April 07, 2010

उन दिनों -69

~~~~~~~~~~उन दिनों -69~~~~~~~~
_________________________
*********************************


लेकिन अभी सोने से पहले सर की डायरी पढ़ रहा हूँ, जो मेरे सौभाग्य से मेरे सिरहाने की दीवार की अलमारी में राखी है । सौभाग्य से इसलिए क्योंकि वहाँ बहुत सी दूसरी किताबों, पंचांगों, पत्रिकाओं के बीच किसी संयोग से ही वह नज़र आ सकी है । दो पल ठिठकता हूँ, देखता हूँ, उसमें कोई व्यक्तिगत जानकारी नहीं है, हिसाब ज़रूर है, लोगों के फ़ोन नंबर आदि हैं, एक पुराना पोस्ट-कार्ड भी है, एल.आय.सी.के इंस्टालमेंट की सूचना है, लेकिन पारिवारिक या व्यक्तिगत जानकारियाँ नहीं हैं, हाँ कुछ कवितायेँ और नोट्स भी हैं ।
और फिर बिना किसी अपराध-बोध के एक पर निगाह डालता हूँ ।
''
मन और मन को जाननेवाला, क्या वे दोनों एक दूसरे से नितांत भिन्न प्रकार की दो वस्तुएँ हैं ? कौन मुझे समझाएगा ? हाँ, उस एक क्षण में मुझे यह कौंध गया था कि जाननेवाला तत्त्व वह मन कदापि नहीं हो सकता जो लगातार परिवर्त्तित होता रहता है सरल सी बात है कि मन को जाननेवाला तत्त्व तो कभी बदलता ही नहीं, वह एक कील है जिसके चारों ओर मन सतत बदलता रहता है और बदलता हुआ मन अपने-आपको जान भी नहीं सकता, क्योंकि यदि ऐसा होता तो मन का एक, (भले ही छोटे से छोटा अंश ही सही) जाननेवाला होता इस प्रकार से, जाननेवाला तत्त्व तो बस एक स्थिर प्रकाश है, जिसके अंतर्गत मन को जाना जाता है प्रश्न यह भी है कि कौन जानता है मन को ? पहले तो मन अपने होने के भ्रम का शिकार हो जाता है, जबकि मन नामक वस्तु में ऐसा कुछ भी नहीं होता जिसे अस्तित्त्वमान की तरह से ग्रहण कर सकें, -भावनाएँ, विचार, स्मृतियाँ, अनुभव, अपनी या दुनिया की, दुनिया की वस्तुओं की पहचान, सभी कुछ तो लगातार आता-जाता, बनता-बिगड़ता रहता है हाँ, फिर भी अपने-होने की एक शक्तिशाली भावना उन सबकी अपेक्षा अवश्य ही स्थिरप्राय रूप से शायद हमेशा बनी रहती है अभी 'शायद' शब्द लगाने के पीछे भी यही प्रयोजन है, कि इस पर और सोचने की ज़रूरत है क्या बेहोशी, निद्रा, या अन्यमनस्कता के समय यह मौजूद होती है ? बेहोशी और निद्रा के समय यह कहाँ होती है, होती भी है, या नहीं, कुछ कहना कठिन है, लेकिन बेहोशी या निद्रा के समाप्त होते ही, यह तुरंत ही अस्तित्त्व में जाती है, ऐसा कहना भी शायद जल्दबाजी होगा यदि आप कभी सुबह गहरी नींद पूरी होने पर उठते ही ध्यान दें, तो आप पायेंगे कि मन उस समय लगभग निश्छल सा होता है, आप घर से निकलकर बाहर आते हैं, बगीचे में घूमते हैं, अखबार का या दूधवाले का इंतज़ार करते हैं, और आपका मन तब कुछ नहीं सोचता क्या तब एक बेखुदी नहीं छाई होती है ?
