March 08, 2010

उन दिनों -59.

~~~~~~~~~ उन दिनों -59~~~~~~~~
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उन्हें कोई जल्दी नहीं थी, जल्दी हमें होती है, या तो लगता है कि हम कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण करने जा रहे हैं, कुछ अनोखा, कुछ अद्भुत, जो आज तक किसी ने न किया हो, या जिसे न करने से हमारी हेठी हो जायेगी । कोई आकर्षण, कोई भुलावा, कोई लोभ या कोई डर, हमें कार्य करने के लिए बाध्य कर देता है । हम चाहते हैं कि एक पल में ही सब पा लें, और जिन्हें मिल गया है, उनकी कतार में खड़े हो जाएँ !
''Also ran'' में हमारा नाम कहीं छूट न जाए ।
जिन्हें मिल गया है, हम उनकी प्रशंसा करते हैं, या आलोचना । या तो उनके फैन बन जाते हैं, या उनका उपहास करते हैं । कभी-कभी यह कोरी भावुकता होता है, तो कई बार हम इस काँटे से कुछ दूसरी मछलियाँ पकड़ने की कोशिश करते हैं । कोई न कोई चीज़ हमें उकसाती रहती है, बुलावा देती रहती है । कुल मिलाकर यह, कि हम अक्सर जल्दी में होते हैं । अगर कुछ मिला नहीं, तो भी कुछ छूट भी न जाए । और तब जो मिल जाता है, उसमें थोड़ा सुख, थोड़ी तसल्ली मिलने के बाद हम ऊबने लगते हैं ।
''what next ?''
इसलिए उनके प्रश्न के ईमानदार उत्तर देने में मुझे मेहनत करने की ज़रूरत महसूस हुई ।
''आप कह रहे थे कि आप कुछ सीखना चाहते हैं, -कला के क्षेत्र में, ... ..., -क्या यह उम्मीद है, उस भविष्य की योजना, जिसे आप कतई नहीं जानते ? या बस ऐसे ही अपनी रौ में जीते चले जाने के लिए ?
-उन्होंने पूछा ।
''हाँ यह सच था कि मुझे कुछ साहित्य-रचना करनी थी, 'प्रतिष्ठित' न भी हो सकूँ, तो 'स्थापित' हो जाऊँ, यह भी काफी होगा । ''
'जिन तथ्यों पर मैंने कभी ध्यान तक नहीं दिया था, जिनसे मैं बचने की कोशिश करता रहा था, या जिन्हें जाने-अनजाने देखना तक नहीं चाहता था, उनके बारे में मुझसे तफसील से पूछा जा रहा था । कुछ ऐसा लग रहा था कि जिस स्टुडेंट को साल भर तक यही देखने की फुर्सत नहीं मिली कि उसके सब्जेक्ट्स क्या-क्या हैं, उसे अचानक परीक्षा हॉल में बैठा दिया जाए । क्या मैं रचनाधर्मी नहीं था ? कम-से कम अपने शहर में तो मेरा नाम है ही । किसी भी अखबार में प्रकाशित साहित्यिक गतिविधियों की रिपोर्ट देख लीजिये।'
-मैं सोच रहा था ।
''कहीं आप इसीलिये तो साहित्यिक गतिविधियों में नहीं लगे रहते, कि समय अच्छी तरह से कट जाए ?''
-उन्होंने पूछा ।
नहीं, वे मुझे नीचा दिखाना नहीं चाहते थे । वे मेरे प्रश्नों को संजीदगी से ले रहे थे, और बड़ी लगन से उन्हें अपने प्रश्न बनाकर समझने की कोशिश कर रहे थे । मैं उनकी दृष्टि में कहीं नहीं था और यदि मैं कहीं था भी, तो बस एक बहाना भर था, जिसके माध्यम से वे हमारी जिन्दगी के सवालों से रूबरू थे । और उनसे बातचीत से मुझे कम से कम इतना फायदा तो तत्काल ही था कि वे मेरा ध्यान मेरी इस भूल की ओर आकृष्ट कर रहे थे । इस भूल की ओर, कि मैंने अभी तक जीवन की पाठ्य-पुस्तक का पहला पृष्ठ भी नहीं खोला था ।
लेकिन असली ख़तरा तो अब आनेवाला था ।
''मैंने आपसे पूछा था कि क्या ऊब रचनात्मकता के अभाव का, या रचनात्मकता के कुंठित होने का संकेत तो नहींहै ? अब मैं एक कदम और आगे बढ़कर यह पूछ रहा हूँ कि कहीं हमारी व्यवस्था, तथाकथित शिक्षा, मानव-सभ्यता, संस्कृति, भाषा आदि के माध्यम से होनेवाली कंडीशनिंग, प्रोग्रामिंग, कहीं हमारी स्वाभाविक रचनात्मकता को क्रमश: कुंद करते हुए अंतत: उसे लगभग नष्ट ही तो नहीं कर देती ?''
कुछ रुककर वे बोले,
''ज़ाहिर है कि पूरी तरह तो नहीं नष्ट कर देती, क्योंकि हममें कम से कम इतना एहसास तो तब भी बाकी रहता ही है कि हम ऊब रहे हैं । और यह एहसास, मुझे लगता है कि एक बहुत शुभ लक्षण है, जो घोषित करता है कि हमें नष्ट करनेवाली तमाम ताकतों के बावजूद हममें विद्यमान जीवन या जीवनी शक्ति अर्थात् रचनात्मकता इतनी सशक्त है कि अपनी अभिव्यक्ति इस प्रकार से करती रहती है । लेकिन बस किसी-किसी का ही ध्यान इस ओर जा पाता है । यही दुर्भाग्य है । वैसे इसे दुर्भाग्य या भाग्य पर मढ़ देना भी एक दु:खद भूल ही तो है ।
उनकी बातों में मुझे कहीं कोई विसंगति या शब्द-जाल (chicanery) नहीं प्रतीत हुआ । प्रखरत: प्राणवान और ओजस्वी ऐसे किसी व्यक्ति से बातचीत में मुझ जैसे बुद्धिजीवी को प्राय: ऐसा संदेह उठता ही है ।- कि ये जो कह रहे हैं, वह कहीं कोरा बौद्धिक प्रलाप, खोखली विद्वत्ता तो नहीं है ?

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>>>>>>>> उन दिनों -60.>>>>>>>

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