नए और पुराने के वर्गीकरण का कोई ठोस आधार हो सकताहै ? साहित्य एक जीवंत प्रक्रिया है, -जैसे एक वृक्ष होता है । वह किसी दूसरे की तुलना में नया अथवा पुराना तो हो सकता है, लेकिन जीवन की दृष्टि से जब तक वह सूख कर समाप्त नहीं हो जाता, तब तक यद्यपि वह शिशु, युवा, वृद्ध आदि हो सकता है, लेकिन 'निरंतर', 'अनवरत', 'सतत' होता है । "
"हाँ । "
"इसलिए जब हम 'नया' कुछ लिखते हैं, तो वह किन्हीं अर्थों में तो पुराना ही होता है, लेकिन कुछ दूसरे अर्थों में 'पुराना' भी होता है । "
"हाँ, ऐसा भी कह सकते हैं । "
-वे बोले ।
"फिर क्या किसी और नजरिये से भी इस बारे में विचार किया जा सकता है ?"
"हम क्यों लिखते हैं ?"
मुझसे उनके ऐसे प्रश्न की उम्मीद नहीं थी । मैंने उन्हें थोड़ा विस्मय से देखा ।
"क्या आपको मेरा प्रश्न अनुचित लगा ?"
मैं कुछ न कह सका । वे ही बोले :
"भई एक तो 'लिखना' वह होता है जो जीवन के रोजमर्रा की जिन्दगी के हिसाब-किताब का हिस्सा होता है, जिसे हम साहित्य से अलग मानते हैं । उसे लिखे जाने का तो औचित्य हमें पता ही होता है । दूसरा 'लिखना' शिक्षा से संबंधित होता है, -जैसे अध्ययन अनुसंधान, और किताबें लिखना । तीसरा 'लिखना' शायद हमारी संस्कृति या तहज़ीब का हिस्सा होता है । जिसे हम साहित्य कहते हैं, उसका वास्ता तहजीब या संस्कृति से ही अधिक होता है, ऐसा कह सकते हैं ?"
मैं सुन रहा था ।
"फिर वह 'लिखना' भी होता है, जिसे रूढ़ मुहावरे में 'स्वांत:सुखाय' कहते हैं । (तब कंप्यूटर का प्रचलन नहीं था, और इन्टरनेट या 'ब्लॉग' के बारे में तो लोग जानते भी नहीं थे । ) 'धर्म', 'दर्शन' और 'अध्यात्म' जैसे तथाकथित 'अभौतिक' विषयों पर चिंतन, आदि को भी तो लिखा जाता है !"
"हाँ ।"
"इनमें से जिसे साहित्य कहते हैं, उसे लिखे जाने के पीछे क्या हेतु होता है ?"
"मुझे लगता है कि जब हम कुछ 'लिखना' शुरू कर रहे होते हैं तो हमारे लेखन में बुद्धि का दखल काफी कम होता है । धीरे-धीरे वह दखल बढ़ता चला जाता है, और अंतत: वही हमारे लेखन की दशा और दिशा तय करता है । और यह बुद्धि, ज़रूरी नहीं कि रचनात्मक हो ही । वह किसी 'आदर्श', कौशल, या 'प्रतिबद्धता' से बँधी, आत्मदया या शील से बँधी हो, ऐसा भी हो सकता है । और प्राय: ऐसा ही होता भी है । अभिव्यक्त की छटपटाहट इन सबको 'माध्यम'तो बना लेती है, लेकिन वह अभिव्यक्ति सकारात्मक ही हो यह ज़रूरी नहीं है । "
"याने ? "
"सकारात्मक याने ऐसी कोई गतिविधि, जो स्वाभाविक हो, जैसे वृक्ष बढ़ता है, पक्षी उड़ते हैं, फूल सुन्दर होता है, नदी बहती है, हवा सरसराती है । "
"और ?"
"और तूफ़ान में बड़े-बड़े पेड़ धराशायी हो जाते हैं,शेर गाय, हिरन या बकरी का शिकार करता है, बाज चिड़िया पर झपटता है, ... । "
-मैंने बात पूरी की ।
"इसे आप सकारात्मक कहेंगे ?"
"हाँ, इसमें सकारात्मकता दिखलाई तो नहीं देती, इस दृष्टि से तो वह भयावह भी है, लेकिन वह स्वाभाविक है इससे इनकार कैसे किया जा सकता है ?"
"और गरीबी, मनुष्य के द्वारा भिन्न-भिन्न तरीकों से, धूर्ततापूर्वक, कुटिलता से, या तथाकथित धर्म या वैचारिक भिन्नता के सहारे परस्पर विभाजन पैदाकर राजनीतिक बंटाव के जरिये किया जानेवाला मनुष्य का ही शोषण ? क्या वह भी स्वाभाविक है ?"
"कौन कहता है कि स्वाभाविक है ? या, उसे स्वाभाविक और अस्वाभाविक के बीच बाँटना वैसा ही है जैसे हम साहित्य को नए और पुराने के बीच बाँटें । "
-मैंने उत्तर दिया ।
"व्यवस्था, । "
-वे बोले ।
"क्या समाज एक स्वाभाविक गतिविधि नहीं है ?"
