March 14, 2010

उन दिनों -63.

~~~~~~~~~~~उन दिनों -63~~~~~~~~~~
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~~~~मेरी डायरी से ~~~~~~
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104.... ...
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महर्षि : आत्मा से अधिक समीप कुछ भी नहीं है
भक्त : तीन माह पूर्व मुझे श्रीकृष्ण ने दर्शन देकर कहा,
"मुझसे निराकार उपासना की प्रार्थना क्यों करते हो ?
''सर्वभूतस्थ मात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि '' (गीता 6/29)
(आत्मा सबमें है तथा सब आत्मा में है )
महर्षि : इसमें सम्पूर्ण सत्य निहित है यह भी औपचारिक है वास्तव में आत्मा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है जगत मान का प्रक्षेपण मात्र है मान का उदय आत्मा से होता है अत: आत्मा ही एकमात्र सत्ता है
भक्त : किन्तु इसका अनुभव होना कठिन है
महर्षि : कुछ भी अनुभव नहीं करना है वह नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त अवस्था है यह अवस्था सहज तथा नित्य है किसी नवीन वस्तु की प्राप्ति नहीं करना है इसके विपरीत मनुष्य को अपना अज्ञान त्यागना है बस इतना हीकरना है
इस अज्ञान के मूल को खोजना होगा यह अज्ञान किसको है ? व्यक्ति किससे (
इससे?) अनभिज्ञ हैं वहाँ द्रष्टा एवंदृश्य हैं यह द्वैत भाव तो केवल मन का गुण है मन आत्मा से है
भक्त : हाँ, अज्ञान स्वत: नहीं रह सकता
(अंत में उसने समर्पण करते हुए निवेदन किया,
'जिस
प्रकार चिकित्सक रोगी का रोग जानकर उसी प्रकार उसकी चिकित्सा करता है, कृपाकर श्रीभगवान वैसे हीमेरी चिकित्सा करें '
उसने यह भी कहा कि उसकी ग्रंथों के अध्ययन तथा उनसे ज्ञान प्राप्त करने की सारी प्रवृत्ति नष्ट हो गयी है )
105. महर्षि : येन अश्रुतं श्रुतं भवति ... ... (छान्दोग्य उपनिषद) (जिसे जानकर, जाना हुआ भी जाना जाता है )
श्री भगवान् के परिचारक माधवस्वामी : क्या छान्दोग्य उपनिषद में वर्णित महावाक्य 'तत्त्वमसि' की दीक्षा की नौपद्धतियाँ हैं ?
महर्षि : नहीं, ऐसा नहीं पद्धति एक ही है उद्दालक ने उपदेश प्रारंभ किया -
सत् एव सौम्य ... (केवल अस्तित्त्व है ...) इसको स्पष्ट करने हेतु श्वेतकेतु को उपवास का
दृष्टांत दिया
(1) उपवास से
त् , व्यक्ति में अस्तित्त्व, स्पष्ट हो जाता है
(2) यह (सत्अस्तित्त्व, भिन्न-भिन्न पुष्पों से संगृहीत मधु की भाँति सब में एक-सा ही है
(3) गहन निद्रा के उदाहरण से जाना जाता है कि व्यक्तियों के
त् में कोई अंतर नहीं है प्रश्न उठता है,- यदि ऐसाहै, तो सुषुप्ति में प्रत्येक व्यक्ति उसे क्यों नहीं जान पाता ?
(4) चूँकि वहाँ व्यक्तित्त्व नहीं रहता, वहाँ केवल
त् ही रहता है
उदाहरणार्थ : सरिताएँ सागर में विलीन हो जाती हैं यदि विलीन
होती हैं, तो क्या वहाँ त् है ?
(5) निश्चय है - जैसे वृक्ष को तराशने से वह पुन: उगता है यह उसकी जीवनी-शक्ति का निश्चित प्रमाण है, किन्तुक्या यह शक्ति उस सुशुप्त अवस्था में भी विद्यमान रहती है ?
(6) अवश्य, लवण तथा जल का उदाहरण लो जल में लवण सूक्ष्म रूप से है यद्यपि यह दृष्टिगोचर नहीं है, किन्तुअन्य इन्द्रियों से अनुभूत है इसका ज्ञान कैसे हो ?
(7) खोज से, जिस प्रकार गांधार वन में भूला हुआ व्यक्ति घर तक पुन: गया
(8) विकास और संकोच में, व्यक्त एवं अव्यक्त में, केवल सत् की ही सत्ता है तेज: परस्याम देवतायम - (प्रकाशब्रह्म में लीन हो जाता है )
(9) अग्नि परीक्षा में दोषी पीड़ित हो जाता है अग्नि उसके दोष को प्रकट कर देती है सरलता स्वत: प्रकट है सत्पुरुष तथा आत्म-ज्ञानी पुरुष प्रसन्न रहता है उस पर दृश्य-प्रपञ्च का, (
अर्थात् जगत् जन्म-मृत्यु आदि का) प्रभाव नहीं पड़ता जबकि कपटी तथा अज्ञानी व्यक्ति दुखी रहता है
(जैसा मैंने ,
श्री रमण महर्षि से बातचीत,
प्रकाशक शिवलाल
अग्रवाल एंड कंपनी,
आगरा-,
कॉपी-राईट : श्री रमणाश्रम,
तिरुवण्णामलै, तमिलनाडु
से नोट किया था । )
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