July 31, 2024

93.Is Life Just Coincidence?

Question / प्रश्न 93

Is Life Just A Coincidence Only? 

क्या जीवन एक संयोगमात्र है?

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How You would describe Yourself to You Yourself?

स्वयं का अपना परिचय स्वयं अपने आपको आप कैसे देंगे?

आप किसी भी तरह से स्वयं की अपनी कोई मानसिक प्रतिमा बना लें, इस सच्चाई को कभी झुठला न सकेंगे कि वस्तुतः आप ऐसी कोई प्रतिमा नहीं बल्कि जीवन की ऐसी असंख्य गतिविधियों में से ही एक हैं, और एक सूत्र जो आपके व्यक्तित्व को परिभाषित करता है, वह "मैं" रूपी अध्यास है जो कि आपकी शुद्ध "होने मात्र" की भावना पर आच्छादित हो जाता है। यही वह प्रतिमा होती है जो यद्यपि सतत बदलती रहती है और फिर उसे ही "अपना अस्तित्व" मान लिया जाता है। 

इसे मैं स्वयं पर लागू करूँ तो मुझे स्मरण होता है कि मेरी स्मृति में वे तमाम महत्वपूर्ण घटनाएँ आज तक भी अंकित हैं जिन्हें क्रमबद्घ कर मैं अपने व्यक्तिगत इतिहास को संक्षिप्त रूप में लिख सकता हूँ। और शायद प्रत्येक ही व्यक्ति ऐसा कर सकता है।

ये सभी घटनाएँ यदृच्छया (random) होनेवाले संयोग भर होते हैं, या वे क्यों हुई इसके पीछे के मूल कारणों को जाना जा सकता है?

आयु बढ़ने के साथ मनुष्य की सहन करने की शक्ति कम होने लगती है और उसका आत्मविश्वास भी क्रमशः कम होता जाता है। कभी कभी एकाएक किसी समय पर वह टूट ही जाता है। जिसे मृत्यु कहा जाता है, उसका जीवन  क्या उस समय समाप्त हो जाता है? या उस किसी ऐसे आयाम में बना ही रहता है जहाँ केवल उसकी व्यक्तिगत पहचान भर मिट चुकी होती है?

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July 30, 2024

92. A.I.?

Question  प्रश्न  92

How Far Artificial Intelligence Is To Be Trusted?

कृत्रिम ज्ञान कितना विश्वसनीय है? 

Answer उत्तर  :

Artificial Intelligence Is Not Out Of The Box Thinking. It works in The Field of The Known, However There is also Another Intelligence say Out of The Box or The Alternative Intelligence which transcends The Known and its credibility is far more than The A. I.  (Or The Artificial Intelligence).

Anything could be proved or verified based upon 

i) The Evidence Of Example, 

ii) The Evidence of Logic,

and; 

iii) The Evidence of Experience.

Patanjali describes the three as in the aphorism of Yoga :

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ।।

प्रत्यक्ष - Direct:

As is known through the senses / sense organs. 

अनुमान  Speculative: 

As is determined through Logic,

and; 

आगमाः  Inferential :

As is discovered by experiment.

The Artificial Intelligence is kind of the second category.

Alternative Intelligence is kind of the third category. 

Sometimes this is also called :

The Sixth Sense.

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July 29, 2024

91. योगाभ्यास / Practice of Yoga.

Question  /  प्रश्न 91.

What Is Yoga,What Is Its Purpose and How it's Practiced?

योग क्या है, इसका प्रयोजन क्या है, और इसका अभ्यास कैसे किया जाता है?

Answer / उत्तर  :

मन से कौन अपरिचित या अनभिज्ञ है?

और कौन है जो अनायास ही मन से अपरिचित और अनभिज्ञ न होने पर भी उसके "अपना होने" का दावा नहीं करता? किसी मूर्त वस्तु (tangible object) या अमूर्त वस्तु (abstract / intangible object) से अपरिचित और अनभिज्ञ होने पर क्या उसके "अपना होने" का दावा किया जाना संभव है? और क्या ऐसा दावा तर्कसंगत हो सकता है?

संक्षेप में "मन" नामक वस्तु एक ऐसी अद्भुत् वस्तु है, जिसे कि जानने के किसी प्रयास और इच्छा के बिना ही, अनायास जाना भी जाता है, और फिर भी उसे नहीं भी  जाना जाता, या शायद ही जाना जा सकता हो।

"जानने" और "जाननेवाले" के बीच क्या समानता और क्या असमानता है, इस पर ध्यान दें तो यह समझ में आ सकता है कि "जानना" और "जाननेवाला" उस एक ही वस्तु के दो पक्ष / पहलू हैं जिसे "मन" कहकर यद्यपि जाना भी जाता है, फिर भी नहीं भी जाना जा सकता। और इसलिए कोई बलपूर्वक यह दावा नहीं कर सकता, कि वह "मन" से कितना परिचित, कितना अपरिचित, कितना अनभिज्ञ या कितना भली-भाँति परिचित है। 

"जानना" शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया जाता है - एक तो है प्रयास, इच्छा या अनिच्छा के बिना जानना - जैसे आँखों के सामने के दृश्य को देखना, कानों पर पड़ रही ध्वनियों को सुनना, किसी वस्तु को सूँघकर उसकी गंध को अनुभव करना, किसी वस्तु को छूकर उसके मृदु या कठोर होने को अनुभव करना और किसी वस्तु को चखकर उसके स्वाद को अनुभव करना।

दूसरा है, उपरोक्त पाँच प्रकार के अनुभवों की स्मृति को शब्द देकर वर्गीकृत करना और पुनः दूसरे किन्हीं शब्दों के माध्यम से विभिन्न अनुभवों की तुलना करना, और फिर उनके बीच समानता और असमानता खोजना।

इस प्रकार "जानना" शुद्ध इंद्रियानुभव हो सकता है, या ऐसे इंद्रियानुभवों की केवल कोई शाब्दिक स्मृति भर भी हो सकता है। 

पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद में इसे इस प्रकार स्पष्ट किया गया  है :

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।८।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।

विपर्यय और विकल्प इस प्रकार से, दो वृत्तियाँ हैं, शेष तीन वृत्तियाँ हैं - प्रमाण, निद्रा और स्मृति।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।।

अभाव-प्रत्यययालम्बना वृत्तिः निद्रा।।१०।।

अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः।।११।।

इसलिए शब्दरहित शुद्ध इंद्रियानुभव तो एक प्रकार का "जानना" है, जबकि उपरोक्त पाँच प्रकार की वृत्तियों के माध्यम से अनुभव को शब्द देकर शाब्दिक रूप में कुछ "जानना" / "वृत्तिज्ञान" दूसरे प्रकार का "जानना" है।

"मन" नामक वस्तु वह सब कुछ है जिसे उपरोक्त इन्हीं दो प्रकारों में जाना जाता है।

संक्षेप में मन का समस्त "जानना", "वृत्तिज्ञान" या वृत्ति के ही रूप में होता है।

योगाभ्यास में इसलिए या तो वृत्तिमात्र को निरुद्ध कर दिया जाना होता है, या वृत्तिमात्र का अवसान  हो जाना चाहिए (क्योंकि, "कर दिया जाना" संभव नहीं है!)।

निरुद्ध करने का अर्थ है "रोक देना"

arresting the movement of  vRtti.

