January 04, 2010

उन दिनों -40.

~~~~~~~~~ उन दिनों -40. ~~~~~~~~
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'सर' से मेरी दूसरी मुलाक़ात करीब डेढ़ साल बाद हुई । तब मैं सरकारी काम से जबलपुर जा रहा था । स्टेशन पर आने पर जब 'रिज़र्वेशन-चार्ट' देख रहा था, तो मेरे नाम और टिकट-नंबर के बाद बहुत नीचे उनका नाम दिखलाई दिया । अचानक ऐसा लगा कि मैं जानता हूँ । फिर याद आया कि ये तो 'सर' ही होंगे । उनका 'रिज़र्वेशन' उस शहर से था जहाँ वे रहते थे, और जहाँ उनसे मेरी पहली मुलाक़ात विचित्र ढंग से हुई थी । उनका बर्थ-क्रमांक मेरे ही आसपास रहा होगा । खैर जब ट्रेन में बैठा, तो उनका शहर आने तक उनके ही बारे में सोचता रहा । मेरी बर्थ के ठीक साइड में, खिड़की से ऊपर उनकी बर्थ थी ।
जब वे आये, तो उनके साथ दो अन्य लोग भी थे, -उन्हें छोड़ने आये होंगे । वे तुरंत ही लौट गए थे । 'सर' ने अपनी सूट-केस अपनी बर्थ पर रखी, पानी की बोतल, एक छोटा बैग, और वहाँ एक कम्बल भी फैला दिया ।
फिर वे नीचे बैठने के लिए आसपास देखने लगे । थोड़ी देर तक वे 'मुआयना' करते जान पड़े । फिर उनकी निगाहें मुझ पर टिक गयीं । मैं मुस्कुराते हुए उठा, नमस्कार किया, तो वे खिल पड़े । हम दोनों थोड़ी देर तक औपचारिक बातें करते रहे । करीब दस मिनट बाद गाड़ी चली, तो हम सुकून से बातें करने लगे ।
"क्या नया लिख रहे हैं आजकल ?"
-उन्होंने पूछा ।
"नया?"
उन्होंने तो बस यूंही पूछा था, लेकिन उनके स्वर में ऐसा कुछ था, मानों एक चैलेन्ज, हो, चुनौती हो । हम साहित्यकारों को अक्सर यह भ्रम होता है कि हम कुछ नया लिखते हैं, लेकिन मैं सोच में पड़ गया ।
"अरे भाई, मेरा मतलब सिंपल है, मैंने आपकी वह कहानी पढ़ी थी, क्या वह 'नई' नहीं थी ? "
उन्होंने ही मुझे उबार भी लिया ।
"हाँ, थी भी, और नहीं भी थी । "
जहाँ तक मेरी जानकारी थी, वे स्थापित या विस्थापित आलोचक या समीक्षक आदि नहीं थे । बहरहाल मैं 'लेखक' ज़रूर था । इसलिए मैंने चर्चा को थोड़ा गंभीर मोड़ दे दिया । वह सोई हुई अभीप्सा दिल में करवटें बदलने लगी थी, जो उनसे मेरी पहली मुलाक़ात के लिए उनके घर तक खींच ले गयी थी ।
"ऐसा?"
