April 03, 2010

उन दिनों -66.

~~~~~~~~~उन दिनों -66~~~~~~~~
--------------रचनात्मकता ---------------
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मेरी रिटायर्ड ज़िंदगी में उन्होंने भूचाल ला दिया था मैंने कल्पना तक नहीं की थी कि किसी कहानी के प्लॉट के खोज की लालच में उनसे मुलाक़ात करने के बाद मेरी ज़िंदगी खुद भी एक ऐसी कहानी बन जायेगी, जिसका ओर-छोर ढूँढना मुश्किल हो जाएगा इस 'होने--होने', 'कहीं-और-होने', तथा 'अपने' -'होने', '-होने' के बीच मैं बुरी तरह फँस गया था उलझकर रह गया था उधर अपने 'होने'-'-होने' का भ्रम भी अलग से मुँह फाड़े मेरा इंतज़ार कर रहा था और इसलिए मेरी बिटिया की शादी के करीब दो हफ़्तों बाद वे मेरे यहाँ आये, तो मैंने तय कर लिया था कि उनसे इन सारे प्रश्नों पर खुलकर चर्चा कर, इस भूलभुलैया से निकलना नितांत आवश्यक है
लेकिन यहाँ नहीं वहाँ , -उनके घर
करीब :-सात माह बाद । यह एक नई शुरुआत थी उनके ही घर पर रोज़ की तरह दोपहर की झपकी लेने के बाद छत पर बैठे थे जनवरी की धूप में 'बगीचे' में प्लास्टिक की चेयर्स पर बैठे चाय का इंतज़ार कर रहे थे छत पर रखे गमलों में देख-रेख के अभाव में कचरा, सूखी पट्टियां, मुरझाए फूल, आदि जमा हो गए थे दूर खड़ा गुलमोहर अब भी एकदम हरा था बीच-बीच में गहरे हरे रंग के नए पत्ते हलके हरे वितान में बारीक स्थिरप्राय लहरों की भाँति बहुत धीमी गति से हिल-डुल रहे थे पारिजात के वृक्ष पर अब भी फूल आते थे मोगरे, गुलाब और दूसरे पौधों पर भी फूल थे लेकिन सब मानों मौसम की मार भी झेल रहे थे मौसम की मार से, शीत की कठोरता से सब बदरंग हो रहे थे आधे दिल से फूल रहे ये पौधे ज़रा भी उदास थे और सोए-सोए थे, जैसे कि अलस्सुबह, या शाम के समय होने लगते हैं सुबह वे एक मौन प्रतीक्षा में सूरज का इंतज़ार करते हैं, उनींदे से और अगर आप भोर होने से दो घंटे पहले उन्हें देखें तो वे गहरी निद्रा में डूबे दिखलाई देते हैं आप देख सकते हैं, कि उनके बीच कोई तितली भी एक पीली पत्ती की तरह टँकी हुई निश्चल भाव से सोई हुई दिखलाई देती है आप उसे छू सकते हैं, पकड़ सकते हैं, -एकदम किसी छोटे बच्चे की तरह, नितांत असुरक्षित होती है वह आप नहीं जानते कि वहाँ वह प्रकृति की गोद में, पौधे से चिपटकर वैसी ही निश्चिन्त सोई होती है, जैसे एक छोटा सा बच्चा अपनी माँ से चिपटकर सोया होता है
लेकिन सूरज के आगमन से कुछ पहले की सुरमई लालिमा में वे प्रतीक्षा करने लगते हैं आप देख सकते हैं, वे जाग चुके होते हैं, और साँस रोककर सूरज के क्षितिज पर आने का अधीर इंतज़ार करते हैं तब यदि आप उस तितली को पकड़ने जाएँ, तो आपको अपनी अभद्रता पर ग्लानि होने लगेगी और यदि दो घंटे पहले आप तितली को पकड़ लेते तो आपको अपनी पशुता पर पश्चात्ताप होता लेकिन बस सूरज की कोर क्षितिज पर दिखलाई देते ही वे चहक उठेंगे फूल भी, तितलियाँ भी, और चिड़ियाँ भी मानों वे सब बेसब्री से 'वन-टू-गो' के अनाउन्समेंट का बस इंतज़ार ही कर रहे थे
और इस समय, दोपहर के चार बजे, दिन की धूप में प्रसन्न और कुछ-कुछ अलसित भी, वे खूब जागे हुए से थे वे उदास नहीं थे, सोए-सोए भी नहीं थे, वे जैसे थे, प्रसन्न थे, कम-से-कम उन्हें किसी कष्ट की चिंता नहीं थी शायद खबर तक नहीं थी धीरे-धीरे शाम हो जायेगी, रात भी, और फिर मौसम की मार से उनके कुछ साथी गिरकर बिखर जायेंगे, समाप्त हो जायेंगे लेकिन वहाँ दु: नहीं था निराशा नहीं थी जो था, -'अभी' था कष्ट तो सबको होते हैं, पशुओं, पौधों, लताओं, और वृक्षों को भी, लेकिन चिंता नामक व्याधि सिर्फ मनुष्य को ही व्यथित और त्रस्त करती है क्योंकि वह भविष्य-दर्शी होता है वह आनेवाले कष्टों को भी इसीलिये इसी समय भोगता रहता है सबसे बुद्धिमान प्राणी सारे सुखों और सुरक्षितताओं के बीच, अनेक सुखों के बीच, भविष्य की आशंकाओं, अतीत की अपूर्ण कामनाओं, और वर्त्तमान के कष्टों को अभी ही भोगता रहता है