और अवसान का अर्थ है -

- eliminaing the vRtti.

चूँकि समस्त "जानना" इंद्रियानुभव या उनका शाब्दिक निरूपण (शब्दीकरण / verbalization) ही होता है इसलिए योगाभ्यास में  -

वृत्तिनिरोधः (arresting the vRtti)

और / या

वृत्तिनिरसन (elimination of vRtti).

इन दोनों में से केवल किसी एक को ही आवश्यक रूप से प्रयोग किया जाना चाहिए।

इनमें से प्रथम का अभ्यास करनेवाला जिज्ञासु क्रमशः निरोध-परिणाम, एकाग्रता-परिणाम, समाधि-परिणाम के माध्यम से वृत्ति-संयम की सिद्धि करता है। किन्तु इसमें प्रायः मनुष्य उलझ और फँसकर रह जाता है, जब तक कि वह अस्मिता-समाधि के माध्यम से अहंकार से रहित नहीं हो जाता। यही कैवल्य या साँख्यज्ञान है -

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति।।३४।।

(कैवल्यपाद)

इस पोस्ट को लिखने का उद्देश्य -

"योगाभ्यास क्या है और कैसे किया जाता है?"

इस प्रश्न का उत्तर देने तक सीमित है इसलिए यहाँ कुछ अनावश्यक संदर्भों को छोड़ दिया गया है जिन पर बाद में फिर कभी प्रकाश डाला जा सकता है। 

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July 28, 2024

हिन्दुत्व एक षड्यंत्र

क्या हिन्दुत्व एक षड्यंत्र है?

यह पोस्ट इसलिए लिख रहा हूँ कि इसके माध्यम से स्वर्गीय श्री बलराज मधोक के 

भारतीयता के विचार 

को पुनः एक बार स्मरण कर लिया जाए।

यह तो स्पष्ट है कि जिस समय श्री बलराज मधोक ने उक्त विचार / दर्शन की स्थापना और प्रतिपादन किया था, उस समय तत्कालीन जनसंघ  के कट्टर हिन्दूवादी नेता यह समझने में पूरी तरह और नितान्त विफल रहे कि

आर. एस. एस. की स्थापना करनेवाले इस विषय में कितने दिग्भ्रमित थे। 

सबसे बड़ी बात यह कि "हिन्दू" धर्म नहीं, संस्कृति या सभ्यता है जिसका प्राण है सनातन, अर्थात् धर्म, जो कि सनातन है। सनातन धर्म कहना पुनरुक्ति मात्र है। जैसे कोई कहे  - "मीठी शक्कर"। शक्कर का अर्थ है मीठा और मीठा का अर्थ है शक्कर। इसी प्रकार सनातन का अर्थ है अजर अमर धर्म और धर्म का अर्थ है अजर अमर अविनाशी अर्थात् सनातन और शाश्वत। आर. एस. एस. की स्थापना ही भारत और भारतीयता को,  भारतीय जाति, सभ्यता और संस्कृति को "हिन्दू" नाम दिए जाने से हुई।

इस प्रकार हिन्दू-विरोधी सभी समुदाय संगठित हो गए और इस प्रकार से 

India That Is Bharat

अर्थात् भारत और भारतीयता के विचार को गौण बनाकर अप्रासंगिक और उपेक्षित दिया गया।

दुर्भाग्य से या इरादतन श्री बलराज मधोक को पार्टी के महत्वपूर्ण स्थान से धीरे धीरे हाशिए पर धकेल दिया गया और मार्जिनलाइज़ कर अप्रासंगिक बना दिया गया। आज भी भारत विश्व की दो महाशक्तियों अर्थात् भारत (और भारतीयतावादी) तथा भारत के विरोधियों के बीच का रणक्षेत्र बना हुआ है। जनसंघ, आर. एस. एस. और अन्य सभी हिन्दूवादी संगठन आज तक इस अन्तर्द्वन्द्व / दुविधा से उबर नहीं पाए हैं। और कभी उबर ही सकेंगे ऐसी कोई उम्मीद भी नहीं है।

भारत को "हिन्दू राष्ट्र" घोषित न कर पाने में मूलतः यही असमंजस मूल कारण है।

हो सकता है कि हिन्दूवादी विचारधारा के प्रबल और कट्टर समर्थक भविष्य में संविधान संशोधन लाकर ऐसा कर पाने में सफल भी हो जाएँ, लेकिन इसकी कौन सी और कितनी बड़ी कीमत "भारतीयों" और सनातन (या धर्म) को माननेवालों की चुकानी होगी इसकी कल्पना करना तक अत्यन्त भयावह है।

धर्म तो सनातन ही है, और सनातन ही धर्म है।

हिन्दू (वैदिक), जैन, बौद्ध, सिख सभी सनातन के ही विभिन्न रूप हैं यहाँ तक कि पारसी भी। केवल मुस्लिम, ईसाई और यहूदी परंपराएँ ही "सनातन" अर्थात् "वैदिक धर्म" से प्रतिकूल विचारधारा पर आधारित हैं और उनके माननेवालों का ही सनातन अर्थात् वैदिक धर्म से मौलिक मतभेद है। भारतीय और गैर-भारतीय का विभाजन इस दृष्टि से स्पष्ट ही है, और इसलिए भारत राष्ट्र को "हिन्दू राष्ट्र" बनाने का विचार ही मूलतः विध्वंसकारी और अत्यन्त विनाशकारी भी है।

उक्त पोस्ट लिखने का एकमात्र कारण यही है कि इस माध्यम से प्रबुद्धों और राष्ट्रप्रेमी नागरिकों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया जाए।

कृपया "लेबल" में 'बलराज मधोक' पर क्लिक कर पहले लिखे मेरे पोस्ट्स का अवलोकन करें।

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July 26, 2024

क्या मर्द को भी दर्द होता है?

कविता / कुछ भी!

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जब माहौल बहुत बेदर्द होता है,

हरेक रिश्ता बहुत सर्द होता है, 

हर तरफ गर्द ही गर्द होता है,

हर एक चेहरा ही ज़र्द होता है,

कहीं कोई नहीं हमदर्द होता है, 

तब मर्द को भी दर्द होता है!!

