March 09, 2010

उन दिनों -60.

~~~~~~~~ उन दिनों -60~~~~~~~~
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''मुझे लगता है कि किसी कुँए को खोदते हुए जब जल का झरना मिल जाता है, और हम उसका उपयोग करते हुए उससे और भी अधिक जल प्राप्त करने लगते हैं, उसकी अधिकतम क्षमता तक उसका दोहन कर सकते हैं, रचनात्मकता कोई ऐसी ही चीज़ होती हैजब एक शिशु संसार में आता है, तो वह जीवन से ओत-प्रोत होता है, वह अनायास सीखता है, वह ऊबता नहींउसके लिए सब-कुछ नया नया होता है, जीवित रहने के खतरे अभी उसे खतरे नहीं, चुनौती लगते हैं, लेकिन उस जीवन के सहज स्रोत को हम धीरे-धीरे हमारे तथाकथित ज्ञान से, शिक्षा से, धर्म और मान्यताओं से आच्छादित कर देते हैं, धीरे-धीरे वह आँच मद्धिम पड़ जाती है, हम उसे उद्दीप्त नहीं रहने देते, शिक्षा और संस्कार देने के नाम पर हम शिशु में सहज विद्यमान जिज्ञासा को किसी विशिष्ट ढाँचे मोड़ने लगते हैं, उसके प्रवाह को नियंत्रित करने लगते हैंधीरे धीरे वह एक पुनरावृत्तिपरक यंत्र भर बनकर रह जाता हैहम उसे स्वतंत्र रूप से जीवन को देखकर, और फिर उस बारे में 'सोचना' नहीं सिखाते, बल्कि हम उसे पहले 'सोचना' सिखा देते हैं, कोई मान्यताएँ उसके अबोध मस्तिष्क में जमा कर देते हैं, और बाद में वह उन्हीं के माध्यम से जीवन को समझने और जीने की कोशिश करने लगता हैअपने चारों ओर के जीवन के प्रति उसकी स्वाभाविक जिज्ञासा हमारे द्वारा उस पर आरोपित की गयी इच्छाओं और लक्ष्यों के नीचे, हमारे द्वारा थोपे गए तथाकथित श्रेष्ठ आदर्शों, और जीवन-मूल्यों के तले दब कर जाने कहाँ खो जाती हैफिर वह
''ईश्वर क्या है ?''
इसका पता लगाए बिना ही
''ईश्वर है या नहीं ?''
के बारे में घनघोर चिंतन और वाद-विवाद में व्यस्त हो जाता है
फिर वह एक प्रतिष्ठित धर्मगुरु या विचारक भी हो जाता है, लेकिन
''ईश्वर क्या है ?''
इस बारे में सदैव संदेहग्रस्त बना रहता है । ''
-वे चुप हो गए
''हम ऊब के बारे में चर्चा कर रहे थे
-मैंने उनकी चुप्पी तोड़ी
''जैसा मैंने कहा, ऊब का एहसास होना भी एक उल्लास का कारण है, एक शुभ संकेत है कि हममें विद्यमान जीवन अभी भी दस्तकें दे रहा हैहममें मौजूद रचनात्मकता हमें झंझोड़कर जगा रही है, हममें अवस्थित जीवन अर्थात संवेदनशीलता सारे दबावों को तोड़कर बाहर आने की, व्यक्त होने की चेष्टा कर रही हैअगर हम स्थापित तरीकों से उससे भागें नहीं, किसी कार्य में अपने को झोंककर समय काटने का तरीका खोज लें, वर्केहोलिक न बन जाएँ, तो हम ऊब के कारण और औचित्य को समझने की कोशिश कर सकते हैंसमाज और संसार द्वारा हम पर थोपे गए जीवन-मूल्यों, लक्ष्यों आदि से मुक्त रहते हुए जीवन के सहज उत्स के स्वरूप के प्रति जाग सकते हैंहम अपने मन-मस्तिष्क से उस सारे कचरे को निकालकर पुन: बालसुलभ निश्छल चित्त से युक्त एक प्राकृत मनुष्य-मात्र बनकर इस संसार में जी सकते हैं
