~~~~~~~~ उन दिनों -68 ~~~~~~~~
-------अज्ञात की दहलीज़ पर --------
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''अतिप्रश्न ?''
वे इसे अतिप्रश्न कह रहे थे । लेकिन यहीं कहीं वह सूत्र मुझे मिला था जिसने क्षणमात्र में मुझे आमूलत: रूपांतरित कर दिया था । ठीक है, यह बहुत चक्करदार प्रश्न तो ज़रूर था, लेकिन उस क्षण मैं ठीक-ठीक संतुलन के बिलकुल उस बिंदु पर था, जहाँ से 'मन' और 'मन' को जाननेवाले के बीच की उस अनंत दूरी का पारस-स्पर्श मुझे मिला था, जिसने मुझे एकाएक लोहे से स्वर्ण बना दिया था ।
''The whole consciousness, the 'me', the mind, immensely and irreversibly underwent a total transformation in an instant. As it never needs time, using the term 'instant' is far more appropriate. In other words : it was unconditional and uncalled for. ''
वह असाधारण स्पर्श इस बोध से प्रगाढ़-तम रूप में इतना एकरस और अनन्य था कि ज्ञान, यदि बस जानकारी का जोड़ है, ज्ञान यदि 'जाननेवाला' नहीं है, और उसे 'मन' कहा जाए, तो ऐसा मन कभी उस बोध को नहीं जान सकता । क्योंकि 'जाननेवाला' तो वह नि:शब्द सत्ता/तत्त्व/अस्तित्त्व है, जो वैयक्तिक नहीं है । और यद्यपि सारे व्यक्ति उसके ही अंतर्गत सत्यता प्राप्त कर पाते हैं, और वह सबमें विद्यमान रहते हुए भी किसी की भी पकड़ से अछूता है, वही एकमात्र चेतन (न कि जड़ या केवल भौतिक) प्रकाश है, जो अपना प्रमाण आप है । जो इस संपूर्ण अस्तित्त्व का प्रकाशक भी है । उसे मन भला कैसे जान सकता है ?
यह भी एक और अतिप्रश्न ही हुआ !
क्या यह कोई अनुभूति थी ?अनुभूति तो समय, स्थान और स्मृति के अंतर्गत होती है, जानकारी के रूप में जिसे हम ज्ञान समझते हैं, वह तो एक नितांत मृण्मयी वस्तु होती है, और जिसे अनुभूति कह सकते हैं, वह इसी ज्ञान की व्याख्या मात्र होती है ।
इसलिए इसे अनुभूति कहना कामचलाऊ तो हो सकता है, लेकिन विसंगतिपूर्ण भी होगा । यह एक बोध था, -एक प्रत्यक्षावगम था ।
'मन' और 'मन' को 'जाननेवाले' के बीच की यह दूरी जो एक ओर अनंत है, दूसरी ओर वह शून्य भी है । और यही वह गुत्थी है, जिसे 'मन' न तो समझ सकता है, न समझने की संभावना ही कभी होती है । उस अमूर्त्त तत्त्व के ही प्रकाश से और उसके ही अंतर्गत 'मन' कार्य करता है । मेरा या आपका नहीं, सबका एक ही समष्टि-मन । 'मन' और जगत को भी प्रकाशित करनेवाले उस अमूर्त्त तत्त्व को प्रकाशित कर सके ऐसी कोई दूसरी वस्तु होती ही कहाँ है ? कैसे हो सकेगी ?
हाँ, अपने होने का भ्रम, जो बुद्धि की गतिविधि प्रारंभ होने के बाद ही कार्यरत होता है, जड़ से उखड़ चुका था ।
मानता हूँ कि वह पुन: पुन: उभरेगा, जब तक देह है, जब तक बुद्धि है, वह सारे जीवन के सूत्रधार की तरह बारम्बार मंच पर अवतरित होता रहेगा, लेकिन उसकी और जगत की सत्यता जिस प्रकाश में अस्तित्त्व ग्रहण करती है, वह प्रकाश न कभी तो अवतरित होता है, न विलुप्त ही होता है ।
स्वाभाविक ही है कि उसे पाया या खोया जाना मुमकिन नहीं ।
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>>>>>>उन दिनों -69>>>>>>>>
April 06, 2010
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