~~~~~~~~अनंत यात्रा~~~~~~~~
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उस गोधूलि-वेला में,
-जब 'गौएँ'
घर लौटें,
और गोस्वामी / गोपाल,
-अपने अंतर में अवस्थित,
'श्री राम' / 'श्री कृष्ण' की आराधना में तन्मय हो जाए,
और उसमें ही निमग्न हो जाए,
-तब कैसा मोह ?
और कैसा शोक ?
-तत्र को मोह:, क: शोको वा ?
आत्मनि आत्मानं आत्मना यदा पश्येत् !!
गीता कहती है, :
-दो ही मार्ग हैं,
दो ही नयन,
चन्द्र और सूर्य के,
दो अयन ।
ये ही दो नयन हैं,
- एक वैराग्योपलब्ध,
विवेकसंपन्न जीव के,
जो ले जाते हैं उसे,
-अनंत यात्रा पर,
''On an eternal voyage .''
जहाँ से आगे वह,
या तो उत्कृष्ट योगियों के कुल में जन्म लेकर,
मोक्ष के लक्ष्य की ओर अग्रसर बना रहता है,
अथवा,
उस दिव्य ज्योति में सदा के लिए लीन होकर,
उससे अनन्य होकर,
सदा के लिए,
जन्म-मृत्य के चक्र से छूट जाता है,
और वह,
तर जाता है,
-भव-सागर !!
चेतना तो फिर भी,
अग्रसर ही रहती है,
- अपनी अनंत यात्रा पर,
बजते रहते हैं,
सतत अनवरत और निरंतर,
-गोविन्द के वेणु-स्वर,
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( गौएँ >गो = इन्द्रियाँ, गोपाल /गोस्वामी = जीव, गोविन्द, श्री राम, श्री कृष्ण = सत्-चित्-घन, आनंद-स्वरूप परमेश्वर.)
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April 18, 2010
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आशय वही जो युगों युगों से चला आया है किन्तु जिस तरह आपने उस मतलब को, आशय को शब्दों में पिरोया है वही इस रचना को और भी प्रभावशाली बना रही है ! "गौएँ" शब्द में ही आपने अपनी कलम से कितने मतलब निकलवा दिए ...यह काम केवल आप ही कर सकते है ! इस रचना के लिए आपको कोटि कोटि बधाई ...
ReplyDeleteशुक्रिया ।
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