January 23, 2010

उन दिनों -42.

~~ उन दिनों -42 ~~~~
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सुबह-सुबह जब अभी सूर्योदय में घंटा भर बाकी था, वे जाग चुके थे ।
"रात में सचमुच मुझे अचानक ऐसी तेज़ नींद आने लगी थी कि जागना कठिन था । माफी चाहता हूँ !"
कहते हुए उन्होंने मुझे जगाया ।
मैं तो सुबह तक अर्धनिद्रा की सी दशा में उस तार के स्वर को सुनता रहा था, जिसे रात्रि में वे जाने-अनजाने छेड़कर सोने के लिए अपनी बर्थ पर चले गए थे । हालाँकि उतना कष्ट नहीं हुआ जितना कभी और इस स्थिति में हुआ होता ।
'कभी और ?' -हाँ, ऐसा ही किसी और ने भी कहा था, और मैं सन्न रह गया था । कभी - कभी अचानक मनुष्य ऐसे सत्य कह बैठता है, जिन्हें वह मरते दम तक सीने में दफ़न रखना चाहता है, पर ज़ुबान ही तो है, और दिल ही तो है, दोनों समय-असमय कहाँ देख पाते हैं ? तब उन दोनों की ऐसी जुगलबंदी हो जाती है कि आप असहाय से बस देखते ही रह जाते हैं ।
अभी तो उनकी माफी मांगने की अदा ने मुझे भाव-विभोर कर दिया था । वह तो मुझे बरसों बाद पता चल था (उन्होंने ही तो बताया था !) कि 'अविज्नान' जिस 'कहीं-और' होता है, उसी 'कहीं-और' के खिंचाव ने उन्हें चर्चा को बीच मझधार में छोड़ने पर विवश किया था । तो वे उन दिनों 'कहीं-और' आने-जाने के क्रम से गुज़र रहे थे । यह कोई 'यूटोपिया' नहीं था, उनकी कल्पना की उड़ान नहीं थी, किसी किस्म का आत्म-सम्मोहन , नशा या स्वप्न भी कदापि नहीं था । लेकिन उनकी स्थिति कभी-कभी ऐसी हो जाया करती थी, जब लोगों और दुनिया की नज़रों में वे 'कहीं-और' होते थे । (*) या क्या वे 'कहीं' होते भी थे ? वे कुछ परेशान से भी थे । वे सारे काम ठीक ढंग से कर लेते थे, लेकिन उन्हें अचरज होता था कि कहीं उनके साथ कुछ 'गड़बड़' तो नहीं है ? बोलते-बोलते वे अचानक रुक जाया करते थे, उनकी वाणी लड़खड़ा जाया करती थी । क्या ऐसा ही 'अविज्नान' के साथ भी नहीं होता रहता है ?
लोगों को लगता था कि वे कोई नशा करते हैं, -उनकी पत्नी, उनकी बेटी, और इनसे मिलने-जुलनेवाले तमाम लोगों का कहना था कि उन्होंने कभी उन्हें सिगरेट-बीड़ी पीते भी देखा हो, याद नहीं आता । दफ्तर के साथियों के अनुसार 'गरगजी' कभी किसी ऐसी पार्टी में शामिल ही नहीं होते थे, जहाँ भांग या अन्य किसी तरह का कोई नशा इस्तेमाल किया जाता हो, फिर वे कभी गंजेड़ी-साधुओं आदि के आसपास फटकते तक नहीं थे । हाँ, खाने के वे शौक़ीन थे, लेकिन शुद्ध शाकाहारी थे । उनका स्वास्थ्य अच्छा था, भूख अच्छी लगती थी, और डाईट भी थोड़ी ज़्यादा थी ऐसा कह सकते हैं । लेकिन भोजन के निश्चित समय के अलावा कुछ खाना उनकी आदत में ही नहीं था । और यात्रा में भी घर का ही बना खाना खाते थे, या भूखे रह जाया करते थे । उनका वजन थोड़ा बढ़ा हुआ था, और 'ब्लड-प्रेशर' भी । लेकिन डॉक्टरों के अनुसार सब सुरक्षित हदों में था ।