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July 20, 2024

इमं विवस्वते योगं

प्रोक्तवानहमव्ययम् 

ज्योतिष-योग 

श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय ४ के प्रथम दो श्लोक :

श्रीभगवानुवाच :

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।।

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।।

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।

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सृष्टि संवत् के प्रथम दिवस पर जब एक मृत्पिण्ड जिसे पृथिवी कहा जाता है, विवस्वान् सूर्य से पृथक् हुआ और कुछ समय तक अन्य ऐसे ही अनेक मृत्पिण्डों की तरह अंतरिक्ष में गति करता रहा। उस पर कार्यरत अनेक बलों के अन्ततः पूर्ण स्थिर और संतुलित हो जाने पर सूर्य की कक्षा में प्रविष्ट होकर सूर्य का परिभ्रमण करने लगा। सूर्य की कक्षा में स्थापित होते होते उस गोलपिण्ड पृथिवी की गति से वह उसकी अपनी उत्तर-दक्षिण अक्ष की धुरी के चतुर्दिक् घूमने लगा। इस प्रकार पहले संवत्सर की, और  फिर दिन और रात्रि की उत्पत्ति हुई। उस समय अंतरिक्ष में सूर्य मेष राशि में प्रविष्ट हो रहा था। और पृथिवी पर स्थित जिस स्थान से सूर्य मेष राशि और अश्विनी नक्षत्र में प्रविष्ट होता हुआ दिखलाई देता था, उदित होते हुए सूर्य का वह समय जगल्लग्न हुआ। किन्तु उससे भी प्रहर भर पहले ही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का आविर्भाव हो चुका था -

ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव

विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।।

(मुण्डकोपनिषद् १-१)

ब्रह्मा से ही सर्वप्रथम सप्तर्षि का उद्भव हुआ जो पृथिवी के उस विशिष्ट स्थान से देखे जाने पर अपने अपने स्थान पर एक दूसरे से सुनिश्चित दूरी पर स्थित थे और वे सभी एक साथ ही ध्रुव तारे की प्रदक्षिणा करने लगे। ध्रुव तारे की प्रदक्षिणा करते हुए उन्होंने जिस पथ का अनुसरण किया संवत्सर सौर वर्ष में वह विस्तीर्ण पथ स्वस्तिक की आकृति के रूप में दिखलाई पड़ा। यह आकृति पुनः पुनः अभिव्यक्त होकर सृष्टि चक्र में परिणत हुई।

पृथिवी पर इसके एक प्रहर व्यतीत हो जाने के पश्चात् ही पृथिवी ने सूर्य की कक्षा में प्रवेश कर लिया। इस प्रकार स्थूल भौतिक जगत् की सृष्टि हुई। सूर्य के ही साथ अन्य देवताओं ने भी व्यक्त रूप धारण किया और नक्षत्र आदि के रूप में दिखलाई पड़ने लगे। देवताओं के साथ उनकी शक्तियाँ थीं और तब ब्रह्मांड cosmos के अक्ष के रूप में कालदण्ड के रूप में उस अक्ष के दो सिरों पर क्रमशः राहु और केतु ग्रहों के रूप में अस्तित्वमान हुए। यह पूरा ब्रह्मांड भ-चक्र उसी अक्ष पर घूमते रहता है, और जिसके अतिरिक्त समस्त स्थान देवताओं ने ग्रहण कर लिया जो नक्षत्रों के रूप में दृष्टिगत होते हैं। सौरमण्डल में स्थित सभी विशिष्ट स्थूल जड पिण्ड पृथिवी की ही तरह सूर्य के चारों ओर परिभ्रमण करते हैं और जैसे वे देवतागण हैं, पृथिवी भी एक देवता विशेष है। पृथिवी पर जीवन का आधार वे सभी हैं किन्तु पृथिवी पर जीवन पूर्ण रूप से विकसित और परिवर्धित होता है। अन्य ग्रहों पर भू की अपेक्षा अग्नि, वायु और जल तत्व का आधिक्य है, जैसे सूर्य, बुध और शुक्र पर अग्नि, मंगल पर भू, अग्नि, वायु और जल, बृहस्पति पर वायु और भू, तथा शनि पर जल,  वायु प्रमुख हैं। ये सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर एक ही समतल में स्थित होकर उसकी प्रदक्षिणा करते हैं। वाल्मीकि रामायण में उल्लेख है कि किस प्रकार राजा त्रिशंकु सशरीर देवलोक में या स्वर्ग में पहुँचना चाहते थे, और राजर्षि विश्वामित्र ने इसके लिए यज्ञ किया। तब देवताओं ने इस पर आपत्ति की और अंततः राजा त्रिशंकु को इस समतल से कोणीय दिशा में अंतरिक्ष में स्थान दे दिया गया। त्रिशंकु का अर्थ होता है तीन शंकुओं से युक्त अंतरिक्ष यान। यदि आज भी कोई अंतरिक्ष यान उस तक जा सके तो इस रहस्य पर से पर्दा उठ सकता है।

इस प्रस्तावना से यह समझा जा सकता है कि ज्योतिष किस प्रकार व्यक्ति, व्यक्तिगत संसार और भौतिक जगत् की सभी गतिविधियों का नियामक है, और उससे इनके बारे में विस्तार से जाना जा सकता है।

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July 17, 2024

90. Knowing and Knowledge

Knowing and Virtual Knowledge

ज्ञानवृत्ति और वृत्तिज्ञान 

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ५, श्लोक १५ - १६

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः।।

तेषां आदित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।। १६।।

This point is already and very beautifully elucidated in the book :

"Sat-Darshana bhAShya" 

- A Commentary on :

"Sat-Darshanam" of -

Sri Kavyakanta Ganapati Muni,

By His Disciple and the great scholar :

Bharadwaja kapAli Sastri (K).

In the introductory pages :

The Initial Doubts

Of this book.

This reference just came to my mind when I started writing this post here. 

Though the above commentary is quite appropriate, excellent and relevant too, prompted by the above two stanza of the Gita I felt to write down in addition a post with the focus on the same, based on the two stanzas.

Still more, there is yet another aspect of the topic in the Light of  :

Patanjala YogaSutra,

Where वृत्ति / vRtti is explained by means of its five major kinds, so that it could be so easily understood by a layman also. 

समाधिपाद 

अथ योगानुशासनम्।।१।।

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।२।।

तदा दृष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।३।।

वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।४।।

वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।५।।

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।।

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।८।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।

अभाव-प्रत्यययालम्बना वृत्तिः निद्रा।।१०।।

अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः।।११।।

Again referring to

उपदेश सार / Upadesha-SaraH

of Bhagawan Shri Ramana Maharshi :

मानसं तु किं मार्गणे कृते।।

नैव मानसं मार्ग आर्जवात्।।१७।।

वृत्तयस्त्वहंवृत्तिमाश्रिताः।। 

वृत्तयो मनः विद्ध्यहं मनः।।१८।।

लयविनाशने उभयरोधने।। 

लयगतं पुनर्भवति नो मृतम्।।

Please check details in the following link of my another blog in the e-blogger :

https://ramanavinay.blogspot.com/2011/02/upadesha-saarah_08.html

वृत्ति / vRtti therefore is very clearly the mind.

