Question / प्रश्न 86 :
Comparatively,
What is a strong and a What is a Weak Logic?
तुलना की दृष्टि से, अधिक शक्तिशाली और अपेक्षतया कम शक्तिशाली तर्क क्या होता है?
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मान लीजिए कि जंगल में अकेले सैर करते हुए आप एक बहुत गहरे गड्ढे में गिर जाते हैं। अब आपके सामने प्रश्न यह है कि गड्ढे से सुरक्षित बाहर कैसे निकलें? आप पूरे गड्ढे का अवलोकन करते हैं । आपको पता नहीं है कि किस तरफ से ऊपर जाया जा सकता है या आवाज देकर किसी का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया जा सकता है ताकि कोई गड्ढे से बाहर निकलने में आपकी मदद कर सके। दुर्भाग्य से थक हारकर आप निराश हो जाते हैं और समझ जाते हैं कि गड्ढे से बाहर निकल पाना आसान नहीं है। क्या तब आप इसलिए इस बारे में आगे सोच-विचार या चिन्ता करना बन्द कर देंगे?
स्पष्ट है कि आप जी जान लगाकर गड्ढे से बाहर निकलने की चेष्टा करेंगे। अब आपके मन में दूसरा और एक प्रश्न यह है कि क्या गड्ढे से बाहर निकलना जरूरी है?
"यह भी कोई सवाल हुआ?"
आप कहेंगे।
उपरोक्त दोनों प्रश्नों या तर्कों में से पहला तर्क दूसरे की अपेक्षा कम शक्तिशाली है।
यह तो एक उदाहरण हुआ।
अब इसे आपके और आपके संसार / जीवन पर लागू करें। मान लीजिए कि आप जो भी हैं आप ही हैं, लेकिन आप अकस्मात् और बिल्कुल ही अनपेक्षित रूप से जिस संसार में हैं उसे ऐसा ही एक गड्ढा मान लें, जिसमें आप कैसे, क्यों और कब गिर पड़े आप इस बारे में कुछ भी नहीं जानते। आप तो शायद यह भी नहीं जानते होंगे कि इसे किसने बनाया है, या वाकई इसे बनानेवाला कोई है भी या नहीं है! क्योंकि अगर आप करेंगे कि इसे किसी ने तो बनाया होगा, तो सवाल होगा, तो फिर उस बनानेवाले को भी किसी ने बनाया होगा! इसे तर्कशास्त्र की भाषा में "अनवस्था दशा" कहा जाता है। अंग्रेजी भाषा में इसे --
Absurdity inherent या Absurdium ad infinitum या फिर, Begging the question कहा जाता होगा।
जगत् की परिवर्तनशीलता पर शायद ही संदेह किया जा सकता है। हर कोई आवश्यक रूप से यह एक मानता ही है कि जगत् या संसार हर समय बदलता ही रहता है। तो इसलिए एक तर्क या प्रश्न तो यह हुआ कि इस जगत् को, संसार या दुनिया को किसी ने बनाया होगा या यह बिना किसी के बनाए अस्तित्वमान है? जैसे हर कोई अवश्य ही यह मानता है कि यह जगत्, संसार या दुनिया सतत परिवर्तनशील है और इस मान्यता या निष्कर्ष के बारे में किसी को संदेह नहीं हो सकता, और इस प्रकार यह एक शक्तिशाली वक्तव्य या तर्क है, जबकि यह तर्क या प्रश्न कि क्या इसे किसी ने बनाया है या नहीं, अपेक्षाकृत एक कम शक्तिशाली, कमजोर प्रश्न भी है। और इसके साथ ही यह विवादास्पद है ही, और जैसा कि पहले ही कहा भी जा चुका है।
इस विवेचना में आगे बढ़ने से पहले हम यह मान भी लें कि इस जगत्, संसार या दुनिया को किसी ने बनाया है, और वह जो (या जो कुछ) भी हो, वही इस जगत्, संसार या दुनिया की देखरेख, देखभाल या रक्षा करता है, और खासकर 'आप' की, अर्थात इस जगत्, संसार या दुनिया रूपी गड्ढे से आपको सुरक्षित बाहर निकालकर, आपकी रक्षा करेगा तो इस प्रकार का विचार कितना विश्वसनीय होगा? रक्षा से हमारा क्या अभिप्राय है? क्या आपने इस संसार में किसी को सदा के लिए सुरक्षित होते हुए देखा है? जगत्, संसार, दुनिया या जीवन में हर किसी को ही सतत, हर दिन, अकाल्पनिक, अप्रत्याशित और नए नए संकटों का सामना करना पड़ता है। सौभाग्यवश यदि वह उनसे सुरक्षित बाहर निकलकर बच भी जाता है, तो क्या उसे इसका पता चल पाता है कि उसे किसने बचाया? या ऐसा संयोगवश ही होता है? क्या हम नहीं देखते कितने लोग दुर्घटनाओं, रोगों और विकट परिस्थितियों में फँस जाया करते हैं और क्या कोई उनकी रक्षा करता भी है, या नहीं! पुनः प्रश्न उठता है -
"रक्षा" से हमारा क्या अभिप्राय है?
