~~~~~~~~~उन दिनों -56.~~~~~~~~
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पाँच मिनटों तक हमारे आसपास एक सहज मौन व्याप्त रहता है, एक आत्मीय मौन, जिसमें न कुछ घुमड़ता है, और न एक दूसरे से कोई दूरी होती है । बोलने के लिए कुछ नहीं होता, लेकिन 'खालीपन' नहीं होता, ऊब नहीं होती, आशा या आशंका नहीं है, डर या अवसाद तो कतई नहीं है । उस मौन में कोई अद्भुत चीज़ बिजली की लकीर की तरह लेकिन बेआवाज़, मुझे काटकर गुज़र जाती है ।
उनके मौन में न तो व्याकुलता है, न अधीरता, न व्यग्रता है, न क्षुब्धता, न शोक, प्रेम या स्नेह तो है, लेकिन निस्संगता भी अवश्य है, आसक्ति नहीं पर अपनत्त्व ज़रूर है । वे अविचल दृष्टि से मुझे देखने लगते हैं । उस दृष्टि में क्या है, मैं नहीं जानता, -बस एक शिशु सी निर्दोष दृष्टि है वह, बस । न अपेक्षा है, न शिकायत, न दु:ख है, न कामना, विनम्रता नहीं, तो उद्धतता भी नहीं है । क्षण भर में ही वे दृष्टि हटा लेते हैं ।
बहुत देर बाद मैं 'सोचने' में लौटकर, शब्दों को जोड़कर, उनसे कुछ कहने का प्रयास करता हूँ, लेकिन फिर रुक जाता हूँ ।
"तुम अजय को जानते हो ?"
वे पूछते हैं ।
मैं कोशिश करता हूँ । वहाँ पर एक रिक्तता है, -स्मृति में, 'अजय' के नाम की कोई फ़ाइल वहाँ नहीं दिखलाई देती ।
"अजय मेरा बेटा था । था याने कि है । "
वे सरलता से कहते हैं, और मुझे झटका लगता है । अजय के बारे में उन्होंने मुझे उस दिन बतलाया तो था जब मैं दफ्तर के काम से उनके शहर गया था ।
मैं चुप रहता हूँ । मैं समझ रहा हूँ कि अजय उनके जीवन का केन्द्रीय हिस्सा है । होने/न होने पर भी । थोड़ा अपराध-बोध मुझे कचोटने लगता है । वे उदासीन हैं । न दु:खी है, और न उनके मन में मेरे प्रति कोई शिकायत है ।
"एक्सीडेंट में उसकी एकाएक मृत्यु हो जाने के बाद मैं टूट सा गया था , बिखर गया था । पर मेरे साथ मेरी पत्नी थी, जो उसकी माँ भी है । आपने तो देखा ही है उसे ! "
वे अचानक ही मुझे 'तुम' के बजाय आप कहने लगे थे ।
"और अजय से छोटी अपर्णा भी तो थी, मेरी बेटी । मैंने उनमें अपने बिखराव को समेटने की कोशिश की । टूटन की रिपेयरिंग करने का प्रयास किया । आपने तो देखा है उन्हें । "
हाँ, मुझे अपर्णा और उसकी माँ, दोनों याद आ गए थे ।
"हाँ, जब मैं दूसरी बार आपके घर आया था तब उन्हें देखा था । याद है मुझे । "
"उसकी शादी का उस समय बस ख़याल ही था । वह कॉलेज जाने लगी थी । सेकण्ड-ईयर में पढ़ रही थी । शायद ग्रेजुएशन कर लेती, लेकिन, ..."
-वे कहते कहते रुक गए ।
अगले ही पल बोले,
"तो मैं आपसे कह रहा था कि क्या हमारे सोचने या उम्मीदें करने से ज़िंदगी की धारा का प्रवाह रुक जाता है ?"
मैं सुन रहा था ।
"आप साहित्य या शायद कला के क्षेत्र में कुछ सीखना-करना चाहते हैं । "
मैं उनके अगले वाक्य की प्रतीक्षा करने लगा ।
"हम, अभी क्या करना है, यह तो सोचते हैं, लेकिन हमारा ऐसा सोचना ही क्या हमारे लिए बंधन नहीं बन जाता है ?"
"कैसा बंधन ? "
मैंने सोचा । वे किस बंधन की बात कर रहे थे ?
"आप इसे बंधन क्यों कह रहे हैं ?"
-मैंने पूछा ।
"क्या इससे हम जीवन के स्वाभाविक प्रवाह को किसी ख़ास दिशा में ... ... ... "
वे पल भरके लिए रुके, फिर बोले,
""किसी ख़ास सपने की शक्ल में मोड़ना या ढालना नहीं चाहने लगते ?"
"हाँ, शायद । "
"लेकिन, जैसा कि स्वाभाविक रूप से होना है, वह ज्ञात न होने की वज़ह से ही तो हम जो 'होता है', उसका, याने कि 'भावी' का कोई काल्पनिक चित्र बनाकर उसे सँवारने की कोशिश नहीं करने लगते हैं ?"
"हाँ, शायद । "
"तो क्या यह एक अमूर्त्त बंधन ही नहीं होता ?"
"अमूर्त्त ?"
"हाँ, अमूर्त्त इसलिए, क्योंकि उसकी गिरफ्त में रहने पर भी हमें उसका ख़याल तक नहीं आता । इससे वह ख़त्म तो नहीं हो जाता । "
वे किसी 'अमूर्त्त' बंधन को यथार्थ कह रहे थे, और मेरे यथार्थ को कल्पना ! कैसा विरोधाभास था !
"अजय की मृत्यु के बाद अपर्णा की शादी हमें करनी पड़ी । उसका एक मित्र था, यूँ तो क्लास-फेलो था, लेकिन न जाने कब और कैसे उनकी दोस्ती 'प्यार' में बदल गयी और इसमें सबसे बड़ी बात जो दिखलाई दी वह यह कि दोनों बहुत सीरियस थे इस बारे में । मैं नहीं कह सकता कि वह उनकी उस कच्ची उम्र की भावुकता भर थी, या सचमुच उन्होंने सोच-समझकर एक दूसरे को अपना जीवनसाथी बनाने का फैसला किया होगा । वैसे मुझे नहीं लगता कि उन्हें एक दूसरे से वाकई ऐसा कोई गहरा 'प्रेम' था भी । शायद भावुकता भी नहीं थी, बस एक उनकी समझ में एक 'व्यावहारिक सोच' भर था इसकी वज़ह । जैसा कि मैंने कहा, कि जीवन के यथार्थ को जैसा वे समझते थे, उस आधार पर उन्होंने एक-दूसरे को अपने लिए बहुत उपयुक्त महसूस किया होगा, और उस फैसले पर दृढ़ रहे । यह तो मानना होगा कि उन्होंने तमाम 'रिस्क्स' और दूसरी आशंकाओं के बारे में भी ज़रूर सोच लिया था । उस के 'दोस्त' के घर के लोगों को भी कोई ऐतराज नहीं था । सच तो यह भी है कि उसके घर के लोगों में आपस में इतनी गहरी आत्मीयता भी नहीं थी । वे सभी बहुत 'व्यावहारिक' किस्म के लोग हैं । यदि ऐसा न होता तो सब कुछ इतना आसान नहीं होता । लड़के के पिता का लंबा-चौड़ा कारोबार था, और वे पढ़ने के लिए उसे विदेश भेजना चाहते थे । फिर उन्हें जल्दी थी कि यदि उसकी शादी भी हो जाए तो कोई हर्ज़ नहीं । सो शादी कोई बहुत महत्त्वपूर्ण मुद्दा नहीं था उनके लिए । फिर अपर्णा की शादी हुई, और वह पति के साथ विदेश चली गयी । हालाँकि वहाँ उसने किसी बड़ी यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया, और वे दोनों वहाँ पढ़ भी रहे हैं, और घर के कारोबार में हाथ भी बँटा रहे हैं । खैर,मैं तो यही सोचता हूँ कि उन्हें उनकी ज़िंदगी जीने का तरीका चुनने का हक़ था, और आगे कोई परेशानी आती है, तो मुझे उनके लिए शायद कुछ करना पड़ सकता है । मैं उनके भविष्य के बारे में इससे ज़्यादा कुछ नहीं सोचता । बिटिया की माँ ज़रूर दु:खी है, लेकिन इंसान को दु:ख की भी आदत हो जाती है, सो ... ... । "
"और अपने भविष्य के बारे में आप क्या सोचते हैं ?"
