~~~~~~~~ताकि सनद रहे ~~~~~~~~
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अंग्रेज़ी भाषा और रोमन लिपि के बढ़ते प्रभुत्त्व से जहाँ एक ओर न केवल भारतीय भाषाओं के अस्तित्त्व पर ही संकट के बादल मंडरा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर हिन्दी सहित उन सभी भाषाओं के वर्त्तमान स्वरूप में उत्पन्न हो रहे विकार भी चिंता या चिंतन का विषय हैं ।
इस संबंध में मेरे मित्र श्री सुयश सुप्रभ के प्रश्न के उत्तर में मैंने कुछ इस प्रकार से लिखा था । रिकॉर्ड के लिए,
'ताकि सनद रहे ।'
उसे पुन:श्च इस ब्लॉग में प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
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पहले हमें यह सोचना होगा कि अंग्रेज़ी का प्रभुत्त्व क्यों है !
अपने भारत में, अगर हम भिन्न-भिन्न भाषाओं की लिपि देखें, तो नेपाली, और मराठी भाषाओं का उदाहरण काफी प्रेरक होगा ।
लेकिन इसके भी पहले हमें चाहिए कि यदि एक 'भारतीय'-भाषालिपि-आन्दोलन', जिसके अंतर्गत दूसरी सारी भारतीय भाषाओं के लोकप्रिय साहित्य को देवनागरी लिपि में प्रकाशित कर जन-सामान्य को तुलनात्मक रूप से कम मूल्य पर उपलब्ध कराया जा सके, तो सभी भारतीय भाषाओं का व्यवहार करनेवाले, भारतीय-भाषा-भाषी, धीरे-धीरे हिन्दी से जुड़ जायेंगे ।
उर्दू का उदाहरण हमारे सामने है । सिंधी का भी, और शायद पंजाबी का भी । उर्दू के सिवा शेष सभी भाषाओं तथा उनकी लिपि के स्वाभाविक उद्गम को संस्कृत में देखा जा सकता है । इन सभी भारतीय भाषाओं में जहाँ एक ओर बोली के तौर पर संस्कृत भाषा के शब्दों और समासों को, प्रत्ययों और उपसर्गों को, अपभ्रंश-स्वरूप प्राप्त हुआ, वहीं लिपि में भी, देवनागरी के वर्ण-विन्यास में विरूपण (परिवर्त्तन, बदलाव) आया ।
अब यदि पालि भाषा के बारे में देखें, तो देखना आसान है कि जिसे संस्कृत अच्छी तरह से आती है, वह पालि के संस्कृत उद्गम को अनायास पहचान लेगा । मैंने विधिवत पालि नहीं सीखी, लेकिन पालि के एक-दो प्रसिद्ध ग्रंथों के यत्किंचित अध्ययन से लगता है कि पालि भाषा, खासकर बौद्ध और जैन दर्शन के ग्रंथों में प्रयोग की जानेवाली भाषा संस्कृत के इतने निकट है जितनी कि हिन्दी या दूसरी कोई भी भारतीय भाषा शायद ही हो ।
तात्पर्य यह कि हिन्दी के लिए अनायास प्राप्त इस अमूल्य विरासत को कचरे में फेंककर, देवनागरी जैसी वैज्ञानिक लिपि को छोड़कर, रोमन जैसी अपेक्षाकृत अवैज्ञानिक एवं अनाम माता-पिता से उत्पन्न संतान को हिन्दी या किसी भी दूसरी भारतीय मूल की भाषा के लिए अपनाना, माता को नौकरानी का, तथा नौकरानी को माता का स्थान प्रदान कर देने जैसा होगा ।
शुरुआत दक्षिण भारतीय भाषाओं से की जानी चाहिए क्योंकि, दक्षिण भारतीय भाषाएँ, जैसे कि मलयालम, कन्नड़ तथा तेलुगु के शब्दों के उच्चारण जहाँ हिन्दी की ही भाँति, वर्ण-विन्यास के अनुरूप, अर्थात् यथालिखित-तथापठित होते हैं, वहीं तमिळ इस दृष्टि से कुछ भिन्न है ।
