March 11, 2010

विस्मय, जिज्ञासा, कौतूहल.

नलिनी की एक और कविता, जो 'उपन्यास उन दिनों' के किसी आगामी अध्याय में प्रस्तुत की जायेगी :
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विस्मय,जिज्ञासा, और कौतूहल
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तीनों,
-जुडवाँ हैं,
एक साथ जन्मने वाले,
एक ही क्षण में,
एक ही कोख से,
लेकिन कितने अजीब और अलग हैं,
-एक दूसरे से !
मानों सत्त्व, रज और तम हों !
त्रिगुण,
-और त्रिगुणातीत भी !
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पहला,
-शुद्ध सत्त्व,
सुस्थिर,
कोई व्याकुलता नहीं,
कोई भटकाव नहीं,
कोई अशांति नहीं !
तृप्त, आनंदित,
सजग, और,
-उल्लसित !
*****
दूसरा,
चंचल,
कभी व्याकुल-आकुल,
तो कभी प्रसन्न !
कभी चिंतित,
तो कभी अवसन्न !
हरदम कुछ ढूँढता हुआ,
-अतृप्त,
-बेचैन,
-हर्षित,
-विलसित,
-या फिर बस आत्म-मुग्ध
*****
और तीसरा,
बस नाम-मात्र के लिए जागता हुआ,
और नाम-मात्र में अपनी सुध-बुध खोता हुआ,
व्यथित,
मोहित-बुद्धि से ग्रस्त,
-अलसित
,
तृप्ति-अतृप्ति के बीच,
पेंडुलम की तरह,
-डोलता हुआ,
भटकता हुआ,
और
हर क्षण ही,
विस्मृत-स्मृति !
*****
जैसे,
स्वरों और व्यंजनों के,
ज़रा से हेर-फेर से,
अर्थ का अनर्थ हो जाना,
जैसे,
''भद्र'' का ''भद्दा'',
''खुद'' का ''खुदा'',
या,
''बुद्ध'' का,
-''
बुद्धू'' हो जाना !!
*****
पुरुष ?
-वह
गुणातीत,
त्रिगुणातीत,
गुणान्वित होकर,
क्रीडारत रहता है,
अपने-आपसे !
-अपनी ''प्रकृति'' से,
और उनका मनुज-शिशु,
हर क्षण,
अविद्या से ग्रस्त हुआ,
सुखी, दु:खी, चिंतित, रुष्ट, क्रुद्ध,
और व्याकुल होता हुआ,
''अपने'' निज संसार से !!

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