March 24, 2010

दृष्टिकोण (प्रायोगिक)

~~~~~~~~~प्रसंगवश ~~~~~~~~~
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मैं 'आई-टाइम्स' में आभा मित्तल द्वारा प्रस्तुत एक ब्लॉग पढ़ रहा थाइसमें विवाह, तलाक और प्यार के विषय में किसी विदेशी लेखक के विचार प्रदर्शित किये गए हैं
उपरोक्त ब्लॉग पर लिखी गयी मेरी टिप्पणी को ही यहाँ मैं पुन: प्रस्तुत कर रहा हूँटिप्पणी अपने-आपमें भी पूर्ण है, इसलिए ज़रूरी नहीं कि 'आई-टाइम्स' के उक्त ब्लॉग को भी पढ़ा ही जाये
'दृष्टिकोण' स्तंभ के अंतर्गत कुछ ऐसे ही भिन्न-भिन्न विषयों पर लिखते रहने का मेरा विचार है
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गुलज़ार का एक गीत, जिसे लताजी ने शायद 'खामोशी' नामक फिल्म के लिए गाया था, मुझे याद आता है :
''एक * एहसास है, ये रूह से महसूस करो,
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम दो । ''
"... ... ...
एक खामोशी है, सुनती है, कहा करती है, ..."

(* एक या इश्क ?, मुझे ठीक से याद नहीं , -बस अनुमान है मेरा । )
समाज प्यार को बाँधना चाहता है, परिभाषित करना चाहता है, हर व्यक्ति को डर लगता है कि यदि ऐसा नहीं किया गया तो समाज पतित हो जाएगा, विखंडित हो जाएगाहर व्यक्ति इस बारे में सशंकित रहता है, अपने-आपके भीतर, और इसीलिये दूसरों के संबंध में भीलेकिन फिर भी समाज पतित हो रहा है इसमें संदेह की तनिक भी गुंजाइश नहीं हैक्योंकि हम प्यार को जानते ही नहीं, हम तथाकथित 'सुख' को ही जानते हैं, भयों को जानते हैं, असुरक्षाओं को जानते हैंभय बदनामी का भी हो सकता है, अपने-आपके भटक जाने का, और यह भी हो सकता है कि जाने-अनजाने कहीं दूसरों को भी इस जाल में लपेट लेंहम सतत एक द्वंद्व से, दोहरेपन से त्रस्त रहते हैंक्योंकि हम अपनी उद्दाम सुख-लिप्साओं को ज़रूर जानते हैं, (जबकि इसे स्वीकार करना नहीं चाहते कि हम उनमें बुरी तरह फँसे हुए हैं, ) जिन्हें हम कभी ठीक से समझ तक नहीं पाते, और फिर भी तथाकथित शर्म, या बेशर्मी के साथ-साथ, आदर्श आचरण करने और दूसरों को आदर्श आचरण करने के लिए प्रेरित करने की कोशिश में लगे रहते हैंतब पाखण्ड हमारी जीवन-शैली का अनिवार्य हिस्सा हो जाता हैऔर तब स्वयं को, अपने-आपको, अर्थात् अपने 'मन' को, अपनी मानसिकता को समझ पाना और भी मुश्किल हो जाता है
इस बारे में जब तक हमारी मानसिकता नहीं बदलती, तब तक इस समस्या (?) का कोई हल या समाधान नहीं हैऔर ज़ाहिर है कि जब तक हम मनुष्य के ( कि हिन्दू, मुस्लिम, या अन्य किसी सम्प्रदाय या धर्म आदि के )मन को नहीं समझते, तब तक इस द्वंद्व की समाप्ति असंभव हैयदि हमें यह स्पष्ट है, तो तमाम नैतिक, सामाजिक मूल्य, वर्जनाएं, आदर्श, बाध्यताएँ, शायद हमें इस ओर आगे जाने में सहायक भी हो सकती हैं । लेकिन मनुष्य के मन को ठीक से समझे बिना ही बलपूर्वक आरोपित कोई भी व्यवस्था, चाहे वह विवाह के नाम पर हो, तलाक के नाम पर हो, या लिव-इन रिलेशनशिप के नाम पर हो, हमारे मन को द्वंद्व से मुक्त कभी नहीं कर सकती, समस्या का समाधान नहीं हो सकती ।
प्यार संबंध हो भी सकता है, और नहीं भी हो सकता हैप्यार और यौन-प्रवृत्ति साथ-साथ हो भी सकते हैं, या नहीं भी हो सकतेउन दोनों को परस्पर जोड़ देना ही समस्या हैयौन-प्रवृत्ति प्रकृति का एक वरदान है, एक उपहार भी हैऔर यहाँ प्रश्न उठता है यौन-शुचिता कायदि अपनी यौन-प्रवृत्ति (sexuality) विकृत है, तो हम यौन-व्यवहारमें 'सुख' ढूँढने लगते हैंयौन क्रियाकलापों में संलिप्तता से हमें सांसारिक तनावों से, परेशानियों से एक किस्म की तात्कालिक राहत भी मिलती हुई प्रतीत होती है, किन्तु एक अपराध-बोध भी उससे जुड़ा होता हैइसका यह अर्थ नहीं कि हम यौन आचरण में गौरव अनुभव करें, या स्वच्छंद यौन-व्यवहार करने लगें ! समस्या यौन-आचरण के प्रति हमारे दृष्टिकोण के कारण हैजब तक हम यौन-क्रियाकलाप के माध्यम से कोई राहत या सुख पाना चाहते हैं, तब तक वह हमारे लिए एक दुश्चक्र ही रहेगाक्योंकि वह एक नकारात्मक-सुख है, अर्थात् एक आभासी सुख भर है, बस दु: का विस्मरण मात्र हैजिसे वस्तुत: पाया नहीं जा सकतावह एक नशा है, जो कुछ समय के लिए हमारे जीवन की वास्तविकताओं से हमें दूर ले जाता प्रतीत होता हैऔर हम इस भुलावे के शिकार होते रहते हैं
इसलिए जब तक यौन-प्रवृत्ति को 'सुख' का साधन समझा जाता है, तब तक वह हमारे लिए एक दुश्चक्र (और एक दु:स्वप्न भी) ही बना रहता है
जब यौन-भावना को उसके सही परिप्रेक्ष्य में, अर्थात् प्रकृति के एक उद्देश्यपरक तत्त्व की तरह से पहचानकर उससे सामंजस्य रखते हुए, उसके प्रति सम्मान और अनुग्रह की भावना रखते हुए जीवन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा समझा जाता है, तो मन तद्विषयक सारे द्वंद्वों से मुक्त हो जाता हैतब एकाएक ही, वर्त्तमान में प्रचलित हमारे समाज की तमाम 'बुराइयों', (जिनके बारे में हम अखबारों, फिल्मों, टीवी, नेट आदि में पढ़ते / देखते रहते हैं) की निरर्थकता समझ में सकती है
यौन-प्रवृत्ति प्रकृति का एक वरदान है, जिसे हम अनुग्रह-भाव से नहीं बल्कि सुख-बुद्धि से ग्रहण करते हैं, और फिर तमाम उपद्रव हमारे अपने, और अपनों के जीवन को विषाक्त और विनष्ट कर देता हैतब सच्चा 'प्यार' क्या है, और 'वासना-युक्त प्यार' क्या है, जैसे ऐसे प्रश्नों का सामना हमें करना होता है जिनके कोई उत्तर हमारे पास कभी नहीं हो सकते हैं

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