इसलिय ऊब हमारा ध्यान इस सच्चाई की ओर आकर्षित करती है कि हममें रचनात्मकता का पूर्ण अभाव हो जाए, यह तो असंभव हैक्योंकि उस स्थिति में या तो हम मृत, या मृतप्राय होते हैंहो सकता है कि हम किसी नशे में, अपने को डुबाये रखें, वह नशा कौन सा है इससे कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता, वह किसी नशीले द्रव्य का नशा हो सकता है, जो हमें क्रमश: असंवेदनशील बना देता है, और फिर उसकी 'तलब' बार बार होने लगती हैनशीले द्रव्यों के सेवन से कैंसर होने का एकमात्र मुख्य कारण तो यही हैउनके द्वारा मनुष्य अपनी संवेदनशीलता को मारता रहता है, किसी 'थ्रिल' या 'किक' की अपेक्षा में जिसे वह जोश भी समझ सकता है, उत्तेजना भी समझ सकता हैवह ऊब का सामना करने से बचने की कोशिश में किसी भी 'मनोरंजन' का सहारा ले सकता है, जो अंतत: उसे थका देता है, या ऊब से दूर होने का एक वहम भर पैदा करता हैअपने लिए, या अपने धर्म देश, जाति या समाज के लिए, शक्ति की, पैसे की, सत्ता की, चाह भी उसे कार्य के नशे की ओर धकेल दे सकती है, सफलता के नशे का 'मद' भी उसे असंवेदनशील बनाता है, और 'असंवेदनशीलता' का यह दुश्चक्र धीरे धीरे उसे विनष्ट कर देता हैरचनात्मकता के कुंठित होने का क्रम तो बचपन से ही शुरू हो जाता है, जब हमें दुनिया, माता-पिता, हमारे बुज़ुर्ग या शिक्षक 'सपने' दे देते हैं । 'यह बनो, वह मत बनो ! ऐसा करो, वैसा मत करो ! वे हमें इसके लिए कभी नहीं कहते कि पहले हम,
''हम क्या हैं ?''
इसे ठीक-ठीक जानने समझने की कोशिश करें
इसमें उनका कोई दोष भी नहीं है, क्योंकि परंपरा से उन्हें भी इसी प्रकार से सिखाया जाता रहा है, और लगभग पूरी दुनिया में ऐसा ही चलता चला आया हैइस समूची परंपरा ने हमें युद्ध और विघटन, लोभ और भय दिए हैं, और ऐसी अनगिनत समस्याएँ भी दी हैं, जिनसे टकराते टकराते हुए, हम समाप्त हो जाते हैं ।''
अब जाकर मैं समझ सका कि कला या साहित्य के क्षेत्र में अपनी तथाकथित प्रतिभा के आविष्कार और उपयोग करने को वे बंधन क्यों कह रहे थेरचनात्मकता या सृजनात्मकता का अर्थ उनकी दृष्टि में क्या हो सकता है, इसका कुछ आभास भी मुझे हुआज़ाहिर है कि 'रचनात्मकता' जहाँ मेरे लिए एक शब्द भर था, उनके लिए वह वैसा कोरा एक शब्द भर नहीं थावे उसे 'जी' रहे थेअपनी साहित्यिक गतिविधियों को जारी रखते हुए शायद मैं संसार में एक स्थापित साहित्यकार भले ही हो जाता, लेकिन वस्तुत: तो मैं उस जीवनी-शक्ति से दूर ही दूर होने लगता, जो कि मूलत: स्वतंत्र है, -स्वतंत्र और उद्दाम ! हाँ, उन्होंने मुझे उस खतरे से बचा लिया थाजबकि पहले मुझे लग रहा था कि असली ख़तरा तो आनेवाला है
यूँ एक तरह से यह सब खतरनाक मामला था, लेकिन बहुत खूबसूरत था यह ख़तरा
''देखिये, रचनाधर्मिता और रचनात्मकता भी जीवन की ही अभिव्यक्ति है, लेकिन प्रश्न है प्रामाणिकता कादोहराव तो यंत्र भी कर लेते हैंजिस सृजन में सिर्फ दोहराव है, उसे रचनात्मक या रचनाधर्मी कैसे कह सकते हैं ? यदि आप कला, साहित्य आदि के क्षेत्र में कुछ करने से एक गहरा संतोष पाते हैं, -इतना गहरा कि तब मृत्यु आपके लिए अर्थहीन हो जाए, संसार के सारे सुख, उपलब्धियाँ तुच्छ हो जाएँ, तो वैसी रचनात्मकता अवश्य ही प्रामाणिक होगी, नहीं तो उस सब के ज़रिये तो आप बस और ज़्यादा सफलता, सुख, पहचान, प्रतिष्ठा, और व्यस्तता ही पाने की कोशिश में लगे रहकर एक दिन सचमुच मर जाएंगेऔर एक दिन क्यों, आप तो प्रारंभ में ही मर चुके होते हैंइसलिए आप ऊबते हैं, -इस सबके मिल जाने के बावजूदजीवन की लौ टिमटिमाती रहती है, और एक दिन वह पूरी तरह बुझ जाती है, बस यही छोटा सा फर्क हैजीवन विदा हो जाता है

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