~~~~~~~~~~ उन दिनों -61~~~~~~~~~~
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अभी तक मैं एक धुन्ध में चलता रहा था, और एक धुन्ध मेरे भीतर चलती रही थी । 'कनेक्ट' होना तो मुझे 'सर' ने ही सिखाया था । वरना मैं 'कनेक्ट' होना जानता ही कहाँ था ? बस अपने पूर्वाग्रहों, गरूर में मगरूर था । उसी धुन्ध में अपने जैसों को खोजता रहा था । जो मेरे जैसे नहीं थे, उनसे बचता हुआ, उनसे डरता हुआ, या उनका मज़ाक उडाता हुआ । और, जो मेरे जैसे थे, उनसे मान्यता, रिकग्नीशन पाने की उम्मीद पालता हुआ मैं बस गतिशील था । जब तक हमारी मान्यताएँ, हमारे मूल्य बीच में हैं, तब तक हम किसी से कनेक्ट कैसे हो सकते हैं ? अपने में टूटकर हम किसी और से कैसे जुड़ सकते हैं ? मुझे नलिनी की कविता की एक पंक्ति याद आई, :
''अपने से टूट कर कब कोई जुड़ सका है किसी से ! ''
लेकिन मैं अपने में टूटकर यही तो करना चाह रहा था ! ज़ाहिर है कि वैसा होना नामुमकिन था । अविज्नान इस सत्य को बचपन में ही समझ चुका था । अपने माता-पिता के साथ पार्टी में मिली उस लडकी से अपने कुछ लम्हों की मुलाक़ात में ही उसने समझ लिया था कि परिचय का पुल बनाने के लिए हम जिस चीज़ का सहारा लेते हैं, वह स्वयं ही भुरभुरी होती है, -रेत जैसी भुरभुरी । हालाँकि इसका साक्षात्कार उसे उसी समय हो गया था, किन्तु यह सब समझ में ठीक से वर्षों बाद आया था, जब मैंने उससे पूछा था कि उसे क्या हो जाता है, लोगों के बीच ? और मुझे तो अब जाकर समझ में आ रहा है कुछ-कुछ । बल्कि सब-कुछ । हम संप्रेषण करते हुए भी अपनी ही धुन्ध में चलते रहते हैं । तब हम जो कुछ भी कहते हैं, हमारी अंत:प्रेरणा से उपजा हुआ नहीं होता । तब हम दूसरों के बारे में, अपने मन में बनी उनकी प्रतिमाओं से अपने बारे में, अपने मन में बनी प्रतिमा के माध्यम से कुछ कहते-सुनते हैं । यह बस अपने भीतर की धुन्ध होती है, जो बाहर से भी हमें घेरे रहती है । तब हम कनेक्ट नहीं होते, हम जुड़ते नहीं । इसीलिये हम ज़िंदगी को दोहराते भर रहते हैं, अपनी आदतों को, अपने भयों, आशंकाओं, उम्मीदों, और आग्रहों को । और इसलिए कोई अचरज नहीं, कि हम ऊबने लगते हैं । भविष्य की चुनौतियों का अनुमान लगाना और उनके लिए चिंतित,व्यग्र रहना, यही बचा रहता है तब हमारे पास । yadi usamen हम बुरी तरह असफल होते रहते हैं, तो ताज्जुब की बात नहीं ।
लेकिन ऊब के बारे में यह सब उन्होंने काफी बाद में कहा होगा । कभी-कभी याददाश्त के क्रम में जाने कैसे उलट-पलट हो जाती है । बार बार सोचता हूँ, कि क्रमवार लिखूँ, पर कुछ न कुछ छूट ही जाता है, जिसे याद आने पर बाद में लिख लेता हूँ वरना एक अधूरेपन का अहसास बना रहता है । सोचता हूँ, कि फिर कभी फुर्सत निकालकर सब कुछ क्रम से लगा लूँगा ।
बातों ही बातों में वे अपने बारे में कह रहे थे,
''कभी-कभी सोचता हूँ कि हर आदमी की ज़िंदगी किसी भी दूसरे की ज़िंदगी से कितनी भिन्न होती है ? 'आइसोलेटेड' होती है, -अपने-आपमें बंद । कहीं कोई खिड़की न हो, कोई दरवाज़ा न हो, ऐसा एक बंद कमरा । लोग एक-दूसरे के करीब आते हैं, पर बस पल-दो-पल, या घड़ी-दो-घड़ी । हाँ, हम शेयर ज़रूर करते हैं । पर एक दूसरे को नहीं, वैसा तो कोई कभी कर ही नहीं सकता, वहाँ हर कोई लाचार है । जैसे सबने दस्ताने पहन रखें हों और शेक-हैण्ड कर रहे हों । और शायद एक दूसरे के हाथों की गर्माहट का हल्का सा एहसास पल भर तक ज़िंदा रहकर मर जाता है । फिर सब कुछ खो जाता है । लेकिन हम इस सीधी सी सच्चाई को देख नहीं पाते । हमें इस बाबत ख़याल तक नहीं आता । हम किन्हीं दूसरे ख्यालों में उलझे होते हैं । ''