"वह अपनी चिंता स्वयं ही कर लेगा । "
"क्या भविष्य की चिंता करने या योजना बनाने को आप ज़रूरी नहीं समझते ?"
"पहले समझता था, फिर धीरे-धीरे यह बात दिल में घर कर गयी कि जो कुछ होता है, वह किन्हीं ऐसे कारणों से होता है जिन पर हमारा कोई वश नहीं हो सकता । और वश तो ठीक, हमें उनकी कल्पना या ख़याल तक नहीं होता ।
मुझे निर्मल वर्मा के लिखे किसी उपन्यास की एक पंक्ति याद आई,
"बहुत बाद में कोई फर्क नहीं पड़ता । "
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>>>>>> उन दिनों 57.>>>>>>>>>
February 28, 2010
उन दिनों -55
~~~~~~~~~ उन दिनों -55~~~~~~~~~~
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बिटिया की शादी में वे नहीं आये थे । लेकिन उसके दो हफ्ते बाद एक बार आये थे, तब उनका रिटायरमेंट होने में कुछ माह या हफ्ते शेष थे । उनके न आने से दु:खी या नाराज होने का सवाल ही नहीं था । फिर भी जब पंद्रह दिनों बाद आये थे तो सारे गिले-शिकवे दूर हो गए थे । बिटिया भी कुछ दिन ससुराल में बिताकर कुछ दिनों के लिए आई ही थी । उसकी शादी के समय बेटा भी बस चार-पाँच दिनों के लिए आया था, -शादी के तीसरे ही दिन बेटा-बहू राउरकेला वापस चले गए थे ।
वे दूसरे दिन थे । उन दिनों का ज़िक्र संक्षेप में यही कि जैसे किसी घर में कन्या का ब्याह होनेवाला होता है, तो जैसी स्थिति होती है, कुछ वैसा ही माहौल था उन दिनों । लेकिन घर पर न तो 'लाउड-स्पीकर' लगाए थे, न बैंड-बाजे काकोई प्रावधान था । शादी के लिए एक मैरिज-हॉल बुक करा लिया था, और वहाँ ज़रूर इन दोनों का इंतज़ाम था । घर पर न सिर्फ रंग-रोगन, और साफ-सफाई हो गयी थी, बल्कि मानों साल भर पहले ही से दैवयोग से ऊपर दो कमरे लैट-बाथ और एक छोटा सा किचन भी बन गया था । पता नहीं क्यों ? शायद 'उसका' आग्रह था इसलिए । आज वह नहीं है, बच्चे अपने-अपने स्थानों पर अपनी-अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए हैं, तो अब यह घर 'आश्रम' बना हुआ है । क्या इसीलिये 'उसे' ऊपरवाले ने बुला लिया ?
'आश्रम?'
'तो क्या अगर वह होती तो घर आश्रम नहीं बन सकता था ?'
विचारों की धारा अचानक रुक गयी । मन छोटे बच्चे सा होता है , उसे जिद होती है, और वह जिद बड़ी कठिन होती है, -'बालहठ' कहते हैं जिसे । लेकिन पलक झपकते ही उसे कोई दूसरी चीज़, -कोई चिड़िया, कोई आवाज़, कोई फूल या कोई आहट, लुभा लेती है, तो वह अपनी जिद भूल भी जाता है ।
लेकिन अब 'सर' के लिए इतनी अच्छी व्यवस्था तो हो गयी ! यदि वह होती तो रवि, अविज्नान भी शायद ही यहाँ रहते ।
तब घर में कौन आता या जाता था, इसे समझना या याद रखना मुश्किल था, लेकिन शादी के हफ्ते भर बाद ही सन्नाटा छा गया था । हाँ, पुष्पा (उसकी छोटी बहन) ज़रूर रह गयी थी । वह वैसे भी यहाँ से जाना नहीं चाहती थी । उसे उसके ससुराल में कोई ख़ास परेशानी थी शायद, तो साल भर में बमुश्किल एक-दो महीने वहाँ रहती थी, बाकी समय उसकी नौकरी के बहाने दूसरे शहर में रहने लगी थी । सभी जानते थे । और बड़ी बहन से उसका लगाव जगजाहिर था, सो मैं भी 'बदनाम' था । और इसलिए मैं नहीं चाहता था कि वह मेरे घर ज़्यादा आए-जाए । लेकिन शिकायत हम 'तीनों' को दुनिया से थी । यह ठीक है कि पुष्पा से मुझे भी बहुत स्नेह था, लेकिन उसके निजी जीवन में मेरी कोई रुचि नहीं थी । एक कारण शायद यह था कि पुष्पा और उसके पति के बीच हमेशा झगड़े की कोई न कोई वज़ह बन जाती थी, और जब सुलह के लिए दोनों मेरे पास आते, तो मेरी बात से उन दोनों को कोई तसल्ली नहीं हो पाती थी ।
लेकिन 'सर' के आने के बाद पुष्पा को मेरे यहाँ आने की मानों और एक सार्थक वजह मिल गयी । पुष्पा बहुत पढ़ी-लिखी है, 'साहित्य' से उसका बहुत सरोकार था, और यह एक वज़ह थी शायद, जिसके कारण भी उससे मेरी मैत्री थी,हम दोनों ही प्राय: किसी न किसी साहित्यिक रचना पर आपस में चर्चा करते । जबकि उसके पति का तो साहित्य से कोई लेना-देना ही नहीं था । वह अपने दफ्तर में सरकारी टेंडरों की व्यवस्था में डूबा रहता था । और ज़ाहिर है कि उसके साथ के लोग वही थे, जो ज़माने के साथ चल सकते थे । उसे 'खाने-पीने' से कोई परहेज़ नहीं था, और पुष्पा की उसके पति से अनबन की सबसे बड़ी वज़ह तो यही थी । 'आर्थिक'-दृष्टि से दोनों खूब कमाते थे, लेकिन पुष्पा का पति जहाँ अनाप-शनाप कमाई कर रहा था, वहीं पुष्पा बस अपनी कोरी तनख्वाह में भी प्रसन्नथी । ऐसा नहीं कि उसे पैसे का आकर्षण लुभाता नहीं था, लेकिन वह साफ़-सुथरी कमाई से जो हो सके, उसमें ही संतुष्ट थी । पति की दो-नंबरी आमदनी से वह कभी एक पैसा तक नहीं लेती थी । पति की दृष्टि में उसके भीतर एक 'holier than thou' किस्म का 'दर्प' था । ऐसा वह कहता भी था ।
उसे उम्मीद थी कि 'सर' के सान्निध्य में वह साहित्यिक चर्चाएँ कर सकेगी, और इसलिए उसने अपनी छुट्टी बढ़ा ली थी ।
पुष्पा और वह, दोनों ही 'सर' का खूब ध्यान रखते । लेकिन पुष्पा का यह भ्रम जल्दी ही दूर हो गया कि वह 'सर' को साहित्यिक-चर्चाओं में खींच सकेगी । वह नाराज़ तो नहीं, लेकिन कुछ दु:खी ज़रूर हो गयी । मुझे कभी पहले ऐसा ही भ्रम हुआ था ।
फुर्सत में हम तीनों ही थे । और उत्साह से भरे-भरे भी । नहीं, फुर्सत का मतलब यह नहीं था कि अब खालीपन को भरने के लिए हमारे पास 'गॉसिप' करने के लिए संभावनाएँ बन रहीं हों । 'ऊब' से भागने के लिए, कोई 'प्रतिष्ठित' माध्यम मिल गया हो ।
हम, या कहें -मैं, 'ऊब' से वाकिफ था, / हूँ । शायद आप भी होंगे ही । कौन है, जो ऊब से वाकिफ नहीं होता ? हमें ऐसा लगता है । लेकिन अगर सचमुच हम उससे वाकिफ होते तो उससे दोस्ती कर सकते थे । नहीं, शायद हम उससे वाकिफ तो नहीं होते हैं लेकिन डरते ज़रूर हैं । क्या हमने कभी यह समझने की कोशिश की कि हम आख़िर ऊबते क्यों हैं ? -यह भी कोई सवाल हुआ ? नहीं, हम ऊब की शकल तक नहीं देखना चाहते ।
"आप रिटायर हो गए ? "
'सर' ने पूछा था ।
"हाँ । "
"बिटिया की शादी भी हो गयी । "
"जी ।"
"मकान बन गया ? "
"हाँ, पिछले वर्ष ख़याल आया था, पी-ऍफ़ और ग्रेच्यूटी मिली थी, एल-आई-सी का पैसा भी मिला था । कुछ लोन था पुराना, उसे भी निपटा दिया, और एक-दो कमरे ऊपर बनवा लिए । "
"और बेटा ?"