There is a stage in practicing the Yoga, where mind goes into लय / dissolution like as in sleep or swoon, or samAdhi,

But on the other hand, when the enquiry about "what is mind", is done, the mind goes through  विनाश  or the extinction.

PatanjalaYogaSutra is a treatise about Yoga where mainly samAdhi is explained and practiced and the  वृत्ति / vRtti (or the flow of mind) is arrested. This kind of practicing Yoga is helpful for an aspirant who is unable and not mature enough to contemplate upon the Enquiry :

"What is Mind".

 Knowing (ज्ञानवृत्ति) and Knowledge (वृत्तिज्ञान) differ in that Knowing is pure awareness while Knowledge is consciousness with the division of the knower, known and the tendency of the knowing.

The stanzas 15 and 16 from Gita given in the beginning point out to the two kinds of understanding one of them is through the mind and in the mind in the form of   वृत्ति / vRtti, while there is yet another in the form transcending and beyond mind.

***







What Is The Another A. I. ?

Question / प्रश्न 89

What Is A. I,  or this A.I.I?

ए.आई.आई  क्या है?

Answer  / उत्तर :

A. I. I./ ए.आई.आई ,

(The) Acquired/Alternate/Another Intelligence / अक्वायर्ड/आल्टरनेट/अनदर इन्टेलिजेन्स जिसका संक्षिप्त नाम है : 

A. I. O. /  ए.आई.ओ.

A / ए  as above : अज्ञ /

Acquired / Alternative / Another 

 / आई - Inferential  / Ignorant, 

O  - Optional / Of Choice, 

This is defined as such on the basis of 

The following Stanza 15 and 16 of Shrimadbhagvad-gita :

इसे इस आधार पर परिभाषित किया जाता है :

अध्याय ४ : Chapter 4 :

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।। 

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।४०।।

और / and; 

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ५, श्लोक १५

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः।।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः।।

तेषां आदित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

अध्याय ४, श्लोक ४० से स्पष्ट है कि मनुष्य का मन ही   A.I.I. /  ए.आई.आई  

इस पोस्ट में इस संक्षिप्त नाम से परिभाषित किया गया है। यह मन ही ज्ञानरहित - अज्ञ, श्रद्धारहित - अश्रद्दधावान, और संशयग्रस्त अश्वत्थ जिसका उल्लेख अध्याय १५ में इस प्रकार से है :

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।।

छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तद्वेद स वेदवित्।।१।।

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा 

गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।। 

अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि 

कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।।२।।

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते

नान्तः न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।।

अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-

मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।।३।।

ततः पदं तत् परिमार्गतव्यः

यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।।

तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये 

यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।४।।

इस अध्याय १५ का नाम अक्षरपुरुषोत्तमयोग है, 

जिसमें पुरुष के दो रूपों का उल्लेख किया गया है :

आद्य उत्तमपुरुष-वाचक एकवचन अहंपदाख्य आत्मा या परमात्मा और दूसरा अन्यपुरुष-वाचक "मन"।

अध्याय ४ के प्रारंभिक पाँच श्लोकों में उन दोनों पुरुषों  के बारे में कहा गया है :

श्रीभगवानुवाच :

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।।

विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।।

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यमेतदनुत्तमम्।।३।।

अर्जुन उवाच :

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।४।।

श्री भगवानुवाच :

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।५।।

यहाँ संस्कृत के अहं पद का प्रयोग दोनों प्रकार से उत्तमपुरुषवाचक एकवचन "आत्मा / परमात्मा या ईश्वर" के अर्थ में "मैं", और अन्यपुरुष एकवचन व्यक्ति-आत्मा - "मैं" के अर्थ में दृष्टव्य है। 

बहूनि "मे" व्यतीतानि जन्मानि तव च अर्जुन।

तानि "अहं वेद" सर्वाणि न त्वं... इति

सरल अर्थ यह है :

मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म विगत अतीत में हुए हैं। उन सभी को मैं (उत्तमपुरुषवाचक एकवचन संज्ञा) तो जानता हूँ / जानता है, - तुम नहीं।

"वेद" क्रियापद का तात्पर्य भी इसे इसके वर्तमान काल (लट् लकार) और अनिश्चित भूतकाल (लिट् लकार) के संदर्भ में देखने पर स्पष्ट हो जाता है। 

यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण अपने आपका उल्लेख इन दोनों अर्थों में करते हैं, इस रहस्य से अनभिज्ञ होने के कारण अर्जुन को संदेह होता है कि विवस्वान् का जन्म तो सुदूर अतीत में हुआ था और भगवान् का अभी वर्तमान काल में,  तो हमें कैसे पता चले कि आपने / भगवान श्रीकृष्ण ने ही विवस्वान् को इस योग का उपदेश दिया था!

तब भगवान श्रीकृष्ण कथा का उपसंहार करते हुए कहते हैं :

अजोऽपि सन्नव्यात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।।

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।।६।।

जिसमें वे आत्मा, ईश्वर और प्रकृति की क्रीडा का उल्लेख करते हैं। 

***





(किसी मूल सनातन सत्य से अनभिज्ञ, श्रद्धारहित और संशययुक्त  

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July 15, 2024

भर्तृहरि कथा

शृङ्गार शतक, नीति शतक,

और वैराग्य शतक

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राजा भर्तृहरि उज्जैन के राजा के पुत्र थे। जिन्होंने उन प्रसिद्ध ग्रन्थों की रचना की जिनमें से सर्वाधिक प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण ग्रन्थों का नाम क्रमशः - शृङ्गार शतक, नीति शतक और वैराग्य शतक है। वे उनसे भी अधिक विख्यात सम्राट विक्रमादित्य के बड़े भाई थे और केवल वैराग्य के उदय के बाद ही उन्होंने अपना राजपाट अपने छोटे भाई को सौंपकर तपस्या करने के लिए उस वन की ओर प्रस्थान किया जिसे महाकाल वन भी कहा जाता है। उन्हें वैराग्य क्यों और कैसे हुआ इसकी कहानी भी प्रसिद्ध ही है जिसे यहाँ उद्धृत करना अनावश्यक प्रतीत होता है।

