~~~~~~~~~~ उन दिनों -62~~~~~~~~~
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उनसे मैंने तमाम बातें की हैं, -दुनिया भर की, सुख-दुःख की, पाप-पुण्य, धर्म और धर्मों की, राजनीति और राजनेताओं की, नैतिकता, दर्शन-शास्त्र, मनोविज्ञान, साहित्य और साहित्यकारों की, कला और कलाकारों की, इतिहास की, तंत्र, योग और भगवानों, बाबाओं, स्वामियों, ज्ञानियों, अज्ञानियों, और तथाकथित ज्ञानियों के बारे में भी, बहुत सी चीज़ों के बारे में उन्हें कुछ भी नहीं पता, और वे इसे स्वीकार भी करते हैं, उन्हें कुछ जरूर पता है, जिसके बारे में उपनिषद कहते हैं, ;
''जिसे जानने पर जानने के लिए और कुछ शेष नहीं रहता । ''
छान्दोग्य-उपनिषद् में श्वेतकेतु को इस बारे में पूछा और उपदेश दिया गया ।
(उन दिनों -63 देखें । )
वे भी जानते होंगे, वे कभी उल्लेख नहीं करते, पर मेरा ख़याल है कि उन्होंने कभी अध्ययन अवश्य किया होगा ।
ज्योतिष, चमत्कारों, हिप्नोटिज्म, अतीन्द्रिय-ज्ञान आदि के बारे में, तंत्र के बारे में वे कहते हैं कि उन्हें कभी दिलचस्पी तक नहीं हुई । चायनीज़ मेडिसिन, फेंग-शुई, तिबेटन-बुद्धिज्म, के बारे में भी उन्हें शायद कोई दिलचस्पी नहीं है । वेदान्त, भक्ति, सूफिज्म, पौराणिक विषयों से भी वे बहुत अभिगि नहीं हैं, नाथपंथ की शिक्षाओं, कबीर या दूसरे ऐसे रहस्यवादियों की उलटबांसियों के बारे में पूछने पर वे बस उत्सुकता से देखते भर रहते हैं ।
सचमुच वे इतने सहज और निर्लिप्त हैं कि मुझे उनसे रश्क होने लगा । रश्क की बजाय एम्युलेशन कहना ज़्यादा मुनासिब होगा । वे इतने सरल हैं, कि बहुत देर बाद ही मुझे अपनी तुच्छता का एहसास हो सका । वे केवल विनम्रतावश ही सारी बातें कर रहे थे, और लगता था कि उन्हें उन बातों में दिलचस्पी भी है, लेकिन बस वहीं तक । उन्हें कोई अपेक्षा नहीं थी, बतलाने के लिए उनके पास कोई अनुभव या सिद्धांत नहीं थे, -ऐसा वे कभी-कभी इशारे से या गिने-चुने शब्दों में भी कह देते थे । हर बात की समाप्ति पर उनकी आँखें वैसी ही शांत और स्नेहशील रहतीं थीं, जैसी कि शुरुआत में होतीं थीं । वहाँ न अपेक्षा थी, न शिकायत, न दु:ख, न कामना, न आग्रह । अपनत्त्व ज़रूर था, लेकिन नि:स्पृहता भी थी, विनम्रता थी, लेकिन दीनता नहीं थी, गर्व या अधिकार भावना भी नहीं थी । जो था, प्रकट था, -बनावटीपन नहीं था । सब-कुछ अनायास, संतुलित, और सहज ।
''हम बचपन में ''चंदामामा'' पढ़ा करते थे, आपने भी पढ़ा ही होगा । ''
''हाँ, ''
मैंने उत्तर दिया ।
''उसमें वेताल-कथा होती थी, 'बेताल-पच्चीसी' जैसी कोई नई कहानी, -सन्दर्भ वहीं से लिया जाता था कि राजा शव को कंधे पर लादकर श्मशान की ओर चल पड़ता है, तब शव में स्थित वेताल कहता है, :
'हे राजन ! तुम जिस प्रकार इतना श्रम कर रहे हो, उसे देखकर मुझे राजा सूर्यविक्रम की कथा याद आ रही है, यदि तुम्हें आपत्ति न हो तो मैं सुनाऊँ ? इससे तुम्हारे श्रम में तुम्हारी थकान कुछ दूर होगी ।
... ...
और कहानी के अंत में कोष्ठक में 'कल्पित' लिखा होता था ।
इसी प्रकार कुछ धारावाहिकों, जैसे 'कपाल-कुण्डला' में, 'दुर्गेश-नंदिनी' में, तथा अंत में कोष्ठक में लिखा रहता था, ''...और है । ''
वे उत्साह से कहते हैं ।
'पराग में धर्मयुग में, और दूसरी पत्रिकाओं में भी, जब धारावाहिक कथा या उपन्यास का प्रारंभ होता था,
तो,
'अब तक आप पढ़ चुके हैं ....'
