-------सृजनात्मकता और ऊब------
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मेरी डायरी से :
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मुझे वह दिन याद हो आया जब मैं उनके घर पर बैठा उनसे चर्चा कर रहा था । कला की और 'रचनात्मकता' की, सृजनात्मकता की । मैं कह रहा था,
"क्या कला और साहित्य मनुष्य को सृजनात्मक नहीं बनाते ? क्या कला और साहित्य की समझ मनुष्य की चेतना को समृद्ध नहीं करते ?"
"क्या सचमुच ?"
मुझे सहसा विश्वास नहीं हुआ कि इस बारे में उनका ऐसा दृष्टिकोण होगा ।
"हमें पहली नजर में ऐसा ही लगता है, लेकिन मुझे लगता है कि ऐसा है नहीं । वास्तव में यदि आपमें सृजनात्मकता है, तो आप जो कुछ भी करेंगे उस सबमें सृजनात्मकता का सौन्दर्य अनायास ही परिलक्षित हो उठेगा, और उससे आप किसी अन्य उद्देश्य की प्राप्ति का विचार तक नहीं करेंगे । लेकिन यदि आपमें सृजनात्मकता है ही नहीं, और आप शायद श्रम से या अभ्यास से कोई कौशल हासिल कर भी लेते हैं, तो फिर आप उस कौशल को और अधिक बढ़ाकर उसके ज़रिये जीवन में दूसरी चीज़ों की प्राप्ति करने को ही ध्येय बना लेते हैं । भले ही उसे आप 'साधना','तपस्या', 'देशसेवा', या 'मानव-सेवा', 'आदर्श के लिए समर्पण' जैसे सुन्दर-सुन्दर शब्द देकर अपने-आपको गौरवान्वित महसूस करते रहें । आपको 'पुरस्कारों', 'प्रतिष्ठा' आदि मिलने की आतुरता होने लगती है । और ज़ाहिर है कि ये सब चीज़ें आपको वास्तविक सृजनात्मकता से दूर ही ले जाती हैं । आप तब 'सफलता' पाने को ही ध्येय बना लेते हैं, और तब यह देखना बहुत मुश्किल हो जाता है कि आप सृजनात्मकता को समझते भी हैं या नहीं । और यदि आपमें सृजनात्मकता नहीं भी है, लेकिन आप अपने-आपको समझते हैं, आपको क्या करना स्वाभाविक रूप से ही अच्छा लगता है, यदि आपमें जीवन के प्रति संवेदनशीलता है, तो आप वही करेंगे, जो आपको तत्काल ही ज़रूरी महसूस होता हो । एक सृजनशील साहित्यकार या कलाकार सृजन से अपने प्रेम के ही कारण कुछ रचता है । उसका यह उद्देश्य कभी नहीं होता कि उसकी रचना के ज़रिये उसे 'पहचान' मिले, सम्मान या पैसा, पद-प्रतिष्ठा आदि मिले । लेकिन हम सोचते हैं कि कलाकार को, साहित्यकार को सम्मान क्यों नहीं मिल रहा है ? और इसीलिये 'राजनीति' साहित्यकार को, कलाकार को खरीद लेती है । 'राजनीति' अर्थात् राजनीतिक लोग, नेता, -जिनका व्यवसाय ही है राजनीति । लेकिन जो वास्तव में सृजनशील है, वह कभी ऐसे लोगों के धोखे में नहीं आयेगा । ''
''लेकिन कभी-कभी ऐसा भी तो होता है कि कोई व्यक्ति वास्तव में 'सृजनात्मक' प्रवृत्ति का होते हुए भी अभिव्यक्ति करने की क्षमता से अपने-आपको संतोषजनक रूप से सक्षम नहीं अनुभव करता । तब उसके लिए अभिव्यक्ति का माध्यम एक ऐसा क्षेत्र होता है, जहाँ उसे और अधिक श्रम करने की आवश्यकता अनुभव होती है, सृजनात्मकता से अपने प्रेम की तीव्रता ही उसे उस श्रम में संलग्न होने की प्रेरणा देती है । ''
''हाँ, लेकिन तब उसके द्वारा किये जानेवाले श्रम में एक उल्लास होता है, ऊब या मजबूरी नहीं होती । क्या वह उल्लास भी सृजनात्मकता का ही एक समवर्ती तत्त्व नहीं है ? दूसरी ओर, कभी-कभी सिर्फ अपने-आपको स्थापित करने की ललक से प्रेरित होकर मनुष्य कुछ ऐसा कर बैठता है, जिसमें केवल तनाव, सफलता का उन्माद, या प्रतिद्वंद्वियों पर विजय का दंभ ही प्रेरक तत्त्व होता है । क्या उसे सृजनात्मकता कहेंगे ? क्या उस मन:स्थिति से उबरे बिना वास्तविक सृजन संभव भी होता है ? उस मन:स्थिति में तो व्यक्ति प्राय: सिर्फ अपने खालीपन से भागने या उस भरने के लिए ही कुछ करने की चेष्टा में लग जाता है । परिणामत: एक थकान, अवसाद और सफलता/असफलता के संबंध में संशय-ग्रस्तता पैदा हो जाती है । क्या उसे सृजनात्मकता कहेंगे ?''
वे ऊब और खालीपन पर से आवरण हटा रहे थे । वे मेरा ध्यान इस ओर आकृष्ट कर रहे थे कि जिसे मैं सृजनात्मकता कह रहा हूँ, उसके बारे में पहले मुझे ठीक से जान-समझ लेना अधिक महत्त्वपूर्ण है ।
''लेकिन क्या सृजनात्मकता की अभिव्यक्ति न हो पाने से पैदा होनेवाली व्याकुलता भी सृजनात्मकता की गतिविधि का ही हिस्सा नहीं होती ?''
-मैंने पूछा ।
''ज़रूर हो सकती है, लेकिन तब उसका मतलब शायद यह होता है कि उसे व्यक्त होने के रास्ते में कोई रुकावट है, और तब सृजनात्मकता केवल इसी उद्देश्य से प्रेरित होती है कि उस रुकावट को कैसे दूर किया जाए ।
लेकिन जब सृजनात्मता सचमुच भीतर से ही उमगती है, तो वह बाहर के किसी अवरोध से बाधित नहीं होती । क्या तुलसीदास, कालिदास, कबीर, मीरा, वाल्मीकि, आदि ने कला या साहित्य का प्रशिक्षण किसी स्कूल में पाया था ? क्या उन्होंने यश, धन, प्रसिद्धि या प्रतिष्ठा पाने के ध्येय के लिए श्रम किया था ?
ऐसे कई महान साहित्यकार, वैज्ञानिक, चित्रकार, संगीतकार, गणितज्ञ, आदि हुए हैं, और इसके थोड़े से नहीं बल्कि अनगिनत उदाहरण हैं, जिनमें सृजनात्मकता थी, और अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में भी उसने अपनी राह खोज ली । उन्हें न तो धन की कामना थी, न यश की । क्या वे ऊबते थे ? क्या वे निराश होते थे ? क्या वे किसी उद्देश्य के लिए दृढ श्रम करते थे ? नहीं, यह तो उनकी आतंरिक सृजनशीलता का जीवट ही था, उल्लास ही था कि वे दीन-दुनिया की सुध-बुध भूलकर अपने कार्य में डूब जाते थे । ''
इस पर और सोचना है,
मैंने डायरी में स्केच-पेन से बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था ।
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>>>>>>>>>उन दिनों -58>>>>>>>>>>>
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