July 29, 2024

91. योगाभ्यास / Practice of Yoga.

Question  /  प्रश्न 91.

What Is Yoga,What Is Its Purpose and How it's Practiced?

योग क्या है, इसका प्रयोजन क्या है, और इसका अभ्यास कैसे किया जाता है?

Answer / उत्तर  :

मन से कौन अपरिचित या अनभिज्ञ है?

और कौन है जो अनायास ही मन से अपरिचित और अनभिज्ञ न होने पर भी उसके "अपना होने" का दावा नहीं करता? किसी मूर्त वस्तु (tangible object) या अमूर्त वस्तु (abstract / intangible object) से अपरिचित और अनभिज्ञ होने पर क्या उसके "अपना होने" का दावा किया जाना संभव है? और क्या ऐसा दावा तर्कसंगत हो सकता है?

संक्षेप में "मन" नामक वस्तु एक ऐसी अद्भुत् वस्तु है, जिसे कि जानने के किसी प्रयास और इच्छा के बिना ही, अनायास जाना भी जाता है, और फिर भी उसे नहीं भी  जाना जाता, या शायद ही जाना जा सकता हो।

"जानने" और "जाननेवाले" के बीच क्या समानता और क्या असमानता है, इस पर ध्यान दें तो यह समझ में आ सकता है कि "जानना" और "जाननेवाला" उस एक ही वस्तु के दो पक्ष / पहलू हैं जिसे "मन" कहकर यद्यपि जाना भी जाता है, फिर भी नहीं भी जाना जा सकता। और इसलिए कोई बलपूर्वक यह दावा नहीं कर सकता, कि वह "मन" से कितना परिचित, कितना अपरिचित, कितना अनभिज्ञ या कितना भली-भाँति परिचित है। 

"जानना" शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया जाता है - एक तो है प्रयास, इच्छा या अनिच्छा के बिना जानना - जैसे आँखों के सामने के दृश्य को देखना, कानों पर पड़ रही ध्वनियों को सुनना, किसी वस्तु को सूँघकर उसकी गंध को अनुभव करना, किसी वस्तु को छूकर उसके मृदु या कठोर होने को अनुभव करना और किसी वस्तु को चखकर उसके स्वाद को अनुभव करना।

दूसरा है, उपरोक्त पाँच प्रकार के अनुभवों की स्मृति को शब्द देकर वर्गीकृत करना और पुनः दूसरे किन्हीं शब्दों के माध्यम से विभिन्न अनुभवों की तुलना करना, और फिर उनके बीच समानता और असमानता खोजना।

इस प्रकार "जानना" शुद्ध इंद्रियानुभव हो सकता है, या ऐसे इंद्रियानुभवों की केवल कोई शाब्दिक स्मृति भर भी हो सकता है। 

पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद में इसे इस प्रकार स्पष्ट किया गया  है :

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।८।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।

विपर्यय और विकल्प इस प्रकार से, दो वृत्तियाँ हैं, शेष तीन वृत्तियाँ हैं - प्रमाण, निद्रा और स्मृति।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।।

अभाव-प्रत्यययालम्बना वृत्तिः निद्रा।।१०।।

अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः।।११।।

इसलिए शब्दरहित शुद्ध इंद्रियानुभव तो एक प्रकार का "जानना" है, जबकि उपरोक्त पाँच प्रकार की वृत्तियों के माध्यम से अनुभव को शब्द देकर शाब्दिक रूप में कुछ "जानना" / "वृत्तिज्ञान" दूसरे प्रकार का "जानना" है।

"मन" नामक वस्तु वह सब कुछ है जिसे उपरोक्त इन्हीं दो प्रकारों में जाना जाता है।

संक्षेप में मन का समस्त "जानना", "वृत्तिज्ञान" या वृत्ति के ही रूप में होता है।

योगाभ्यास में इसलिए या तो वृत्तिमात्र को निरुद्ध कर दिया जाना होता है, या वृत्तिमात्र का अवसान  हो जाना चाहिए (क्योंकि, "कर दिया जाना" संभव नहीं है!)।

निरुद्ध करने का अर्थ है "रोक देना"

arresting the movement of  vRtti.

और अवसान का अर्थ है -

- eliminaing the vRtti.

चूँकि समस्त "जानना" इंद्रियानुभव या उनका शाब्दिक निरूपण (शब्दीकरण / verbalization) ही होता है इसलिए योगाभ्यास में  -

वृत्तिनिरोधः (arresting the vRtti)

और / या

वृत्तिनिरसन (elimination of vRtti).

इन दोनों में से केवल किसी एक को ही आवश्यक रूप से प्रयोग किया जाना चाहिए।

इनमें से प्रथम का अभ्यास करनेवाला जिज्ञासु क्रमशः निरोध-परिणाम, एकाग्रता-परिणाम, समाधि-परिणाम के माध्यम से वृत्ति-संयम की सिद्धि करता है। किन्तु इसमें प्रायः मनुष्य उलझ और फँसकर रह जाता है, जब तक कि वह अस्मिता-समाधि के माध्यम से अहंकार से रहित नहीं हो जाता। यही कैवल्य या साँख्यज्ञान है -

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति।।३४।।

(कैवल्यपाद)

इस पोस्ट को लिखने का उद्देश्य -

"योगाभ्यास क्या है और कैसे किया जाता है?"

इस प्रश्न का उत्तर देने तक सीमित है इसलिए यहाँ कुछ अनावश्यक संदर्भों को छोड़ दिया गया है जिन पर बाद में फिर कभी प्रकाश डाला जा सकता है। 

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