उस कहानी से कहीं बहुत अधिक महत्वपूर्ण यह तथ्य है कि उन्होंने उपरिवर्णित तीन ग्रन्थों की रचना इस क्रम से क्यों की होगी। राजपरिवार में जन्म होने के कारण वैसे भी वे वैभव और विलासपूर्ण जीवन जी रहे थे, आज के समय से अच्छी शिक्षा उन्हें प्राप्त हुई थी, और इसलिए भी राजपरिवार की परंपरा में ही उन्होंने धर्म के अनुसार प्रजा का शासन न्याय और नीतिपूर्वक किस प्रकार किया जाना चाहिए, इसकी शिक्षा भी प्राप्त की थी। राजा होने से वैभवपूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए कला, साहित्य और शृङ्गार की परख उन्हें थी और तदनुसार वे राजधर्म का पालन करते थे। और इसी क्रम में उन्होंने उक्त तीन ग्रन्थों की रचना की। क्षत्रियकुल में जन्म होने से आध्यात्मिक परंपरा से उन्हें भी वही और वैसे ही शिक्षा प्राप्त हुई थी, जिसका उल्लेख श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ४ में पाया जाता है -

श्री भगवानुवाच --

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।।

विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।।

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।

स एवं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।।

भक्तो मेऽसि सखा चेति रहस्यमेतदनुत्तमम्।।३।।

राजा भर्तृहरि ने इसी परम्परा के अनुसार योग-विषयक आध्यात्मिक शिक्षा पाई थी और जिसका अनुष्ठान भी वे किया करते थे।

यहाँ यह ज्ञातव्य है कि राजा इक्ष्वाकु भी मनु के उस कुल में उत्पन्न हुए थे जिसे रघुकुल भी कहा जाता है इसलिए यह शिक्षा अत्यन्त ही पुरातन भी है। किन्तु जैसा गीता में कहा गया : भगवान् श्रीकृष्ण के समय तक पृथ्वी से यह योग नष्ट हो गया या इस परंपरागत शिक्षा का  विलोप हो गया, जिसे कि राजर्षियों का राज-योग भी कहा जाता है, और जिसका उल्लेख उपरोक्त श्लोकों में भी इसी प्रकार से है।

शृङ्गार का एक रोचक और सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्त्व है - कामभावना, जो औचित्य और प्रसंग के अनुसार मनुष्य की शत्रु या मित्र होती है -

अध्याय ७ के अनुसार :

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।।

धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।११।।

अध्याय १० के अनुसार :

आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।। 

प्रजनश्चास्मि कन्दर्पो सर्पाणामस्मि वासुकिः।।२८।।

इसलिए अध्याय ३ में यह भी उल्लेख है :

श्रीभगवानुवाच --

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।।

महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।३७।।

एक ही रसायन अलग अलग मनुष्यों के लिए जैसे अमृत या विषतुल्य सिद्ध होता है, उसी प्रकार कामभावना भी शृङ्गार रस या अध्यात्म की दृष्टि से क्रमशः अमृत जैसी सुखप्रद या विष जैसी दुःखप्रद होती है।

किन्तु युवावस्था और गृहस्थ आश्रम में यह शृङ्गार रस से युक्त होने पर धर्म के अनुसार उचित और नीति धर्म पर ही आश्रित और अवलम्बित भी हो सकती है।

नीति, नयति इति नियतिः वा न्यायः।।

के अनुसार नीति या न्याय धर्म पर आधारित और उसके पीछे पीछे चलते हुए उसका अनुसरण करते हैं।

धर्म का अर्थ है -

सनातन जो सदा ही एक जैसा, अचल अटल, न्यायपूर्ण और विवेकपूर्ण आचरण है - न कि हिन्दू, ईसाई, यहूदी या कि मुस्लिम शिक्षाओं और मान्यताओं पर आधारित नीति या विशेष मत आदि । और नीति है संप्रदाय या  मत, मजहब या रिलीजन्स, जो कभी तो न्यायसंगत हो सकते हैं किन्तु सदा ऐसे नहीं होते। इसलिए सनातन-धर्म एक अनावश्यक दुहराव है, क्योंकि सनातन स्वयं ही धर्म है। और "धर्म" शब्द को मतों और मान्यताओं के अर्थ में प्रयुक्त किया जाना तो एक दुर्भाग्यजनक भूल और भ्रम है और जिसके कारण हिन्दू या अन्य किसी मतविशेष से इसे जोड़ दिया जाता है और तब हिन्दू संस्कृति और मत का उल्लेख सनातन-धर्म कहकर किया जाने लगता है। धर्म और मतवादों के बीच के और इस सूक्ष्म अंतर का दुरुपयोग अपने अपने मतों मान्यताओं की पुष्टि करने के लिए उन मतों आदि को माननेवाले प्रायः किया करते हैं,  जिससे अंततः सनातन अर्थात् धर्म की ही हानि होती है।

संभवतः इसलिए भी राजा भर्तृहरि ने सबसे पहले शृङ्गार शतक, बाद में नीति शतक और इन दोनों के बाद अंत में वैराग्य शतक की रचना की होगी। क्योंकि सामान्यतः भी जीवन में इनका स्वाभाविक क्रम यही हो सकता है।

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July 14, 2024

The Aspirant / भिक्षु

जिज्ञासु  योगी और ज्ञानी

The Aspirant, The Seeker

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संसार में मनुष्य ही नहीं हर कोई ही कुछ न कुछ खोज रहा है। अधिकांश मनुष्य तो सुख और निरन्तर सुख के विविध प्रकारों को ही एक के बाद एक प्राप्त करने और एक से तृप्त होने पर दूसरे किसी और प्रकार के सुख की खोज करने में व्यस्त रहते हैं। निरन्तर खोज करने के इस श्रम में भी उन्हें एक विशिष्ट सुख अनुभव हो सकता है। किन्तु सुख के लक्ष्य को प्राप्त करते ही कुछ समय तक उस सुख का उपभोग कर लेने के बाद मनुष्य विश्राम के सुख की प्राप्ति करने का इच्छुक होता है। लगातार घंटों तक कोई शारीरिक श्रम से थक जाने पर जैसे शरीर को आराम करने की आवश्यकता होती है, वैसे ही मानसिक या बौद्धिक कार्य करने के बाद मन और मस्तिष्क को भी आराम की आवश्यकता होना स्वाभाविक ही है। हमारे हाथ-पैरों, इन्द्रियों, प्राण, मन, मस्तिष्क और शरीर के दूसरे भी सभी अंगों के कार्य करने की क्षमता की सीमा होती है किन्तु हृदय ही इसका एकमात्र अपवाद है, जो जन्म होने से मृत्यु हो जाने तक बिना रुके, बिना आराम किए धड़कता रहता है और जैसे ही हृदय अपना कार्य करना बंद कर देता है, मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। अब प्रश्न यह है कि मृत्यु होने से हृदय अपना कार्य करना बन्द कर देता है या हृदय का कार्य बन्द हो जाने से मृत्यु होती है? सामान्य दृष्टि से देखने पर यद्यपि यह प्रश्न व्यर्थ जान पड़ सकता है, किन्तु यह जानना महत्वपूर्ण है, क्योंकि ज्ञात परिस्थितियों में किए जानेवाले वैज्ञानिक परीक्षणों से सिद्ध होता है कि योगी अपने प्राणों की गति, हृदय की धड़कन (heart-beats) और इसलिए नाड़ी के स्पन्दन (pulse) को भी कुछ समय तक के लिए रोक सकते हैं। तात्पर्य यही हुआ : मृत्यु हो जाने के बाद ही हृदय कार्य करना बन्द कर देता है, हृदय के द्वारा कार्य बन्द कर देने से मृत्यु हो जाना आवश्यक नहीं है। किन्तु क्या योगी भी हमेशा ही अपनी इच्छा के अनुसार हृदय को कार्य करने से रोक सकता है? या वह भी इससे अनभिज्ञ होता है कि कब उसमें कौन सी इच्छा उत्पन्न होगी और वह इच्छा के वशीभूत होगा या नहीं?

