January 19, 2010

उन दिनों -41.

~~ उन दिनों -41. ~~~~~~~~~~~~~~~~~
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"उनकी बातें तब हमें समझ में नहीं आतीं थी, और हमें यह भी समझ में नहीं आता था कि हम उनकी बातें नहीं समझ पा रहे हैं । साधारणतया हर मनुष्य ऐसा ही होता है । हमारा 'मन' तब विमूढ सा होता है । तब 'मन' बन रहा होता है । हम जाने-अनजाने ही 'सीख' रहे होते हैं । तब हम किसी चीज़ में 'प्रवीण' हो सकते है, किसी 'कला', या खेल में, किसी ऐसी क्रिया की पुनरावृत्ति में, जिसमें हमें 'मजा' आता हो । हम धीरे-धीरे 'चालाक' या चतुर हो जाते हैं । इसके बाद हम एक दुश्चक्र में फँस जाते हैं । -लगभग हर कोई । हमारे कुंवारे 'मन' पर अनेक परतें चढ़ने लगती हैं, और वह शिशु की निर्दोष, मासूम मानसिकता उस सब के नीचे दब कर ओझल हो जाती है, जो हममें उसके पहले हुआ करती थी । लेकिन वह नष्ट नहीं होती । यदि हम उस निर्दोष 'मानसिकता' से जीवन को देख सकें,, बिना कोई प्रतिक्रिया के, तो ...."
वे बोलते-बोलते ठहर गए । दो मिनट चुप रहने के बाद बोले,
"वे हमसे कहते थे, 'जीवन को सीधे देखो, चारों तरफ के जीवन को, समाज को, लोगों को, मनुष्य को, पशुओं को, पेड़-पौधों को, हवा को, पहाड़, जंगल, पक्षियों, मछलियों, तितलियों, नदी, झरने, तालाब, को, -हर चीज़ को सीधे देखो । ' लेकिन हम समझने की कोशिश ही नहीं करते थे । कभी-कभी वे हमें अपने साथ घूमने के लिए ले जाते ।
ऐसे ही एक बार कई दिनों की उमस के बाद रात में पानी बरसा था । सुबह बहुत स्वच्छ आकाश में सूरज जब उठा, तो मैं उनके साथ घूमने गया ।
'कैसा लग रहा है ?'
-उन्होंने पूछा ।
'बहुत अच्छा,'
-मैंने कहा । मैं उनके साथ-साथ साफ़-सुथरी सड़क पर जा रहा था । घर से निकलते ही जंगल शुरू हो जाता था । लेकिन वह मेरा वहम था । तब मैं पेड़ों को जंगल समझता था । फिर जब हम कुछ दूर चले आये, तो खेत आने लगे । मैंने उनसे पूछा,
'-ये जंगल के बीच मैदान किसने बनाए हैं ?'
'इसे मनुष्य ने बनाया । '
-वे बोले ।
'क्यों ?'
'ताकि उसमें बीज बोकर अनाज, सब्जी पैदा कर सके । '
'क्यों ?'
