जिज्ञासु योगी और ज्ञानी
The Aspirant, The Seeker
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संसार में मनुष्य ही नहीं हर कोई ही कुछ न कुछ खोज रहा है। अधिकांश मनुष्य तो सुख और निरन्तर सुख के विविध प्रकारों को ही एक के बाद एक प्राप्त करने और एक से तृप्त होने पर दूसरे किसी और प्रकार के सुख की खोज करने में व्यस्त रहते हैं। निरन्तर खोज करने के इस श्रम में भी उन्हें एक विशिष्ट सुख अनुभव हो सकता है। किन्तु सुख के लक्ष्य को प्राप्त करते ही कुछ समय तक उस सुख का उपभोग कर लेने के बाद मनुष्य विश्राम के सुख की प्राप्ति करने का इच्छुक होता है। लगातार घंटों तक कोई शारीरिक श्रम से थक जाने पर जैसे शरीर को आराम करने की आवश्यकता होती है, वैसे ही मानसिक या बौद्धिक कार्य करने के बाद मन और मस्तिष्क को भी आराम की आवश्यकता होना स्वाभाविक ही है। हमारे हाथ-पैरों, इन्द्रियों, प्राण, मन, मस्तिष्क और शरीर के दूसरे भी सभी अंगों के कार्य करने की क्षमता की सीमा होती है किन्तु हृदय ही इसका एकमात्र अपवाद है, जो जन्म होने से मृत्यु हो जाने तक बिना रुके, बिना आराम किए धड़कता रहता है और जैसे ही हृदय अपना कार्य करना बंद कर देता है, मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। अब प्रश्न यह है कि मृत्यु होने से हृदय अपना कार्य करना बन्द कर देता है या हृदय का कार्य बन्द हो जाने से मृत्यु होती है? सामान्य दृष्टि से देखने पर यद्यपि यह प्रश्न व्यर्थ जान पड़ सकता है, किन्तु यह जानना महत्वपूर्ण है, क्योंकि ज्ञात परिस्थितियों में किए जानेवाले वैज्ञानिक परीक्षणों से सिद्ध होता है कि योगी अपने प्राणों की गति, हृदय की धड़कन (heart-beats) और इसलिए नाड़ी के स्पन्दन (pulse) को भी कुछ समय तक के लिए रोक सकते हैं। तात्पर्य यही हुआ : मृत्यु हो जाने के बाद ही हृदय कार्य करना बन्द कर देता है, हृदय के द्वारा कार्य बन्द कर देने से मृत्यु हो जाना आवश्यक नहीं है। किन्तु क्या योगी भी हमेशा ही अपनी इच्छा के अनुसार हृदय को कार्य करने से रोक सकता है? या वह भी इससे अनभिज्ञ होता है कि कब उसमें कौन सी इच्छा उत्पन्न होगी और वह इच्छा के वशीभूत होगा या नहीं?
इससे यह स्पष्ट है कि कोई बड़े से बड़ा योगी भी यह नहीं जान पाता कि इच्छा का आगमन कहाँ से होता है और उससे इच्छा का क्या संबंध है। इच्छा तो एक बहुत सूक्ष्म वस्तु है, और इसलिए उस पर नियंत्रण करना मनुष्य के लिए बहुत ही कठिन है, किन्तु जिन स्थूल पदार्थों और वस्तुओं पर उसका नियंत्रण है वे भी आवश्यकता होने पर उसे प्राप्त होंगी या नहीं इस बारे में भी वह अनभिज्ञ होता है। अर्थात् बहुत बड़ा योगी भी किसी अज्ञात और अदृश्य शक्ति की कृपा पर आश्रित होता है और इसलिए उससे कृपा की भिक्षा प्राप्त करने का इच्छुक होता है। अतएव यह कहना गलत नहीं होगा कि केवल संसार में ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक दृष्टि से भी मनुष्य मात्र ही भिक्षु ही होता है। किन्तु बिरला कोई कामनाशून्य, और अहंकाररहित, आत्मजिज्ञासु ही इतना समर्थ हो सकता है कि जीवन / संसार और यहाँ तक कि ईश्वर से भी कुछ न माँगे, जिसे किसी से कोई अपेक्षा ही न हो।
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