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------'वैयक्तिक' और 'निर्वैयक्तिक'----------
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ईश्वर ?
"निर्वैयक्तिक एक कल्पना है, ऐसा प्रतीत होता है, जबकि 'वैयक्तिक' के बारे में संदेह तक नहीं किया जा सकता, क्योंकि 'संदेहकर्त्ता' या 'संदेह' न करनेवाला भी तो कोई व्यक्ति ही होगा !"
"ठीक है, लेकिन वह व्यक्ति सचमुच है भी, या एक कामचलाऊ, औपचारिक अस्तित्त्व रखनेवाली कोई 'फंक्शनल'चीज़ भर है , -a nominal facility, and not a reality ? क्योंकि व्यक्ति में भी मूलत: 'जानने' का ही तत्त्व स्मृति को बाँधे रखने के लिए कारण होता है । 'स्मृति' अर्थात् ज्ञात, याने मस्तिष्क में संग्रहीत 'जानकारी' । उसी 'जानकारी' में उस 'जानकारी' को इस्तेमाल करनेवाले उसके एक कल्पित स्वामी के होने का ख़याल पैदा होता है । हाँ, उसका कोई स्वामी होता तो है, लेकिन वह स्वामी स्वयं कभी ऐसा कोई दावा नहीं करता, और जो ऐसा दावा करता है, वह है बस विचारों के सातत्य से उत्पन्न होनेवाले 'अपने' व्यक्ति होने का भ्रम । इस भ्रम के सतत साए में चल रहे विचारों का बनता-टूटता क्रम, अपेक्षतया बिखरा-बिखरा होता है । किन्तु यह भ्रम भी सदैव नहीं बना रहता, यह भी 'ज्ञातृत्त्व' अर्थात् सहज बोध के प्रकाश में बार-बार प्रकट और विलुप्त होता रहता है । क्या 'ज्ञातृत्त्व'-रूपी वह प्रकाश 'वैयक्तिक' होता है ? उसकी स्थिर पृष्ठभूमि यद्यपि स्वत:सिद्ध और स्व-आश्रित है, और इसलिए उसे 'जाननेवाला' उसके सिवा कोई 'और' नहीं होता, लेकिन 'स्मृति' उससे स्वयं की स्थिरता ग्रहण कर लेती है । और अपने एक 'व्यक्ति' होने का भ्रम भी, (जो विचार ही तो है,) स्मृति का आभासी केंद्र प्रतीत होने लगता है । और यह आभास होने लगता है कि मेरा जन्म हुआ, मेरा पिछ्ला जन्म रहा होगा, ... आदि-आदि ।
जैसे अनेक बिन्दुओं को पास-पास रखने पर वे एक रेखा होने का आभास पैदा करते हैं, -कुछ इसी तरह । रेखा एक निष्कर्ष है, और उस रेखा का उपयोग भी है, लेकिन इससे उसकी अपनी स्वतंत्र सत्ता है, ऐसा कहना तो गलत होगा ।
क्या इसी प्रकार से स्मृति की निरंतरता और स्मृति द्वारा दर्शाई जानेवाली चीज़ों की आभासी निरंतरता से ही, उनके एक 'विशिष्ट स्वामी' के होने का, और 'अपने' को उस 'स्वामी' की भाँति स्वीकार कर लेने का , अपने को एक विशिष्ट व्यक्ति मान लेने का ख़याल नहीं पैदा होता ? क्या ख़याल सचमुच ऐसे किसी विशिष्ट व्यक्ति को जानता/महसूस,या अनुभव करता है ?
संक्षेप में कहें, तो ज्ञातृत्त्व का वह 'प्रकाश' ही वह निरंतर, व्यवधानरहित तत्त्व है, जिसका किसी भी तर्क या तरीके से निषेध नहीं किया जा सकता । इस दृष्टि से 'जानना' अर्थात् 'ज्ञातृत्त्व' 'व्यक्ति' के उद्गम से भी पूर्व है । या कहें, उस 'जानने' के ही अंतर्गत व्यक्ति और वैयक्तिकता की कल्पना संभव होती है । "
"क्या इस 'ज्ञातृत्त्व' को 'ईश्वर' कहा जा सकता है ?
कौस्तुभ के मन में प्रश्न उठा ।
अभी हम और बातें कर सकते थे, लेकिन किसी कारण से वह चर्चा वहीं रुक गयी थी ।
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>>>>>>>>> उन दिनों -55>>>>>>>>>
February 20, 2010
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