'क्योंकि अनाज, सब्जी हमें जितनी जरूरत होती है अपने-आप उससे बहुत कम उग पाते हैं, फिर उसे जानवर भी खा जाते हैं ।'
मैं बस देख रहा था, मेरे भीतर से कोई प्रतिक्रिया नहीं उठ रही थी ।
फिर हम दूसरी बातें करने लगे । लेकिन जीवन को 'सीधे देखने' से उनका यह तात्पर्य था , यह बहुत वर्षों बाद समझ पाया था, जब वे नहीं रहे थे । हम 'जानकारियाँ' इकट्ठी कर लेते हैं और उसे 'ज्ञान' समझने की भूल कर बैठते हैं, और जितनी अधिक जानकारियाँ हमारे पास एकत्र हो जाती हैं, और जितनी 'चतुराई' या 'चालाकी' से हम उन्हें 'मैनिपुलेट' कर लेते हैं, उतने ही 'सफल' कहलाने लगते हैं । लेकिन इस बीच हम उस स्वाभाविक निर्द्शिता से विच्छिन्न हो जाते हैं, जो बचपन या कहें शैशव से हममें मौजूद होती है । भाषा, गणित, या कला, साहित्य, धर्म, विज्ञान, तकनीक या कौशल सीखना जीवन जीने के लिए अपने-आपमें ज़रूरी है, लेकिन हम उस सबके गुलाम हो जाते हैं । "
वे फिर थोड़ी देर तक चुप रहे ।
"यह मेरी अनौपचारिक शिक्षा-दीक्षा थी । कभी-कभी मुझे ख़याल आता कि उनकी बातों का क्या मतलब है ! जब मैं उनसे पूछता तो कहते,
'इतिहास की किताबों में तुम्हें बहुत-कुछ पढ़ने को मिलेगा, तुम उन किताबों से तथाकथित महान व्यक्तियों के बारे में पढ़कर दीं-दुखियों की सहायता करने, या सामाजिक या राजनीतिक कार्य को अपने जीवन का ध्येय या आदर्श भी बना सकते हो । तुम श्रेष्ठ वैज्ञानिक, साहित्यकार, धार्मिक नेता, इंजीनियर, कुशल वक्ता, खिलाड़ी, महान वीर योद्धा आदि बन सकते हो । संक्षेप में तुम एक 'सफल' और 'महान' व्यक्ति बन सकते हो , लेकिन इनमें से बिरला ही जीवन को 'सीधे' देखा करता है । '
वे अपनी बात समझाते हुए कहा करते ।
मैं सोच में पड़ जाता । कॉलेज जाने की उम्र होने तक भी जब वे कहते कि जीवन को सीधे देखो, तो मैं उनकी इस बात पर मुँह बाए उनकी ओर देखता रहता था । उनकी मृत्य हो जाने तक मैं उनकी इस सरल सी शिक्षा को ग्रहण नहीं कर सका था ।
जब मैंने उनसे पूछा कि किताबों का प्रयोग जीवन से भागने के लिए कैसे किया जाता है, तो उन्होंने विस्तारपूर्वक समझाते हुए कहा था , :
'देखो, तुम मनोरंजन के लिए किताबें पढ़ते हो, जबकि तुम्हारे जीवन में डर है, ईर्ष्या है, चिंताएँ हैं, द्वंद्व हैं, है न ? '
"हाँ, है । "
-मैंने स्वीकार किया।
'तो क्या तुम अपने जीवन को सीधे नहीं देख सकते कि यह सब तुम्हारे भीतर ही कहीं है, तुम्हारे जीवन से जुड़ा एक तथ्य है ? ऐसा नहीं कि तुम्हें इस सबका पता नहीं है, तुम्हें पता है कि तुम्हें किन बातों से डर लगता है, परीक्षा से, तुम्हें पता है कि तुम्हें दोस्तों से, भाई बहनों से ईर्ष्या है, शायद द्वेष भी है, तुम लालच में फँस जाते हो, और सोचते हो कि लालच करना ठीक नहीं है, क्या यह दुविधा तुममें नहीं है ? तुम भले बनाना चाहते हो, लेकिन देखते हो कि भले बनाना आज के जमाने में बेवकूफी है, क्या यह सब समझने में किताबें तुम्हारी कोई मदद कर सकती हैं ? तुम्हें खुद ही बड़े धीरज से इस पूरे मामले को देखना होगा, और इसके लिए तुम्हें ही दिलचस्पी होनी चाहिए, इस बारे में दूसरा शायद ही कोई हेल्प कर सकता है । '
'कौन सा मामला ?'