"वह राउरकेला में है, उसकी और बहू की भी नौकरी है वहाँ । दोनों व्यस्त हैं, खुश भी हैं । "
मैं सूचना देता हूँ ।
"अब क्या सोचते हैं ?"
कुछ ख़ास नहीं, बेटा कहता है कि कुछ दिन हम उसके साथ रहें । एक बार गए भी थे, लेकिन बमुश्किल हफ्ते भर में ही लौट आए। हफ्ता भर काटना मुश्किल था । खूब आराम था, लेकिन मन नहीं लगता था । ऊब गए थे वहाँ । "
"..."
"अब सोचता हूँ कि कुछ एन्जॉय करूँ, फिर कुछ ऐसे अधूरे काम भी हैं जिन्हें पूरा करना है ।"
मुझे टांड पर मेरी कलम की स्याही के कर्मकांड से अपनी 'मुक्ति' की आशा लगाए, इंतज़ार कर रही उन प्रेतात्माओं की याद आई ।
"-कुछ साहित्य पढ़ना है, लिखना भी है, ..."
-मैंने उत्साह से कहा ।
वे निर्निमेष दीवार पर टँगे 'नईदुनिया' के केलेंडर पर 'विष्णु चिंचालकर' के चित्रों को देख रहे थे ।
वे अविज्नान की भाँति 'कहीं-और' नहीं थे । वे मुझे सुन रहे थे ।
"मान लीजिये कि आप शरीर से दस-बीस साल और ठीकठाक रहेंगे , लेकिन, .... "
-धीमे स्वरों में बोलते बोलते वे रुक से गए ।
मैं भी चुप हो रहा । क्षण भर पहले छलकता उत्साह अचानक ठिठक गया ।
"मान लीजिये कि आपका बी पी नॉर्मल है, शुगर, हार्ट, ... सब बढ़िया है, लेकिन जीवन की कोई भी घटना आपकी इस सुखद स्थिति को पलक झपकते छिन्न-भिन्न कर सकती है । "
वे अब भी उस महिला को देख रहे थे, जो केलेंडर से बाहर झाँक रही थी । उसका चेहरा एक बड़ी राजनीतिक नेत्री से इतना अधिक मिलता जुलता था, कि पहली नज़र में ही आप उसे पहचान सकते थे । और थोड़ा ध्यान से देखते ही आपको पता चल जाता था कि वह चेहरा नहीं, घास-फूस और कपड़े की चिन्दियों से बनी एक आकृति भर है, जिसमें कोई रंग तक इस्तेमाल नहीं किया गया है । मुझे याद आया कि श्री चिंचालकर के घर पर जब मैं वर्ष 1970में पिताजी के साथ गया था तो ऐसी अनेकों कलाकृतियाँ देखीं थीं मैंने !
अब वह महिला वहाँ कहीं नहीं थी । फिर मुझे वर्ष १९८४ याद आया । वहाँ थी घास-फूस, और शायद एक दो छोटी-बड़ी पतली मोटी, 'स्केच' की हुई चंद लकीरें ।
"हाँ, लेकिन इस बारे में सोचने से क्या होगा ?"
"क्या न सोचने से ज़िंदगी अपना रास्ता बदल लेगी ?"
मैं सुनता रहा । मुझे उनकी बात समझ में नहीं आई ।
"सॉरी, मैंने आपको डिस्टर्ब कर दिया । "
वे शांत भाव से बोले ।
"नहीं, आप ठीक कहते हैं, "
-मैंने अपेक्षाभाव से उनकी ओर देखते हुए उनसे कहा ।
कोई पाँच मिनटों तक हम दोनों के बीच एक मौन ठिठका रहा । तब न ऊब थी, न इंतज़ार, बस एक उत्कंठा ज़रूर थी, -यह जानने की कि वे आगे मुझे 'कहाँ' ले जाएँगे !
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>>>>>>>> उन दिनों -56 >>>>>>>>
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बिटिया की शादी में वे नहीं आये थे । लेकिन उसके दो हफ्ते बाद एक बार आये थे, तब उनका रिटायरमेंट होने में कुछ माह या हफ्ते शेष थे । उनके न आने से दु:खी या नाराज होने का सवाल ही नहीं था । फिर भी जब पंद्रह दिनों बाद आये थे तो सारे गिले-शिकवे दूर हो गए थे । बिटिया भी कुछ दिन ससुराल में बिताकर कुछ दिनों के लिए आई ही थी । उसकी शादी के समय बेटा भी बस चार-पाँच दिनों के लिए आया था, -शादी के तीसरे ही दिन बेटा-बहू राउरकेला वापस चले गए थे ।
वे दूसरे दिन थे । उन दिनों का ज़िक्र संक्षेप में यही कि जैसे किसी घर में कन्या का ब्याह होनेवाला होता है, तो जैसी स्थिति होती है, कुछ वैसा ही माहौल था उन दिनों । लेकिन घर पर न तो 'लाउड-स्पीकर' लगाए थे, न बैंड-बाजे काकोई प्रावधान था । शादी के लिए एक मैरिज-हॉल बुक करा लिया था, और वहाँ ज़रूर इन दोनों का इंतज़ाम था । घर पर न सिर्फ रंग-रोगन, और साफ-सफाई हो गयी थी, बल्कि मानों साल भर पहले ही से दैवयोग से ऊपर दो कमरे लैट-बाथ और एक छोटा सा किचन भी बन गया था । पता नहीं क्यों ? शायद 'उसका' आग्रह था इसलिए । आज वह नहीं है, बच्चे अपने-अपने स्थानों पर अपनी-अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए हैं, तो अब यह घर 'आश्रम' बना हुआ है । क्या इसीलिये 'उसे' ऊपरवाले ने बुला लिया ?
'आश्रम?'
'तो क्या अगर वह होती तो घर आश्रम नहीं बन सकता था ?'
