March 06, 2010

उन दिनों -58.

~~~~~~~~~ उन दिनों -58~~~~~~~
________________________
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

ऊब,वर्केहलिज्म और खालीपन, --सृजनात्मकता के सन्दर्भ में
-------------------------------------------------------
''
मुझे इस पर सोचना है !''
-
मैंने स्केच-पेन से डायरी में नोट लगाया था
अगले पृष्ठ पर देखता हूँ, वहाँ क्या लिखा है मैंने ?
... ...
तब मैं उनसे अतीत और वर्त्तमान की चर्चा कर रहा था वे कह रहे थे कि वर्त्तमान, अतीत (और शायद भविष्य भी !) कहीं 'होता' है, इस पर मुझे संदेह है
पिछली दफा वे मेरे स्वतंत्र 'व्यक्तित्त्व' के 'होने' पर संदेह कर रहे थे, और अब वर्त्तमान, अतीत और भविष्य पर भी प्रश्न-वाचक चिन्ह लगा रहे थे वे कह रहे थे, :
''
यह जिसे हम वर्त्तमान, अतीत और भविष्य के रूप में मान बैठते हैं वह सचमुच कहीं होता नहीं ! बस 'काल' की अपनी बनाई मानसिक प्रतिमा रुपी एक छाप हमारे मन में ऐसी साकार और सजीव हो उठती है, कि एक सतत परिवर्तनशील नक्शा हमारे मन में बना रहता है बस स्मृति ही उसे निरंतरता प्रदान करती है, हमारे द्वारा स्वीकार किये गए हमारे 'वर्त्तमान', 'अतीत', और 'भविष्य' रूपी सतत परिवर्तनशील चित्र उनके 'होने' का आभास उत्पन्न करते हैं और उन्हीं में हम अपना एक निजी अस्तित्त्व भी आरोपित कर लेते हैं फिर यह भी बस मन की कल्पना ही तो होती है ''
वे घूम-फिर कर वहीं लौट आये थे जिसके लिए मैं डर रहा था
''
क्या आपको खालीपन महसूस होता है कभी ?''
उन्होंने पूछा
"
हाँ, कभी-कभी क्या, अक्सर ही मुझे लगता है कि मनुष्य यदि खाली बैठा रहे तो दिमाग में व्यर्थ बातें घुमड़ती रहती हैं ''
''
फिर''
''
फिर क्या, इसलिए मैं सोचता हूँ कि मनुष्य को कुछ कुछ करते रहना चाहिए
''
कब तक ?''
''
जब तक शरीर है, जब तक थक जाए, तब तक ''
''
क्या इससे खालीपन क्या है, यह समझ पायेंगे ?''
''
खालीपन घबराहट पैदा करता है कुछ सार्थक करना ही उसका सही इलाज है ''
''
जैसे ?''
''
जैसे घर का कोई कार्य, समाज-सेवा, साहित्य पढ़ना, रचना, अपना विकास करना, ... ... ''
वे प्रत्युत्तर में कुछ नहीं बोले
''
क्या खालीपन से, कोरे खालीपन से आपको घबराहट नहीं होने लगती ? डर नहीं लगने लगता ?''
वे चुप ही रहे अक्सर ऐसा होता था वे बातचीत में याददाश्त का इस्तेमाल यथासंभव कम से कम किया करते थे जानकारी का उपयोग वे जब करते थे, तो उन्हें पता होता था कि वे किसी वस्तु को, किसी निर्जीव वस्तु को काम में ला रहे हैं लेकिन जब वे किसी वास्तविकता पर, किसी जीवंत समस्या पर कुछ कह रहे होते, तो उनसे पूछा गया प्रश्न मानों अटल, निर्जल कुँए में फेंका गया एक शब्द होता था, और उस मौन कुँए से आन्र्वाली उसकी अनुगूँज जब सुनाई देती, तो बिलकुल सटीक, टू पॉइंट समाधान मिलता
ऊब पर मनोवैज्ञानिकों ने कितना चिंतन किया है, और वे किस निष्कर्ष पर पहुँचे, यह तो मैं नहीं जानता, लेकिनवह सब अंतत: 'जानकारी' ही सिद्ध होता है, वे स्वयं उस निष्कर्ष का उपयोग समाधान की तरह कहाँ कर पाते हैं ?
'
सर' ने इस प्रश्न को ध्यान से सुना, और मौन उस निर्विचार मन में कई क्षणों तक वह प्रश्न घूमता रहा होगा उसने स्मृति के द्वार नहीं खटखटाए होंगे वे उस प्रश्न के साथ 'जिए' होंगे , उसमें अपने प्राण फूँके होंगे, और वह उत्तर की शक्ल में बाहर वापस आया
''जब
हमारी कोई शारीरिक ज़रूरत होती है, जैसे भूख, प्यास, निद्रा, या ठण्ड, गर्मी, आदि से सुरक्षा, या केवल थकान या फिर व्यायाम की ज़रूरत, तो हमें एक किस्म की परेशानी होती है, जिसे समझा जा सकता है और अक्सर दूर भी किया जा सकता है 'ऊब' क्या ऐसी कोई परेशानी होती है ?''
