~~~ उन दिनों -43.~~~~
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उनसे मिलने का तीसरा अवसर भी अनपेक्षित रूप से मिला । अचानक दफ्तर के काम से उनके शहर जाना हुआ । सोचा कि उन्हें फ़ोन कर दूँ ! दफ्तर के फ़ोन से ही ट्रंक-काल लगाया, तब दफ्तर में एक डायरी होती थी, जिसमें व्यक्तिगत कॉल नोट होते थे । कॉल 'बुक' कराना होता था, फिर पाँच-दस मिनट बाद से लेकर पाँच-छ: घंटों के बीच कॉल 'मटेरियलाइज़' होता था । यदि उस बीच बात न हो सके तो कॉल 'कैंसल' भी कर सकते थे । सौभाग्य से करीब दस मिनट बाद बात हो गयी । मैंने पूछा, :
"सुबह-सुबह आ धमकूं तो कोई परेशानी तो नहीं होगी ?"
वे ठहाका लगाकर हँस पड़े । फिर बोले,
"आइये तो सही ! परेशानी में थोड़ी हेल्प भी तो कर सकते हैं !"
उसी रात का रिज़र्वेशन कराया, सुबह उनके शहर में था । साढ़े पाँच बजे । थोड़ी देर स्टेशन पर घूमता रहा । करीब पौने छ: बजे ऑटो लिया और पहुँच गया 'मधुबन' ।
उनका घर थोड़ा बदला-बदला लग रहा था । पिछली बार आया था तो कहानी के लिए कोई 'थीम' पाने के इरादे से आया था । लेकिन वह रहस्य खुल न सका, जिसे 'थीम' बनाता । इस बार फिर कोशिश करूँ ? ट्रेन में हुई मुलाक़ात में इस सबका विस्मरण हो गया था । अब सोचा तो आश्चर्य हुआ, लेकिन उनके घर में जाते-जाते अचानक सब याद आने लगा था । पिछली बार मैं उनके घर शाम के समय पहुँचा था, आज एकदम सुबह-सुबह । अभी क्षितिज पर सूर्योदय हुआ ही था । 'अच्छा, तो पूर्व उधर है !' -मैंने सोचा । नारायण मंदिर की पृष्ठभूमि सिंदूरी आभा से ज्योतित हो उठी थी । आसपास के छोटे-बड़े वृक्ष घूँघट की तरह मंदिर को चारों ओर से घेरे हुए थे, कलश दुल्हन की बिंदिया सा दमक रहा था, और घंटों-घड़ियालों की आवाज़ उसमें चैतन्य का संचार कर रहे थे । 'लाउड-स्पीकर' नहीं थे, इसलिए थोड़ा ध्यान देने पर ही इतनी दूर से उनकी गूँज सुनी जा सकती थी । मंदिर का रामरज में रंगा चेहरा भी ध्यान से देखने पर ही दिखलाई देता था । यह सब मेरा वहम था, कल्पना या आस्था, लेकिन उस समय तो सब अत्यंत जीवंत सत्य था । मैं मंत्रमुग्ध सा दूर से ही निहारता रहा । सूरज ऊपर उठने लगा था और क्षितिज की रतनार आभा आकाश के नीलेपन से मिलकर चाँदी बिखेर रही थी ।
'यह एक शुभ शगुन है ।' -मेरे मन में ख़याल आया ।
यदि मैं इस ख़याल (जिसे मैं अंतर्दृष्टि कहना चाहूँगा,) पर विश्वास नहीं करता तो इस पर संदेह करने के लिए भी मेरे पास कोई आधार नहीं है । हाँ, हो सकता है । यह तो इस पर निर्भर करता है कि मैं 'उसमें' क्या खोज रहा हूँ !