विचारों की धारा अचानक रुक गयी । मन छोटे बच्चे सा होता है , उसे जिद होती है, और वह जिद बड़ी कठिन होती है, -'बालहठ' कहते हैं जिसे । लेकिन पलक झपकते ही उसे कोई दूसरी चीज़, -कोई चिड़िया, कोई आवाज़, कोई फूल या कोई आहट, लुभा लेती है, तो वह अपनी जिद भूल भी जाता है ।
लेकिन अब 'सर' के लिए इतनी अच्छी व्यवस्था तो हो गयी ! यदि वह होती तो रवि, अविज्नान भी शायद ही यहाँ रहते ।
तब घर में कौन आता या जाता था, इसे समझना या याद रखना मुश्किल था, लेकिन शादी के हफ्ते भर बाद ही सन्नाटा छा गया था । हाँ, पुष्पा (उसकी छोटी बहन) ज़रूर रह गयी थी । वह वैसे भी यहाँ से जाना नहीं चाहती थी । उसे उसके ससुराल में कोई ख़ास परेशानी थी शायद, तो साल भर में बमुश्किल एक-दो महीने वहाँ रहती थी, बाकी समय उसकी नौकरी के बहाने दूसरे शहर में रहने लगी थी । सभी जानते थे । और बड़ी बहन से उसका लगाव जगजाहिर था, सो मैं भी 'बदनाम' था । और इसलिए मैं नहीं चाहता था कि वह मेरे घर ज़्यादा आए-जाए । लेकिन शिकायत हम 'तीनों' को दुनिया से थी । यह ठीक है कि पुष्पा से मुझे भी बहुत स्नेह था, लेकिन उसके निजी जीवन में मेरी कोई रुचि नहीं थी । एक कारण शायद यह था कि पुष्पा और उसके पति के बीच हमेशा झगड़े की कोई न कोई वज़ह बन जाती थी, और जब सुलह के लिए दोनों मेरे पास आते, तो मेरी बात से उन दोनों को कोई तसल्ली नहीं हो पाती थी ।
लेकिन 'सर' के आने के बाद पुष्पा को मेरे यहाँ आने की मानों और एक सार्थक वजह मिल गयी । पुष्पा बहुत पढ़ी-लिखी है, 'साहित्य' से उसका बहुत सरोकार था, और यह एक वज़ह थी शायद, जिसके कारण भी उससे मेरी मैत्री थी,हम दोनों ही प्राय: किसी न किसी साहित्यिक रचना पर आपस में चर्चा करते । जबकि उसके पति का तो साहित्य से कोई लेना-देना ही नहीं था । वह अपने दफ्तर में सरकारी टेंडरों की व्यवस्था में डूबा रहता था । और ज़ाहिर है कि उसके साथ के लोग वही थे, जो ज़माने के साथ चल सकते थे । उसे 'खाने-पीने' से कोई परहेज़ नहीं था, और पुष्पा की उसके पति से अनबन की सबसे बड़ी वज़ह तो यही थी । 'आर्थिक'-दृष्टि से दोनों खूब कमाते थे, लेकिन पुष्पा का पति जहाँ अनाप-शनाप कमाई कर रहा था, वहीं पुष्पा बस अपनी कोरी तनख्वाह में भी प्रसन्नथी । ऐसा नहीं कि उसे पैसे का आकर्षण लुभाता नहीं था, लेकिन वह साफ़-सुथरी कमाई से जो हो सके, उसमें ही संतुष्ट थी । पति की दो-नंबरी आमदनी से वह कभी एक पैसा तक नहीं लेती थी । पति की दृष्टि में उसके भीतर एक 'holier than thou' किस्म का 'दर्प' था । ऐसा वह कहता भी था ।
उसे उम्मीद थी कि 'सर' के सान्निध्य में वह साहित्यिक चर्चाएँ कर सकेगी, और इसलिए उसने अपनी छुट्टी बढ़ा ली थी ।
पुष्पा और वह, दोनों ही 'सर' का खूब ध्यान रखते । लेकिन पुष्पा का यह भ्रम जल्दी ही दूर हो गया कि वह 'सर' को साहित्यिक-चर्चाओं में खींच सकेगी । वह नाराज़ तो नहीं, लेकिन कुछ दु:खी ज़रूर हो गयी । मुझे कभी पहले ऐसा ही भ्रम हुआ था ।
फुर्सत में हम तीनों ही थे । और उत्साह से भरे-भरे भी । नहीं, फुर्सत का मतलब यह नहीं था कि अब खालीपन को भरने के लिए हमारे पास 'गॉसिप' करने के लिए संभावनाएँ बन रहीं हों । 'ऊब' से भागने के लिए, कोई 'प्रतिष्ठित' माध्यम मिल गया हो ।
हम, या कहें -मैं, 'ऊब' से वाकिफ था, / हूँ । शायद आप भी होंगे ही । कौन है, जो ऊब से वाकिफ नहीं होता ? हमें ऐसा लगता है । लेकिन अगर सचमुच हम उससे वाकिफ होते तो उससे दोस्ती कर सकते थे । नहीं, शायद हम उससे वाकिफ तो नहीं होते हैं लेकिन डरते ज़रूर हैं । क्या हमने कभी यह समझने की कोशिश की कि हम आख़िर ऊबते क्यों हैं ? -यह भी कोई सवाल हुआ ? नहीं, हम ऊब की शकल तक नहीं देखना चाहते ।
"आप रिटायर हो गए ? "
'सर' ने पूछा था ।
"हाँ । "
"बिटिया की शादी भी हो गयी । "
"जी ।"
"मकान बन गया ? "
"हाँ, पिछले वर्ष ख़याल आया था, पी-ऍफ़ और ग्रेच्यूटी मिली थी, एल-आई-सी का पैसा भी मिला था । कुछ लोन था पुराना, उसे भी निपटा दिया, और एक-दो कमरे ऊपर बनवा लिए । "
"और बेटा ?"
"वह राउरकेला में है, उसकी और बहू की भी नौकरी है वहाँ । दोनों व्यस्त हैं, खुश भी हैं । "
मैं सूचना देता हूँ ।
"अब क्या सोचते हैं ?"
कुछ ख़ास नहीं, बेटा कहता है कि कुछ दिन हम उसके साथ रहें । एक बार गए भी थे, लेकिन बमुश्किल हफ्ते भर में ही लौट आए। हफ्ता भर काटना मुश्किल था । खूब आराम था, लेकिन मन नहीं लगता था । ऊब गए थे वहाँ । "
"..."
"अब सोचता हूँ कि कुछ एन्जॉय करूँ, फिर कुछ ऐसे अधूरे काम भी हैं जिन्हें पूरा करना है ।"
मुझे टांड पर मेरी कलम की स्याही के कर्मकांड से अपनी 'मुक्ति' की आशा लगाए, इंतज़ार कर रही उन प्रेतात्माओं की याद आई ।
"-कुछ साहित्य पढ़ना है, लिखना भी है, ..."
-मैंने उत्साह से कहा ।
वे निर्निमेष दीवार पर टँगे 'नईदुनिया' के केलेंडर पर 'विष्णु चिंचालकर' के चित्रों को देख रहे थे ।
वे अविज्नान की भाँति 'कहीं-और' नहीं थे । वे मुझे सुन रहे थे ।
"मान लीजिये कि आप शरीर से दस-बीस साल और ठीकठाक रहेंगे , लेकिन, .... "
-धीमे स्वरों में बोलते बोलते वे रुक से गए ।
मैं भी चुप हो रहा । क्षण भर पहले छलकता उत्साह अचानक ठिठक गया ।
"मान लीजिये कि आपका बी पी नॉर्मल है, शुगर, हार्ट, ... सब बढ़िया है, लेकिन जीवन की कोई भी घटना आपकी इस सुखद स्थिति को पलक झपकते छिन्न-भिन्न कर सकती है । "
वे अब भी उस महिला को देख रहे थे, जो केलेंडर से बाहर झाँक रही थी । उसका चेहरा एक बड़ी राजनीतिक नेत्री से इतना अधिक मिलता जुलता था, कि पहली नज़र में ही आप उसे पहचान सकते थे । और थोड़ा ध्यान से देखते ही आपको पता चल जाता था कि वह चेहरा नहीं, घास-फूस और कपड़े की चिन्दियों से बनी एक आकृति भर है, जिसमें कोई रंग तक इस्तेमाल नहीं किया गया है । मुझे याद आया कि श्री चिंचालकर के घर पर जब मैं वर्ष 1970में पिताजी के साथ गया था तो ऐसी अनेकों कलाकृतियाँ देखीं थीं मैंने !