और फिर,
'गतांक से आगे ...'
होता था ।
वे मुझे बचपन में लौटा लाये थे ।
''तो ?''
-मैं पूछ बैठा ।
''कुछ नहीं, अपनी चर्चाएँ भी शायद उसी तरह हुआ करती हैं । ''
वे मंद-मंद मुस्कुराते हुए आज की चर्चा की भूमिका बाँधते हुए बोले । सामान्यत: वे कम बोलते थे, लेकिन यदा कदा उनमें कुछ ऐसा भी नज़र आता था जिसे उन्होंने हृदय में छिपा रखा हो, और उसे किसी से बाँटने में वे उत्सुक हों । क्या यह 'दु:ख' था ?
मैंने उनसे पूछा भी था । और उन्हें एक मौक़ा मिला कि मुझसे कुछ कहें, -ऐसा कुछ जिसे इससे पहले उन्होंने शायद ही किसी और से कहा हो ।
''अजय की मृत्यु से दु:ख उपजा था, लेकिन मैंने वह दु:ख किसी से शेयर नहीं किया, बाँटा नहीं, और मुझे एक दिन अचानक ही पता चला, '-वन फाइन मॉर्निंग' आय डिस्कवर्ड, कि हम दु:ख को भी सिर्फ इसलिए पाल रखते हैं, कि उसके बहाने अपना अस्तित्त्व जारी रखें । ''
वे क्या कह रहे थे, देर तक मैं कुछ भी न समझ सका ।
''दु:ख के बहाने हम अपने झूठे 'मैं' को, -अपने 'होने' के भ्रम को पुख्ता बनाए रखते हैं । ''
दो मिनट इंतज़ार करने के बाद शांत स्वरों में वे बोले ।
मैं सचमुच स्तब्ध रह गया था । वे पागल नहीं थे, उनकी वाणी और शब्दों, उनके द्वारा बोले जा रहे शब्दों और उनके तात्पर्य में न तो बौद्धिक दुरूहता थी और न विसंगति ही थी । वे मुझे कोई नया या पुराना सिद्धांत भी नहीं समझा रहे थे । उनके शब्दों को सुनने के लिए सचमुच बहुत धैर्य की जरूरत थी, और साथ रहते हुए मैं जिसे सीख भी रहा था । ''अपने होने का भ्रम ''
-वे बोले ।
''अब यदि ऐसी बातें मैं किसी से कहूँ तो लोग मुझे पागल ही समझेंगे न ?''
-उन्होंने सरलता से पूछा ।
''आपको भी शायद मेरी बातों से ऐसा ही महसूस हुआ हो तो मुझे आश्चर्य नहीं !''
उन्होंने बालवत उत्सुकता से प्रश्न किया । फिर बोले,
'' लेकिन मुझे होश न था, 'सोचना'बंद हो गया था, उदासी का ज्वार बढ़ते-बढ़ते जब चरम पर पहुंचा तो मैं न था । ''
''आप नहीं थे ? -क्या मतलब ?''
-मैंने अचकचाकर पूछा ।
''नहीं, मैं किसी समाधि या बेहोशी, मूर्च्छा या कल्पनालोक में भी नहीं था । ''
''और दुनिया थी तब ?''
-मैंने साहस कर पूछा ।
उन्होंने मुझे कोई जवाब नहीं दिया । वे 'अपने होने के भ्रम ' के बारे में बतलाने लगे थे :
''सचमुच हम अपने होने के भ्रम से किस बुरी तरह ग्रस्त हो जाते हैं ! लेकिन ऐसा कहना भी अपने-आपमें एक विरोधाभासपूर्ण वक्तव्य ही होगा न ? अजय की मृत्यु के बाद बिटिया की शादी और उसके बाद में जो शून्यता आई, उसे भरने के प्रति उत्साह तो दूर, मुझमें कोई उत्सुकता तक नहीं थी । और तब मुझे बरसों पुरानी घटना याद हो आई थी, -अजय की मृत्यु के समय की, उससे पैदा होनेवाले दु:ख की, उस दु:ख को गले लगाकर जीते रहने की ।''
वे कुछ रूककर बोले,
'' - मतलब अपने होने के भ्रम को पुख्ता करते रहने की और दु:खी रहने में अपने होने के इस भ्रम की निरंतर पुष्टि करते रहने और एक विचित्र किस्म की संतुष्टि पाते रहने की ।''
''यह एक ही समूची घटना थी । ''
-वे बोले ।
''फिर /''
''इसी बीच मैंने उसी विचित्र मन:स्थिति के दौरान वह विज्ञापन अखबार में प्रकाशित करवाया था । ''
''कौन सा विज्ञापन ?''
वे मुझे एकटक देखते हुए बोले,
''वही, जिसे आपने पढ़ा था !