आज उनका घर उस शाम की तरह उदास नहीं लग रहा था । हालाँकि उस शाम की वह उदासी, उदासी नहीं, कुछ और थी । वह थी प्रतीक्षा की व्याकुलता । क्या प्रतीक्षा की व्याकुलता को उदासी कह सकते हैं ? क्या मैं सिर्फ इसलिए प्रेस से उनका पता ढूँढकर उनके घर गया था, कि 'साहित्यिक' कही जानेवाली किसी कथा के लिए 'प्लॉट' पा सकूँ ? या वह भी एक शुभ संकेत था, जिसे मैं अपने मन की चंचलता के चलते उस समय नहीं देख-समझ सका था ? क्या वह भी कोरा वहम या कोरी आस्था थी ? -नहीं, वहाँ तो मैंने उस पर इस तरह ख़याल तक नहीं किया था । यह तो भविष्य ने ही दिखलाया था कि वह आज के इस प्रभात की ही पूर्वसंध्या थी, -पूर्वाभास भी था, जिसे मैं तब नहीं चीन्ह सका था । बीच का सारा वक्त क्या एक सुदीर्घ रात्रि ही नहीं थी, जिसमें मैं बस सोता, स्वप्न देखता, और कभी-कभी करवटें बदलता रहा था ?
हाँ, उनका घर कुछ मायनों में बदला-बदला सा लग रहा था । पिछली बार जो उदासी थी, वह उनकी मन:स्थिति से भी उत्पन्न हुई होगी, और आज का उल्लास भी वैसे ही उनकी मन:स्थिति के बदल जाने का द्योतक हो सकता है ।
सुबह-सुबह किसी के घर जाना थोड़ा अटपटा महसूस होता है । जब पहुँचा, वे नहा चुके थे । शायद पूजा कर रहे थे । घर में धूप की भीनी महक कह रही थी । डोर-बेल बजाते ही पर्दा उठा । वे द्वार पर थे । मैंने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया । वे मुझसे पाँच-छ; साल बड़े ही होंगे ।
"आइये-आइये, "
-उन्होंने मेरे दोनों हाथों को अपने हाथों में लिया । फिर मेरे कंधे पर स्नेह से हाथ रखकर मुझे भीतर ले गए ।
हम ड्रॉइंग-रूम में बैठ गए । उनका नाश्ता होना था । लेकिन उसमें देर थी । चाय बन रही थी । पानी पीया, चाय पी, और दस मिनट तक इधर-उधर की औपचारिक बातें करते रहे । लेकिनिसके अपने-अपने कारण थे । मेरा कारण यह था कि पिछली मुलाक़ात में कही उनकी बात मुझे अभी तक याद थी । उन्होंने शब्दश: कहा था, :
"मैं न सिर्फ किताबों का, बल्कि अपने रिश्तों तक का एक्स्प्लॉयटेशन कर रहा था । "
हालाँकि वह बात उन्होंने अपने पिता से उनके संबंधों के बारे में कही होगी, लेकिन मुझे लगा कि वह हमारे जीवन का, व्यावहारिक, रिश्तों के जीवन का कठोर और नंगा सच था, (क्योंकि हम वास्तव में 'प्रेम' को नहीं जानते) ! हमें शायद ही कभी ख़याल आता हो । हम इस कदर पाखंडी हो जाते हैं कि संबंधों के नाम पर, उन्हें गौरवान्वित करते हुए उनके प्रति अपनी कोरी भावुकता में डूबते-उतराते हुए, 'प्रेम' दिखलाते हुए, एक-दूसरे को एक्स्प्लॉयट करते रहते हैं । यह प्रेम तो हरगिज़ नहीं होता । हाँ, 'लगाव' शायद होता हो ! फिर 'प्रेम' क्या होता है ?
क्या 'सर' ने अभी जिस तरह मेरा स्वागत किया था वह 'प्रेम' था ?वे तो उस दिन बातचीत को बीच में ही विराम देकर 'सोने' चले गए थे । शायद उनका यह वाक्य एक संकेत रहा होगा कि मैं कोई गलतफहमी न पाल लूँ । या शायद मैं ही बेवज़ह उस बारे में इतना अधिक सोचने लगा था । लेकिन यह तो सच है कि उनके मुख से निकले उस एक वाक्य को सुनने के बाद मैं अपने 'प्रेम' और रिश्तों का परीक्षण करने में जुट गया था ।
फिर वे क्यों मेरा इतना स्वागत कर रहे थे ? यहाँ आकर मैंने कहीं कोई गलती तो नहीं की ? क्या रिश्ता है उनसे मेरा ? क्यों अखबार के उस छोटे से नामालूम से विज्ञापन से उपजे रोमांच से उत्पन्न मोह से ग्रस्त होकर मैं प्रेस जा पहुँचा, क्यों मैंने उनका 'पता' खोजा ? क्यों इसके बाद उन्हें फोन से सूचित कर आज यहाँ चला आया ?
