शृङ्गार शतक, नीति शतक,
और वैराग्य शतक
--
राजा भर्तृहरि उज्जैन के राजा के पुत्र थे। जिन्होंने उन प्रसिद्ध ग्रन्थों की रचना की जिनमें से सर्वाधिक प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण ग्रन्थों का नाम क्रमशः - शृङ्गार शतक, नीति शतक और वैराग्य शतक है। वे उनसे भी अधिक विख्यात सम्राट विक्रमादित्य के बड़े भाई थे और केवल वैराग्य के उदय के बाद ही उन्होंने अपना राजपाट अपने छोटे भाई को सौंपकर तपस्या करने के लिए उस वन की ओर प्रस्थान किया जिसे महाकाल वन भी कहा जाता है। उन्हें वैराग्य क्यों और कैसे हुआ इसकी कहानी भी प्रसिद्ध ही है जिसे यहाँ उद्धृत करना अनावश्यक प्रतीत होता है।
उस कहानी से कहीं बहुत अधिक महत्वपूर्ण यह तथ्य है कि उन्होंने उपरिवर्णित तीन ग्रन्थों की रचना इस क्रम से क्यों की होगी। राजपरिवार में जन्म होने के कारण वैसे भी वे वैभव और विलासपूर्ण जीवन जी रहे थे, आज के समय से अच्छी शिक्षा उन्हें प्राप्त हुई थी, और इसलिए भी राजपरिवार की परंपरा में ही उन्होंने धर्म के अनुसार प्रजा का शासन न्याय और नीतिपूर्वक किस प्रकार किया जाना चाहिए, इसकी शिक्षा भी प्राप्त की थी। राजा होने से वैभवपूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए कला, साहित्य और शृङ्गार की परख उन्हें थी और तदनुसार वे राजधर्म का पालन करते थे। और इसी क्रम में उन्होंने उक्त तीन ग्रन्थों की रचना की। क्षत्रियकुल में जन्म होने से आध्यात्मिक परंपरा से उन्हें भी वही और वैसे ही शिक्षा प्राप्त हुई थी, जिसका उल्लेख श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ४ में पाया जाता है -
श्री भगवानुवाच --
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।
स एवं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।।
भक्तो मेऽसि सखा चेति रहस्यमेतदनुत्तमम्।।३।।
राजा भर्तृहरि ने इसी परम्परा के अनुसार योग-विषयक आध्यात्मिक शिक्षा पाई थी और जिसका अनुष्ठान भी वे किया करते थे।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि राजा इक्ष्वाकु भी मनु के उस कुल में उत्पन्न हुए थे जिसे रघुकुल भी कहा जाता है इसलिए यह शिक्षा अत्यन्त ही पुरातन भी है। किन्तु जैसा गीता में कहा गया : भगवान् श्रीकृष्ण के समय तक पृथ्वी से यह योग नष्ट हो गया या इस परंपरागत शिक्षा का विलोप हो गया, जिसे कि राजर्षियों का राज-योग भी कहा जाता है, और जिसका उल्लेख उपरोक्त श्लोकों में भी इसी प्रकार से है।
शृङ्गार का एक रोचक और सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्त्व है - कामभावना, जो औचित्य और प्रसंग के अनुसार मनुष्य की शत्रु या मित्र होती है -
अध्याय ७ के अनुसार :
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।११।।
अध्याय १० के अनुसार :
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पो सर्पाणामस्मि वासुकिः।।२८।।
इसलिए अध्याय ३ में यह भी उल्लेख है :
श्रीभगवानुवाच --
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।३७।।
एक ही रसायन अलग अलग मनुष्यों के लिए जैसे अमृत या विषतुल्य सिद्ध होता है, उसी प्रकार कामभावना भी शृङ्गार रस या अध्यात्म की दृष्टि से क्रमशः अमृत जैसी सुखप्रद या विष जैसी दुःखप्रद होती है।
किन्तु युवावस्था और गृहस्थ आश्रम में यह शृङ्गार रस से युक्त होने पर धर्म के अनुसार उचित और नीति धर्म पर ही आश्रित और अवलम्बित भी हो सकती है।
नीति, नयति इति नियतिः वा न्यायः।।
के अनुसार नीति या न्याय धर्म पर आधारित और उसके पीछे पीछे चलते हुए उसका अनुसरण करते हैं।
धर्म का अर्थ है -
सनातन जो सदा ही एक जैसा, अचल अटल, न्यायपूर्ण और विवेकपूर्ण आचरण है - न कि हिन्दू, ईसाई, यहूदी या कि मुस्लिम शिक्षाओं और मान्यताओं पर आधारित नीति या विशेष मत आदि । और नीति है संप्रदाय या मत, मजहब या रिलीजन्स, जो कभी तो न्यायसंगत हो सकते हैं किन्तु सदा ऐसे नहीं होते। इसलिए सनातन-धर्म एक अनावश्यक दुहराव है, क्योंकि सनातन स्वयं ही धर्म है। और "धर्म" शब्द को मतों और मान्यताओं के अर्थ में प्रयुक्त किया जाना तो एक दुर्भाग्यजनक भूल और भ्रम है और जिसके कारण हिन्दू या अन्य किसी मतविशेष से इसे जोड़ दिया जाता है और तब हिन्दू संस्कृति और मत का उल्लेख सनातन-धर्म कहकर किया जाने लगता है। धर्म और मतवादों के बीच के और इस सूक्ष्म अंतर का दुरुपयोग अपने अपने मतों मान्यताओं की पुष्टि करने के लिए उन मतों आदि को माननेवाले प्रायः किया करते हैं, जिससे अंततः सनातन अर्थात् धर्म की ही हानि होती है।
संभवतः इसलिए भी राजा भर्तृहरि ने सबसे पहले शृङ्गार शतक, बाद में नीति शतक और इन दोनों के बाद अंत में वैराग्य शतक की रचना की होगी। क्योंकि सामान्यतः भी जीवन में इनका स्वाभाविक क्रम यही हो सकता है।
***
No comments:
Post a Comment