-मैं आँखे झपकाता हुआ बेवकूफी भरा प्रश्न पूछ बैठा ।
'इसीलिये मैं कहता हूँ, कि पहले अपने से बाहर के जीवन को, इस दुनिया को आँखें खोलकर देखो, कोई राय बनाने, या कमेन्ट देने के लिए नहीं, बल्कि इससे तुम्हारी 'संवेदनशीलता' बढ़ेगी, और संवेदनशीलता ही जीवन है । इसलिए मैं कहता हूँ कि जीवन को देखो, पशु-पक्षियों को देखो, उनमें भी डर, ईर्ष्या, लोभ, प्रेम, त्याग, हिंसा, क्रूरता, चालाकी, मूर्खता आदि सब होता है । पशु-पक्षियों के जीवन को, पेड़-पौधों के जीवन को, ध्यानपूर्वक देखो । देखो पशु-पक्षी कैसे बच्चों को जन्म देते हैं, कैसे अपने बच्चों से प्यार करते हैं, कैसे उनकी सुरक्षा करते हैं, एक दूसरे पर कैसे अधिकार रखते हैं । चिड़िया कैसे अपनेबच्चों को खिलाने के लिय दूर-दूर से कीड़े-मकोड़े पकड़कर लाती है . कबूतर कैसे सहमे-सहमे और सतर्क रहते हैं, बिल्ली कैसे शिकार करती है, गिलहरी कितनी चौकन्नी होती है, बन्दर कैसे झुण्ड में रहते हैं । उन सबका अध्ययन यदि तुम किताबों से करोगे तो वही बात हुई न, कि हाथ-कंगन को आरसी में देखा जाए ? तब तुम्हें पता चलेगा कि 'जीवन को देखना' कितना शक्तिशाली है, जबकि इसमें प्रयास जैसा कुछ नहीं होता । जीवन एक खुली किताब की भाँति, पिक्टोरियल-बुक से भी ज़्यादा जीवंत वस्तु है, यह तुममें भी है और तुम्हारे आसपास भी है । तुम जीवन से बहुत घनिष्ठतापूर्वक जुड़े हो !'
'सर' की बातें रोचक थीं सरल थीं । लेकिन क्या उन बातों की व्यावहारिक उपयोगिता भी है ? आजकल कौन इस तरह से सोच या कह सकता है ? फिर 'करना' तो शायद और भी मुश्किल है । मैं सुनता रहा
'
देखो, तुम पशु-पक्षियों से बहुत कुछ सीख सकते हो । कैसे सारे पशु-पक्षी एक दूसरे पर और प्रकृति पर आश्रित हैं । उनमें 'सेन्स ऑफ़ टाइम' वैसा नहीं होता जैसा हम मनुष्यों में हुआ करता है । उनका 'सेन्स ऑफ़ टाइम' या 'समय-बोध' हमारी तरह का नहीं होता । हमारे 'समय-बोध' पर 'विचार' हावी होता है । हमारा मन 'काल्पनिक भविष्य और स्मृति में बने तथाकथित अतीत के चित्रों' से 'विचार-रूपी तंतुओं से 'समय' की एक छवि बनाता है, और संयोग से उसमें कुछ बातें ऐसी भी होतीं हैं, जो शुद्ध भौतिक तथ्य होने की वजह से पुनारावृत्तिपरक होती हैं । और उस आधार पर हम एक 'ठोस', टेन्जिबल समय के अस्तित्वमान होने के ख़याल से ग्रस्त हो जाते हैं । हम 'प्लानिंग' करते हैं । हम शुद्धत: एक 'मानसिक-समय' में जीते रहते हैं । और हमें लगता है कि हम बहुत उन्नत किस्म के जीव हैं ।
दूसरे जीवों में ऐसा 'भविष्य-बोध' बहुत क्षीण होता है । वे अपने आसपास की दुनिया की ऐसी कोई 'परिचय-परक' मानसिक छवि नहीं बनाते जो 'विचार' और कल्पना के ताने-बाने से बनाई गयी हो । बेशक, इससे उन्हें कई दूसरे कष्टों का सामना करना होता है, लेकिन मनुष्य जिन त्रासद मनोव्याधियों से पीड़ित होता है, उससे वे मुक्त होते हैं ।
जैसे चिड़िया घोंसला बनाती है, उसमें अंडे रखती है, बच्चों के बड़े होने तक उनकी देखभाल करती है, लेकिन फिर उन्हें उनका स्वतंत्र जीवन जीने देती है । चीन्त्तियाँ बारिश की संभावना होने पर अपने अण्डों को लेकर ऊंचाई पर जाने लगती हैं । लेकिन वह उनकी सहज प्रत्युत्पन्न मति होती है । हम मनुष्यों ने न जाने क्या-क्या 'विकसित' कर लिया है, जो हमारी प्रत्युत्पन्न मति का ही नहीं बल्कि उसके साथ मिले हमारे 'मानसिक-समय-बोध' का परिणाम भी है ।
