~~~~~~~~ उन दिनों -65~~~~~~~~
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''वैसे उसके दोस्त भी कम नहीं थे, लेकिन उसका सबसे बड़ा और पहला दोस्त तो मैं ही था । क्रिकेट की उसकी एकटीम ही थी , ... ''
मैं बोर हो रहा था, वे चुप हो गए । शायद मेरी मुखमुद्रा से उन्हें आभास हो गया था । लेकिन फिर अपनी बात जारीरखते हुए बोले,
''एक दिन बोला, 'पापा, हर आदमी की ज़िंदगी दूसरे की ज़िंदगी से कितनी अलग होती है ? -एकदम अलग होती है न ?
'कैसे ?'
-मैंने पूछा ।
'वैसे लगता तो यही है कि हम सब एक ही दुनिया में रहते हैं, लेकिन मुझे इस पर शक है । भले ही वे एक ही धरतीपर रहते हों, एक-दूसरे को जानते भी हों, लेकिन रहते तो वे अपनी-अपनी, दूसरे बाकी सब लोगों से एकदम अलग ही दुनिया में जीते रहते हैं । '
'कैसे ? '
''मैं मेरे ख्यालों की दुनिया में, आप अपने ख्यालों की दुनिया में, इसी तरह बाकी के लोग भी । हम सब एक दूसरे के ख्यालों में भले ही आते-जाते रहते हों, लेकिन रहते तो अपने ही ख्यालों की दुनिया में हैं । और क्योंकि हमारी असली ज़िंदगी उन ख्यालों में तो नहीं होती, वह तो अपनी जगह, हमारे ख्यालों से बिलकुल अछूती अपनी जगहहोती है , जिसके बारे में हम शायद न तो कुछ जानते है , और न कभी जान ही सकेंगे । हमारी असली ज़िंदगी भी, हम जिसे जीते हैं, और जिसे महसूस भी करते हैं, हमारे ख्यालों की ज़िंदगी से बिलकुल अलग कुछ होती है । हमारीअसली ज़िंदगी में भले ही हम एक दूसरे के साथ होते हों, लेकिन ख्यालों और महसूस करने में बाकी सबसे बिलकुल अलग अपनी अपनी ज़िंदगी जीते रहते हैं न ?'
मैं हैरत से उसे देख रहा था, उसकी बात समझने की कोशिश कर रहा था । वह कोई दूसरों से सुनी या पढ़ी हुई कोई बात कह रहा हो, ऐसा नहीं लगा मुझे ।
'मैं जब भी चाहूँ, आपको अपने ख्यालों की दुनिया में आने से रोक सकता हूँ, और कभी-कभी तो मेरे ही ख़याल मुझपर इतने हावी होते हैं कि मैं आपको याद तक नहीं रख पाता, फिर आपके बारे में सोचना तो बहुत दूर की बात होती है । ऐसा नहीं कि मैं आपको ख्यालों में आने देना चाहता नहीं, लेकिन यह भी सच है कि तब मैं आपको अपनेख्यालों में नहीं आने दे पाता । तब आप कहाँ होते हैं ? उस समय तो आप बस आपके अपने ख्यालों की ही दुनिया मेंकहीं होते हैं न ? उस समय क्या मेरे और आपके बीच कोई ऐसी चीज़ होती है, जो हमें एक दूसरे से जोड़ती यामिलाती हो ? क्या तब आप मुझे, या मैं आपको अपने ख्यालों की दुनिया में बुला सकता हूँ ?'
मेरे गले में हाथ डालकर बोला था वह !
और सचमुच यही तो हुआ था । कौन किसे बुला सकता है, अपनी निजी दुनिया में ?कौन किसे जानता है ? बसआदमी में ख्यालों में जो कुछ होता है उस सबकी वह एक कम्पोजिट-इमेज बना लेता है, जिसे वह 'मेरी दुनिया'कहता-समझता है । जिसमें वह कैद होता है, जहाँ से न वह बाहर निकल सकता है, और न जहाँ किसी को अपनीमर्जी से बुला ही सकता है । ''
''और मुझे तो लगता है कि कोई अपनी मर्जी से चाहकर भी तो दूसरे की दुनिया में उसकी इच्छा के बिना जा भी नहींसकता । ''
-मैंने हस्तक्षेप किया ।
''बस यही तो ... ! यही तो वह कह रहा था । ''
''पर क्या यह सब भी कोरी खयाली बातें ही नहीं हैं ?''
-मैंने उन्हें फिर टोका ।
''हाँ, मन बड़ा चतुर होता है, पल भर में वह स्थान और समय की तमाम दूरियाँ लांघ जाता है । ''
''हाँ, और फिर भी स्थान और समय से पीछा नहीं छुड़ा पाता । ''
''जब तक जीवन है, यही रहेगा । -स्थान और समय की दुनिया, और उसमें हम व हमारी दुनिया । ''
पहले कभी मुझे उनके और मेरे बीच जमीन-आसमान का एक फर्क एक बार शिद्दत से महसूस हुआ था, फिलहाल मैं उसे भूल गया था, -मैं अपने सतही दिमाग से तर्क-वितर्क करने लगा था, लेकिन मुझे इसका भी होश कहाँ था ?
''सचमुच आपकी और मेरी दुनिया एक ही है ?''
-वे पूछने लगे ।
''क्या नहीं है हमारी दुनिया एक ही ? ये सूरज-चाँद-सितारे, धरती, आकाश, हिन्दुस्तान, भूख, प्यास, गरीबी, राजनीति, दुविधा, द्वंद्व और शक, .... ....?''
