April 05, 2010

उन दिनों -67.

~~~~~~~~~~उन दिनों -67~~~~~~~~~
_________(रचनात्मकता...)_______
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सर, चाय ! ''
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मैंने अपनी असहजता छिपाते हुए कहा
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हाँ, ''
वे बोले
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हमने पिछली बार रचनात्मकता के बारे में बातचीत की थी आपने कहा था कि ऊब रचनात्मकता के अभाव की या उसके कुंठित होने की द्योतक होती हो, ऐसा भी तो संभव है ''
मैंने ही आख़िर बातचीत का सिरा खोलने की कोशिश की वे हमेशा की तरह मेरे अगले वाक्य की प्रतीक्षा करने लगे
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आपकी बात सचमुच हमारे चिन्तन के परिप्रेक्ष्य को ही बदलकर रख देती है हम कभी ऊब को गंभीरता से समझने की कोशिश ही कहाँ करते हैं ? 'ऊब' क्या है, इस पर हम कभी ध्यान तक नहीं देते लेकिन इस सिलसिले में अभी मुझे यह जानना अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत हो रहा है कि 'रचनात्मकता' क्या है ? आपकी बातों से मुझे ऐसा लगा कि कला के क्षेत्र में कुछ सीखना, एक श्रेष्ठ साहित्यकार चित्रकार, शिल्पकार या वास्तुकार होना इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितना कि 'रचनात्मकता क्या है?' -इसे समझना क्योंकि यदि हम एक विख्यात या सफल कलाकार हों भी, लेकिन केवल शब्दों के जोड़-तोड़ से या तकनीक के घालमेल से प्रतिष्ठित हो भी जाएँ तो भी अपने भीतर का खालीपन, रचनात्मकता का मौलिक अभाव हमारे सर पर एक बोझ ही होता है और शायद इसे ही आप एक बंधन कह रहे थे ''
बातचीत का सिरा मेरी पकड़ में गया, तो मुझे बेहद तसल्ली हुई
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देखिये, जब हम कुछ सीखना चाहते हैं, तो सामान्यतया इसलिए नहीं कि हमें उसे सीखने से लगाव होता है, शायद कुछ हद तक लगाव भी होता होगा, लेकिन अक्सर ही क्या हमारे कुछ दूसरे ध्येय ही हमारे इस लगाव के पीछे अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं हुआ करते ? जब हम कुछ सीखना चाहते हैं तो हमारी इन्द्रियाँ अधिक संवेदनशील, प्रखर होती हैं, और तब वह सीखना रचनात्मकता की ही मौलिक स्व-स्फूर्त्त एक गतिविधि हुआ करती है वहाँ ऊब का प्रश्न ही नहीं पैदा होता हाँ, हम थक सकते हैं, लेकिन वह एक बिलकुल अलग चीज़ है तब हम थकान को दूर कर सकते हैं, और कुछ समय बाद पुन: तरोताजा होकर उत्साहपूर्वक सीखने के क्रम में संलग्न हो सकते हैं लेकिन जब सीखने के साथ-साथ कोई दूसरा उद्देश्य जुड़ जाता है, तो हमारी संवेदनशीलता मंद पड़ने लगती है तब सीखना बोझ बनने लगता है और जहाँ कुछ उद्देश्य तो हमें स्पष्टत: ही पता होते हैं, वहीं कुछ आनुषांगिक उद्देश्य भी हमारे सीखने की गतिविधि में शामिल हो जाते हैं ''
वे चुप हो गए मैंने भी जल्दी नहीं की
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हम जाने-अनजाने अपनी एक 'पहचान' बनाने लगते हैं क्या इसे 'अस्मिता'की ज़द्दो-ज़हद कह सकते हैं ?
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कुछ 'होने' की ज़द्दो-ज़हद कह सकते हैं ? हम एक 'भविष्य' प्रक्षेपित करते हैं, -जाने-अनजाने ख़ास बात यह कि हम कब इस 'भविष्य' की कल्पना से अभिभूत हो जाते हैं, इस ओर हमारा ध्यान ही नहीं होता और हमारा यह कल्पित भविष्य ही तय करता है कि हम क्या करेंगे वही हमें दिशा-निर्देश देने लगता है और तब हमारी नैसर्गिक संवेदनशीलता मंद पड़ने लगती है , -रचनात्मकता क्षीण होने लगती है क्या हम अपनी तथाकथित रचनाशीलता की रिकॉग्निशन नहीं चाहने लगते हैं ? क्या असफल होने का डर हममें नहीं होता ?और क्या, स्थापित होने पर हमें एक भराव, ग्रेटीफिकेशन नहीं महसूस होता है ? हम 'कुछ' हैं, हमारी कोई पहचान है, यह एहसास भी क्या हमें एक गहरी तसल्ली नहीं देता ? एक तरह की सुरक्षा का आश्वासन नहीं देता ? "
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अभयदान ? ''
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मैंने मन-ही-मन कहा
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पर कुछ कलाकार तो गुमनामी के अंधेरों में ही रहना भी तो पसंद करते हैं ''
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मैंने पूछा
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हाँ, लेकिन क्या इसमें भी उन्हें एक विशेष गर्व की अनुभूति नहीं होती ? ''
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हाँ, प्राय: तो ऐसा ही होता है ''
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मुझे स्वीकार करना पड़ा इसमें शायद यह विचार छुपा होता है कि दुनिया मेरी महानता को समझ भी नहीं पा रही मुझे किसी से रिकॉग्निशन नहीं चाहिए
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या फिर कभी-कभी कोई कलाकार वाकई ऐसा भी होता होगा जिसका इस ओर ध्यान ही नहीं होता, वह सचमुच अपनी रचनात्मकता के आनंद में ही निमग्न रहता होगा ''
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वे बोले
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वह सिर्फ इसलिए सृजनरत रहता है, क्योंकि सृजन उसका स्वभाव होता है, कोई संघर्ष या श्रम नहीं होता याने सृजन उसके लिए हँसने, बोलने, सोने, चलने-फिरने, उठने-बैठने जैसा एक स्वाभाविक कृत्य होता होगा ''
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वे बोले
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और उसे करने पर उसे कोई बेचैनी होने लगती है ?''