अब वह महिला वहाँ कहीं नहीं थी । फिर मुझे वर्ष १९८४ याद आया । वहाँ थी घास-फूस, और शायद एक दो छोटी-बड़ी पतली मोटी, 'स्केच' की हुई चंद लकीरें ।
"हाँ, लेकिन इस बारे में सोचने से क्या होगा ?"
"क्या न सोचने से ज़िंदगी अपना रास्ता बदल लेगी ?"
मैं सुनता रहा । मुझे उनकी बात समझ में नहीं आई ।
"सॉरी, मैंने आपको डिस्टर्ब कर दिया । "
वे शांत भाव से बोले ।
"नहीं, आप ठीक कहते हैं, "
-मैंने अपेक्षाभाव से उनकी ओर देखते हुए उनसे कहा ।
कोई पाँच मिनटों तक हम दोनों के बीच एक मौन ठिठका रहा । तब न ऊब थी, न इंतज़ार, बस एक उत्कंठा ज़रूर थी, -यह जानने की कि वे आगे मुझे 'कहाँ' ले जाएँगे !
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February 24, 2010
मौन-दीक्षा
(उन दिनों -34 में नलिनी द्वारा सुनाई गयी कविता :
-नवम्बर,10, 2009)
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'विस्मय' मेरा गुरु था,
उसने मुझे 'मौन-दीक्षा' दी ।
उसने ही सिखाया कि मैं कुछ नहीं जानती ।
और यह 'कुछ-न-जानना' ही,
-'जानने' को 'जानना' है,
-'जानने' का 'जानना' है ।
'जानना' ही अपने-आप को जानता है ,
लेकिन नि:शब्द ही !
'जानना' 'जानने' को 'जानता' है,
-लेकिन उसकी कोई 'स्मृति' नहीं बनती ।
तब मन खंडित नहीं होता ।
लेकिन 'अब' वह खंडित है ।
(क्योंकि)
अपने-आपसे टूटकर,
कब कोई जुड़ सका है,
-किसी से !
जब देखती हूँ,
पेड़ से गिरा कोई पत्ता,
अपना वजूद याद आता है ।
मैं टूटकर भी कहाँ टूटी ?
पूरा पेड़ है,
-मेरे जैसा ।
पत्ता टूटने से पेड़ कहाँ टूटा ?
और वास्तव में,
पत्ता भी कहाँ टूटा ?
मेरा वजूद तो है अब भी साबुत !
देखते नहीं तुम,
रात के अँधेरे में,
ज्योत्स्ना की गोद में सोया हुआ मुझको ?
और पुन: सुबह के सूरज को,
मुझ पर अपना सोना (*) लुटाते ?
और धरती को मुझको ,
'अपने' आँचल में छिपाते,
जहां से फिर लौटूँगा मैं,
-कल-परसों !
वही, जो अभी-अभी पेड़ से झरकर गिरा है,
पीला, पूरा,
और अक्षुण्ण,
-सौन्दर्य में, ताजगी में, रंग में !
क्या वे सब कभी टूटते हैं ?
यदि तुम सोचते हो कि मैं एक पत्ता हूँ,
तो ज़रूर मैं एक पत्ता ही तो हूँ !
पर वृक्ष भी तो हूँ मैं !
-हवाएँ, और रौशनी भी तो हूँ मैं,
सूरज धरती, और चन्दा, आकाश भी तो हूँ मैं !
-मैं नहीं टूटती !!
___________________
(उक्त कविता पुन: पोस्ट करने का एक कारण तो यह था कि यह 'उन दिनों -५४' के सन्दर्भ में और अधिक सार्थक लगती है । दूसरा यह कि इसे 'कविता' के अंतर्गत भी पृथक से पढ़ा जा सके ।
संशोधित और संपादित :
24-02-2009.
(*)सोना = धूप
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-नवम्बर,10, 2009)
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'विस्मय' मेरा गुरु था,
उसने मुझे 'मौन-दीक्षा' दी ।
उसने ही सिखाया कि मैं कुछ नहीं जानती ।
और यह 'कुछ-न-जानना' ही,
-'जानने' को 'जानना' है,
-'जानने' का 'जानना' है ।
'जानना' ही अपने-आप को जानता है ,
लेकिन नि:शब्द ही !
'जानना' 'जानने' को 'जानता' है,
-लेकिन उसकी कोई 'स्मृति' नहीं बनती ।
तब मन खंडित नहीं होता ।
लेकिन 'अब' वह खंडित है ।
(क्योंकि)
अपने-आपसे टूटकर,
कब कोई जुड़ सका है,
-किसी से !
जब देखती हूँ,
पेड़ से गिरा कोई पत्ता,
अपना वजूद याद आता है ।
मैं टूटकर भी कहाँ टूटी ?
पूरा पेड़ है,
-मेरे जैसा ।
पत्ता टूटने से पेड़ कहाँ टूटा ?
और वास्तव में,
पत्ता भी कहाँ टूटा ?
मेरा वजूद तो है अब भी साबुत !
देखते नहीं तुम,
रात के अँधेरे में,
ज्योत्स्ना की गोद में सोया हुआ मुझको ?
और पुन: सुबह के सूरज को,
मुझ पर अपना सोना (*) लुटाते ?
और धरती को मुझको ,
'अपने' आँचल में छिपाते,
जहां से फिर लौटूँगा मैं,
-कल-परसों !
वही, जो अभी-अभी पेड़ से झरकर गिरा है,
पीला, पूरा,
और अक्षुण्ण,
-सौन्दर्य में, ताजगी में, रंग में !
क्या वे सब कभी टूटते हैं ?
यदि तुम सोचते हो कि मैं एक पत्ता हूँ,
तो ज़रूर मैं एक पत्ता ही तो हूँ !
पर वृक्ष भी तो हूँ मैं !
-हवाएँ, और रौशनी भी तो हूँ मैं,
सूरज धरती, और चन्दा, आकाश भी तो हूँ मैं !
-मैं नहीं टूटती !!
___________________
(उक्त कविता पुन: पोस्ट करने का एक कारण तो यह था कि यह 'उन दिनों -५४' के सन्दर्भ में और अधिक सार्थक लगती है । दूसरा यह कि इसे 'कविता' के अंतर्गत भी पृथक से पढ़ा जा सके ।
संशोधित और संपादित :
24-02-2009.
(*)सोना = धूप
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February 20, 2010
उन दिनों -54
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------'वैयक्तिक' और 'निर्वैयक्तिक'----------
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ईश्वर ?
"निर्वैयक्तिक एक कल्पना है, ऐसा प्रतीत होता है, जबकि 'वैयक्तिक' के बारे में संदेह तक नहीं किया जा सकता, क्योंकि 'संदेहकर्त्ता' या 'संदेह' न करनेवाला भी तो कोई व्यक्ति ही होगा !"