अब यदि तमिळ की संरचना को देखें तो उसके ऐसा होने के मूल में अपना ऐतिहासिक और वैज्ञानिक आधार है, जो स्वरोच्चार (फोनेटिक्स) के कुछ ऐसे नियमों का पालन करता है, जो संस्कृत में अपवादस्वरूप मान्य हैं । यहाँसिर्फ संकेत दिया जा सकता है कि जैसे संस्कृत के वैदिक स्वरूप में कुछ ऐसे नियम व्याकरण के प्रयुक्त होते हैं, जो संस्कृत के पौराणिक और साहित्यिक, वेदेतर प्रयोग में नहीं पाए जाते, उसी प्रकार से तमिळ व्याकरण औरभाषा-संरचना में भी ऐसे कुछ नियम हैं, और वे पूर्णत: वैज्ञानिक भी हैं । उस सबका अपना महत्त्व है, और वह तमिळ के आध्यात्मिक पक्ष का हिस्सा भी है । तमिळ का अपना समृद्ध इतिहास रहा है, किन्तु वह संस्कृत की सहवर्ती-भाषा के रूप में और उसकी सहायता से ही हुआ है, न कि उसके विरोध में । 'द्रविड़' यह शब्द भी शुद्धत: एक संस्कृत शब्द है । 'आर्य' की ही तरह, किन्तु आर्य-द्रविड़ की भिन्नता को जिस प्रकार हम पर आरोपित कर हमें विभाजित किया गया है, उसके मूल में दुष्ट शक्तियों के अपने निहित स्वार्थ हैं इस संबंध में जागरूकता बहुत ज़रूरी है ।
तात्पर्य यह कि अंग्रेज़ी का प्रभुत्व जिस प्रकार स्थापित हुआ, हिन्दी तथा देवनागरी का वर्चस्व भी उसी रीति से, और उससे अधिक अच्छी तरह से करने के अवसर हमारे पास हैं । 'सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट' के सन्दर्भ में देखें, तो वह आवश्यक भी है ।
जब हम वृक्ष की दूर-दूर तक फ़ैली हुई अनेक जड़ों में से किसी एक ही जड़ को सींचते हैं, तो बाकी जड़ें और पूरा वृक्ष ही अंतत: सूख जाता है । किन्तु यदि सभी जड़ों को सींचते हैं तो पूरा वृक्ष विकसित होता है । इससे हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं का भला होगा ।
संस्कृत को अन्य भाषाओं के विरोध में खड़ाकर विलायती आज भी भारतीय भाषाओं में वैमनस्य पैदा करने में संलग्न हैं । किन्तु सारी भारतीय भाषाओं के प्राण संस्कृत में ही हैं, इसे यदि हम न भूलें, तो उनके षड्यंत्र के शिकारहोने से बच सकेंगे ।
जैसा कि पहले हमने देखा, इस बारे में एक दूसरा और उतना ही महत्त्वपूर्ण कदम यह होगा कि हम हिन्दी के श्रेष्ठ और लोकोपयोगी, लोकप्रिय साहित्य को हिन्दी में ही, लेकिन देवनागरी की बजाय दूसरी सभी भारतीय भाषाओं में -उनकी अपनी उन ख़ास लिपियों में भी प्रकाशित करें ।
इस बारे में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य हमारे सामने है -
'क्या देवनागरी में लिखे जाने से मराठी भाषा के विकास और उसकी समृद्धि में कोई अवरोध आया ?'
इस प्रश्न के उत्तर में हमें इस सवाल का जवाब मिल जाता है कि क्या अन्य भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठ और लोकप्रिय ,लोकोपयोगी साहित्य को देवनागरी लिपि में प्रकाशित कर सुलभ मूल्य पर उपलब्ध कराने से उन भाषाओं के विकास और समृद्धि में कोई अवरोध आयेगा ?