उन्हें अपनी स्थिति का भान पहली बार तब हुआ, जब शाम हो चुकी थी, और वे अकेले ही पैदल शहर के दूर से घर की ओर आ रहे थे । एक तिराहा है वहाँ । शहर का पुराना चुंगी-नाका था कभी वहाँ, जहाँ से सड़क दो दिशाओं में फूटती है । दूर पर एक पुराना जर्जर मंदिर था, जहाँ लोग किसी पर्व-त्यौहार के अलावा कभी नहीं जाते थे, अलबत्ता औघड़ किस्म के कुछ साधु वहाँ कभी-कभी दिखलाई दे जाते थे । पास ही थोड़ी दूर खेत और एक कुआँ भी था । वहाँ कुछ ग्रामीण से दिखलाए देनेवाले लोग बैठकर धूम्रपान कर रहे थे । धुएँ की गंध में कुछ ऐसा था कि उनके 'चेतन'-मन में चल रहे विचार एकाएक विलीन होने लगे । एक अद्भुत अनुभव हुआ, जब वे अपने रास्ते चले जा रहे थे, और मन 'निर्विचार' था । ऐसा लग रहा था कि वे ठिठक गए हों । वे सड़क पर से जा रहे थे, और वे 'ठिठके-हुए' भी थे ! हाँ, वे एक नाटक में थे ! उनकी अपनी पहचान मिट गयी थी । और सारे संबब्धों की, 'संसार' की पहचान भी मिट गयी थी, लेकिन देह बिलकुल यांत्रिक तरीके से अपने रास्ते पर गतिशील थी । वे मानों अभिनय कर रहे थे, किसी फिल्म में, -और वे ही दर्शक थे अपने-आपके, तथा नाटक के भी ! वे सर्वत्र थे, लेकिन वे कहीं नहीं थे ।
कुँए के पास बैठे वे लोग शायद गाँजा पी रहे थे । और उस के असर से धुएँ पर सवार कोई प्रवाह उनकी नासा में चला गया हो । वे मानों नींद में चलने लगे थे । जागते हुए नींद मे चल रहे थे । जब विचार शांत था, स्वप्न या तंद्रा नहीं थी। शायद कोई और वज़ह हो, लेकिन उन्हें आज भी लगता है कि वह भी एक वज़ह रही होगी । लेकिन उन्हें जो अनुभव उस दिन हुआ, उसे उन्होंने बड़ी सावधानी से समझने की कोशिश की, और उन्हें ऐसा समझ में आया कि वह 'साक्षी' किसी कारण का परिणाम या फल नहीं हो सकता । 'चेतना' के उस अद्भुत स्वरूप पर वे विस्मय से भर उठे थे । विभोर हो उठे थे , -पर विह्वल नहीं ! ऐसा उन्होंने ही मुझे बतलाया था । उस अनिर्वचनीय तत्त्व की व्याख्या करना उन्हें एक अपवित्र कार्य महसूस हो रहा था । उन्हें लग रहा था कि उसे इस अपनी क्षुद्र, तुच्छ बुद्धि के दायरे में कैसे बाँधा जा सकता है ! उसे वाणी का विषय कैसे बनाया जा सकता है, जो वाणी से पूर्व ही है !
वे अधिक सावधान हो गए थे । उन्हें ख़याल था कि गाँजे की या ऐसे दूसरे द्रव्यों की गंध उनके भीतर कोई ऐसा क्षणिक, या अल्पकालिक बदलाव ले आती थी, जो उन्हें अवचेतन स्तर तक, या उससे भी अधिक गहराई तक, 'अचेतन' तक प्रभावित करता था । चेतना के 'साक्षी'-स्वरूप का उद्घाटन तो एक सहवर्ती घटना हुआ करती थी, न कि उस गंध के फल से । वे इसे किसी पिछली साधना का परिणाम भी नहीं मानते थे । वे अनिश्चयपूर्ण थे, लेकिन संशयशील या दुविधाग्रस्त नहीं थे । वे समझ रहे थे कि अनिश्चय का एक अर्थ यह है कि आप न तो अविश्वास करते हैं, न झूठा विश्वास ही करते हैं । आप अभी 'देख' रहे हैं । जैसे फूल पर एक नई किस्म का कीड़ा, जो भ्रमर भी नहीं है, तितली भी नहीं, जो आपने पहली बार देखा होता है, लेकिन आप नहीं जानते कि वह जहरीला हो सकता है, या नहीं, जो काटता है, या नहीं, उसे देखने पर आप अनिश्चय में होते हैं वैसे अनिश्चय में थे वे तब । 'चेतना' की उस दशा में जब उनका चित्त प्रवेश कर रहा होता, तो वे अपने-आपको सब ओर, सब-कुछ की भाँति महसूसने लगते थे ।