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''तो जानना एक प्रकार से 'सकर्मक' क्रिया होता है, तो दूसरी तरह से 'अकर्मक' गतिविधि होता है । ''
''क्या क्रिया और गतिविधि दो भिन्न चीज़े हैं ?''
-मैंने पूछा ।
''हाँ, जैसे प्रेम । या घृणा, आदर, ... आदि होते हैं । ''
''हाँ ।''
''हम प्रेम करते हैं, और हमें प्रेम होता है । बहरहाल प्रेम ठीक-ठीक क्या है, इसे हालाँकि हम न तो जानते हैं, न जानने का ख़याल ही कभी हमें आता है, लेकिन हमें सिखाया जाता है, : किसी से घृणा मत करो । अपने माता-पिता से, भाई-बहनों से, राष्ट्र से, भाषा से, धर्म से प्रेम करो । तो क्या प्रेम या घृणा भी दो प्रकार की चीज़ें नहीं होतीं ?''
''हाँ, कभी-कभी जिससे हमें डर लगता है, हम उससे भी किसी मजबूरी के चलते प्रेम या प्रेम करने का दिखावा करते हैं । ''
''हम 'जानने' के बारे में कह रहे थे । एक तो जानना एक क्रिया होती है, an activity, जिसमें इन्द्रियों, या मन के माध्यम से विषय को प्रत्यक्ष संपर्क में ग्रहण किया जाता है, जहाँ ज्ञाता, ज्ञान, और ज्ञेय किसी 'माध्यम' से एक ही क्रिया में आपस में घनिष्ठत: संबंधित होते हैं । माध्यम के भेद के अनुसार जानने का प्रकार बदलता रहता है । विषय के अनुसार माध्यम को भी बदला जाता है, या ऐसा करना जरूरी ही होता है । किन्तु ज्ञाता ? स्पष्ट ही है कि ज्ञाता सदैव अपरिवर्त्तित रहता है । और 'जानना'भी इसी प्रकार मूलत: अपरिवर्त्तित रहता है । लेकिन 'जानकारी'? क्या वह अपरिवर्त्तित रहती है ? क्या वह निरंतर बदलती नहीं रहती ? क्या हम उसे सत्य नहीं मन बैठते हैं ?
'तथ्यों' के जगत में क्या जानकारी स्वयमेव सदा एक जैसी रह सकती है ?लेकिन हम उसे दो भागों में बाँटकर एक से अपनी और अपनी पहचान की दुनिया को एक सत्य की तरह ग्रहण करने लगते हैं । ''
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