'-एक बार मिल तो लें,
-राजेश । '
''क्यों ?''
''मैं उसे राजेश कहता था, कभी कभी राजू, -यह उसका घर का नाम था । और बहुत कई बार कोशिश की थी कि प्लैनचेट की मदद से उससे बात करूँ, ... ''
वे थोड़ा रुके,
''क्या कहूँ, बड़े अजीब अनुभव हो रहे थे, -कभी लगता कि मैं ही राजेश हूँ, कभी लगता कि मैं अजय हूँ, कभी मैं अजय बन जाता, कभी राजेश । धीरे धीरे स्थिति यह हो गयी कि अपने पूजा के कमरे में ध्यान के आसन पर आँखें मींचकर बैठा मैं, दुनिया की नज़रों में भले ही मेडिटेशन कर रहा होता, लेकिन इस दौरान अपने भीतर राजू या अजय से बातें करता रहता । मुझे पक्का भरोसा हो गया था कि राजू की मृत्यु उसके शरीर की मृत्यु ज़रूर है, लेकिन वह अभी ज़िंदा है, उसकी आत्मा अभी भी मुझसे sanpark बनाए हुए hai ।
बहुत धीरे धीरे मैं यह स्वीकार करने की मन:स्थिति में आ पाया कि उससे होनेवाली मेरी 'मुलाकातें' मेरे हीअवचेतन मन का खेल है, और मैं जब तक चाहूँ, इसे जारी रख सकता हूँ, लेकिन वह न सिर्फ सच्चाई से पलायन है, बल्कि उसके द्वारा मैं बस अपने-आपको विनष्ट ही कर रहा हूँ । और उन्हीं दिनों शायद इसी समझदारी से मैं नर्वसब्रेक-डाउन का शिकार होते-होते बच भी गया । क्योंकि जैसे ही मैंने अपने मन के इस झूठ को पहचान लिया, जिसेकि मैंने ही सिर्फ इसलिए गढ़ा था, कि अपने होने के भ्रम को बचाए रख सकूँ, वैसे ही कुछ ऐसा घटा जिसकीकल्पना नहीं की जा सकती । ''
-वे चुप हो गए ।
''क्या घटा ?''
''पहली बात तो यह कि कल्पना करनेवाला 'मैं' ही जब एक भ्रम है, -मौलिक भ्रम, जो मन के साथ ही जन्म लेता हैयह पता चलते ही, ... ... ''
वे फिर चुप हो गए । फिर थोड़ी देर रूककर बोले,
''... ... एक उदासी, गहन उदासी, कभी-कभी मन को अज्ञात में ले जाती । ''
'' अज्ञात याने ?''
''याने चेतना का ऐसा नया आयाम, जहाँ 'जानना' तो था, किन्तु 'जाननेवाला' भी नहीं था, और न 'जानने' से भिन्नकोई ऐसी वस्तु ही थी, जिसे 'मैं ' अर्थात् 'जाननेवाला' जानने का दावा कर सके । लेकिन वह एक ऐसी स्थिति थीजिसे पहले कभी देखा, सुना या अनुभव नहीं किया था । चूँकि वहाँ इन्द्रिय-संवेदनों में ग्रहण किया जा सकनेवालाकुछ नहीं था, इसलिए उसके बारे में कुछ कहना या सोचना संभव नहीं । हाँ वहाँ द्वंद्व नहीं हैं, संसार भी नहीं है, औरन मैं-जैसी कोई व्यक्तिगत या निर्वैयक्तिक सत्ता । ''
''लेकिन क्या ऐसा कुछ होता भी है ?''
-मैं उसे निर्विकल्प समाधि की तुलना से समझना चाह रहा था ।
''हाँ, -बस वही सचमुच है, लेकिन उसे कोई नाम या शब्द दे देने से क्या उसके बारे में कुछ कहा या समझा जासकता है ?''
''अज्ञात ?''
-मैंने पुन: पूछा ।
''हाँ, लेकिन यह अपने होने के भ्रम जैसा, या किसी भी तरह का कोई भ्रम या विभ्रम नहीं है । क्योंकि सारे भ्रम इसीमें जन्म लेते और मिटते हैं । यह उनके पैदा होने या मिटने से संबंधित कोई चीज़ नहीं है ।''
मुझे लगा कहीं वे पागल तो नहीं हो गए ?
''भोजन कर लेते हैं ।
मैंने विषय-परिवर्त्तन करते हुए कहा ।
''हाँ,''
-वे इतनी सरलता से बोले मानों इस सारी चर्चा में वे थे ही नहीं ।
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March 12, 2010
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AApke sabhi post atyant gambheer tatha jeevan ki yatharthta ko bhut gahrai se prastut karte hain. ve hamesha hi hamara gyan wardhan karte hain. Dhanywad.
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