~~~~~~~~विकल्प ~~~~~~~~
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कितना आसान है,
शब्दों को अनचाहे ही सीख लेना,
और यंत्रचालित होकर उन्हें इस्तेमाल करते-करते,
उनके हाथों में एक यंत्र बनकर रह जाना,
खुद को और खुद के खालीपन को,
शब्दों से भरते रहना,
उनसे मुग्ध और लुब्ध होना,
इस खूबसूरत भ्रम में डूबे रहना,
कि शब्द ही ज्ञान है,
(-और मैं ज्ञानी !)
विचारों की अंतहीन जुगाली में व्यस्त रहना,
और फिर ख़याल आना कि मन विचार-रहित कैसे हो ?
एक दूसरी अंतहीन प्रतीत होती यातना का शिकार हो रहना,
कितना मुश्किल है,
विचारों के इस वज़नदार चक्र को सर से उतार फेंकना,
और सर का हल्का होना,
मन का शांत, नि:स्तब्ध और नि:शब्द होना,
अर्थात् निश्छल होना !
अनायास मौन हो जाना,
और उस मौन में खुद का खो जाना !
लेकिन वही तो सबसे ज़रूरी है ।
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सबसे आसान है,
-कुछ-होना ।
और कुछ-होने से बच पाना उतना ही मुश्किल है ।
कुछ करने से,
कुछ-न करना कठिन है ।
और,
कुछ-करने / कुछ-न करने से भी कठिन है,
कुछ-न होना,
लेकिन सबसे मुश्किल है,
-कुछ-होने / कुछ-न-होने ,
कुछ-करने / कुछ-न करने,
के भ्रम से भ्रमित न होना ।
ख़याल से न-जुड़ना ।
-जबकि सबसे ज़रूरी भी वही है ।
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April 10, 2010
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आदरणीय विनय जी , विकल्प को काफी बारीकी से आपने शब्दों में गूंथा है ! सही कहा है कितना आसान है शब्दों को अनचाहे ही सीख लेना ! और फिर यह मान लेना की मैं ही ज्ञानी हूँ !
ReplyDeleteलाजवाब , उच्च कोटि की रचना ....इसके लिए मुझ तुच्छ की तरफ से साधुवाद स्वीकार करे ! उम्दा ....उत्तम ...अति उत्तम .....