~~~~~~~उन दिनों -71.~~~~~~~~
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''अब हम 'जानने' को समझें । जिसे हमने कहा, 'जानना', वह एक ओर तो सकर्मक-क्रिया है, जिसमें हम बहुत से 'विषयों' को इन्द्रियों के माध्यम से जानते हैं । इस प्रकार का ज्ञान, अर्थात् 'जानकारी' या 'सूचना', मस्तिष्क में संचित होकर स्मृति बन जाती है । फिर हम उस जानकारी को भी ज्ञान कहने / समझने लगते हैं ।
क्या हम इन्द्रियों की सहायता लिए बिना ही कुछ जान सकते हैं ? हम इन्द्रियों की सहायता से स्थूल-ज्ञान या जानकारी प्राप्त करते हैं । फिर उस जानकारी का वर्गीकरण कर, हमारे इन्द्रिय-ज्ञान के अंतर्गत हमें ज्ञात होनेवाली वस्तुओं के बारे में किन्हीं निष्कर्षों पर पहुँचते है, जो जीवन की एक स्वाभाविक सी प्रक्रिया है । ऐसी जानकारी मूलत: शाब्दिक नहीं होती, वह अनुभव, और उस अनुभव की पुनरावृत्ति की आशा या आशंका के रूप में भी स्मृति के अंतर्गत एकत्र हो सकती है । इसे हम एक अमूर्त्त-ज्ञान कह सकते हैं । इसे हम भावना की संज्ञा भी दे सकते हैं । इसलिए अंग्रेज़ी में 'feeling' शब्द के दो अर्थ ग्रहण किये जा सकते हैं, एक है, - 'अनुभव करना', और दूसरा है, 'महसूस करना' । हमें भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी अनुभव होते हैं, और प्यार, ईर्ष्या, लोभ, आकर्षण या विकर्षण, भय और आवेग महसूस होते हैं ।
हम इन अनुभवों को, तथा भावनाओं को भी तो जानते हैं । उन्हें जानने के लिए हमारे पास क्या कोई माध्यम होता है ? शायद हम कहें -
'मन' होता है न !
फिर सवाल उठता है,-
'मन' को कौन जानता है ?
हम कह सकते हैं कि मन ही मन को जानता है ।
इस प्रकार हम अपनी यात्रा के पहले बिंदु पर लौट आते हैं । हम बस शब्दों से ही खेलते रहते हैं ।
इसलिए अब इसे इस ढंग से देखें कि यदि मन ही मन को जानता है, तो हम क्या हैं ?
ज़ाहिर है कि तब हम मन नहीं हैं । इसलिए यह समझना ज़रूरी है कि मन और हम में क्या समानता है, और क्या अंतर है । क्योंकि पहले तो मन के माध्यम से या ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से, 'कुछ' जाना जाता है । वह 'जानकारी', 'सूचना' होता है । ज़रूरी नहीं कि वह यथार्थ हो ही, लेकिन स्थूल जानकारी प्राय: व्यावहारिक धरातल पर प्रयोगों द्वारा बार-बार परखी जाती है, और उनकी एक काम-चलाऊ सत्यता स्वीकार की जा सकती है । इसे मन के माध्यम से स्मृति के अंतर्गत ग्रहण किया जाता है । जैसा कि पहले कहा गया, यह जानकारी अनुभव या भावना के रूप में स्मृति में मूलत: एक अमूर्त्त-स्वरूप में दर्ज रहती है । फिर भाषा सीखने के बाद शब्दों और उनके अर्थों के पारस्परिक संबंध की भी एक अमूर्त्त छवि स्मृति के अंतर्गत ही स्थिर हो जाती है, जिसमें बदलाव कठिनाई से हो पाता है । इस सब को भी ज्ञान समझ लिया जाता है । फिर ईश्वर, धर्म, आदि के संबंध में भी कुछ आग्रह-विशेष बुद्धि में एकत्रित हो जाते हैं । इसे भी ज्ञान समझा और कहा जाता है । जिसके बारे में हमें ऐसा ज्ञान हो जाता है, यद्यपि हम उस विषय में वस्तुत: कुछ भी नहीं जानते, लेकिन परंपरा, भय, उपयोगिता, सामाजिक और शारीरिक सुरक्षा या सुख की आशा में हम उसे महत्त्वपूर्ण समझ लेते हैं। फिर यही ज्ञान 'आइडियोलॉजी' का स्वरूप ग्रहण कर सकता है । और संसार में असंख्य 'आइडियोलॉजीज़' हैं, जिनके लिए हम अपनी और दूसरे मनुष्यों की जान भी ले सकते हैं । क्या यह आश्चर्य की बात नहीं, कि हर किसी को अपनी आइडियोलॉजी के ही एकमात्र सत्य होने का विश्वास होता है ? और क्या यह भी सत्य नहीं है, कि लोग जीवन में अपनी आइडियोलॉजीज़ बदलते भी रहते हैं ?
स्पष्ट है कि ऐसा ज्ञान मन के अंतर्गत होनेवाला ज्ञान होता है ।
फिर और कौन सा ज्ञान है ?
जब हम जीवन को शब्दों या मानसिक प्रतिमाओं को बीच में लाये बिना भी देख सकते हैं, तो क्या ज्ञान समाप्त हो जाता है ?
मतलब यह कि सुनने, देखने, गंध ग्रहण करने, छूने और स्वाद ग्रहण करने में जानने का मूल तत्त्व तो सामान और एकमेव होता है । इसलिए जब हम स्थूल अनुभवों को जानते हैं, तो इन्द्रियों के ही माध्यम से जानते हैं । और इन्द्रियों को ?
-उन्हें हम मन के अंतर्गत, बुद्धि, भावना, विचार,संकल्प आदि के माध्यम से जानते हैं। फिर मन के इन माध्यमों को हम किस माध्यम से जानते हैं ?
ज़ाहिर है कि जानना इन माध्यमों के जरिये या उनके बिना भी अपना कार्य करता रहता है । तो जानना दो रीतियों से कार्यरत रहता है,
-१ ) गतिशील रूप में (in the dynamic mode),
और,
-२ ) स्थिर रूप में (in the static mode)
या पहले जैसा कहा गया था, क्रमश:
-१)सकर्मक क्रिया की तरह, -माध्यम के द्वारा .
और,
-२) अकर्मक 'स्थिति' की तरह, -माध्यम के बिना ।
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>>>>>>>>>उन दिनों -72>>>>>>
April 16, 2010
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