July 10, 2024

85. जन्म, मृत्यु और जीवन

Question प्रश्न 85

What is Birth, Death and Life?

What is Knowledge, Wisdom and Liberation? 

जन्म, मृत्यु और जीवन क्या है?

ज्ञान, प्रज्ञा और मुक्ति क्या है?

यावज्जीवेत्सुखं जीवेत्।। 

--

Answer /  उत्तर :

संस्कृत "जि" धातु का प्रयोग पर्याय से जि > जयति और जि > जीवति के अर्थ में होता है। जि+इव से उपपन्न "जीव" किसी माता पिता से उत्पन्न संतान प्राणी है।

माता पिता में यह कामवृत्ति के रूप में अपने जन्म से भी पूर्व विद्यमान होता है। स्त्री प्रकृति है और पुरुष आत्मा। इस प्रकार पिता से ही प्राणी में आत्मा अभिव्यक्त होती है। यही अहंकार जीव का पर्याय है।

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्।।

यहाँ प्रकृति ही महत् ब्रह्म और परमात्मा ही उस गर्भ में  जीवरूपी बीज को जीवन प्रदान करता है। जबकि माता से उसे जन्म प्राप्त होता है। 

इस प्रकार, जीव अहंकार या अहं-वृत्ति है जो पुनः पुनः एक ही शरीर में, या एक के समाप्त या नष्ट हो जाने पर दूसरे नए शरीर में जन्म ग्रहण करती है। जैसे घट में रखा जल स्थिर होने से उसमें कोई वृत्ति / तरंग नहीं दिखाई देती है किन्तु थोड़ा भी हिलते ही अप्रकट से प्रकट रूप ले लेता है, जीवन इसी प्रकार नित्य विद्यमान तत्व है जो एक ही या एक से अधिक क्रमिक या अनेक शरीरों में व्यक्त और अव्यक्त होता रहता है। इस प्रकार एकमेव आत्मा ही परमात्मा अर्थात् जगत्पिता, प्रकृतिरूपी माता और जगत् रूपी संतान की विभिन्न भूमिकाओं में कार्य करता है। वही जीवन की तरह स्वयं ही स्वयं में व्याप्त होता है।

अनेक और असंख्य शरीरों में वह पृथक् पृथक् भी दिखलाई पड़ता है और स्वयं ही  ही अपने असंख्य रूपों को देखा भी करता है। उसके आश्रय से, प्रत्येक जीव अपनी स्वतंत्र, आभासी और पृथक् सत्ता कल्पित कर लेता है और यही व्यक्तिगत अहंकार है। अहंकार ही शरीर विशेष में अपना जन्म होने और उस शरीर के समाप्त होने पर अपनी मृत्यु हो जाने को सत्य मानकर शरीर के सुखों दुःखों, चिन्ताओं आदि से प्रसन्न या व्याकुल होता रहता है। शरीर के समाप्त हो जाने पर उसके परिजन उनके अपने मत-विश्वासों के अनुसार उसका अंतिम संस्कार कर देते हैं। वे उसके शरीर का दहन कर देते हैं या उसे दफ़ना देते हैं। रोचक तथ्य यह है कि अर्थ / उच्चारण की दृष्टि से अरबी / फ़ारसी का "दफ़न" शब्द संस्कृत भाषा के "दहन" से व्युत्पन्न, या अपभ्रंश cognate हो सकता है। और चूँकि दोनों शब्द अंतिम संस्कार के ही सूचक हैं। जो भी हो, यह तो मानना ही पड़ेगा कि अंतिम संस्कार, इसी उद्देश्य से किया जाता है जिससे मृत्यु के बाद दिवंगत आत्मा की सद्गति हो। इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण प्राप्त होना कठिन है कि मृत्यु के बाद जीवात्मा किस गति को प्राप्त करता है, परन्तु गरुड़-पुराण और कठोपनिषद् में प्राप्त वर्णन के अनुसार जीव या जीवात्मा अपने शुभ अथवा अशुभ कर्मों के फल भोगने हेतु क्रमशः स्वर्ग-नरक आदि लोकों को प्राप्त करता है।

सनातन धर्म के अनुयायी शायद मृतकों का इसलिए दाह संस्कार करते हैं ताकि जीवात्मा अपने मृत शरीर को पञ्चतत्वों में विलीन होते हुए देखकर स्वयं अपने आपके मृत्यु से रहित होने के तथ्य को जान ले। यह ज्ञान कोई बौद्धिक मत, धारणा या जानकारी न होकर प्रत्यक्ष अनुभव का ही विषय है, और उसी प्रकार से जाना जाता है।

पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद  के अनुसार :

भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम्।।१९।।

श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्।।२०।।

स्पष्ट है कि "भवप्रत्यय" मृत्यु के बाद प्राप्त "पुनः" होनेवाली स्थिति का द्योतक है। और इस स्थिति में दिवंगत मनुष्य कुछ काल तक अपने शुभ-अशुभ कर्मों के फल स्वर्ग या नरक में भोगता है और फिर  उसके बाद पुनः मनुष्य के रूप में मृत्युलोक में एक शरीर विशेष में उसका जन्म या आविर्भाव होता है। या अन्यत्र प्राप्त वर्णन के अनुसार वह तिर्यक् योनि में पैदा होता है जिसमें कि अनिश्चित काल तक सूक्ष्म रूप में देव, पितर, यक्ष, गंधर्व, नाग, किंनर आदि की तरह से बना रह सकता है। यह प्रेत-योनि से भिन्न है। नास्तिक से भिन्न दूसरे सभी मत चूँकि ऐसी आत्माओं के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। प्रेत योनि को प्राप्त होनेवाले किसी मृतक की क्या गति होती होगी यह स्पष्ट नहीं है।

किन्तु तिर्यक् योनि देव योनि व मनुष्य योनि के मध्य एक तल है जिसमें स्थित आत्माएँ मनुष्यों से और देवताओं से भी संपर्क कर सकती हैं। और इन्हें सिद्ध भी कह सकते हैं, जबकि सिद्ध का एक तात्पर्य केवल साँख्य / ज्ञान के माध्यम से कैवल्य ज्ञान प्राप्त "सिद्ध" भी होता है। जैसा कि गीता में कहा गया है :

 सिद्धानां कपिलो मुनिः।।

पुनः उस तरंग या अहं-वृत्ति के बारे में जो अहं (अर्थात् आत्मा) से उठने और पुनः पुनः उसमें ही लौट जानेवाली वृत्ति है जो जीव की पहचान है। समाधि में यह वृत्ति कुछ समय के लिए विलीन हो जाती है और मृत्यु में सदैव के लिए शरीर को त्याग देती है। इसलिए आयुर्वेद में भी समाधि शब्द का प्रयोग मृत्यु के अर्थ में भी किया जाता है। समाधियाँ कई प्रकार की होती हैं जिनमें निर्विकल्प समाधि को अंतिम माना जाता है। यह भी पुनः दो प्रकारों की "केवल निर्विकल्प" और "सहज निर्विकल्प" कही जाती है। योगाभ्यास करते हुए "केवल निर्विकल्प" तक पहुँचा जा सकता है, और साँख्य योग से आत्मानुसंधान करता हुआ जिज्ञासु "सहज निर्विकल्प" का साक्षात्कार भी कर लेता है।  

***  



No comments:

Post a Comment