-उन्होंने विस्मित होकर पूछा ।
"देखिये शैली की दृष्टि से वह 'नई' अवश्य थी, और इस दृष्टि से भी नई थी कि ... ... "
मैं सोच रहा था कि बात को कहाँ तक खींचना ठीक रहेगा । दर-असल मैं उन्हें 'नाप' रहा था । मैं अपने आपको लेखक तो मानता हूँ, लेकिन बुद्धिजीवी नहीं, और राजनीतिक व्यक्ति तो हरगिज़ नहीं मानता । वे इंतज़ार करते रहे । मुझे ही बोलना पड़ा । यह हिंदी साहित्य की कोई स्नातकोत्तर कक्षा या स्थापित / स्थापित होने के अभीप्सु उदीयमान साहित्यकारों की मजलिस भी नहीं थी, इसलिए मैं बहुत 'रिलैक्स्ड' फील कर रहा था ।
"देखिये कहानी के विकास का इतिहास देखें तो कहानी किस्सागोई से बढ़ते-बढ़ते कला, शिल्प, माध्यम, अभिव्यक्ति, आदि में ढलती चली गयी, उपदेशमूलक, या प्रेरणास्पद रूप में सामने आने लगी । इस सबको मैं 'नया'
नहीं मानता । "
वे सुन रहे थे ।
"बेताल-पच्चीसी , अलिफ़-लैला, कथा सरित्सागर, पुराण, बाइबिल, महाभारत और रामायण, से लेकर मंटो, इस्मत चुगताई, प्रेमचंद, चेखव, मुक्तिबोध, कृष्ण बलदेव वैद, निर्मल वर्मा, रंगे राघव और दूसरे असंख्य कहानीकारों तक इतिहास का यह सफ़र एक दृष्टि से पुराना ही है । कहीं मनोरंजन, कहीं शिक्षा या उपदेश, कौतूहल, कला की विधा, इन सब प्रकारों में लेखक की 'प्रतिबद्धता' लगभग स्पष्ट देखी जा सकती है । "
-मैंने कहा ।
अब भी वे बस सुन रहे थे ।
"इस हिसाब से मेरी वह कहानी पुरानी ही तो थी ! "
"और 'नई' कैसे ?"
उन्होंने मुझे सहारा दिया ।
"मैंने जितने भी नाम लिए, उनमें से कुछ में आप यह देख सकते हैं कि लेखक कहानी लिखते समय पाठक का विचार या कल्पना तक करता हो ऐसा नहीं लगता । हालाँकि वह दुनिया से कट कर एकदम अकेला भी नहीं हो सकता, फिर भी इतना अकेला तो ज़रूर होता है कि अपनी ही स्मृति से, अपनी ही कल्पना से खेलता हुआ उत्साह्वाश एक 'नया' चित्र रच लेता है । उसका कोई उद्देश्य नहीं होता । जैसे गाना, नृत्य, या पेंटिंग में उसकी रचना-प्रक्रिया के दौरान कलाकार उस प्रक्रिया से एकाकार होता है, ज़रूरी नहीं कि उस समय वह दर्शक या श्रोता के बारे में कुछ सोच रहा हो । बल्कि मैं तो यहाँ तक कहूंगा कि श्रोता, दर्शक या कलाविधा के उद्देश्य का विचार तक भी उसकी रचना-प्रक्रिया की स्वाभाविक गति में खलल डाल सकता है । "
"तो ?"
उन्होंने मुझे फिर सहारा दिया । यदि वे चुप ही रह जाते तो मुझे शक होता कि वे शायद 'बोर' हो रहे होंगे । मेरी इस भावना को शायद वे भी भाँप चुके थे, और सिर्फ सभ्यतावश नहीं, बल्कि मुझे प्रोत्साहित करने के लिए इस छोटे से शब्द का उच्चार उन्होंने किया था ।
"तो इस दृष्टि से भी किसी कहानी को 'नई', या 'पुरानी', आदि रूपों में देखा जा सकता है । "
"और कविता के बारे में क्या कहेंगे ? "
"हाँ, कविता में भी तो यह होता है, क्योंकि हर कविता में कोई कहानी तो छिपी होती ही है, जबकि कहानी में कविता छिपी हो ऐसा ज़रूरी नहीं । "
'क्या वे सिर्फ सुनना चाहते थे ? ऐसा श्रोता तो नसीब से ही किसी लेखक को प्राप्त होता है !'
-मैं सोच रहा था ।
मैं कोशिश कर रहा था कि वे 'सक्रिय भागीदारी' करें, लेकिन वे 'संगत' करने से आगे नहीं बढ़ रहे थे । एक विचित्र भय मुझ पर हावी होने लगा । कहीं वे मेरा मज़ाक तो नहीं उड़ा रहे हैं !