क्या इसका अभिप्राय यह हो सकता है कि मृत्यु के बाद मृतक को सद्गति या स्वर्ग की प्राप्ति होगी? जहाँ अपने उस उद्धारकर्ता / savior की शरण में आमोद प्रमोद करता हुआ अनंत काल तक सुरक्षित रहेगा!
उद्धार होना, सुरक्षित होना, क्या यह मान्यता, असुरक्षा की भावना से उत्पन्न भय का ही परिणाम नहीं है? स्वयं को संकटों में न पड़ने देना तो अवश्य ही हर किसी के जीवन की एक सहज-स्फूर्त प्रेरणा और गतिविधि होती है और तदनुसार प्राणिमात्र ही अपनी रक्षा करने में प्रवृत्त होता ही है। यह परिस्थितियों से सामञ्जस्य करने का ही एक प्रकार है। किन्तु अपनी मृत्यु के बाद के उद्धार होने और किसी उद्धारकर्ता की कल्पना करना तो मानसिक और व्यर्थ की चेष्टा है। फिर भी दुनिया भर में प्रायः बहुत से लोग अपने उद्धार होने और ऐसे किसी उद्धारकर्ता के अस्तित्वमान होने का दृढ आग्रह करते हैं। वे इसके लिए न सिर्फ अपने प्राण देने तक के लिए सहर्ष तैयार होते हैं, बल्कि दूसरे के प्राण लेकर भी उन्हें अपना उद्धार होने की आशा होती है, और इसलिए वे दूसरों के प्राण भी उत्कट उत्साह और जोश से भरकर ले लेते हैं।
संयोग से अभी अभी ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक निर्णय के बारे में ज्ञात हुआ जिसके अनुसार भय से या लालच से किसी को धर्मान्तरण करने के लिए प्रेरित करना अपराध है। यद्यपि अपने धर्म का पालन और प्रचार करना भी हर किसी का अधिकार हो सकता है, किन्तु लालच, भय आदि का दबाव डालकर किसी को इसके लिए राजी कराना और उसका धर्मान्तरण कराना वैधानिक दृष्टि से आपराधिक कृत्य है।
इस सन्दर्भ में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय पाँच में कहा गया है :
न कर्तृत्वं न कर्माणि
लोकस्य सृजति प्रभुः।।
न च कर्मफलसंयोगं
स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।
नादत्ते कस्यचित्पापं
सुकृतं चैव न विभुः।।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं
तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।
ज्ञानेन तु तदज्ञानं
येषां नाशितं आत्मनः।।
तेषां आदित्यवज्ज्ञानं
प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।
तात्पर्य यह कि यदि इस जगत्, संसार या दुनिया का बनानेवाला कोई है भी, तो वह न तो किसी का उद्धार करता है, और न ही किसी की रक्षा करता है।
यह जगत्, संसार या दुनिया स्वभाव या स्वप्रकृति से परिचालित होती है और इस पर किसी का कोई वश नहीं है।
ईश्वर है या नहीं, उसने दुनिया बनाई या नहीं इस बारे में तर्क वितर्क करना एक अपेक्षाकृत कम शक्तिशाली तर्क हुआ। इसकी तुलना में गीता के अध्याय 5 के उपरोक्त श्लोक शक्तिशाली तर्क हैं ऐसा कहा जा सकता है।
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