~~~~~~~~ विचारणा/1 ~~~~~~~~
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.... शरीर और शरीर का स्वामी ....
शरीर पाँच तत्त्वों से, या 'विज्ञान' की भाषा में कहें तो भौतिक पदार्थों से बना है ।
शरीर विज्ञान के नियमों से, अर्थात् प्रकृति के नियमों से बनाता, कार्यशील रहता और विनष्ट हो जाता है ।
शरीर को निर्मित करनेवाले द्रव्य, शक्तियाँ, घटक, परिस्थितियाँ आदि ही उसे जीवन प्रदान करती हैं, और इस दृष्टि से वही उसके वास्तविक स्वामी कहे जा सकते हैं ।
उनकी पारस्परिक क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ होने से ही शरीर में विभिन्न और विविध क्षमताएँ तथा प्रतिफल /परिणाम जैसे भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि लगना, जाग्रति, स्वप्न तथा सुषुप्ति की या मूर्च्छा की स्थितियाँ पैदा होती हैं । और वह स्वामी शरीर को अपने-आपसे पृथक की भाँति जानता है, या जानता भी है या नहीं, इसे समझना तो बहुत कठिन है ।
लेकिन इसी शरीर से घनिष्ठता से जुड़ा एक चेतन तत्त्व भी अवश्य है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता । यही शरीर को 'जानता' है, और न सिर्फ उसके माध्यम से भिन्न-भिन्न सुखद या दुखद या साधारण भोगों को 'भोगता' है, न सिर्फ उसके 'कष्टों' या 'सुखों' से प्रभावित होता है, उसे न सिर्फ 'मेरा' कहकर उसके स्वामी होने का विचार / दावा करता है, (या इस भ्रम से ग्रस्त रहता है), बल्कि उसे 'मैं' कहता भी है ।
उसका ऐसा 'जानना', उसके 'चेतन'-तत्त्व होने का ही कारण तथा परिणाम भी है । केवल संप्रेषण की सुविधा के लिए हम उसे उसके 'जानने' से पृथक के रूप में स्वीकार करते हैं, यह बात स्पष्टता-पूर्वक देख लेने पर आसानी होगी ।
इसलिए यह तो स्पष्ट ही है कि यद्यपि वह चेतन-तत्त्व जिसे हम अपने-आपके रूप में जानते-समझते हैं, और जो हम स्वयं ही वस्तुत: हैं भी, जो शरीर को 'अपना' या 'मेरा', यहाँ तक कि 'मैं' भी कहता है, वह शरीर में होनेवाली तमाम क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं के केवल एक अत्यंत छोटे से अंश (जैसे भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी लगना आदि, और इन्द्रिय-संवेदनों को ) ही 'जानता' है -किन्तु वह उन्हें 'संचालित' कदापि नहीं करता । वह परोक्षत: शायद 'जानकारी' तथा 'अनुभव' की 'स्मृति' (जो पुन: बाहर से प्राप्त हुई 'जानकारी' ही होती है,) के आधार पर उन्हें सक्रिय या निष्क्रिय, तीव्र या धीमा तो कर सकता है, लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकालना तो भूल ही होगा कि वह शरीर का 'स्वामी' है !
अतएव शरीर के दो 'स्वामी' अब हमारे लिए विचारणीय हैं ।
एक तो प्रकृति के तत्त्व और नियम, जो कि विज्ञान-सम्मत तो हैं ही , लेकिन उस 'स्वामी' के बारे में यह दूसरा 'स्वामी' (अर्थात् चेतन-तत्त्व), जो कि शरीर का उपयोग /उपभोग करता है, और शरीर के न सिर्फ 'मेरे-होने' का, बल्कि 'मैं' होने का भी विचार / दावा / विश्वास करता है, -जो इस विभ्रम से ग्रस्त है, लगभग कुछ भी नहीं जानता । अब, यह भी स्पष्ट ही है कि वह चेतन-तत्त्वरूपी 'स्वामी' या तो शरीर का ही 'परिणाम' अथवा 'विकार' है, या उससे भिन्न किसी और स्वरूप की कोई दूसरी बिलकुल ही भिन्न वस्तु है ।
क्या यह संभव है कि वह सिर्फ शरीर के अंतर्गत उत्पन्न होनेवाला एक ख़याल अथवा कल्पना-मात्र हो ? यदि वह शरीर के अंतर्गत होनेवाली एक क्रिया या प्रतिक्रया भर होता हो, तो क्या वह दूसरी ऐसी सारी क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं की भाँति किसी समय होता हो, और किसी समय खो जाता हो ? क्या वह शरीरगत एक स्थिति-विशेष भर है ? यदि ऐसा ही है तो 'मृत्यु' के समय उसका क्या होता होगा ?
किन्तु अभी तो, जब हम जीवन जी रहे हैं, तब भी तो वह है, इस पर संदेह तो किया ही नहीं जा सकता !
निष्कर्ष यह, कि वह चेतन-तत्त्व जो शरीर को 'जानता' है, भूलवश ही उसे 'मेरा' अथवा 'मैं' कह या समझ बैठता है । वह शरीर को एक ओर तो भोग का माध्यम, साधन या उपकरण मन लेता है, वहीं दूसरी ओर, उस माध्यम को ही 'मैं' भी समझ लेने की नासमझी कर बैठता है, जबकि शरीर तो प्रकृति के अपने नियमों से बनता-बिगड़ता और व्यवहार करता है । शरीर का यह 'चेतन' स्वामी शरीर में होनेवाली भिन्न-भिन्न क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं को अनुकूल, प्रतिकूल, और सामान्य, आवश्यक, अनावश्यक आदि की तरह देखता है । इन्द्रिय-संवेदनाएँ और शरीर के अंतर्गत घट रही क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं के संवेदन भी शायद उस ज्ञान का ही हिस्सा हैं जो शरीर को निर्मित, संचालित और अंतत: विनष्ट भी कर देता है । क्या उस ज्ञान को हम वैश्विक-प्रज्ञा (Cosmic-Intelligence) नहीं कह सकते ? लेकिन शरीर को 'भोग' के एक उपकरण की तरह प्रयोग करनेवाला चेतन-तत्त्व, जो कि 'मन' के माध्यम से 'विचार', 'बुद्धि', 'भावनाओं', 'स्मृति', तथा 'संकल्प' का भी उपभोग करता है, अपने-आप के एक स्वतंत्र सत्ता होने के विभ्रम से ग्रस्त हो जाता है । इस विभ्रम की वैधता पर संदेह करने, इसके प्रति जागने, इसके 'कारण' का अन्वेषण करने की बजाय, वह चेतन स्वामी इस विभ्रम का एक समर्पित सेवक बन जाता है, और एक मिथ्या दुश्चक्र में फँस जाता है ।
क्या सामान्य 'मन' का प्रयोग करते हुए, उसी 'मन' की तमाम 'विधियों' का अनुष्ठान करने-मात्र से यह चेतन तत्त्व, कभी अपने इस मौलिक विभ्रम से मुक्त हो सकता है ? क्या वे इस विभ्रम को और दृढ ही नहीं करती हैं ?
और यदि वह चेतन-तत्त्व इस मौलिक विभ्रम पर प्रश्न नहीं उठाता, तो वह अनंतकाल तक के लिए, सदा के लिए, इस दुश्चक्र में पड़ा रहने के लिए विवश है ।
>>>विचारणा/2।>>>>>>>>
>>>'अहं' और 'अहं'-संकल्प.>>>>>>>
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January 05, 2010
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