उन्हें 'अपना' होना और सारा अस्तित्त्व एकात्म लगने लगता । वे सब-कुछ होने से कुछ विशिष्ट नहीं रह जाते थे, 'व्यक्तित्व', स्मृति, और 'विचार' तब एकाएक विलीन हो जाते, और वे बड़ा अद्भुत अनुभव करने लगते थे । हैरत की बात यह थी कि तब 'मन' और शरीर अपना जागतिक व्यवहार बिलकुल यांत्रिक तरीके से जारी रखते, लेकिन उन्हें यह शक होने लगता था कि कहीं वे (मन और श) कोई असंगत व्यवहार तो नहीं कर बैठेंगे ? -क्योंकि उस समय उन पर उनका 'स्वैच्छिक'-नियंत्रण मानो सम्माप्त हो चुका होता था । और तब भी जब सब-कुछ बिलकुल ठीक-ठीक होता रहता था, तो उन्हें एक अंतर्दृष्टि प्राप्त हुई कि सम्पूर्ण अस्तित्तव, उनके संकल्प, इच्छा या प्रयास से नहीं, वरण उस चेतन-सत्ता के माध्यम से संचालित होता है, जो इस समष्टि-अस्तित्त्व में ओत-प्रोत है, जिसमें यह संपूर्ण अस्तित्त्व वैसा ही खेलता है, जैसे माता की गोद में छोटा सा शिशु खेला करता है ।
लेकिन जब वह 'अनुभव' अपनी पूरी प्रगाढ़ता से उन्हें अपने में समालिया करता था, तब तो वे कुछ सोच तक नहीं सकते थे ।
कभी-कभी वह 'अनुभव' अकस्मात ही उनकी दिशा में चल आता, जैसा उस दिन हो रहा था, जब वे ट्रेन में बैठे-बैठे बातों का सिलसिला अचानक बंदकर सोने चले गए थे । ऐसे समय उन्हें 'अपने' होने का भान तक मिटने लगता था, और वे बहुत व्याकुल हो उठते थे ।
और यही तो 'अविज्नान' के साथ भी होता था ! 'अविज्नान के यहाँ आने के बाद मुझे उन दोनों की स्थिति की प्रामाणिकता पर संदेह नहीं रहा ।
वे किससे पूछते ? ('अविज्नान' तो सौभाग्य से उनसे पूछ सकता है, लेकिन चूँकि मैंने इस सब पर कभी ध्यान से नहीं सोचा था, इसलिए अभी तक 'अविज्नान' को इस बारे में कुछ नहीं बतलाया था ।)
उन्होंने योग दर्शन का अध्ययन और अभ्यास भी किया था, लेकिन उसकी प्रामाणिकता अब अनुभव हो रही थी ।
और उसे सही सन्दर्भ में देखना ज़रूरी था, ऐसा वे कहते थे ।
मुझे लगता है कि 'चेतना' की मन से परे की दशाओं को 'अनुभव' करने की लालसा से भी कुछ लोग नशे की ओर आकर्षित होते हैं, लेकिन यह भोर के समय मुर्गे की बाँग सुनकर, सूरज उगता है, ऐसा नतीज़ा निकालने जैसी बात है । मेरा सौभाग्य कि मैंने अपने इन कानों से ही उनके ही मुख से उनके इस अद्भुत अनुभव के विवरण का श्रवण किया था, अमृत-रस का पान किया था ।
मुझे यहीं उतरना था, -आनेवाले स्टेशन पर । वे बोले,
"उतरेंगे नहीं ?"
मैं बोला, :
"नहीं, अगले स्टॉप पर उतरूंगा ।"
गाड़ी वहाँ बीस मिनट रूकती थी । जैसे मुम्बई में कितने ही स्टेशन थे, वैसे ही एक स्टेशन पर, जो ट्रेन से बस तीन-चार मिनट के फासले पर था । पाँच मिनटों में हमने चाय पी, एक दूसरे के पते और फ़ोन नं. लिए, और पुन: गाड़ी में जाकर बैठ गए । थोड़ी देर बाद मैं अपना स्टेशन आने पर अपना सामान लेकर उनसे विदा हुआ ।

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- *(तब मैं 'लोगों' तथा 'दुनिया' का ही हिस्सा हुआ करता था अब स्थिति बदल चुकी है, मैं जानता हूँ कि 'लोग' और 'दुनिया' मेरा हिस्सा है गीता के शब्दों में, : "पश्य मे योगमैश्वरं ! ")

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