July 14, 2024

88. Out-reach and Over-reach.

Question  /  प्रश्न 88

What kind of relationship, harmony one could maintain with the living beings, and with the lifeless things, in the world?

क्या संसार के सजीव, चेतन प्राणियों और निर्जीव जड वस्तुओं के साथ सामञ्जस्यपूर्ण और प्रेमपूर्ण व्यवहार कर पाना संभव है?

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Answer  /  उत्तर  :

संसार की समस्त जड वस्तुओं और चेतन प्राणियों से व्यवहार करते समय जिस किसी से हमारा संपर्क होता है, चाहे वह कोई इन्द्रियगम्य विशेष आकार-प्रकार की द्रव्य-वस्तु हो या भौतिक, अनुभवगम्य आकार-प्रकार से रहित मनोगम्य हो, उस नामरूप से युक्त या नाम-रूप से रहित भावगम्य वस्तु  abstract object  से परिचय / acquaintance  (संस्कृत - अकुतं च - का अपभ्रंश) - cognate) कर लिया जाना स्वाभाविक है। परिचय का अर्थ यह है कि उससे संपर्क होने पर उसका हम पर जो प्रथम प्रभाव First Impression हम पर पड़ता है वह वैसे तो उसका यथार्थ होता है, किन्तु जैसे ही बाद में पुनः उससे होनेवाली क्रिया-प्रतिक्रिया (Interaction) की स्मृति उस यथार्थ को प्रतीति (Perception) में परिवर्तित कर देती है। सजीव और इसलिए ऐसे चेतन प्राणियों के प्रति हमारी संवेदनशीलता का प्रकार हमारी उस संवेदनशीलता से भिन्न होता है जो निर्जीव और जड / प्राण और चेतना से रहित वस्तुओं के प्रति हममें होती है। उदाहरण के लिए एक चट्टान, कंकड़ या पत्थर और एक छोटे या बड़े पौधे या वृक्ष के प्रति जो संवेदनशीलता हममें होती है वह अलग अलग तरह की होती है, और जिस पर शायद ही कभी हमारा ध्यान गया होगा। वैसे ही एक पौधे या वृक्ष के प्रति हमारी जो संवेदनशीलता होती है, उसका प्रकार किसी चींटी, बकरी, मछली या चिड़िया के प्रति हमारी संवेदनशीलता के प्रकार से भिन्न होता है, जबकि यह संवेदनशीलता मूलतः वैसे तो सदा ही सर्वत्र और एकमेव, अद्वितीय Single, Unitary और एक जैसी Uniform and Unique ही होती है। साथ ही, यह संवेदनशीलता - Quality and attribute of sensitivity  ही वह चेतना / consciousness  है जिसे ईश्वरीय चेतना Divine Consciousness  कहा जा सकता है क्योंकि सभी जड वस्तुएँ और समस्त चेतन प्राणी उससे ही अधिशासित होते हैं। इसलिए इस रूप में इसके दर्शन हो जाने या कर लिए जाने का अर्थ है ईश्वर के या अपनी निज वास्तविक आत्मा के दर्शन कर लेना या हो जाना। 

श्री महर्षि रमण कृत उपदेश-सारः में एक श्लोक यह है :

ईशजीवयोर्वेषधीभिदा।

सत्स्वरूपतः वस्तु केवलम्।।

तात्विक दृष्टि से यह सत् (अस्तित्वमात्र / होना) ही चित् (भान / बोध / शुद्ध जानना) है और यह चित् ही सत् है। क्योंकि जिसे भी जाना जाता है वह जानने पर आश्रित होता है और होना ही सत् है। इस प्रकार सत् और चित् अन्योन्याश्रित होने से स्वरूपतः एक हैं किन्तु उन दोनों का रूप और कार्य भिन्न भिन्न प्रतीत होता है। 

Though Existence and Knowing are one and the same Reality, their expression and functioning appears to be different.

Existence is : सत्

Knowing is : चित्

Perception / knowing through memory of the experience is : प्रतीति

Coming into contact with anything with no earlier memory or experience of the object of knowing / acquaintance परिचय 

So There is this subtle difference between the two.

यह प्रेम है, जो कि निर्वैयक्तिक चेतना, सत् भी और चित् भी है।

This is all permeating all pervading Love and it knows itself just because there is nothing else that exists apart from itself. 

This Love is verily and Indeed The Only and Unique God.

इसलिए इसे ईश, ईशिता या ईश्वर भी कहा जाता है। जब इसे द्वैत की दृष्टि से देखा जाता है तो यह स्वामी के अर्थ में होता है। जैसे जगदीश, गिरीश, हरीश। और जब इसे अद्वैत की दृष्टि से देखा जाता है, यह विशुद्ध प्रेम अर्थात् विशुद्ध आनन्दमात्र होता है जिसमें प्रिय और प्रेमी दोनों रूप विलीन होकर केवल बोधमात्र होते हैं जो पुनः चित् अर्थात् सत् मात्र है।

और यह प्रेम ही है :

एकमात्र नित्य संबंध

The Ever-abiding Love.

एक बार यह स्पष्ट हो जाता है तो फिर सजीव और चेतन प्राणियों और निर्जीव जड वस्तुओं से किस प्रकार से प्रेम हो सकता है यह भी अनायास समझ में आ सकता है।

किंतु इन दोनों के बीच में फँसा हुआ मन सभी संबंधों में सदा ही दुविधा में पड़ा रहता है। 

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