"ठीक है, लेकिन वह व्यक्ति सचमुच है भी, या एक कामचलाऊ, औपचारिक अस्तित्त्व रखनेवाली कोई 'फंक्शनल'चीज़ भर है , -a nominal facility, and not a reality ? क्योंकि व्यक्ति में भी मूलत: 'जानने' का ही तत्त्व स्मृति को बाँधे रखने के लिए कारण होता है । 'स्मृति' अर्थात् ज्ञात, याने मस्तिष्क में संग्रहीत 'जानकारी' । उसी 'जानकारी' में उस 'जानकारी' को इस्तेमाल करनेवाले उसके एक कल्पित स्वामी के होने का ख़याल पैदा होता है । हाँ, उसका कोई स्वामी होता तो है, लेकिन वह स्वामी स्वयं कभी ऐसा कोई दावा नहीं करता, और जो ऐसा दावा करता है, वह है बस विचारों के सातत्य से उत्पन्न होनेवाले 'अपने' व्यक्ति होने का भ्रम । इस भ्रम के सतत साए में चल रहे विचारों का बनता-टूटता क्रम, अपेक्षतया बिखरा-बिखरा होता है । किन्तु यह भ्रम भी सदैव नहीं बना रहता, यह भी 'ज्ञातृत्त्व' अर्थात् सहज बोध के प्रकाश में बार-बार प्रकट और विलुप्त होता रहता है । क्या 'ज्ञातृत्त्व'-रूपी वह प्रकाश 'वैयक्तिक' होता है ? उसकी स्थिर पृष्ठभूमि यद्यपि स्वत:सिद्ध और स्व-आश्रित है, और इसलिए उसे 'जाननेवाला' उसके सिवा कोई 'और' नहीं होता, लेकिन 'स्मृति' उससे स्वयं की स्थिरता ग्रहण कर लेती है । और अपने एक 'व्यक्ति' होने का भ्रम भी, (जो विचार ही तो है,) स्मृति का आभासी केंद्र प्रतीत होने लगता है । और यह आभास होने लगता है कि मेरा जन्म हुआ, मेरा पिछ्ला जन्म रहा होगा, ... आदि-आदि ।
जैसे अनेक बिन्दुओं को पास-पास रखने पर वे एक रेखा होने का आभास पैदा करते हैं, -कुछ इसी तरह । रेखा एक निष्कर्ष है, और उस रेखा का उपयोग भी है, लेकिन इससे उसकी अपनी स्वतंत्र सत्ता है, ऐसा कहना तो गलत होगा ।
क्या इसी प्रकार से स्मृति की निरंतरता और स्मृति द्वारा दर्शाई जानेवाली चीज़ों की आभासी निरंतरता से ही, उनके एक 'विशिष्ट स्वामी' के होने का, और 'अपने' को उस 'स्वामी' की भाँति स्वीकार कर लेने का , अपने को एक विशिष्ट व्यक्ति मान लेने का ख़याल नहीं पैदा होता ? क्या ख़याल सचमुच ऐसे किसी विशिष्ट व्यक्ति को जानता/महसूस,या अनुभव करता है ?
संक्षेप में कहें, तो ज्ञातृत्त्व का वह 'प्रकाश' ही वह निरंतर, व्यवधानरहित तत्त्व है, जिसका किसी भी तर्क या तरीके से निषेध नहीं किया जा सकता । इस दृष्टि से 'जानना' अर्थात् 'ज्ञातृत्त्व' 'व्यक्ति' के उद्गम से भी पूर्व है । या कहें, उस 'जानने' के ही अंतर्गत व्यक्ति और वैयक्तिकता की कल्पना संभव होती है । "
"क्या इस 'ज्ञातृत्त्व' को 'ईश्वर' कहा जा सकता है ?
कौस्तुभ के मन में प्रश्न उठा ।
अभी हम और बातें कर सकते थे, लेकिन किसी कारण से वह चर्चा वहीं रुक गयी थी ।
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>>>>>>>>> उन दिनों -55>>>>>>>>>
------'वैयक्तिक' और 'निर्वैयक्तिक'----------
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ईश्वर ?
"निर्वैयक्तिक एक कल्पना है, ऐसा प्रतीत होता है, जबकि 'वैयक्तिक' के बारे में संदेह तक नहीं किया जा सकता, क्योंकि 'संदेहकर्त्ता' या 'संदेह' न करनेवाला भी तो कोई व्यक्ति ही होगा !"
"ठीक है, लेकिन वह व्यक्ति सचमुच है भी, या एक कामचलाऊ, औपचारिक अस्तित्त्व रखनेवाली कोई 'फंक्शनल'चीज़ भर है , -a nominal facility, and not a reality ? क्योंकि व्यक्ति में भी मूलत: 'जानने' का ही तत्त्व स्मृति को बाँधे रखने के लिए कारण होता है । 'स्मृति' अर्थात् ज्ञात, याने मस्तिष्क में संग्रहीत 'जानकारी' । उसी 'जानकारी' में उस 'जानकारी' को इस्तेमाल करनेवाले उसके एक कल्पित स्वामी के होने का ख़याल पैदा होता है । हाँ, उसका कोई स्वामी होता तो है, लेकिन वह स्वामी स्वयं कभी ऐसा कोई दावा नहीं करता, और जो ऐसा दावा करता है, वह है बस विचारों के सातत्य से उत्पन्न होनेवाले 'अपने' व्यक्ति होने का भ्रम । इस भ्रम के सतत साए में चल रहे विचारों का बनता-टूटता क्रम, अपेक्षतया बिखरा-बिखरा होता है । किन्तु यह भ्रम भी सदैव नहीं बना रहता, यह भी 'ज्ञातृत्त्व' अर्थात् सहज बोध के प्रकाश में बार-बार प्रकट और विलुप्त होता रहता है । क्या 'ज्ञातृत्त्व'-रूपी वह प्रकाश 'वैयक्तिक' होता है ? उसकी स्थिर पृष्ठभूमि यद्यपि स्वत:सिद्ध और स्व-आश्रित है, और इसलिए उसे 'जाननेवाला' उसके सिवा कोई 'और' नहीं होता, लेकिन 'स्मृति' उससे स्वयं की स्थिरता ग्रहण कर लेती है । और अपने एक 'व्यक्ति' होने का भ्रम भी, (जो विचार ही तो है,) स्मृति का आभासी केंद्र प्रतीत होने लगता है । और यह आभास होने लगता है कि मेरा जन्म हुआ, मेरा पिछ्ला जन्म रहा होगा, ... आदि-आदि ।
जैसे अनेक बिन्दुओं को पास-पास रखने पर वे एक रेखा होने का आभास पैदा करते हैं, -कुछ इसी तरह । रेखा एक निष्कर्ष है, और उस रेखा का उपयोग भी है, लेकिन इससे उसकी अपनी स्वतंत्र सत्ता है, ऐसा कहना तो गलत होगा ।
क्या इसी प्रकार से स्मृति की निरंतरता और स्मृति द्वारा दर्शाई जानेवाली चीज़ों की आभासी निरंतरता से ही, उनके एक 'विशिष्ट स्वामी' के होने का, और 'अपने' को उस 'स्वामी' की भाँति स्वीकार कर लेने का , अपने को एक विशिष्ट व्यक्ति मान लेने का ख़याल नहीं पैदा होता ? क्या ख़याल सचमुच ऐसे किसी विशिष्ट व्यक्ति को जानता/महसूस,या अनुभव करता है ?
संक्षेप में कहें, तो ज्ञातृत्त्व का वह 'प्रकाश' ही वह निरंतर, व्यवधानरहित तत्त्व है, जिसका किसी भी तर्क या तरीके से निषेध नहीं किया जा सकता । इस दृष्टि से 'जानना' अर्थात् 'ज्ञातृत्त्व' 'व्यक्ति' के उद्गम से भी पूर्व है । या कहें, उस 'जानने' के ही अंतर्गत व्यक्ति और वैयक्तिकता की कल्पना संभव होती है । "
"क्या इस 'ज्ञातृत्त्व' को 'ईश्वर' कहा जा सकता है ?
