Question / प्रश्न 89
What Is A. I, or this A.I.I?
ए.आई.आई क्या है?
Answer / उत्तर :
A. I. I./ ए.आई.आई ,
(The) Acquired/Alternate/Another Intelligence / अक्वायर्ड/आल्टरनेट/अनदर इन्टेलिजेन्स जिसका संक्षिप्त नाम है :
A. I. O. / ए.आई.ओ.
A / ए as above : अज्ञ /
Acquired / Alternative / Another
I / आई - Inferential / Ignorant,
O ओ - Optional / Of Choice,
This is defined as such on the basis of
The following Stanza 15 and 16 of Shrimadbhagvad-gita :
इसे इस आधार पर परिभाषित किया जाता है :
अध्याय ४ : Chapter 4 :
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।४०।।
और / and;
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ५, श्लोक १५
नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः।।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः।।
तेषां आदित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।
अध्याय ४, श्लोक ४० से स्पष्ट है कि मनुष्य का मन ही A.I.I. / ए.आई.आई
इस पोस्ट में इस संक्षिप्त नाम से परिभाषित किया गया है। यह मन ही ज्ञानरहित - अज्ञ, श्रद्धारहित - अश्रद्दधावान, और संशयग्रस्त अश्वत्थ जिसका उल्लेख अध्याय १५ में इस प्रकार से है :
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तद्वेद स वेदवित्।।१।।
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा
गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि
कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।।२।।
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते
नान्तः न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-
मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।।३।।
ततः पदं तत् परिमार्गतव्यः
यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।४।।
इस अध्याय १५ का नाम अक्षरपुरुषोत्तमयोग है,
जिसमें पुरुष के दो रूपों का उल्लेख किया गया है :
आद्य उत्तमपुरुष-वाचक एकवचन अहंपदाख्य आत्मा या परमात्मा और दूसरा अन्यपुरुष-वाचक "मन"।
अध्याय ४ के प्रारंभिक पाँच श्लोकों में उन दोनों पुरुषों के बारे में कहा गया है :
श्रीभगवानुवाच :
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यमेतदनुत्तमम्।।३।।
अर्जुन उवाच :
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।४।।
श्री भगवानुवाच :
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।५।।
यहाँ संस्कृत के अहं पद का प्रयोग दोनों प्रकार से उत्तमपुरुषवाचक एकवचन "आत्मा / परमात्मा या ईश्वर" के अर्थ में "मैं", और अन्यपुरुष एकवचन व्यक्ति-आत्मा - "मैं" के अर्थ में दृष्टव्य है।
बहूनि "मे" व्यतीतानि जन्मानि तव च अर्जुन।
तानि "अहं वेद" सर्वाणि न त्वं... इति
सरल अर्थ यह है :
मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म विगत अतीत में हुए हैं। उन सभी को मैं (उत्तमपुरुषवाचक एकवचन संज्ञा) तो जानता हूँ / जानता है, - तुम नहीं।
"वेद" क्रियापद का तात्पर्य भी इसे इसके वर्तमान काल (लट् लकार) और अनिश्चित भूतकाल (लिट् लकार) के संदर्भ में देखने पर स्पष्ट हो जाता है।
यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण अपने आपका उल्लेख इन दोनों अर्थों में करते हैं, इस रहस्य से अनभिज्ञ होने के कारण अर्जुन को संदेह होता है कि विवस्वान् का जन्म तो सुदूर अतीत में हुआ था और भगवान् का अभी वर्तमान काल में, तो हमें कैसे पता चले कि आपने / भगवान श्रीकृष्ण ने ही विवस्वान् को इस योग का उपदेश दिया था!
तब भगवान श्रीकृष्ण कथा का उपसंहार करते हुए कहते हैं :
अजोऽपि सन्नव्यात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।।६।।
जिसमें वे आत्मा, ईश्वर और प्रकृति की क्रीडा का उल्लेख करते हैं।
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(किसी मूल सनातन सत्य से अनभिज्ञ, श्रद्धारहित और संशययुक्त
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