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हाँ ''
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लेकिन शायद यह भी तो हो सकता है कि वह 'ऊब' से भागने या बचने के लिए सृजन का 'उपयोग' करने लगे ?''
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हाँ, अक्सर यही होता है, तब वह कला उसके लिए एक बोझ या बंधन ही तो बन जाती है ''
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लेकिन मैं कला के क्षेत्र में कुछ सीखने के बारे में कह रहा था ''
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मैंने अपने प्रश्न को सुधारा
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हाँ, मुख्य बात यही है कि हम सीखते भी इसीलिये हैं कि उसके बहाने अपने वर्त्तमान के खालीपन को दूर करें या संभव हो तो भरें, -भविष्य में उसका इस्तेमाल कर सकें तब 'सीखना' हमारे खालीपन को छिपाने का एक प्रतिष्ठित ज़रिया बन जाता है लेकिन क्या उससे हम अपने खालीपन से छूट पाते हैं ? ''
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लेकिन क्या इस तरह से हम अपने-आपको बस भ्रमित ही नहीं बनाए रखते हैं ? बस ज़िंदगी बीत जाती है, और एक तसल्ली शायद रह जाती है कि हमने जीवन से कुछ पाया, और इससे ज्यादा किसी को क्या मिल सकता है ? फिर हमारे साथ वह भी बीत जाती है ''
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तो क्या होना चाहिए ?''
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होना यह चाहिए कि हम जीवन को, जीवन की गतिविधि को, सीधे देखें, -मेरे, आपके, या दूसरों के नहीं, इस जगत के नहीं, बल्कि चारों ओर के जीवन को, हमारे बाहर और हमारे भीतर के भी ''
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जीवन की गतिविधि तो हमें वैसे भी दिखलाई देती है, उसे सीधे देखने से आपका क्या मतलब है ?''
उन्हें कुछ याद आया, लेकिन उन्होंने बताया नहीं, मुझे भी कुछ याद आया कि उनके पिता द्वारा उन्हें ऐसा अक्सर कहा जाता था और मुझे लगा वे इस बार भी पुन: उसका ज़िक्र करेंगे लेकिन शायद मैंने गलत भी सोचा हो
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देखिये, जब मैंने कहा, 'हमारे बाहर और हमारे भीतर के जीवन को भी', तो क्या उसमें हमारे 'मन', हृदय, बुद्धि, भावनाएँ, स्मृति, मनोग्रंथियाँ, अंतर्द्वंद्व, ईर्ष्या, लोभ, वासना, भय, कल्पना, पूर्वाग्रह, अंधविश्वास, मान्यताएँ, नासमझियाँ, गलतफहमियाँ, ... क्या ये सब भी नहीं शामिल हैं ? क्या हम कभी उन्हें सीधे-सीधे देखते हैं ?
हमारा मन निष्कर्षों से, अनुमानों से, इच्छाओं से, भविष्य की प्रतिमा से (जो कि वास्तविक भविष्य से शायद ही कभी मेल खाता हो, ) अतीत की स्मृतियों से (जो पुन: उन्हीं स्मृतियों का जोड़ होती हैं जिनमें किसी कारण से, भय या आशा के कारण हमारी रुचि होती है,) भरा रहता है हम उस बोझ के माध्यम से अपने बाहर के और भीतर के भी जीवन को देखने लगते हैं ''
''
यहाँ एक प्रश्न सामने आता है यदि विचार, निष्कर्ष, अनुमान, भविष्य, अतीत आदि से 'मन' लदा रहता है, तो इन सबसे अलग, जिसे हम 'मन' कहें, क्या ऐसी भी कोई चीज़ होती है ? या वे सब मिलकर ही हमारा 'मन' होते हैं ? ''
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हाँ, यह एक बहुत , अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रश्न है वह क्या चीज़ है, जिसे विचार, निष्कर्ष, अनुमानों, भविष्य, अतीत आदि से रहित किया जाता है, और 'कौन' करता है यह कार्य ?''