-
वे बोले
'
'नहीं ''
''
क्या 'ऊब' रचनात्मकता के अभाव का, या रचनात्मकता के कुंठित होने का द्योतक है ?''
-उन्होंने पूछा
इस छोटे से एक प्रश्न के माध्यम से उन्होंने मानों मेरे मन-रूपी अँधेरे बंद कमरे की एक खिड़की खोली
'नई खिड़की ?'
''हाँ, मैंने अपने-आपसे कहा सिर्फ कहा, बल्कि उस खिड़की से आती उस रौशनी को देखा भी, जिसके अस्तित्त्व से भी मैं अब तक अनभिज्ञ थाक्योंकि मुझे कभी इस संभावना की कल्पना तक नहीं आई थीमुझे तो उस खिड़की के अस्तित्त्व तक का ख़याल नहीं थाइस प्रश्न पर मुझे बहुत सोचना-समझना था अभी ।'ऊब' से दूर भागने को ही मैं अब तक रचनात्मकता समझता था, लेकिन यह 'ऊब' स्वयं एक बीज हो सकती है रचनात्मकता का, यह कभी नहीं समझ पाया थालेकिन अंकुरित होने के लिए बीज को फूलना होता है, जो नमी और तपन में हीहो पाता है, उमस और बेचैनी में ही होता हैऔर यदि आप बीज को 'कोल्ड-स्टोरेज' में रख दें सुरक्षित, और फिरभूल ही जाएँ उसे, तो आप बेशक दूसरी गतिविधियों में जी-जान खपा दें, वह बीज या तो सड़ कर समाप्त हो जाता है, या अर्द्ध-विकसित होकर नष्ट हो जाता है
खिड़की से आती रौशनी ने मेरी आँखें खोल दींमुझे शर्म भी महसूस हुईउनमें और मुझमें एक गहरा फर्क मुझे दिखलाई पड़ावे विद्वान नहीं थेउन्होंने किसी किस्म का घोर तप किया हो, ऐसा नहीं लगतालेकिन जीवन को देखने की जो सरल दृष्टि उनके पास थी, (जो शायद मुझमें भी है, और सभी में जन्म से होती है, ऐसा लग रहा है अब मुझे, ) उसे मैं अपने भीतर पहले क्यों नहीं समझ पाया ? मैं अपने भीतर ही क्यों नहीं उद्घाटित कर पाया ? हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी और विद्वान्, 'विशेषज्ञ' इससे क्यों वंचित होते हैं ? वे क्यों ऊबते हैं, और ऊब से भागने, बचने या उसे मिटाने के लिए चिर-परिचित, आजमाई हुई राहों को अपनाते हैं ? क्यों वे कोई आदर्श, लक्ष्य, स्थापित करते हैं, और फिर उस लक्ष्य के लिए अपने जीवन को बलिदान कर देते हैंयदि उनके जीते जी उन्हें लक्ष्य-प्राप्ति हो भी जाती है, तो भी 'व्हॉट नेक्स्ट ?' तो सामने रहता ही है ! क्या ऊब या खालीपन से वे छूट पाते हैं ? और यदि उन्हें लक्ष्यप्राप्ति हो सके, तो सारे जीवन भर किसी महान लक्ष्य के लिए कार्य करते रहने की व्यस्तता, श्रम, और एक गौरव की भावना, जीवन को सार्थक बना लेने की संतुष्टि तो उन्हें मिल ही जाती होगीवर्केहोलिज्म का एकप्रतिष्ठित रूप !
मैं थोड़ी देर तक मौन बैठा, अपने भीतर की उमड़-घुमड़ झेलता रहाजब थोड़ा सहज हुआ तो उन्हें अपने प्रश्न केउत्तर की प्रतीक्षा करते पायासच तो यह है कि उन्हें किसी किस्म की जल्दी नहीं थीवे प्रतीक्षा तक नहीं कर रहेथे, क्योंकि उन्हें कोई अपेक्षा भी नहीं थीवे तो बस 'शेयरिंग'कर रहे थेउन्हें कोई जल्दी नहीं थीजल्दी तो हमें होती हैहमारा समय बहुत मूल्यवान जो होता है ! दूसरी ओर 'समय कैसे काटें,' यह प्रश्न भी प्राय: हमारे सामने मुँह बाए खड़ा रहता है
_____________________________
************************************
>>>>>>>>>>>> उन दिनों -59 >>>>>>>

No comments:

Post a Comment