"कविता और कहानी में क्या समानता या फर्क होता है ?"
जब उन्होंने साहित्य के एक एक समझदार जिज्ञासु की भाँति पूछा तो मैंने राहत की साँस ली ।
"देखिये, इस पर तो काफी कुछ लिखा जा चुका है, अलग-अलग बहाने से, काफी लोगों ने इस पर चिंतन क्या है । "
"मैं तो एक आम पाठक के नज़रिए से पूछ रहा था । "
नहीं, वे मेरा मज़ाक नहीं उड़ा रहे थे , उनकी गंभीरता देखकर मुझे दिलासा मिला ।
"हाँ, यह तो विचारणीय प्रश्न है । "
-मेरे भीतर का साहित्यकार बोला ।
"आम पाठक सामान्यतया ज्ञान, मनोरंजन, खुशी पाने या कौतूहलवश, किसी भावदशा की तीव्रता को अधिक अच्छी तरह से 'जगाने', 'भोगने' अथवा 'जीने' के उद्देश्य से कविता, कहानी या कहें साहित्य को पढ़ता है । कभी-कभी वह उनमें अपनी रोजमर्रा की समस्याओं का हल भी ढूँढता है, तो कभी-कभी तो वह इतने से ही संतुष्ट या प्रफुल्ल हो जाता है कि उसकी समस्या को, भावनाओं को स्पर्श प्राप्त हुआ, और वह स्वयं शायद ही इतने बेहतर ढंग से उन्हें व्यक्त कर पाता, जैसा कि साहित्यकार कर सका है । वह 'वाह-वाह' कह उठता है, और साहित्यकार इसे अपनी बड़ी कामयाबी समझ लेता है । "
"क्यों ?"
"क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है, और साहित्यकार वह व्यक्ति है, जो दर्पण को भरसक कोशिश के ज़रिये स्वच्छ कर देता है, -चमका देता है । "
मैंने विनम्रता से कहा ।
"और इसलिए यह उसकी सफलता होती है !"
-वे बोले, उन्होंने कहा, या प्रश्न किया, मैं समझ नहीं सका ।
"हाँ, मैंने आत्मविश्वास से कहा । "
रात हो चुकी थी । उन्होंने अपने बैग से खाने का टिफिन निकाला, बोले -
"खाना खा लिया जाए !"
"हाँ-हाँ, ज़रूर !"
मैंने भी अपना टिफिन निकाला और हम दोनों ने आराम से एक बर्थ पर अखबार बीच में बिछाकर अपने-अपने टिफिन खोले । हाथ-मुँह धोकर आ डटे । ट्रेन में घर का बना खाना एक अजीब सुख देता है । लगता है जैसे किसी पिकनिक पर हों । अक्सर परांठे, पूरियाँ, अचार, चटनी, कोई सूखी सब्जी, आदि होता है । और अगर कोई दूसरा यात्री मिल जाये तो दोनों के लिए कोई न कोई 'सरप्राईज़' भी निकल ही आता है । सौभाग्य से लोग ट्रेन में शायद ही कभी नॉन-वेज लेकर चलते हों । हम दोनों ही इस मामले में एक ही रूचि रखते थे ।
सामने की बर्थ पर बैठी दो महिलाएँ भी हमारी ही तरह लगातार बातचीत में व्यस्त थीं , और उनके बाजू में बैठे दो बच्चे आपस में खेल रहे थे । उनसे हमें और हमसे उन्हें कोई मतलब नहीं था ।
कोई स्टेशन आनेवाला था । हमारा भोजन ख़त्म हो चुका था । स्टेशन आते ही नीचे जाकर पानी पिया और खाली शीशियों में भी भरकर रख लिया । अपनी-अपनी बर्थ पर खिडकियों के पास बैठ गए । अभी सामने की बर्थ्वाले ने आपत्ति भी नहीं की थी, कि उसे सोना है, या ऊपरी बर्थ खोलनी है ।
चर्चा को कोई दूसरा दौर होने में थोड़ा समय था । अभी सवा नौ बजे थे, एकाध घंटे उनसे चर्चा करने का प्रलोभन अभी भी मेरे मन में शेष था । ऐसा लगता था कि उनसे चर्चा करते-करते मन-मस्तिष्क की कई खिड़कियाँ खुलने लगीं थीं ।
"आप साहित्य के एक धीर-गंभीर, सुधी पाठक हैं, ऐसा कहने में न तो मुझे कोई संकोच है, और न मैं आपकी झूठी तारीफ़ ही कर रहा हूँ । "
-मैंने दूसरी 'इनिंग' की पहली गेंद फेंकी ।
"जी ?"