वे आगे बोले,
''पहले सोचता था, बहुत पढूँ, बहुत लिखूँ, लिखा भी थोड़ा-बहुत, लेकिन पढ़ा उससे हज़ार गुना ज़्यादा । फिर लगने लगा कि यह सब भी मुखौटा है, झूठ और झूठ का कारवाँ, जटिल बौद्धिक बहसें, तुच्छ नुक्ते, कॉफी-हाउस, पॉलिटिक्स, सार्त्र और देकार्त, ब्रेश्ट और शॉ , हेमिंग्वे और रसेल, ... । "
मैं 'लिसनिंग-एंड' पर था ।
"एक बात बतलाइये, "
वे बोल रहे थे, -
"क्या आपको कभी ऐसा नहीं लगता कि यह सब झूठ है, और इस झूठ से परे कहीं कुछ नहीं है ? क्या आपको ज़िंदगी से कभी असंतोष नहीं होता ? -नहीं हुआ ? असंतोष से मेरा मतलब है यह ख़याल आना कि ज़िंदगी सिर्फ सपने और सपनों के सुख-दु:ख दे सकती है, जिनके भीतर कहीं कुछ नहीं है, -कुछ ठोस हो, ऐसा कुछ नहीं होता वहाँ । ऐसा असंतोष नहीं, जो किसी चाही गयी चीज़ के न मिल पाने से होता हो, बल्कि ऐसा असंतोष, जो ज़िंदगी के खोखलेपन का पता लगने पर पैदा होता हो ? ''
कुछ ऐसे ही शब्द उन्होंने हमारी दूसरी-तीसरी मुलाक़ात के समय भी मुझसे कहे थे ।
फिर वे उदासी के बारे में बताने लगे थे, :
''अजय की मृत्यु ने मुझे तोड़ दिया । कुछ दिन गहरे अवसाद का शिकार रहा, लेकिन कहीं से कोई मदद नहीं ली । मुझे सांत्वना का झूठा दंश और भी दु:खी करता था । मैं चुप रहने लगा , मेरा सारा बौद्धिक ताना-बाना ध्वस्त हो गया था । एक गहरी उदासी मेरे भीतर धँसने लगी थी, मानों मैं स्पंज का बना होऊँ, और मेरे रोम-रोम से उदासी भीतर रिस रही हो । -उदासी, दु:ख नहीं । हम दु:ख को उदासी समझ लेते हैं, और उदासी को दु:ख । इसलिए उदासी असह्य नहीं थी, दु:ख शायद असह्य था, लेकिन जैसे-जैसे मैंने अपने-आपको लोगों से काट लिया, किसी से दु:ख की साझेदारी करना बंद कर दिया, तो लोग मेरे लिए और चिंतित हो उठे । मेरा दु:ख अन्दर ही अन्दर घना होता गया । फिर वह असह्य भी होने लगा । लेकिन, आख़िर झूठ कितना भी ताकतवर क्यों न हो, सच के एक झोंके में ढह जाता है । मुझे लगता है कि दु:ख कितना भी बदसूरत क्यों न हो, आदमी उसमें भी एक आशा टटोलता रहता है, अपने दु:ख की विकरालता या भीषणता कितनी भी कुरूप या वीभत्स भी क्यों न हो, आदमी उसमें अपने-आप को गौरवान्वित करने के मौके को हाथ से जाने नहीं देता । शायद इसलिए मन दु:खी होने में भी एक गहरा सुख खोज लेता है ।
जब मैंने उस दु:ख को स्वीकार कर लिया, तो वह एक झूठ की तरह मेरे समक्ष उजागर हो गया । लोगों की चिंताएँ झूठी थीं, मेरा दु:ख भी झूठा था । हम झूठ पाल लेते हैं, पालते रहते हैं, और उनमें एक नकली ज़िंदगी जीने लगते हैं फिर वे झूठ हमें अकाट्य सत्य लगने लगते हैं । मैं न रूखा था, न कठोर, न क्रूर था, न निष्ठुर । मैं बस झूठ को झूठ की तरह देख रहा था । बस ।
और दु:ख के झूठेपन को देखते ही दु:ख के विदा होते ही उसके स्थान पर उदासी चली आई, -आशा-निराशा नहीं, एक खालीपन, जब आप ऊब से भी ऊब जाते हैं । -ऊब में भुलावे की एक संभावना, एक उम्मीद बाकी रह जाती है, और जब वह उम्मीद भी छूट जाती है, जब वह एकमात्र आशा भी समाप्त हो जाती है, तो आप ऊब से भी ऊब चुके होते हैं । कोई भुलावा, कोई तसल्ली आपको सहारा नहीं देती, सहारे का आश्वासन तक नहीं देती । आपको स्पष्ट हो जाता है कि खयाली सहारों के ही सहारे आप झूठ की ज़िंदगी जीते रहे हैं, और वह ज़िंदगी, हालाँकि मजेदार थी, उसमें घटनाएँ थीं, गलतफहमियाँ थीं, आशाएँ थीं, उम्मीदें थीं, आशंकाएँ थीं, भय था, रोमांच था, आवेग थे, ... और उस सब से एक भरा-भरापन सा भी था, या महसूस होता था । कुछ न कुछ तो बाकी रहता ही था !''