इसके अतिरिक्त इस प्रकार के प्रयास जहाँ एक ओर अपनी गतिविधि में अनायास राष्ट्रीय मेल-मिलाप, राष्ट्रीयता की भावना बढ़ाने में उत्प्रेरक होगा, वहीं दूसरी ओर इससे रोज़गार के बहुत से अवसर भी अनायास पैदा होंगे ।
मैं मानता हूँ कि यह अभियान देवनागरी के लिए ही नहीं, बल्कि हम सबके लिए और भावी पीढ़ियों के लिए भी, संपूर्ण विश्व के लिए ही सर्वथा कल्याणकारी होगा ।
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March 22, 2010
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इस गंभीर और विद्वत्तापूर्ण पोस्ट में- ''उर्दू के सिवा शेष सभी भाषाओं तथा उनकी लिपि के स्वाभाविक उद्गम को संस्कृत में देखा जा सकता है ।'' उल्लेख के साथ स्वाभाविक ही ब्राह्मी लिपि की चर्चा होनी चाहिए, अन्यथा सरसरी तौर पर देखते हुए भाषा और लिपि पर साथ-साथ विचार करना, पढ़ने वाले को भ्रम में डाल सकता है. वैसे इस पोस्ट का महत्व तो स्वयंसिद्ध है.
ReplyDeleteप्रिय राहुल सिंहजी,
ReplyDeleteआपका ई-मेल भी प्राप्त हुआ । ’ब्राह्मी’
के बारे में यहाँ इतना ही कहना चाहूँगा
कि ’ब्राह्मी’ लिपि का आविष्कार किया
गया था, ताकि संस्कृत के मूल सूत्रों
आदि को मिट्टी के सिक्कों / मुद्राओं
के रूप में सुरक्षित रखा जा सके ।
अतः उसका प्रयोजन भिन्न होते हुए
भी वह है तो संस्कृत ही, इसमें सन्देह
नहीं, किन्तु इस चर्चा में उसका उल्लेख
मुझे थोड़ा अप्रासंगिक प्रतीत हो रहा है ।
सादर,
जिस लिपि को देवनागरी कहा जाता है, उसका उद्गम ९ वीं सदी के पश्चात् ही हुआ था. आप ज्ञानी हैं और समझ भी पा रहे होंगे की किसी भी भाषा को किसी भी लिपि में लिखा जा सकता है. अतः लिपि और भाषा दोनों अलग अलग हैं. लिपि भाषा को लिखित रूप में अभिव्यक्त करने का साधन ही तो है. मुझे यह तो नहीं मालूम कि संस्कृत को सबसे पहले किस लिपि में लिखा गया था. लेकिन भारत में उपलब्ध सबसे पुराने लेख ब्राह्मी अक्षरों में ही संस्कृत दृष्टिगोचर होता है. दक्षिण में कुछ एक अंतर है जिसे तमिल ब्राह्मी भी कहा जाता है.
ReplyDeleteजिस लिपि को देवनागरी कहा जाता है, उसका उद्गम ९ वीं सदी के पश्चात् ही हुआ था. आप ज्ञानी हैं और समझ भी पा रहे होंगे की किसी भी भाषा को किसी भी लिपि में लिखा जा सकता है. अतः लिपि और भाषा दोनों अलग अलग हैं. लिपि भाषा को लिखित रूप में अभिव्यक्त करने का साधन ही तो है. मुझे यह तो नहीं मालूम कि संस्कृत को सबसे पहले किस लिपि में लिखा गया था. लेकिन भारत में उपलब्ध सबसे पुराने लेख ब्राह्मी अक्षरों में ही संस्कृत दृष्टिगोचर होता है. दक्षिण में कुछ एक अंतर है जिसे तमिल ब्राह्मी भी कहा जाता है.
ReplyDeleteआदरणीय सुब्रहमणियन्,
ReplyDeleteआपकी टिप्पणी के लिये आभारी हूँ ।
मैं मानता हूँ, कि मेरा ज्ञान उतना प्रामाणिक नहीं है,
जितना कि आपका । फिर भी आपसे प्रशंसा पाना मेरा
सौभाग्य ही है !
सादर,
विनय.