फ्रेश होकर, नहा-धोकर मैं उनके ड्रॉइंग-रूम में आ गया । उनके साथ नाश्ता किया, चाय पी, अखबार पढ़ता रहा ।
उनके यहाँ पत्रिकाएँ भी आती हैं । याने वे 'साहित्य' के रसिक तो होंगे ही । उस वक्त मेरी यही धारणा थी । कोई परिचित इसी बीच उनसे मिलने आ गए थे । उन्होंने न तो उनसे मेरा परिचय कराया, न उनके जाने के बाद उनके बारे में मुझे कुछ बतलाया । मैं अखबार पढ़ता रहा था । हम कुछ समय तक ट्रेन में आमने-सामने बैठे दो अजनबियों की तरह ड्रॉइंग-रूम में बैठे रहे । फिर मुझे लगा कि मेरी उपस्थिति से उनकी बातचीत में व्यवधान हो सकता है, तो मैं घर देखने के बहाने उनकी छत पर चला आया था । हम छत पर ही थे कि वे मुझे "अभी आया" कहकर वहीं छोड़कर नीचे चले गए थे ।
छत पर मैं अकेला था । थोड़ी देर बाद उनकी बिटिया बाल्टी में धोए और निचोड़े हुए कपड़े लेकर छत पर आई ।
"अंकल नमस्ते !"
उसने बड़ी बेतकल्लुफी से कहा, और एक-एक कर, कपड़ों को तार पर फैलाने लगी ।
उसके बाल बिखरे हुए थे, शायद सर धोया होगा, मुझे अपनी बिटिया की याद आई। बालों से क्लिनिक शैम्पू की भीनी-भीनी महक आ रही थी, जिसके साथ किसी साबुन की महक भी मिली हुई थी ।
मैं दूर नारायण-मंदिर के कलश को देखता रहा । अब भी घंटे-घड़ियाल की मद्धिम ध्वनि सुनाई देती थी । शायद हमेशा ही मंदिर में भक्त आते रहते होंगे । वैसे अभी 'सुबह' थी , दोपहर नहीं, और लोग तो सुबह या शाम को ही मंदिरों में अधिकतर जाते हैं ।
बाहर 'सर' के घर के सामने की सड़क पर बच्चे 'क्रिकेट' खेल रहे थे । कभी कभी गेंद उछलकर छत पर आ जाती थी । मैं उठाकर लौटा देता । -अपने शहर के अपने घर की तरह । शायद वहाँ भी कोई गेंद आकर पडी रहती होगी, वे आकर ले जाते होंगे ।
छत पर प्लास्टिक-चेयर्स पड़ी थीं । मैं एक पर बैठ गया । इस बीच वे भी ऊपर आ गए थे । उनके हाथों में अखबार था ।
"मैंने सोचा अकेले 'बोर' हो रहे होंगे,"
-वे बोले ।
"नहीं अच्छा लग रहा है यहाँ । धुप तीखी नहीं, आरामदेह है ।"
-मैंने कहा ।
वे दूसरी चेयर पर बैठ गए ।
कुछ मिनटों तक हम दोनों खामोश रहे ।
"अंकल को नमस्कार किया कि नहीं, बेटे ? "
उन्होंने अपर्णा से पूछा ।
" हाँ कर दिया । "
-वह अपना काम करते हुए निरपेक्ष भाव से बोली ।
छत पर गमले रखे थे, जिनमें छोटे-बड़े पौधे, केक्टस आदि लगे थे । जूही, चमेली, मोगरा, गुलाब के लता, पौधे मैं पहचान लेता था । वे सब यहाँ भी थे । पीछे के घर के 'आँगन' में पारिजात का एक वृक्ष था, जो काफी ऊंचा था, लेकिन इस छत पर से एक बच्चा भी हाथ बढ़ाकर उसके फूल तोड़ सकता था । उससे लगा हुआ ही पपीते का भी एक पेड़ था । उसमें पपीतों की बहार थी । सब एकदम गहरे हरे थे, कच्चे । पारिजात का पेड़ ऐसी जगह था जहां से उसके फूल उस पीछे वाले घर के आँगन में और आसपास के दो घरों पर भी झरते रहते थे । अभी भी कोने में कुछ आधे ताजे, आधे कुम्हलाये फूल पड़े हुए थे । थोड़ी ही दूर पर किसी घर के सामने सड़क किनारे गुलमोहर का वृक्ष भी था, जिसका वितान छतरी की तरह फैला हुआ था । इन दिनों उस पर गहरी हरी पत्तियाँ भर थीं पत्तियों के बीच कहीं कहीं हलके हरे रंग की प्रकाश-किरचें भी थीं -वे थीं, नईं कोंपलें । उसे देखते हुए मुझे जे कृष्णमूर्ति का वह वर्णन याद हो आया ।