इससे यह स्पष्ट है कि कोई बड़े से बड़ा योगी भी यह नहीं जान पाता कि इच्छा का आगमन कहाँ से होता है और उससे इच्छा का क्या संबंध है। इच्छा तो एक बहुत सूक्ष्म वस्तु है, और इसलिए उस पर नियंत्रण करना मनुष्य के लिए बहुत ही कठिन है, किन्तु जिन स्थूल पदार्थों और वस्तुओं पर उसका नियंत्रण है वे भी आवश्यकता होने पर उसे प्राप्त होंगी या नहीं इस बारे में भी वह अनभिज्ञ होता है। अर्थात् बहुत बड़ा योगी भी किसी अज्ञात और अदृश्य शक्ति की कृपा पर आश्रित होता है और इसलिए उससे कृपा की भिक्षा प्राप्त करने का इच्छुक होता है। अतएव यह कहना गलत नहीं होगा कि केवल संसार में ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक दृष्टि से भी मनुष्य मात्र ही भिक्षु ही होता है। किन्तु बिरला कोई कामनाशून्य, और अहंकाररहित, आत्मजिज्ञासु ही इतना समर्थ हो सकता है कि जीवन / संसार और यहाँ तक कि ईश्वर से भी कुछ न माँगे, जिसे किसी से कोई अपेक्षा ही न हो।

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88. Out-reach and Over-reach.

Question  /  प्रश्न 88

What kind of relationship, harmony one could maintain with the living beings, and with the lifeless things, in the world?

क्या संसार के सजीव, चेतन प्राणियों और निर्जीव जड वस्तुओं के साथ सामञ्जस्यपूर्ण और प्रेमपूर्ण व्यवहार कर पाना संभव है?

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Answer  /  उत्तर  :

संसार की समस्त जड वस्तुओं और चेतन प्राणियों से व्यवहार करते समय जिस किसी से हमारा संपर्क होता है, चाहे वह कोई इन्द्रियगम्य विशेष आकार-प्रकार की द्रव्य-वस्तु हो या भौतिक, अनुभवगम्य आकार-प्रकार से रहित मनोगम्य हो, उस नामरूप से युक्त या नाम-रूप से रहित भावगम्य वस्तु  abstract object  से परिचय / acquaintance  (संस्कृत - अकुतं च - का अपभ्रंश) - cognate) कर लिया जाना स्वाभाविक है। परिचय का अर्थ यह है कि उससे संपर्क होने पर उसका हम पर जो प्रथम प्रभाव First Impression हम पर पड़ता है वह वैसे तो उसका यथार्थ होता है, किन्तु जैसे ही बाद में पुनः उससे होनेवाली क्रिया-प्रतिक्रिया (Interaction) की स्मृति उस यथार्थ को प्रतीति (Perception) में परिवर्तित कर देती है। सजीव और इसलिए ऐसे चेतन प्राणियों के प्रति हमारी संवेदनशीलता का प्रकार हमारी उस संवेदनशीलता से भिन्न होता है जो निर्जीव और जड / प्राण और चेतना से रहित वस्तुओं के प्रति हममें होती है। उदाहरण के लिए एक चट्टान, कंकड़ या पत्थर और एक छोटे या बड़े पौधे या वृक्ष के प्रति जो संवेदनशीलता हममें होती है वह अलग अलग तरह की होती है, और जिस पर शायद ही कभी हमारा ध्यान गया होगा। वैसे ही एक पौधे या वृक्ष के प्रति हमारी जो संवेदनशीलता होती है, उसका प्रकार किसी चींटी, बकरी, मछली या चिड़िया के प्रति हमारी संवेदनशीलता के प्रकार से भिन्न होता है, जबकि यह संवेदनशीलता मूलतः वैसे तो सदा ही सर्वत्र और एकमेव, अद्वितीय Single, Unitary और एक जैसी Uniform and Unique ही होती है। साथ ही, यह संवेदनशीलता - Quality and attribute of sensitivity  ही वह चेतना / consciousness  है जिसे ईश्वरीय चेतना Divine Consciousness  कहा जा सकता है क्योंकि सभी जड वस्तुएँ और समस्त चेतन प्राणी उससे ही अधिशासित होते हैं। इसलिए इस रूप में इसके दर्शन हो जाने या कर लिए जाने का अर्थ है ईश्वर के या अपनी निज वास्तविक आत्मा के दर्शन कर लेना या हो जाना। 

श्री महर्षि रमण कृत उपदेश-सारः में एक श्लोक यह है :

ईशजीवयोर्वेषधीभिदा।

सत्स्वरूपतः वस्तु केवलम्।।

तात्विक दृष्टि से यह सत् (अस्तित्वमात्र / होना) ही चित् (भान / बोध / शुद्ध जानना) है और यह चित् ही सत् है। क्योंकि जिसे भी जाना जाता है वह जानने पर आश्रित होता है और होना ही सत् है। इस प्रकार सत् और चित् अन्योन्याश्रित होने से स्वरूपतः एक हैं किन्तु उन दोनों का रूप और कार्य भिन्न भिन्न प्रतीत होता है। 

Though Existence and Knowing are one and the same Reality, their expression and functioning appears to be different.

Existence is : सत्

Knowing is : चित्

Perception / knowing through memory of the experience is : प्रतीति

Coming into contact with anything with no earlier memory or experience of the object of knowing / acquaintance परिचय 

So There is this subtle difference between the two.

यह प्रेम है, जो कि निर्वैयक्तिक चेतना, सत् भी और चित् भी है।

This is all permeating all pervading Love and it knows itself just because there is nothing else that exists apart from itself. 

This Love is verily and Indeed The Only and Unique God.