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उन्होंने एक और प्रश्न से प्रत्युत्तर दिया
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क्या मन ही नहीं करता यह कार्य ?''
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अच्छा, हम 'मन' को 'जानते' हैं, या मन की प्रतिमा को ?''
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उन्होंने एक और प्रश्न किया
यह 'जाननेवाला' 'मन' है, या 'मन' से अलग तरह की कोई चीज़ है ?
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मैंने पूछा
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तात्पर्य यह हुआ कि जिसे 'मन' कहा जाता है, वह एक अमूर्त्त वस्तु है, उसका अमूर्त्त अस्तित्त्व है, और स्मृति से उठनेवाले विचारों, निष्कर्षों, अनुमानों और भविष्य, अतीत, आदि के काल्पनिक आकलन को वह 'जानता' है ''
''क्या वह अमूर्त्त सत्ता/तत्त्व/या अस्तित्त्व ऐसा कहता भी है ?-क्या वह 'जानने'की 'घोषणा' करता है ?''
''कहने या घोषित करने के लिए शाब्दिक अभिव्यक्ति ज़रूरी होगी, और वह 'जाननेवाला'तो निश्चय ही एक नि:शब्द सत्ता/तत्त्व/अस्तित्त्व है ।''
''क्या वह स्वत:सिद्ध है ?''
'' क्या उसे कोई दूसरा जानता है, जो उसकी सत्ता को प्रमाणित करेगा ?''
हाँ, मुझे स्पष्ट हुआ कि उसे प्रमाणित करने का ख़याल मेरी मूर्खता ही थाक्योंकि फिर तो हम एक ऐसी अनंत श्रंखला को स्वीकार कर लेंगे, जो सदैव किसी पूर्व-प्रमाण की मोहताज़ बनी रहेगी
''क्या वह स्व-प्रमाणित नहीं है ?''
-उन्होंने पूछा
''उसे कैसे समझा जाए ? क्या किसी प्रयोग या अनुभव से उसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता ?''
''तुम एक निष्कर्ष चाह रहे हो, निष्कर्ष स्मृति के अंतर्गत होता है, जबकि वह तत्त्व तो स्मृति के साथ, उससे पहले, और स्मृति के बनने-मिटने-बदलने के दौरान यथावत रहता हैप्रयोग और अनुभव भी उसके ही आधारभूत होने से तर्क-संगत हो सकते हैं । ''
''एक प्रश्न और, -क्या वह तत्त्व वैयक्तिक है ? ''
'' व्यक्ति का अस्तित्त्व स्मृति, विचार, अनुमान, तर्क, बुद्धि, आकलन और सबसे बढ़कर कल्पना पर निर्भर होता है । 'व्यक्ति' या 'व्यक्तित्त्व' इस 'पहचान' का ही एक नाम हैयह 'पहचान' मान्यता है, या सचमुच ऐसी कोई चीज़ होती भी है कहीं ? ''
मैं सुन रहा थावे पुन: एक बार व्यक्ति को, उसके व्यक्तित्त्व को, उसकी पहचान तक को संदेह के हवाले कर रहे थे
''अर्थात् उसमें वैयक्तिकता जैसा कुछ नहीं है ।''
''अर्थात् वैयक्तिकता एक ख़याल है । ''
मैं उनकी भाषा बोलने लगा
''हाँ, ''
''फिर क्या वह निर्वैयक्तिक है ?''
''इसे कहना तो आसान है, लेकिन इसके तात्पर्य को कैसे ग्रहण करेंगे ? 'निर्वैयक्तिक' कह देने से सिर्फ यह पता चलता है कि वह कोई व्यक्तिगत चीज़ नहीं है, - क्या इसका अर्थ यह हुआ कि वह सामूहिक है, या एक ऐसा स्वतंत्र तत्त्व है, जो सबमें है, जिसमें सब हैं, जिसमें सारे व्यक्ति, समूह आदि अपना-अपना जीवन जीते हैं ? फिर यह देखना भी ज़रूरी है कि जब हम 'मन' को 'जाननेवाला' कहते हैं, तो एक ओर हम अपने विचारों, अनुमानों, भावनाओं आदि को भी 'मन' का नाम देते हैं, और हमारे भीतर ही स्थित, उन्हें 'जाननेवाले' उस निर्वैयक्तिक तत्त्व को भी 'मन' कह रहे होते हैं । -यह हमारा व्यावहारिक यथार्थ है, जो वास्तव में हमें भ्रमित बनाए रखता हैशायद ही कोई इससे उबर पाता होलेकिन इस चीज़ को समझना ऐसा कठिन भी नहीं हैयदि हमारे भीतर मन को जाननेवाला ऐसा कोई तत्त्व वास्तव में है, जिसमें मन कार्य करता है, तो उस 'जाननेवाले' तत्त्व से अलग, उसे भी जाने, ऐसी कोई चीज़ कैसे हो सकती है ?
उस बारे में जिज्ञासा तो अतिप्रश्न ही होगा ?''
उन्होंने पूछा

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