कौस्तुभ के मन में प्रश्न उठा ।
अभी हम और बातें कर सकते थे, लेकिन किसी कारण से वह चर्चा वहीं रुक गयी थी ।
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>>>>>>>>> उन दिनों -55>>>>>>>>>
February 19, 2010
उन दिनों -53
~~~~~~~~~~~ उन दिनों -53~~~~~~~~~~~
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".... ... स्वयं 'विचार' क्या है ? यदि हम 'पदार्थ', 'ऊर्जा', या ऐसी अन्य भौतिक वस्तुओं के स्वरूप के बारे में खोज-बीन कर सकते हैं, तो जिससे हमारा सतत पाला पड़ रहा है, उस 'विचार' के ही 'स्वरूप', प्रकृति (nature) के बारे में भी हमें जिज्ञासा नहीं होनी चाहिए ? क्या 'जिज्ञासा' 'विचार' है ? स्पष्ट है कि 'जिज्ञासा' 'विचार' से स्वरूपत: एक अलग वस्तु है । 'जिज्ञासा' जब होती है, तब चित्त अनायास 'निर्विचार' होता है, लेकिन जब हमें 'जानकारी' चाहिए होती है, तब हमारे मन में विचार घुमड़ते रहते हैं, जो अतीत की स्मृतियों और उनसे संबद्ध की गयी 'ध्वनियों' की अनुगूंज ही होते हैं । उसमें कोई 'नया' कैसे जाना जा सकता है ? 'अभिव्यक्ति के लिए हमें शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है, इसका यह तात्पर्य कतई नहीं कि 'विचार' 'जिज्ञासा' का विकल्प हो सकता है ।
'विचार' के दो मूल तत्त्वों को समझने की चेष्टा करें, तो वह हैं, : तरंग या कंपन और काल अर्थात् समय । यदि इनके साथ उस 'अर्थ' को भी रख दिया जाए, जिसे हम 'विचार' के माध्यम से 'ग्रहण' या संप्रेषित करते हैं, तो वह 'विचार' का एक तीसरा आयाम होगा । क्या विचार में पदार्थ भी एक आयाम नहीं होता ? यदि हम विचार में निहित शुद्धत: 'भौतिक ऊर्जा' के बारे में कहें, तो ऊर्जा पदार्थ का ही अन्य प्रकार होने से हम समझ सकते हैं, कि 'विचार' में 'पदार्थ की क्या भूमिका होती है । स्पष्ट है कि ऊर्जा की गतिविधि 'काल' और 'स्थान' के अंतर्गत ही होती है । इस प्रकार 'ऊर्जा' वह सेतु है, जिसके माध्यम से हम 'दिक्काल' और 'पदार्थ' की अनन्यता /एकरूपता /अभिन्नता समझ सकते हैं । संक्षेप में, : यह पूरा 'दृश्य'-जगत, इस प्रकार 'ऊर्जा' में समाविष्ट है, यह स्पष्ट है । 'विचार' के अंतर्गत एक दूसरा महत्त्वपूर्ण आयाम जुड़ता है, वह है 'अर्थ'का आयाम । वह 'अर्थ' जिसे 'विचार' के द्वारा कहा अथवा ग्रहण किया जाता है, -एक 'वक्तव्य', जो 'अर्थ' में भाव-सृष्टि करता है । यह 'भाव' या 'sense' क्या वस्तु है ? जब एक कम्प्युटर कोई 'वक्तव्य' देता है, तो क्या उस वक्तव्य में भाव का यह आयाम अनुस्यूत होता है ? इसकी तुलना में एक मनुष्य, जो कि भावना और विचार दोनों से युक्त होता है, जब कोई 'वक्तव्य' देता है या ग्रहण करता है, तो उसमें एक नया आयाम जुड़ा होता है, -'अर्थ' का । क्या इस 'भाव-तत्त्व' को, इस आयाम को चेतन-तत्त्व कहें ? अभी हम 'मैं' के स्वरूप के बारे में कुछ नहीं कह रहे हैं, अभी तो एक सामान्य मनुष्य की अभिव्यक्ति और कंप्यूटर कीअभिव्यक्ति में वह पक्ष देखने का प्रयास कर रहे हैं, जो मनुष्य की अभिव्यक्ति में तो होता है, लेकिन कम्प्युटर कीअभिव्यक्ति में नहीं हो सकता । इसे ही हम एक और उदाहरण से समझने की कोशिश करें । एक ऑडियो-प्लेयरकैसेट, या सीडी में अंकित किसी गाने को हम सुनते हैं । इसमें भी शब्द, विचार आदि तो होते हैं, लेकिन भाव तोसुननेवाले मनुष्य के ही द्वारा 'ग्रहण' किये जाते हैं । तात्पर्य यह कि वे भाव-विशेष, उसके अपने ही हृदय में उत्पन्नभी होते हैं, जिनका संवेदन उसे होता है । फिर वह उस भाव-विशेष को गीत या संगीत पर आरोपित करता है । किसी दूसरे मनुष्य में उन शब्दों को सुनकर कोई दूसरे भाव भी पैदा हो जाते हैं । सरल शब्दों में, मैं इस 'भाव-पक्ष' को जीवन कहना चाहूँगा । यह वैयक्तिक है या नहीं, इस पर भी सोचा जाना चाहिए ।"
-कौस्तुभ उर्फ़ मैं के अर्थात मेरे मन में यह सब आता है ।
"... ... और यह 'भाव' यद्यपि 'अमूर्त' तत्त्व है, लेकिन मूलत: वह क्या किसी 'घटना' की अपेक्षा, आशंका, या उसके नहोने की संभावना का मानसिक चित्र ही नहीं होता ? "
उसने पुन: और भी ध्यान देकर कहा । याने कि मैंने ।
"आपको यह क्यों लगता है कि सारे 'समय' कॉकरेंट /को-एक्ज़िस्टेंट होते हैं ? "
-अविज्नान ने कभी मुझसे पूछा था ।
"यह मेरा बौद्धिक निष्कर्ष या अनुमान नहीं, बल्कि अंत:प्रज्ञा (intuition) है, क्योंकि मैं कभी-कभी सुदूर भविष्य में घटित अर्थात् घटित होनेवाली घटना 'देख' चुका हूँ । यही वह सूत्र है, जिससे हममें ऐसी अंत:प्रज्ञा आ सकती है । "
-मैंने उत्तर में कहा था ।
"वैयक्तिक समय, वैयक्तिक अस्तित्त्व, और अब अंत:प्रज्ञा भी !"
उसने एक ठंडी सांस लेकर आगे कहा था :
"क्या अंत:प्रज्ञा भी वैयक्तिक या निर्वैयक्तिक होती है ?"
"अच्छा, यह बतलाओ, कि जीवन वैयक्तिक होता है या निर्वैयक्तिक ?"
मैंने एक ऐसा टॉपिक छेड़ दिया था जिसे न जाने कितने विस्तार में सोचने-समझने पर कहीं पहुँचते ।
"क्या इसे केवल निर्वैयक्तिक अथवा केवल वैयक्तिक कहना ठीक होगा ? क्या इसके दो पहलू नहीं होते ? एक ओर सेजहाँ यह सदैव वैयक्तिक ही हो सकता है, निर्वैयक्तिक कभी नहीं, वहीं दूसरे ढंग से यह सदैव निर्वैयक्तिक ही हुआ करता है, वैयक्तिक कतई नहीं ।"
"हम जीवन की बात कर रहे हैं, जहाँ जीवन है, (और कहाँ नहीं है ?) वहाँ 'जानना' तो स्वत:सिद्धत: है ही । 'जाननातो इम्प्लाइड ही है । "
"और 'जाननेवाला' ?"
" हाँ, 'जाननेवाला' भी इम्प्लाइड है । प्रत्यक्ष और अनिवार्यत: है । "
"यदि 'जाना गया' ही नहीं है, तो 'जानना' या 'जाननेवाला' किसे / क्या जानते हैं ?"