''अजय था तो लगता था कि वह सचमुच है, अब लगता है, वह सपना था, और यह भी कि अब कहाँ है अजय ?
-कहीं नहीं है ! एक सपना था, जो मन में उभरा था, और फिर मिट गया, दूसरे सपनों की तरह । ''
''और उस सपने के मिट जाने का दु:ख ?''
''वह पुन: एक नया सपना है । ''
''कौन देखता है इन सपनों को ? ''
-मैंने पूछा ।
''अपने होने का भ्रम ही इस सपने को पैदा करता है । वही सारे सपनों को, सारी दुनिया को, -उस दुनिया को, जिसेसब 'सबकी दुनिया' कहते-समझते हैं, उसे भी पैदा करता है, और हर कोई सोचता है कि एक 'दुनिया' सबकी है, जिसमें मेरी अपनी एक और दुनिया भी है । लेकिन सच तो यह है कि 'सबकी दुनिया' जैसी कोई चीज़ अलग से कहींनहीं होती । ''
''क्यों नहीं होती ?''
-मैंने अविश्वासपूर्वक, विस्मित होकर पूछा ।
''अपने होने से ही वह सबकी दुनिया होती है, जबकि सबकी दुनिया न भी होती हो, तो भी अपनी दुनिया तो होती हीहै, -हाँ, लेकिन थोड़ा और ध्यान से देखें तो असलियत यही है कि वह अपनी एक दुनिया होने का ख़याल भी बस एकख़याल ही तो होता है, जो अपने होने के भ्रम से पैदा हुआ एक और वहम ही तो होता है ।''
''और अपने 'न' होने का भ्रम ?''
मैं उनकी ईमानदारी को एक कोरा बौद्धिक तर्क समझकर अपने बौद्धिक तर्क से काटने की कोशिश करने लगा था ।
''भ्रम, -अपने 'न'-होने का तो एक असंभावना ही है, -एक नामुमकिन चीज़ । ''
-वे शांतिपूर्वक बोले ।
अँधेरे में जिसे मैंने तीर समझकर फेंका था, वह तो तिनका भी साबित न हुआ ।
''अपने होने का भ्रम तो मुमकिन है कि हो जाए, और जब तक बुद्धि कार्य करती है तब तक उसका न पैदा हो पानालगभग नामुमकिन ही होता है । वैसे ही जैसे दूसरे सारे भ्रम भी बुद्धि के सहारे से ही पैदा होते हैं । ... ... लेकिन अपने 'न'-होने का भ्रम, जैसा कि आपका ख़याल, विचार, आग्रह, मान्यता, प्रश्न,... आदि जो भी हो, वह भीअपने-होने के भ्रम से ही पैदा हो सकता है । उस पर ही टिका हो सकता है .-वैसे तो वह एक असंभावना ही है, फिरभी यदि आप सोचते हैं कि ऐसा कोई भ्रम हो सकता है तो, .... । ... 'किसे' होगा अपने 'न'-होने का भ्रम ? अपने होनेका भ्रम तो हर किसी को होता ही है, कट्टर विश्वास की तरह दिल में बसा होता है, इतना मज़बूत होता है कि उसेहटाने की कोशिश में भी उसे स्वीकार करना होता है । ''
-उन्होंने स्पष्ट किया ।
बात ठीक थी ।
''शायद इन्होंने तर्क-शास्त्र का खूब अध्ययन किया है ।''
-मन-ही-मन सोचते हुए मैंने अपने तरकश का आख़री तीर निकाला -
''मैं नतमस्तक हूँ, कृपया बतलाइये कि अपने होने के भ्रम से छुटकारा किसे मिलेगा ?
'''वह, जिसे अपने होने का ठीक-ठीक पता है, कि वह क्या है, वह सचमुच कुछ है भी, या कुछ नहीं है ! जिसे किसीप्रकार का कोई भ्रम है ही नहीं । ''
''अर्थात् जिसे आत्म-ज्ञान है ?!''
मैंने उनकी बातों को सार-संक्षेप में रखना चाहा ।
''हाँ, ऐसा कह सकते हैं, लेकिन आत्म-ज्ञान शब्द से भी हममें पुन: यह ख़याल आने लगते हैं, कि उसके लिए बहुतशास्त्र पढ़ने होंगे, गुरुओं के पास जाना होगा, न जाने कौन सी साधना से हो पायेगा, ..... । दूसरी ओर, हम सब इससबमें अटककर इसे भी आख़िर बाज़ार की ही एक चीज़ बना लेते हैं , और अपने होने के भ्रम को इससे ज़्यादासुरक्षा किसी दूसरी ज़गह कहीं नहीं मिल सकती । फिर एक बड़ा ख़तरा यह है कि हम इस सब से उस भ्रम केमिटने की संभावनाओं को ही लगभग ख़त्म कर डालते हैं, और हमें पता तक नहीं चल पाता कि हम कितने अभागेहैं । और ऐसे ही हम एक दिन बस समाप्त हो जाते हैं, -ख़त्म, फिनिश्ड !''
तो क्या आत्म-साक्षात्कार बिना किसी श्रम के हो जाता है ?''
''आत्म-साक्षात्कार की छोडिये, अपने होने के, -अपने कुछ ख़ास होने के इस भ्रम से भी अगर बुद्धि को छुटकारामिल जाए तो बहुत है, ... और उसके लिए ज़रूर श्रम, दिलचस्पी, और सबसे बड़ी बात लगन होना चाहिए ।''
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>>>>>>>> उन दिनों -66>>>>>>>>>
March 26, 2010
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हम भी मानने लगे हैं की हर व्यक्ति अपनी दुनिया में ही जी रहा होता है.आभार.
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