-मैंने पूछा ।
"हाँ । "
"और 'विचार' का 'विकास' ? "
"वह भी स्वाभाविक है । "
"और 'विचार' पर आधारित मानव-समाज की अराजक 'व्यवस्था' ? "
"यहाँ हम सावधानी से देखें । एक ओर तो आप 'अराजक' कह रहे हैं, दूसरी ओर इसे 'व्यवस्था' भी कह रहे हैं । फिर 'व्यवस्था' के बारे में सोचें तो वह अपने-आपमें एक अत्यंत जटिल चीज़ है । इसे आप पुन: इसके कई पहलुओं से देखें, तो इतिहास, परम्परा, मनुष्य की और उसके मस्तिष्क की जैव-संरचना, आदि सब इस 'व्यवस्था' के मूल में हैं । इन सारे पहलुओं के साथ किसी 'व्यवस्था' पर सोच पाना मुमकिन भी है ?"
मैं हतप्रभ था । जिस आधारभूमि पर मेरा चिंतन संभव था, 'सर' उस की विश्वसनीयता पर ही प्रश्न-चिन्ह लगा रहे थे ।
"क्या 'व्यवस्था' का विचार ही एक विसंगति नहीं है ?"
मुझे उनका प्रश्न समझने में बहुत मुश्किल हुई । मैं इसलिए बस उनके अगले वाक्य की प्रतीक्षा करने लगा ।
"हम 'व्यवस्था' को अपने-अपने ढंग से देखते हैं, और चूँकि हर किसी की दृष्टि में 'व्यवस्था' की एक लगभग 'तय' कल्पना है, इसलिए हम समझते हैं कि सभी एक ही 'व्यवस्था' के बारे में बातचीत कर रहे हैं । जैसे सूरज, चाँद, धरती, मनुष्य, प्रकृति, आदि वास्तविक 'तथ्य' हैं, जिनके संबंध में सब सामान रूप से सोच-विचार और व्यवहार भी कर सकते है, क्या 'व्यवस्था' ऐसी कोई 'तथ्यात्मक वास्तविकता' (objective reality) है ?"
अब मेरा ध्यान उस तात्पर्य की ओर गया कि 'व्यवस्था' एक 'तथ्य' भले ही हो, लेकिन उसके बारे में हर किसी का बोध अलग-अलग होता है । और इसलिए 'व्यवस्था' को सुधारने या बदलने में भले ही कुछ या सारे लोग भी राजी क्यों न हो, वह बदलाव भी सबकी दृष्टि में अलग-अलग होता है, और इस विसंगति पर शायद ही कोई कभी गौर करता है । उन्होंने मेरे 'सामाजिक सरोकारों' की नींव ही हिला दी थी । 'प्रतिबद्धता' जैसे आदर्श शब्दों की अर्थहीनता मुझे स्पष्ट हो चली थी ।
"हम विचार के विकास की बात कर रहे थे । "
-वे मुझे लौटा लाए । मानों मैं भटक गया था, और मुझे ख़याल तक नहीं रह गया हो ।
"हाँ, मैं मानता हूँ कि 'विचार' का विकास एक स्वाभाविक सोपान है मनुष्य के जीवन के विकास की प्रक्रिया के अंतर्गत । "
"तो क्या हम यह नहीं देख सकते कि 'विचार' के प्रयोग का दायरा एक सीमा तक होता है ?"
मैं पुन: अटक गया था । ठिठक भी गया था ।
"जहाँ तक 'विचार' के उपयोग या प्रयोग का प्रश्न है, शुद्धत: तकनीकी विषयों में उसकी उपयोगिता निस्संदेह अपरिहार्य है, लेकिन जहाँ प्रश्न 'संवेदनशीलता' का आता है, क्या उस तत्त्वअ पर 'विचार' का कोई नियंत्रण हो सकता है ? क्या 'विचार' और 'संवेदनशीलता' एक दूसरे से बहुत भिन्न-भिन्न प्रकार की चीज़ें नहीं होतीं ? यह ठीक है कि संवेदनशीलता होने पर 'विचार' कार्य में प्रवृत्त हो उठे, या 'विचार' के माध्यम से संवेदनशीलता जागृत हो उठे, लेकिन क्या उन दोनों के मौलिक कार्यक्षेत्र एक दूसरे से बहुत भिन्न प्रकार के नहीं होते ? हो सकता है कि एक बहुत चिंतनशील व्यक्ति संवेदनशीलता से रहित हो, -जैसे एक वैज्ञानिक या गणित का प्रोफ़ेसर, दूसरी ओर एक अनपढ़ व्यक्ति अत्यंत संवेदनशील हो ! हाँ सामान्यत: तो कोई ऐसा मनुष्य शायद ही होता हो जो केवल चिंतनशील या केवल संवेदनशील होता हो । "
मैं पुन: श्रोता-मात्र था ।
"अधिक स्वाभाविक क्या है ? 'चिन्तनशीलता या संवेदनशीलता ?"
अब कहने के लिए क्या था मेरे पास ?
सुबह का सूर्योदय, दोपहर के पहले का छत पर हुआ वह 'अनुभव', जो अनुभव की बजाय 'तथ्य' था, -एक अखंड, मुकम्मल यथार्थ , उसके बाद उस 'कहीं-और' से लौटना, जब बिटिया गमले की पत्तियों को यूँ ही सहला रही थी, और अब हुई यह चर्चा ! इस चर्चा के अंत में हालाँकि बहुत हल्का अनुभव कर रहा था, लेकिन 'बौद्धिक-गौरवानुभव ' (Intellectual Gratification) से फूले-फूले रहते हुए अपनी 'अस्मिता' की पहचान और साहित्यकारों की अपनी उस पहचान को बनाए रखने की ज़द्दो -ज़हद आदि का खोखलापन अवश्य मुझे दाँत दिखा रहा था ।

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