"हो सकता है कि जिसे जाना गया है, उसके बारे में यह पता चला हो कि उसकी 'स्वतंत्र-सत्ता' नहीं होती । क्योंकि यदि उसकी 'जाननेवाले' से पृथक, 'स्वतंत्र-सत्ता' होगी, तो उसका 'ज्ञान' भी 'जाननेवाले' से पृथक होगा । "
अच्छा, अब हम वैयक्तिक और निर्वैयक्तिक पर लौटें ।
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>>>>>>>>> उन दिनों -54>>>>>>>>>>>>>
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".... ... स्वयं 'विचार' क्या है ? यदि हम 'पदार्थ', 'ऊर्जा', या ऐसी अन्य भौतिक वस्तुओं के स्वरूप के बारे में खोज-बीन कर सकते हैं, तो जिससे हमारा सतत पाला पड़ रहा है, उस 'विचार' के ही 'स्वरूप', प्रकृति (nature) के बारे में भी हमें जिज्ञासा नहीं होनी चाहिए ? क्या 'जिज्ञासा' 'विचार' है ? स्पष्ट है कि 'जिज्ञासा' 'विचार' से स्वरूपत: एक अलग वस्तु है । 'जिज्ञासा' जब होती है, तब चित्त अनायास 'निर्विचार' होता है, लेकिन जब हमें 'जानकारी' चाहिए होती है, तब हमारे मन में विचार घुमड़ते रहते हैं, जो अतीत की स्मृतियों और उनसे संबद्ध की गयी 'ध्वनियों' की अनुगूंज ही होते हैं । उसमें कोई 'नया' कैसे जाना जा सकता है ? 'अभिव्यक्ति के लिए हमें शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है, इसका यह तात्पर्य कतई नहीं कि 'विचार' 'जिज्ञासा' का विकल्प हो सकता है ।
'विचार' के दो मूल तत्त्वों को समझने की चेष्टा करें, तो वह हैं, : तरंग या कंपन और काल अर्थात् समय । यदि इनके साथ उस 'अर्थ' को भी रख दिया जाए, जिसे हम 'विचार' के माध्यम से 'ग्रहण' या संप्रेषित करते हैं, तो वह 'विचार' का एक तीसरा आयाम होगा । क्या विचार में पदार्थ भी एक आयाम नहीं होता ? यदि हम विचार में निहित शुद्धत: 'भौतिक ऊर्जा' के बारे में कहें, तो ऊर्जा पदार्थ का ही अन्य प्रकार होने से हम समझ सकते हैं, कि 'विचार' में 'पदार्थ की क्या भूमिका होती है । स्पष्ट है कि ऊर्जा की गतिविधि 'काल' और 'स्थान' के अंतर्गत ही होती है । इस प्रकार 'ऊर्जा' वह सेतु है, जिसके माध्यम से हम 'दिक्काल' और 'पदार्थ' की अनन्यता /एकरूपता /अभिन्नता समझ सकते हैं । संक्षेप में, : यह पूरा 'दृश्य'-जगत, इस प्रकार 'ऊर्जा' में समाविष्ट है, यह स्पष्ट है । 'विचार' के अंतर्गत एक दूसरा महत्त्वपूर्ण आयाम जुड़ता है, वह है 'अर्थ'का आयाम । वह 'अर्थ' जिसे 'विचार' के द्वारा कहा अथवा ग्रहण किया जाता है, -एक 'वक्तव्य', जो 'अर्थ' में भाव-सृष्टि करता है । यह 'भाव' या 'sense' क्या वस्तु है ? जब एक कम्प्युटर कोई 'वक्तव्य' देता है, तो क्या उस वक्तव्य में भाव का यह आयाम अनुस्यूत होता है ? इसकी तुलना में एक मनुष्य, जो कि भावना और विचार दोनों से युक्त होता है, जब कोई 'वक्तव्य' देता है या ग्रहण करता है, तो उसमें एक नया आयाम जुड़ा होता है, -'अर्थ' का । क्या इस 'भाव-तत्त्व' को, इस आयाम को चेतन-तत्त्व कहें ? अभी हम 'मैं' के स्वरूप के बारे में कुछ नहीं कह रहे हैं, अभी तो एक सामान्य मनुष्य की अभिव्यक्ति और कंप्यूटर कीअभिव्यक्ति में वह पक्ष देखने का प्रयास कर रहे हैं, जो मनुष्य की अभिव्यक्ति में तो होता है, लेकिन कम्प्युटर कीअभिव्यक्ति में नहीं हो सकता । इसे ही हम एक और उदाहरण से समझने की कोशिश करें । एक ऑडियो-प्लेयरकैसेट, या सीडी में अंकित किसी गाने को हम सुनते हैं । इसमें भी शब्द, विचार आदि तो होते हैं, लेकिन भाव तोसुननेवाले मनुष्य के ही द्वारा 'ग्रहण' किये जाते हैं । तात्पर्य यह कि वे भाव-विशेष, उसके अपने ही हृदय में उत्पन्नभी होते हैं, जिनका संवेदन उसे होता है । फिर वह उस भाव-विशेष को गीत या संगीत पर आरोपित करता है । किसी दूसरे मनुष्य में उन शब्दों को सुनकर कोई दूसरे भाव भी पैदा हो जाते हैं । सरल शब्दों में, मैं इस 'भाव-पक्ष' को जीवन कहना चाहूँगा । यह वैयक्तिक है या नहीं, इस पर भी सोचा जाना चाहिए ।"
-कौस्तुभ उर्फ़ मैं के अर्थात मेरे मन में यह सब आता है ।
"... ... और यह 'भाव' यद्यपि 'अमूर्त' तत्त्व है, लेकिन मूलत: वह क्या किसी 'घटना' की अपेक्षा, आशंका, या उसके नहोने की संभावना का मानसिक चित्र ही नहीं होता ? "
उसने पुन: और भी ध्यान देकर कहा । याने कि मैंने ।
"आपको यह क्यों लगता है कि सारे 'समय' कॉकरेंट /को-एक्ज़िस्टेंट होते हैं ? "
-अविज्नान ने कभी मुझसे पूछा था ।
"यह मेरा बौद्धिक निष्कर्ष या अनुमान नहीं, बल्कि अंत:प्रज्ञा (intuition) है, क्योंकि मैं कभी-कभी सुदूर भविष्य में घटित अर्थात् घटित होनेवाली घटना 'देख' चुका हूँ । यही वह सूत्र है, जिससे हममें ऐसी अंत:प्रज्ञा आ सकती है । "
-मैंने उत्तर में कहा था ।
"वैयक्तिक समय, वैयक्तिक अस्तित्त्व, और अब अंत:प्रज्ञा भी !"
उसने एक ठंडी सांस लेकर आगे कहा था :
"क्या अंत:प्रज्ञा भी वैयक्तिक या निर्वैयक्तिक होती है ?"
"अच्छा, यह बतलाओ, कि जीवन वैयक्तिक होता है या निर्वैयक्तिक ?"
मैंने एक ऐसा टॉपिक छेड़ दिया था जिसे न जाने कितने विस्तार में सोचने-समझने पर कहीं पहुँचते ।
"क्या इसे केवल निर्वैयक्तिक अथवा केवल वैयक्तिक कहना ठीक होगा ? क्या इसके दो पहलू नहीं होते ? एक ओर सेजहाँ यह सदैव वैयक्तिक ही हो सकता है, निर्वैयक्तिक कभी नहीं, वहीं दूसरे ढंग से यह सदैव निर्वैयक्तिक ही हुआ करता है, वैयक्तिक कतई नहीं ।"
"हम जीवन की बात कर रहे हैं, जहाँ जीवन है, (और कहाँ नहीं है ?) वहाँ 'जानना' तो स्वत:सिद्धत: है ही । 'जाननातो इम्प्लाइड ही है । "
"और 'जाननेवाला' ?"
" हाँ, 'जाननेवाला' भी इम्प्लाइड है । प्रत्यक्ष और अनिवार्यत: है । "
"यदि 'जाना गया' ही नहीं है, तो 'जानना' या 'जाननेवाला' किसे / क्या जानते हैं ?"
"हो सकता है कि जिसे जाना गया है, उसके बारे में यह पता चला हो कि उसकी 'स्वतंत्र-सत्ता' नहीं होती । क्योंकि यदि उसकी 'जाननेवाले' से पृथक, 'स्वतंत्र-सत्ता' होगी, तो उसका 'ज्ञान' भी 'जाननेवाले' से पृथक होगा । "
अच्छा, अब हम वैयक्तिक और निर्वैयक्तिक पर लौटें ।
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