इसलिए इसे ईश, ईशिता या ईश्वर भी कहा जाता है। जब इसे द्वैत की दृष्टि से देखा जाता है तो यह स्वामी के अर्थ में होता है। जैसे जगदीश, गिरीश, हरीश। और जब इसे अद्वैत की दृष्टि से देखा जाता है, यह विशुद्ध प्रेम अर्थात् विशुद्ध आनन्दमात्र होता है जिसमें प्रिय और प्रेमी दोनों रूप विलीन होकर केवल बोधमात्र होते हैं जो पुनः चित् अर्थात् सत् मात्र है।

और यह प्रेम ही है :

एकमात्र नित्य संबंध

The Ever-abiding Love.

एक बार यह स्पष्ट हो जाता है तो फिर सजीव और चेतन प्राणियों और निर्जीव जड वस्तुओं से किस प्रकार से प्रेम हो सकता है यह भी अनायास समझ में आ सकता है।

किंतु इन दोनों के बीच में फँसा हुआ मन सभी संबंधों में सदा ही दुविधा में पड़ा रहता है। 

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July 12, 2024

87. Initiation / दीक्षा

Question / प्रश्न 87

What is Spiritual Initiation and how is it performed?

आध्यात्मिक दीक्षा क्या है और यह किस प्रकार से संपन्न होता है? 

Answer / उत्तर ः

संस्कृत में वप् > वपति, का प्रयोग बीज बोने के अर्थ में किया जाता है।

बीजं वपति -- बीज बोता है।

जैसे कोई किसान अपने खेत में अनाज (अन्न-जं) का बीज बोता है।

यदि इसे भूतकाल के संदर्भ में कहा जाए तो --

"वह बीज बोता था।"

इसे

"बीजं वपति स्म"

कहा जाएगा। "वपति" क्रियापद वर्तमान काल, अन्य पुरुष एकवचन पद (Third person, present tense singular term) है और संस्कृत व्याकरण के अनुसार किसी भी क्रियापद का प्रयोग लिंग-निरपेक्ष (gender-indifferent) जैसा अंग्रेजी में देखा जा सकता है - उदाहरण के लिए :

हिन्दी में - "जा रहा है, जा रही है"

कहने के लिए अंग्रेजी / English में 

"is going" 

क्रियापद का प्रयोग किया जाता है।

इस प्रकार हिन्दी में व्यक्त 

"(बीज) बोता था।"

या,

"(बीज) बोती थी।"

के लिए संस्कृत भाषा में 

"बीजं वपति स्म"

कहा जाएगा जहाँ कर्तृवाच्य में वह / सः (पुंल्लिंग) या वह / सा (स्त्रीलिंग) दोनों ही व्याकरणसम्मत होंगे। 

आध्यात्मिक दीक्षा दिदिक्षु को प्रदान की जाती है।

वैसे तो यह ईश्वर-प्रदत्त या आत्मप्रदत्त ही होती है किन्तु इसके लिए माध्यम तो निमित्त अर्थात् लौकिक मनुष्य के रूप में कोई व्यक्ति विशेष हो सकता है। और फिर ईश्वर तो बिना किसी माध्यम के भी जिज्ञासु की उत्कंठा होने पर प्रदान कर सकता है।

किन्तु जब इसके लिए किसी को माध्यम या निमित्त-रूप में ईश्वर के द्वारा चुना जाता है तो वह माध्यम भी केवल साक्षी ही होता है, न कि दीक्षा प्रदान करनेवाला गुरु । इसीलिए -

ईश्वरो गुरु आत्मेति मूर्तिभेदाविभागिने।। 

व्योमवद् व्याप्त देहाय दक्षिणामूर्तये नमः।। 

में ईश्वर, गुरु और आत्मा (या परमात्मा) को एकमेव अद्वितीय वास्तविकता कहा जाता है जो साक्षी की तरह तीनों ही में विद्यमान, तीनों से निरपेक्ष भी है। ईश्वर, गुरु और आत्मा उपाधियाँ हैं, जबकि यह साक्षी, कूटस्थ चेतना है।

एक रोचक तथ्य यह है कि बपतिस्मा / Baptism संस्कृत भाषा के "वपति स्म" से ही उद्भूत अपभ्रंश  / cognate  है, और कार्य तथा तात्पर्य की दृष्टि से भी  दीक्षा (Spiritual Initiationका द्योतक है।

हिन्दी भाषा में "बाप" अर्थात् "पिता" भी इससे मिलता जुलता है। 

पुनः प्रारब्ध या प्रयोजन के अनुसार दीक्षा  अज्ञात या ज्ञात रूप से भी घटित हो सकती है अर्थात् किसी व्यक्ति को उसके जानते अथवा न जानते हुए भी प्रदान की जा सकती है और इसलिए यह सौभाग्य या दुर्भाग्य भी हो सकती है, महान आध्यात्मिक उपलब्धि या विपत्ति भी हो सकती है। प्रारब्ध, व्यक्ति का अपना भाग्य, व्यामोह, आकर्षण, दुर्बुद्धि, भ्रम या अज्ञान होता है, और प्रयोजन भी इसी तरह से वैयक्तिक या ईश्वरीय / Divine भी हो सकता है। वस्तुतः तो कार्य कारण नियम के अंतर्गत इसे परिभाषित नहीं किया जा सकता है।

फिर भी इसके घटित होने की प्रक्रिया को तीन प्रकारों में समझा जा सकता है, और उन्हें क्रमशः स्पर्श, दृष्टि और  स्मृति के माध्यम से संपन्न किया जाता है।

इसे और स्पष्ट करने के लिए तीन उदाहरण दिए जाते हैं : जैसे मुर्गी अपने अण्डों पर बैठकर उन्हें सेती है। यह है स्पर्श दीक्षा का उदाहरण। इसी प्रकार से लौकिक गुरु सिर पर ब्रह्मरंध्र पर अंगुलियों या हथेली के स्पर्श से यह दीक्षा प्रदान करता है। यही स्पर्श दीक्षा माता-पिता और गुरुजनों के द्वारा भी उनके द्वारा इस प्रक्रिया को जानते या न जानते हुए भी दी जा सकती है।

दूसरा उदाहरण दृष्टि दीक्षा का है जिसके लिए मछली का उदाहरण दिया जाता है। मछली उसके अण्डों पर दृष्टि रखकर उन्हें सेती (निषेचन करती) है। इस प्रकार से भी कोई लौकिक गुरु केवल कृपा-कटाक्ष से ही अधिकारी सुपात्र को दीक्षा प्रदान कर सकता है और वह भी ज्ञात या अज्ञात रीति से संपन्न हो सकता है। 

तीसरा और अंतिम प्रकार है स्मृति-दीक्षा। इसे भृंग-कीट के उदाहरण से समझा जा सकता है। 

भृंगकीट (wasp) अपने अण्डों को बाहर से लाता है और उन पर मिट्टी का लेप कर बन्द कर देता है। कुछ समय बाद वे भृंग के रूप में विकसित होकर मिट्टी की खोल को तोड़कर बाहर निकल जाते हैं। इस बीच भृंग केवल उनकी स्मृति से ही उनका पोषण करता है।  