''
मयकदा था, चाँदनी थी, मैं था,
इक ... बेखुदी थी मैं था , मैं था ''
(
यह जो डॉट-डॉट लगाया है, वह इसलिए कि मुझे ठीक से याद नहीं कि क्या शब्द है उस स्थान पर, शायद 'मुक़द्दस'हो, या इससे मिलता जुलता कोई दूसरा शब्द हो, मैं नहीं कह सकता )
-
कुछ ऐसा ही अनुभव होता है
''
इश्क जब दम तोड़ता था तुम थे,
मौत जब सिर धुन रही थी, मैं था ''
यह शेर उसी ग़ज़ल का एक शेर है, आपने सुनी या पढ़ी हो तो आप रिक्त-स्थान की पूर्ति कर सकेंगे
लेकिन क्या सिर्फ-होने-भर की एक भावना उस समय प्रकट रूप में प्रत्यक्ष नहीं होती ? सचमुच उस समय 'मैं' कहाँ होता है ?
अर्थात् अपने-होने की भावना के नितांत अनुपस्थित होते हुए भी, सिर्फ-होने-भर की साक्षात अवस्थिति तब व्याप्त होती हैक्या वहाँ आप अस्तित्त्व से भिन्न होते हैं ? मैं जानता हूँ और मुझे गहरा भरोसा है कि इस अवस्था से हर किसी का साक्षात्कार यदा-कदा हुआ होता हैतब अस्तित्त्व और आपके बीच विभाजन नहीं होतालेकिन फिर दूधवाले के आगमन के साथ, या अखबार जाते ही, 'मैं' और मेरी दुनिया और इन दोनों के बीच का अंतर्कलह या अंतर्व्यापार गति पकड़ लेता है
ऐसा ही है ?
एक ख़ास बात यह कि क्या वहाँ 'जानना' समाप्त हो जाता है ?
तो हम उस 'जानने' को अवश्य ही, अनायास ही जानते हैं, जहाँ 'मैं' नहीं होता !
क्या उस 'जानने' को मन के किसी अभ्यास द्वारा, ध्यान के किसी प्रयत्न के द्वारा पाया जा सकता है ?
लेकिन साथ ही यह भी सत्य है कि यदि हम जागरूक हैं, तो जागरूकता के किसी कालातीत क्षण में वह एकाएक किसी जंगली चिड़िया की भाँति हमारे आँगन में आकर कूजने लगता है । क्या इस जागरूकता को बढ़ाया जा सकता है ? इसे दूसरे ढंग से देखें तो क्या यह संभव नहीं कि मन के प्रमादग्रस्त होने पर ध्यान रखा जाए ? तात्पर्य यह कि बड़ी शान्ति से मन जैसा भी है, उसका अवलोकन किया जाए । अर्थात् अचेतन, चेतन या अवचेतन आदि के वर्गीकरण के ऊहापोह में पड़े बिना ही, चित्त पर भीतर ही भीतर एक नज़र डालते रहें । क्योंकि चेतन, आदि की चर्चा ध्यान को पुन: मन के ही भीतर बाँध देती है, जबकि जिसे हम चित्त कहते हैं, वर्त्तमान के इस सन्निकटतम क्षण में जो कुछ भी हमारे भीतर है, या क्या कुछ हमारे भीतर है, इसे चपलता से देख सकना, अत्यंत सरल है , और मन से हमें अलग कर 'जानने-मात्र' में स्थिर कर देती है । तब मन क्रमश: रिक्त होने लगता है । और जैसे-जैसे मन रिक्त होता है, शांत भी होने लगता है । लेकिन यदि हम दूसरी तरफ प्रमादवश इसे उलझाए रखते हैं, तो सारे किये धरे पर पानी भी फिर जाता है । इसलिए भी मन पर निगाह रखना ज़रूरी है । कब यह 'सुख'के लिए ललककर किसी व्यर्थ की चिंता, लोभ, या भावना का शिकार हो जाता है, इसे सही क्षण पर देख पाना अत्यंत सजगता की माँग रखता है । "

______________________
*****************************

>>>>>>>> उन दिनों- 70 >>>>>>>

No comments:

Post a Comment