-वे खिड़की से बाहर देख रहे थे ।
बाहर काफी रौशनी थी । दूर-दराज़ की बस्तियों में खेतों, या छोटी-मोटी बसाहटों में सोडियम-लैम्प्स और वेपर-लैम्प्स भी रौशनी बिखेर रहे थे । पटरी से काफी दूर रोड से आती-जाती कारें, स्कूटर्स, मोटर-सायकिलें, ट्रक आदि एक अलग ही दृश्य प्रस्तुत कर रहे थे , जैसा हमें शहर में कभी देखने को नहीं मिलता । उनकी आमने-सामने से आती -जाती 'हेड-लाइट्स' और उनमें गाड़ियों का 'कोलाज' सचमुच एक आधुनिक, अमूर्त कलाकृति दिखलाई दे रहा था । हवा साफ़ थी, धुँध या कोहरा, धूल या धुआँ भी नहीं था । ऐसा लगता था कि परदे पर बाएँ से दायें द्रिशावाली 'चल' रही हो । धरती और आकाश के बीच एक पट्टी पर चल रहा वह चल-चित्र बहुत धीरे-धीरे हमारी खिड़की से कोण बदल रहा था, और अब पेड़ों की ओट में ओझल हो चला था । कुछ ही पलों में खो जानेवाला था ।
ज़ाहिर है, उन्होंने सूना था, लेकिन अभी कुछ उत्तर देने की जल्दी उन्हें कतई नहीं थी । मैंने भी प्रश्न दुहराना उचित नहीं समझा । मैं इंतज़ार कर रहा था ।
"कॉलेज के दिनों में पढ़ने का रोग मुझे ज़रूर लग चुका था, लेकिन आप जानते ही होंगे कि वह कच्ची उम्र होती है । "
-वे बोले ।
वे धीरे-धीरे बोलते थे, कभी-कभी तो दो वाक्यों के बीच एक-दो मिनट का अंतर हो जाता था । यदि नया व्यक्ति उन्हें सावधानी से न सुने तो उनकी बात अधूरी रह सकती थी । और ऐसी ही स्थिति तब भी होती थी जब वे किसी दूसरे की बात सुन रहे होते । वे प्रतीक्षा करते, और जब उन्हें भरोसा हो जाता कि सामने वाला अपनी बात पूरी कर चुका है, तभ प्रत्युत्तर देने की कोशिश करते । ध्यान से सुनते थे, और वाचक के अगले वाक्य के इंतज़ार में पाँच मिनट भी धैर्य रख सकते थे ।
इस वाक्य के बाद भी वे थोड़ा रुके । लेकिन मुझे ज़्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी ।
"पिताजी पढ़ने के शौक़ीन थे, और अक्सर हमें तरह-तरह की किताबें लाकर दिया करते थे ।
'किताबें जीवन से भागने के लिए नहीं होतीं । यदि तुम किताबों का इस्तेमाल ज़िंदगी से दूर भागने के एक साधन की तरह करते हो तो तुम दूसरों के साथ-साथ खुद को भी धोखा दे रहे होते हो । '
-वे हमसे कहा करते थे ।
उनकी बात तब हमें समझ में नहीं आती थी ।

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>>>>>>> उन दिनों -41. >>>>>>>

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