July 12, 2024

87. Initiation / दीक्षा

Question / प्रश्न 87

What is Spiritual Initiation and how is it performed?

आध्यात्मिक दीक्षा क्या है और यह किस प्रकार से संपन्न होता है? 

Answer / उत्तर ः

संस्कृत में वप् > वपति, का प्रयोग बीज बोने के अर्थ में किया जाता है।

बीजं वपति -- बीज बोता है।

जैसे कोई किसान अपने खेत में अनाज (अन्न-जं) का बीज बोता है।

यदि इसे भूतकाल के संदर्भ में कहा जाए तो --

"वह बीज बोता था।"

इसे

"बीजं वपति स्म"

कहा जाएगा। "वपति" क्रियापद वर्तमान काल, अन्य पुरुष एकवचन पद (Third person, present tense singular term) है और संस्कृत व्याकरण के अनुसार किसी भी क्रियापद का प्रयोग लिंग-निरपेक्ष (gender-indifferent) जैसा अंग्रेजी में देखा जा सकता है - उदाहरण के लिए :

हिन्दी में - "जा रहा है, जा रही है"

कहने के लिए अंग्रेजी / English में 

"is going" 

क्रियापद का प्रयोग किया जाता है।

इस प्रकार हिन्दी में व्यक्त 

"(बीज) बोता था।"

या,

"(बीज) बोती थी।"

के लिए संस्कृत भाषा में 

"बीजं वपति स्म"

कहा जाएगा जहाँ कर्तृवाच्य में वह / सः (पुंल्लिंग) या वह / सा (स्त्रीलिंग) दोनों ही व्याकरणसम्मत होंगे। 

आध्यात्मिक दीक्षा दिदिक्षु को प्रदान की जाती है।

वैसे तो यह ईश्वर-प्रदत्त या आत्मप्रदत्त ही होती है किन्तु इसके लिए माध्यम तो निमित्त अर्थात् लौकिक मनुष्य के रूप में कोई व्यक्ति विशेष हो सकता है। और फिर ईश्वर तो बिना किसी माध्यम के भी जिज्ञासु की उत्कंठा होने पर प्रदान कर सकता है।

किन्तु जब इसके लिए किसी को माध्यम या निमित्त-रूप में ईश्वर के द्वारा चुना जाता है तो वह माध्यम भी केवल साक्षी ही होता है, न कि दीक्षा प्रदान करनेवाला गुरु । इसीलिए -

ईश्वरो गुरु आत्मेति मूर्तिभेदाविभागिने।। 

व्योमवद् व्याप्त देहाय दक्षिणामूर्तये नमः।। 

में ईश्वर, गुरु और आत्मा (या परमात्मा) को एकमेव अद्वितीय वास्तविकता कहा जाता है जो साक्षी की तरह तीनों ही में विद्यमान, तीनों से निरपेक्ष भी है। ईश्वर, गुरु और आत्मा उपाधियाँ हैं, जबकि यह साक्षी, कूटस्थ चेतना है।

एक रोचक तथ्य यह है कि बपतिस्मा / Baptism संस्कृत भाषा के "वपति स्म" से ही उद्भूत अपभ्रंश  / cognate  है, और कार्य तथा तात्पर्य की दृष्टि से भी  दीक्षा (Spiritual Initiationका द्योतक है।

हिन्दी भाषा में "बाप" अर्थात् "पिता" भी इससे मिलता जुलता है। 

पुनः प्रारब्ध या प्रयोजन के अनुसार दीक्षा  अज्ञात या ज्ञात रूप से भी घटित हो सकती है अर्थात् किसी व्यक्ति को उसके जानते अथवा न जानते हुए भी प्रदान की जा सकती है और इसलिए यह सौभाग्य या दुर्भाग्य भी हो सकती है, महान आध्यात्मिक उपलब्धि या विपत्ति भी हो सकती है। प्रारब्ध, व्यक्ति का अपना भाग्य, व्यामोह, आकर्षण, दुर्बुद्धि, भ्रम या अज्ञान होता है, और प्रयोजन भी इसी तरह से वैयक्तिक या ईश्वरीय / Divine भी हो सकता है। वस्तुतः तो कार्य कारण नियम के अंतर्गत इसे परिभाषित नहीं किया जा सकता है।

फिर भी इसके घटित होने की प्रक्रिया को तीन प्रकारों में समझा जा सकता है, और उन्हें क्रमशः स्पर्श, दृष्टि और  स्मृति के माध्यम से संपन्न किया जाता है।

इसे और स्पष्ट करने के लिए तीन उदाहरण दिए जाते हैं : जैसे मुर्गी अपने अण्डों पर बैठकर उन्हें सेती है। यह है स्पर्श दीक्षा का उदाहरण। इसी प्रकार से लौकिक गुरु सिर पर ब्रह्मरंध्र पर अंगुलियों या हथेली के स्पर्श से यह दीक्षा प्रदान करता है। यही स्पर्श दीक्षा माता-पिता और गुरुजनों के द्वारा भी उनके द्वारा इस प्रक्रिया को जानते या न जानते हुए भी दी जा सकती है।

दूसरा उदाहरण दृष्टि दीक्षा का है जिसके लिए मछली का उदाहरण दिया जाता है। मछली उसके अण्डों पर दृष्टि रखकर उन्हें सेती (निषेचन करती) है। इस प्रकार से भी कोई लौकिक गुरु केवल कृपा-कटाक्ष से ही अधिकारी सुपात्र को दीक्षा प्रदान कर सकता है और वह भी ज्ञात या अज्ञात रीति से संपन्न हो सकता है। 

तीसरा और अंतिम प्रकार है स्मृति-दीक्षा। इसे भृंग-कीट के उदाहरण से समझा जा सकता है। 

भृंगकीट (wasp) अपने अण्डों को बाहर से लाता है और उन पर मिट्टी का लेप कर बन्द कर देता है। कुछ समय बाद वे भृंग के रूप में विकसित होकर मिट्टी की खोल को तोड़कर बाहर निकल जाते हैं। इस बीच भृंग केवल उनकी स्मृति से ही उनका पोषण करता है।  

जब कोई मनुष्य भी इसी प्रकार जाने या बिना जाने ही उसके दीक्षा-गुरु  के संपर्क में आता है तो केवल स्मृति के ही माध्यम से दोनों परस्पर संबंधित होते हैं और उन्हें कल्पना भी नहीं होती कि वे क्यों एक दूसरे के संपर्क में आए। और वस्तुतः यह भी एक स्वाभाविक ईश्वरीय कार्य (Automatic Divine Action) ही होता है। जब कोई व्यक्ति किसी औचित्य या आवश्यकता के बिना ही संपर्क में आता है और प्रायः स्मृति में आता रहता है तो यही इस प्रकार से होनेवाली दीक्षा का प्रत्यक्ष प्रमाण है। कुछ मनुष्यों को स्वप्न में या वैसे ही किन्हीं दिव्य और अलौकिक सिद्धों, संतों या महात्माओं आदि का दर्शन होना, उनसे संवाद होना या मार्गदर्शन प्राप्त होना इसी तरह से होता है।

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यह तीन  





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