छत पर सीमेंट के एक कॉलम के तीन फीट ऊँचे स्तम्भ को चौकोर से बदलकर गोलाकार बना दिया गया थापहले कभी वह करीब दस इंच गुणित दस इंच का वर्गाकार कॉलम रहा होगा, जिस पर और सीमेंट लगाकर उस पर गोलाई में धारियाँ डालकर, एक पाए-वाले टेबल का आधार बना दिया गया थाउस पर करीब दो फीट व्यास का एक गोलाकार एक इंच मोटा स्लैब रख दिया गया थाउसके किनारे बहुत सफाई से तराशे और चिकने किये गए थेउस आधारभूत पाए की ही तरहउसकी ऊँचाई छत की मुंडेर के ही बराबर थीबीच में दो कुर्सियाँ टेबल के दोनों ओर पड़ी थींहम चाहते तो कुर्सियों को याने कि प्लास्टिक-चेयर्स को टेबल के इर्द-गिर्द घुमा भी सकते थे
उस टेबल के आधार को देखते ही पास के पार्क में खड़े उन ऊँचे-ऊँचे नारियल के पेड़ों की याद आने लगती थी जिनके तने इस टेबल के एकमात्र पाए की ही तरह गोलाई में तराशे हुए लगते थेयदि कोई आपसे कहता कि उस नारियल के ही एक पेड़ के तने को काटकर इस पाए को बनाया गया है, तो आपको अविश्वास नहीं होता, बल्कि आप तो चौंक उठते, और चकित भाव से बस देखते रह जातेलेकिन ऐसा नहीं थाफिर जब उस टेबल पर पड़े पत्थर के उस स्लैब को आप देखते, जिसे लाल बारीक रेत में सफ़ेद सीमेंट मिलाकर बनाया गया था, तो आप तय नहीं कर पाते, कि वह सीमेंट-रेत से बना स्लैब है, या सचमुच एक तराशा हुआ मोटा पत्थर हैउस पर बनी धारियाँ प्लायवुड डिजाइन में थीं, जैसे कि लकड़ी के बने फर्नीचर में दिखलाई देती हैंलेकिन उनमें दोहराव नहीं थापूरे स्लैब पर मानों लहरों का एक लैंडस्केप बिछा था
वहाँ सुघड़ता थी, रूखा सौन्दर्य था, एक निर्मलता थी, स्वच्छता थीउसे बड़ी लगन और प्रेम से बनाया गया थाशायद जिसने उसे बनाया होगा, उसके लिए एक आराधना रही होगी वह कृति
मैं सोचने लगा कि जब पिछली बार उनके यहाँ आया था तब मेरा ध्यान इस टेबल की ओर क्यों नहीं जा सका था ?
उस इकलौते पीस ऑफ़ आर्ट को देखकर मुझे वह सफ़र याद हो आया, जिसमें मैं ट्रेन से बाहर की बंजर जमीन के सौन्दर्य को देखकर अभिभूत हो उठा थाक्या था वहाँ ? दूर-दूर फैले इने-गिने थोड़े से खजूर के पेड़, ज़्यादातर बौने, और बहुत दूर कोई चरवाहा, कोई गाय-भैंस, या बकरियाँ, एकदम सूखी जमीन जिस पर घास भी बहुत कम रही होगी, धूल ही अधिक थीकहीं-कहीं पीली घास, और धरती में दरारें और पपड़ियाँ
क्या सौन्दर्य किसी उत्तेजना में होता है ?या फिर मुग्धता में होता है ? क्या मुग्धता और उत्तेजना एक ही चीज होते हैं ? क्या उत्तेजना और खुशी एक ही चीज़ होती है ? फिर हम क्या खोजते रहते हैं ? मुग्धता या सुख ? क्या हम उत्तेजना को ही सुख नहीं समझते ? मैं तय नहीं कर पा रहा था कि बात कहाँ से शुरू करूँ ! मैं मानता था कि पुराना तो ख़त्म हो चुका हैवहाँ से नई शुरुआत कैसे हो सकती है ? ऐसे ही खालीपन में मैंने थर्मस का ढक्कन खोला, दो मग्ज़ में चाय भरी ।
''सर, चाय !''
उनकी निगाहें दूर खड़े गुलमोहर से फिसलकर सीधे मेरे चेहरे पर आकर टिक गयींवे 'वहाँ' से 'यहाँ' नहीं आये थे, वे बस मेरे सामने थे । 'वहाँ' से 'यहाँ' तो अविज्नान आया-जाया करता था । -मैंने सोचा
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