प्रोक्तवानहमव्ययम्
ज्योतिष-योग
श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय ४ के प्रथम दो श्लोक :
श्रीभगवानुवाच :
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।
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सृष्टि संवत् के प्रथम दिवस पर जब एक मृत्पिण्ड जिसे पृथिवी कहा जाता है, विवस्वान् सूर्य से पृथक् हुआ और कुछ समय तक अन्य ऐसे ही अनेक मृत्पिण्डों की तरह अंतरिक्ष में गति करता रहा। उस पर कार्यरत अनेक बलों के अन्ततः पूर्ण स्थिर और संतुलित हो जाने पर सूर्य की कक्षा में प्रविष्ट होकर सूर्य का परिभ्रमण करने लगा। सूर्य की कक्षा में स्थापित होते होते उस गोलपिण्ड पृथिवी की गति से वह उसकी अपनी उत्तर-दक्षिण अक्ष की धुरी के चतुर्दिक् घूमने लगा। इस प्रकार पहले संवत्सर की, और फिर दिन और रात्रि की उत्पत्ति हुई। उस समय अंतरिक्ष में सूर्य मेष राशि में प्रविष्ट हो रहा था। और पृथिवी पर स्थित जिस स्थान से सूर्य मेष राशि और अश्विनी नक्षत्र में प्रविष्ट होता हुआ दिखलाई देता था, उदित होते हुए सूर्य का वह समय जगल्लग्न हुआ। किन्तु उससे भी प्रहर भर पहले ही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का आविर्भाव हो चुका था -
ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव
विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।।
(मुण्डकोपनिषद् १-१)
ब्रह्मा से ही सर्वप्रथम सप्तर्षि का उद्भव हुआ जो पृथिवी के उस विशिष्ट स्थान से देखे जाने पर अपने अपने स्थान पर एक दूसरे से सुनिश्चित दूरी पर स्थित थे और वे सभी एक साथ ही ध्रुव तारे की प्रदक्षिणा करने लगे। ध्रुव तारे की प्रदक्षिणा करते हुए उन्होंने जिस पथ का अनुसरण किया संवत्सर सौर वर्ष में वह विस्तीर्ण पथ स्वस्तिक की आकृति के रूप में दिखलाई पड़ा। यह आकृति पुनः पुनः अभिव्यक्त होकर सृष्टि चक्र में परिणत हुई।
पृथिवी पर इसके एक प्रहर व्यतीत हो जाने के पश्चात् ही पृथिवी ने सूर्य की कक्षा में प्रवेश कर लिया। इस प्रकार स्थूल भौतिक जगत् की सृष्टि हुई। सूर्य के ही साथ अन्य देवताओं ने भी व्यक्त रूप धारण किया और नक्षत्र आदि के रूप में दिखलाई पड़ने लगे। देवताओं के साथ उनकी शक्तियाँ थीं और तब ब्रह्मांड cosmos के अक्ष के रूप में कालदण्ड के रूप में उस अक्ष के दो सिरों पर क्रमशः राहु और केतु ग्रहों के रूप में अस्तित्वमान हुए। यह पूरा ब्रह्मांड भ-चक्र उसी अक्ष पर घूमते रहता है, और जिसके अतिरिक्त समस्त स्थान देवताओं ने ग्रहण कर लिया जो नक्षत्रों के रूप में दृष्टिगत होते हैं। सौरमण्डल में स्थित सभी विशिष्ट स्थूल जड पिण्ड पृथिवी की ही तरह सूर्य के चारों ओर परिभ्रमण करते हैं और जैसे वे देवतागण हैं, पृथिवी भी एक देवता विशेष है। पृथिवी पर जीवन का आधार वे सभी हैं किन्तु पृथिवी पर जीवन पूर्ण रूप से विकसित और परिवर्धित होता है। अन्य ग्रहों पर भू की अपेक्षा अग्नि, वायु और जल तत्व का आधिक्य है, जैसे सूर्य, बुध और शुक्र पर अग्नि, मंगल पर भू, अग्नि, वायु और जल, बृहस्पति पर वायु और भू, तथा शनि पर जल, वायु प्रमुख हैं। ये सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर एक ही समतल में स्थित होकर उसकी प्रदक्षिणा करते हैं। वाल्मीकि रामायण में उल्लेख है कि किस प्रकार राजा त्रिशंकु सशरीर देवलोक में या स्वर्ग में पहुँचना चाहते थे, और राजर्षि विश्वामित्र ने इसके लिए यज्ञ किया। तब देवताओं ने इस पर आपत्ति की और अंततः राजा त्रिशंकु को इस समतल से कोणीय दिशा में अंतरिक्ष में स्थान दे दिया गया। त्रिशंकु का अर्थ होता है तीन शंकुओं से युक्त अंतरिक्ष यान। यदि आज भी कोई अंतरिक्ष यान उस तक जा सके तो इस रहस्य पर से पर्दा उठ सकता है।
इस प्रस्तावना से यह समझा जा सकता है कि ज्योतिष किस प्रकार व्यक्ति, व्यक्तिगत संसार और भौतिक जगत् की सभी गतिविधियों का नियामक है, और उससे इनके बारे में विस्तार से जाना जा सकता है।
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