लेकिन मेरी रूचि किताबों में भी थी । हाँ शोहरत, पैसा, स्टेटस , आदि के लिए नहीं बल्कि शायद सिर्फ मनोरंजन के लिए । दर-असल मैं किताबों को छोड़ ही नहीं पा रहा था, और यह मेरे पिताजी की दृष्टि में मेरा असंतुलित विकास था । वे चाहते थे, कि मैं जीवन को सीधे समझूँ ।
मेरी रुचि किताबों से मुग्ध हो जाने में थी । ज़ाहिर है कि मैं किताबों का अवांछित शोषण (exploitation) कर रहा था । और यही बात पिताजी मुझे समझाना चाहते रहे होंगे । किताबों के बहाने मैं प्रत्यक्ष जीवन से कट रहा था, पलायन कर रहा था । और बड़ा प्लीजेंट तरीका था यह, इसलिए ज़्यादा खतरा था कि मैं विनष्ट होने जा रहा था, और मुझे कभी पता तक न चल पाता कि मैंने क्या खो दिया है ।
कभी-कभी वे कहते, :
बेटा, सबसे बड़ा आध्यात्मिक सत्य यह है कि अपना नुक्सान किये बिना तुम किसी दूसरे का नुक्सान कभी नहीं कर सकते । यदि तुम किताबों को exploit कर रहे हो तो समझो कि अपने-आप को ही exploit कर रहे हो । वैसे यह बात दूसरी बातों में भी उतनी ही सही है । यदि तुम किसी को धोखा देते हो तो इसके लिए तुम्हें अपने मन में लालच, ईर्ष्या, चालाकी को जगह देनी होती है, तात्पर्य यह कि तब तुम्हारा मन अधिक जटिल, कुटिल और कलुषित हो जाता है । तब तुम उतने ही अधिक 'असंवेदनशील' हो जाते हो । और असंवेदनशीलता जीवन से दूर ले जारी है । शायद इस मृत्यु कह सकते हैं । जब तुम अधिकतम संवेदनशील होते हो तब जीवन की अधिकतम संभावना तुममें होती है । '
मुझे उनकी बातें धीरे-धीरे समझ में आने लगीं थीं, लेकिन जैसा कि मैंने कहा - 'कच्ची उम्र', तो उस 'कच्ची उम्र' में वे मेरे लिए महत्व नहीं रखतीं थी । यह भी मेरी असंवेदनशीलता ही थी । लेकिन हम सभी ऐसे ही होते हैं । दर-असल मैं सिर्फ किताबों को ही नहीं बल्कि अपने सभी रिश्तों को अवांछित तरीके से exploit कर रहा था । और हम सभी यही तो करते रहते हैं, भले ही हम उसे संबंध, प्रेम, भाई-चारा, त्याग, समर्पण आदि जैसे सुन्दर-सुन्दर नाम देते हुए करते रहें । "
"रिश्तों का ! -क्या मतलब ?"
-मैंने पूछा ।
मैं नहीं जानता कि हमारी गाडी किस दिशा में जा रही थी । जिस ट्रेन में हम बैठे थे वह तो घूम-फिर कर अपने सुनिश्चित गंतव्य की ओर अग्रसर थी, लेकिन हमारी बातचीत किस दिशा में जा रही थी, इसका अनुमान लगाना मुश्किल था ।
"छोड़िये भी ! "
उन्होंने कहा और मुझे अचानक ही मझधार में छोड़कर उठ खड़े हुए । अब मुझे क्या नींद आ सकेगी ? हृदय के जिन तारों को उन्होंने छेड़ा था, उसके बेसुरे स्वर क्या अब सोने भी देंगे ?
"क्योंकि अब मुझे नींद आ रही है । "
-कहकर उन्होंने अपनी बर्थ पर एक मोटी बेडशीट फैलाई, दूसरी पांवों के पास रख ली, अपनी सूटकेस और बैग को, पानी की शीशी को किनारे बर्थ की दीवार की तरफ सटा दिया, और बोले, :
"आप भी सो जाइए, फिर बातें करेंगे । "
"ठीक है, गुड नाईट !"
"गुड नाईट ! "


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