अचानक उन्हें स्वर्गीय दुष्यंत कुमार का वह शेर याद आया, :
''खुदा नहीं न सही, आदमी का ख्वाब सही,
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए । ''
जो उन्होंने सुना भी दिया ।
''उदासी में सबसे बड़ी बात जो हुई वह यह, कि मेरा 'सोचना' क्रमश: मिटता चला गया । उदासी धीरे-धीरे मेरे 'सोचने' को लीलने लगी थी । और उदासी बढ़ने के साथ साथ, उदासी के गहरे होते-होते, दु:ख की धुन्ध भी छँटने लगी । जैसे पाने में फिटकिरी घुमा देने पर सारी मिट्टी तलछट बनकर नीचे बैठ जाती है, अलग हो जाती है, -कुछ-कुछ वैसे ही । मन की सारी धुन्ध, धूल और कचरा नीचे बैठ गया था । ''
''क्या यह 'आत्म-ज्ञान' था ?''
मैं पूछ बैठा ।
''आत्म-ज्ञान ?''
-उन्होंने आश्चर्य से मुझे देखा ।
मैं कुछ न कह सका । वे शायद उस फ्रेमवर्क में नहीं सोचते थे ।
''आत्म-ज्ञान याने ?''
उन्होंने पूछा ।
मैं फिर भी चुप ही रहा ।
''देखो भाई, मैंने भगवद्गीता पढ़ी है, लेकिन मुझे उसमें आत्म-ज्ञान की कोई बात पढ़ने को नहीं मिली । बुद्ध को ज्ञान हुआ, उनका निर्वाण हुआ, लेकिन आत्म-ज्ञान होने जैसी कोई घटना उनके साथ घटी या नहीं, मैं नहीं जानता । ''
अब आश्चर्यचकित होने की बारी मेरी थी । क्या वे झूठ बोल रहे थे ? या मुझसे कुछ छिपाने की कोशिश कर रहे थे ? या वाकई उनके सोचने-विचारने का फ्रेमवर्क मुझसे कुछ बिलकुल अलग था ?
''आपको विचित्र लग रहा होगा, लेकिन अब मैं बता सकता हूँ कि यह उदासी सचमुच ... ... ''
वे पल भर के लिए रुके, फिर हिचकते हुए बोले,
''... सचमुच बेहद खूबसूरत एक चीज़ है, पर है अदृश्य । और सच तो यह है कि इसे आप परिभाषित ही नहीं कर सकते । ''
उनकी बातें सुनते सुनते मुझे सिगरेट की तलब हो आई थी । लेकिन उस समय न तो मेरी जेब में थी, न आसपास की किसी दूकान से लाने का मौक़ा ।
फिर याद आया कि हालाँकि उनकी बातें मेरे लिए थोड़ी बोझिल थीं, और शायद इसलिए सिगरेट पीने की तलब उठीथी । और यह मेरा सौभाग्य ही था कि तब सिगरेट उपलब्ध नहीं थी ।
उनकी बातें धीरे-धीरे मन को किसी गहरी भावदशा (?) में ले जा रही थीं ।
रात हो गयी थी, करीब ग्यारह बज रहे थे, मेरी आदत है कि मैं रात को जल्दी सो जाता हूँ, उठता भी जल्दी हूँ । मैंने उनसे विदा ली थी, और अपने कमरे में चला आया था । कमरे की खिड़की पर महीन जाली थी। यह जगह उनके घर का हिस्सा थी । वे ड्राइंग-रूम में सोते थे, कभी-कभी सोफे पर । लेकिन उन दिनों उस जगह एक प्लेन सैटी रखी हुई थी । उनकी बिटिया ससुराल जा चुकी थी । घर पर उनकी पत्नी थी, जो उन दिनों कहीं और थीं, शायद उनके भाई केघर पर । मैं उनके घर के पिछले रूम में सोया था । खिड़की से चन्द्रमा की मद्धिम रौशनी दिखलाई देती थी । आकाश स्वच्छ था और ट्रैफिक की छोटी-मोटी आवाजों को छोड़कर सन्नाटा था । कभी-कभी दूर से आता हुआ कुत्तों के भौंकने का स्वर भी सुनाई देता था । मैंने पानी पिया, और बिस्तर पर लेट गया ।
एक सन्नाटा बाहर था, एक भीतर । थोड़ी देर उस बारे में सोचता रहा, फिर सोचने की व्यर्थता महसूस हुई और खिड़की से बाहर आकाश को देखता रहा । चन्द्रमा किसी दूसरी दिशा में था । आकाश में क्षीण आभा लिए कुछ तारे चमक रहे थे । अगर शरीर में थकान होती तो शायद नींद आ जाती, लेकिन मैं थका हुआ नहीं था । धीरे-धीरे पलकें भारी होने लगीं थीं । मैं कुछ सोचने की स्थिति में नहीं था । मन में बेचैनी भी नहीं थी । फिर मुझे (न जाने कब !) नींद आ गयी ।
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March 11, 2010
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