" वह वहाँ अकेला खडा था, उस पर गहरे हरे पत्तों का एक मुकुट था, किसी पहाड़ी की तरह ऊबड़-खाबड़ शीर्षवाला वह वृक्ष फूलों से रहित था । आप दिन में उसके नीचे आराम कर सकते थे, लेकिन उस पर लगातार दौडती-भागती गिलहरियाँ, ठहरा-ठहरा सा गिरगिट, चींटों की लम्बी कतारें, अनेक पक्षी, उन सभी के एकछत्र अधिकार वाले उस वृक्ष के पास जाने से पूर्व आपको सावधानी रखना ज़रूरी था । उसके तराशे हुए ठोस चिकने तने की पेशियाँ, इतनी सुघड़ थीं कि आप उन्हें छूते हुए सहम जाते थे । अत्यंत कठोर, लेकिन अत्यंत नाज़ुक । नहीं, वे टूटेंगी नहीं, लेकिन उन के रेशों की पैनी धार आपकी उँगलियों को अपने बारीक धागों से काट सकती थी । लेकिन वह बस ख़याल था आपका ! - गिरगिट, गिलहरी, और चींटों को उससे कोई फर्क कहाँ पड़ता था ?
सूरज की किरणें जब उसकी केनॉपी से छानकर नीचे की भूमि पर एक गूढ़ चित्र बनातीं, तो एक गोल घेरे में धूप-छाँव का एक मोहक संजाल फैलता, जिसमें उस वृक्ष का हरा रंग प्रतिबिंबित होता, और पीली धूसर धरती पर एक संमोहन रचता । आसपास धूप का रजत रंग उस घेरे के चारों ओर उसके प्रभा-पुंज सा दिग-दिगंत तक फैला उस संजाल से गलबहियाँ मिला होता ।
वहाँ संसार नहीं था । उसे आप पीछे छोड़ आये थे, आपकी उत्तेजनाएँ, पछतावे, भय, दुश्चिंताएं, .... वे सब वहाँ थे,
-उस रजत-रंगी प्रभामंडल से बहुत दूर । वहाँ 'समय' नहीं था । वह भी वहाँ उन सबके साथ कहीं रहा होगा ।
इस वृक्ष के, धरती के उन्मुक्त सौन्दर्य को देखकर आप अभिभूत हो गए। आप उस सौन्दर्य का अनुमान नहीं कर सकते थे, और वर्णन करना तो कतई असंभव था । हृदय पर एक धक्का सा लगा था आपको । आप अवाक थे . आपकी आँखों में आँसू आ गए । "
मैं नहीं जानता कि जे. कृष्णमूर्ति की अनुभूति क्या रही होगी, लेकिन उस गुलमोहर का गहरा हरा रंग वास्तव में हृदय को झकझोर देता था । शांत, प्रकाश और अन्धकार का अनोखा संगम, -इस बीच मैं उन्हें भूल गया था । वे सामने बैठे हुए थे । बीच में एकाध बार उन्होंने शायद कनखियों से मुझे देखा था, लेकिन मुझे अपने-आपमें लीन देखकर मुझे डिस्टर्ब न करते हुए चुप ही रहे थे ।
जब मैं उस जगत से लौटा जहाँ गुलमोहर का वह वृक्ष और उसके गिरगिट, गिलहरियों, चींटों, चिड़ियों और उस संजाल तथा रजत प्रभा-मंडल सहित जे कृष्णमूर्ति भी कहीं थे, तो मेरा ध्यान उनकी तरफ गया । वे भी आकाश में कहीं दृष्टि डाले चुपचाप बैठे हुए थे । अखबार उनके हाथों से नीचे गिर गया था, और उनकी बेटी ने उसे चुपचाप उठा लिया था । वह बाल्टी और अखबार लेकर नीचे चली गयी थी ।
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>>>>> उन दिनों - 44. >>>>>>>>
January 28, 2010
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