Question / प्रश्न 83
What is the relation / the difference between Dharma and the Religion?
धर्म और रिलीजन के बीच क्या संबंध / भिन्नता है?
Answer / उत्तर :
The difference between the Dharma and the Religion could be best explained and understood by the following stanza of Chapter 4 in the Shrimadbhagvad-gita :
धर्म और रिलीजन के बीच जो भिन्नता है उसकी व्याख्या करने के लिए और उसे समझने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ४ का निम्नलिखित श्लोक पर्याप्त और पूर्ण है :
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।१७।।
जिसे अंग्रेजी भाषा में रिलीजन कहा जाता है वह वस्तुतः और तत्वतः "कर्म" का ही नाम है। कर्ममात्र शुभ, अशुभ और मिश्रित हो सकता है जबकि धर्म प्रकृति का नित्य शुद्ध स्वभाव या गतिविधि होता है। उपरोक्त श्लोक के संदर्भ में मनुष्य का कर्म आचरण है। यद्यपि उपनिषद् में कहा जाता है :
सत्यं वद। धर्मं चर।
आचरण स्वभाव / धर्म के अनुरूप, उससे विपरीत या भिन्न हो सकता है। ऐसा आचरण ही कर्म, विकर्म और अकर्म का रूप ग्रहण कर सकता है। इसीलिए भिन्न भिन्न रिलीजन्स का पालन करनेवाले धर्म के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ, श्रद्धा से रहित और उस विषय में संशयग्रस्त होते हैं, और किसी प्रकार के बौद्धिक या वैचारिक सिद्धांत को स्मरण रख उस पर आचरण करने का अभ्यास करते हैं।
अध्याय १२ के निम्न श्लोक के अनुसार :
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।
किन्तु उपनिषद् की शिक्षाओं पर आचरण करने के लिए धर्म को तत्वतः जान लिया जाना आवश्यक है। यह जानना अनुसन्धान का विषय है न कि शाब्दिक विचार या सिद्धान्त।
धर्म के तत्व को तीन स्तरों पर जाना जाता है :
आधिभौतिक अर्थात् स्थूल विज्ञान पर आधारित पदार्थ और विषयपरक ज्ञान जिसे Science कहा जाता है, और जो हमेशा विषय-परक Objective होता है।
आधिदैविक अर्थात् मन और भिन्न भिन्न चेतन तत्वों, बुद्धि, संवेदनशीलता, भावनाओं, स्मृति, चित्त और अहंकार नामक देवताओं से संबंधित ज्ञान जो सदा आत्म-परक Subjective होता है।
किन्तु उपरोक्त दोनों ही प्रकार के धर्मों के ज्ञान का अधिष्ठान चेतनता / चेतना consciousness ही है जो न तो केवल विषय-परक हो सकती है, और न ही केवल आत्म-परक । चेतना सदैव विषय-विषयी के रूप में होती है। जब तक ज्ञाता, और ज्ञेय होता है तब तक उस प्रकार का ज्ञान द्वैतपरक ज्ञान होता है। विषय-परक और आत्म-परक समस्त ज्ञान ऐसा ही होता है क्योंकि इसमें ध्यान, ध्याता और ध्येय-रूपी त्रिपुटी आवश्यक रूप से होती ही है। ध्यान अर्थात् attention जिसमें ध्यान विषय और विषयी की तरह इन दोनों दिशाओं में कार्यरत होता है। इस तरह के ध्यान में चित्त अनेक बाह्य विषयों में से किसी न किसी विषय पर संलग्न होता है, जब अपने आपका विस्मरण भी नहीं होता, इसलिए चित्त "मैं" या स्वयं अर्थात् विषयी पर पुनः पुनः लौटता ही रहता है। विषयों से चित्त का संलग्न होना ही चित्तवृत्ति अथवा केवल "वृत्ति" भी कहा जाता है।
अध्याय २ -
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोपजायते।।६२।।
क्रोधात्भवति सम्मोहः सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः।।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।६३।।
किसी भी कर्म का आचरण वृत्ति में परिणत होता है और विलोम-क्रम से यह भी कहा जा सकता है कि वृत्ति विशेष के उत्पन्न होते ही किसी कर्म-विशेष को करने की प्रवृत्ति का जन्म होता है। और इस पूरी गतिविधि में "मैं" अर्थात् अहंकार / अपने स्वयं के अस्तित्वमान होने की भावना, अप्रकटतः व्यक्त या अव्यक्त रूप से उपस्थित होती ही है। "मैं" विषयी होता है, और ध्यान / चित्त जिस पर संलग्न होता है, उसे विषय कहते हैं।
महर्षि पतञ्जलिकृत योगदर्शन में प्रारंभ में ही वृत्ति के निरोध को ही "योग" कहा गया है। और वृत्तिमात्र के पाँच प्रकारों को --
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।
के रूप में स्पष्ट किया जाता है।
जहाँ
प्रत्यक्षानुमानागमाः
-प्रमाणरूपी वृत्ति है,
विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।
अभाव-प्रत्यययालम्बना वृत्तिः निद्रा।।
अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः।।
क्रमशः विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति रूपी वृत्तियाँ हैं।
इन पाँचों ही प्रकारों में विषय-विषयी रूपी द्वैतपरक दशा होती ही है। किन्तु वृत्तिमात्र के निरोध का अर्थ हुआ विषयमात्र से रहित केवल विषयी का होना। जिसे द्रष्टा कहा जाता है --
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।
वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।
द्रष्टा का ज्ञान ही आध्यात्मिक धर्म है।
द्रष्टा नित्य अक्रिय और अविकारी है, जबकि वृत्ति सतत परिवर्तित, विकारशील है। विषय अनित्य है। वृत्ति विषय और विषयी के बीच की स्थिति है। इस प्रकार विषय, वृत्ति और आत्मा तीनों के स्वाभाविक धर्मों को क्रमशः आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक कहा जाता है। इन सबको समष्टि धर्म भी कह सकते हैं।
कर्म या Religion केवल कर्ता, कारण और कार्य की मान्यता पर आधारित कल्पना है।
अध्याय ५ के अनुसार :
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।।
न तु कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।
नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः।।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः।।
तेषां आदित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।
प्रभु अर्थात् स्वामी या ईश्वर,
विभु अर्थात् व्यक्त जीव,
एक ही चेतना उपाधि के अनुसार प्रभु और विभु है।
इसलिए कर्म, कर्तृत्व, तथा कर्ता ईश्वरसृजित वस्तु नहीं बल्कि अज्ञान से उत्पन्न हुई एक भ्रान्ति मात्र है, जिसका अधिष्ठान चेतना ही है
अध्याय १८ के अनुसार :
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्।।१२।।
पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्माणाम्।।१३।।
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।
कर्म और कर्मफल का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हो सकता। और इसी प्रकार न कर्ता, करण और पृथक् चेष्टाओं का, वे सब किसी वास्तविक अधिष्ठान द्रष्टा के ही आश्रित हैं जो कल्पित नहीं है, किन्तु जिसमें और जिससे कल्पना आकृति ग्रहण करती है और पुनः उसमें ही विलीन हो जाती है।
Accordingly :
Dharma is Nature, while Religion is the action or Karma. Religions are therefore a plenty while Dharma is always the Only One Unique and is to be discovered and followed but never to be "practised". Because whatever is practiced and by who-so-ever is in appearance only. So really there is no clash or conflict between the two. However there is inevitably, always such a difference and conflict, clash and disputes between various and so many Religions of many kinds in the world.
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