जब कोई मनुष्य भी इसी प्रकार जाने या बिना जाने ही उसके दीक्षा-गुरु  के संपर्क में आता है तो केवल स्मृति के ही माध्यम से दोनों परस्पर संबंधित होते हैं और उन्हें कल्पना भी नहीं होती कि वे क्यों एक दूसरे के संपर्क में आए। और वस्तुतः यह भी एक स्वाभाविक ईश्वरीय कार्य (Automatic Divine Action) ही होता है। जब कोई व्यक्ति किसी औचित्य या आवश्यकता के बिना ही संपर्क में आता है और प्रायः स्मृति में आता रहता है तो यही इस प्रकार से होनेवाली दीक्षा का प्रत्यक्ष प्रमाण है। कुछ मनुष्यों को स्वप्न में या वैसे ही किन्हीं दिव्य और अलौकिक सिद्धों, संतों या महात्माओं आदि का दर्शन होना, उनसे संवाद होना या मार्गदर्शन प्राप्त होना इसी तरह से होता है।

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यह तीन  





July 11, 2024

दो तर्क / Two Logics

Question / प्रश्न  86 :

Comparatively,

What is a strong and a What is a Weak Logic?

तुलना की दृष्टि से, अधिक शक्तिशाली और अपेक्षतया कम शक्तिशाली तर्क क्या होता है?

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मान लीजिए कि जंगल में अकेले सैर करते हुए आप एक बहुत गहरे गड्ढे में गिर जाते हैं। अब आपके सामने प्रश्न यह है कि गड्ढे से सुरक्षित बाहर कैसे निकलें? आप पूरे गड्ढे का अवलोकन करते हैं । आपको पता नहीं है कि किस तरफ से ऊपर जाया जा सकता है या आवाज देकर किसी का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया जा सकता है ताकि कोई गड्ढे से बाहर निकलने में आपकी मदद कर सके। दुर्भाग्य से थक हारकर आप निराश हो जाते हैं और समझ जाते हैं कि गड्ढे से बाहर निकल पाना आसान नहीं है। क्या तब आप इसलिए इस बारे में आगे सोच-विचार या चिन्ता करना बन्द कर देंगे?

स्पष्ट है कि आप जी जान लगाकर गड्ढे से बाहर निकलने की चेष्टा करेंगे। अब आपके मन में दूसरा और एक प्रश्न यह है कि क्या गड्ढे से बाहर निकलना जरूरी है?

"यह भी कोई सवाल हुआ?"

आप कहेंगे।

उपरोक्त दोनों प्रश्नों या तर्कों में से पहला तर्क दूसरे की अपेक्षा कम शक्तिशाली है।

यह तो एक उदाहरण हुआ। 

अब इसे आपके और आपके संसार / जीवन पर लागू करें। मान लीजिए कि आप जो भी हैं आप ही हैं, लेकिन आप अकस्मात् और बिल्कुल ही अनपेक्षित रूप से जिस संसार में हैं उसे ऐसा ही एक गड्ढा मान लें, जिसमें आप कैसे, क्यों और कब गिर पड़े आप इस बारे में कुछ भी नहीं जानते। आप तो शायद यह भी नहीं जानते होंगे कि इसे किसने बनाया है, या वाकई इसे बनानेवाला कोई है भी या नहीं है! क्योंकि अगर आप करेंगे कि इसे किसी ने तो बनाया होगा, तो सवाल होगा, तो फिर उस बनानेवाले को भी किसी ने बनाया होगा! इसे तर्कशास्त्र की भाषा में "अनवस्था दशा" कहा जाता है। अंग्रेजी भाषा में इसे --

Absurdity inherent या  Absurdium ad infinitum  या फिर, Begging the question कहा जाता होगा।

जगत् की परिवर्तनशीलता पर शायद ही संदेह किया जा सकता है। हर कोई आवश्यक रूप से यह एक मानता ही है कि जगत् या संसार हर समय बदलता ही रहता है। तो इसलिए एक तर्क या प्रश्न तो यह हुआ कि इस जगत् को, संसार या दुनिया को किसी ने बनाया होगा या यह बिना किसी के बनाए अस्तित्वमान है? जैसे हर कोई अवश्य ही यह मानता है कि यह जगत्, संसार या दुनिया सतत परिवर्तनशील है और इस मान्यता या निष्कर्ष के बारे में किसी को संदेह नहीं हो सकता, और इस प्रकार यह एक शक्तिशाली वक्तव्य या तर्क है, जबकि यह तर्क या प्रश्न कि क्या इसे किसी ने बनाया है या नहीं, अपेक्षाकृत एक  कम शक्तिशाली, कमजोर प्रश्न भी है। और इसके साथ ही यह विवादास्पद है ही, और जैसा कि पहले ही कहा भी जा चुका है।

इस विवेचना में आगे बढ़ने से पहले हम यह मान भी लें कि इस जगत्, संसार या दुनिया को किसी ने बनाया है, और वह जो (या जो कुछ) भी हो, वही इस जगत्, संसार या दुनिया की देखरेख, देखभाल या रक्षा करता है, और खासकर 'आप' की, अर्थात इस जगत्, संसार या दुनिया रूपी गड्ढे से आपको सुरक्षित बाहर निकालकर, आपकी रक्षा करेगा तो इस प्रकार का विचार कितना विश्वसनीय होगा? रक्षा से हमारा क्या अभिप्राय है? क्या आपने इस संसार में किसी को सदा के लिए सुरक्षित होते हुए देखा है? जगत्, संसार, दुनिया या जीवन में हर किसी को ही  सतत, हर दिन, अकाल्पनिक, अप्रत्याशित और नए नए संकटों का सामना करना पड़ता है। सौभाग्यवश यदि वह उनसे सुरक्षित बाहर निकलकर बच भी जाता है, तो क्या उसे इसका पता चल पाता है कि उसे किसने बचाया? या ऐसा संयोगवश ही होता है? क्या हम नहीं देखते कितने लोग दुर्घटनाओं, रोगों और विकट परिस्थितियों में फँस जाया करते हैं और क्या कोई उनकी रक्षा करता भी है, या नहीं! पुनः प्रश्न उठता है -

"रक्षा" से हमारा क्या अभिप्राय है? 

क्या इसका अभिप्राय यह हो सकता है कि मृत्यु के बाद मृतक को सद्गति या स्वर्ग की प्राप्ति होगी? जहाँ अपने उस उद्धारकर्ता / savior  की शरण में आमोद प्रमोद करता हुआ अनंत काल तक सुरक्षित रहेगा!

उद्धार होना, सुरक्षित होना, क्या यह मान्यता, असुरक्षा की भावना से उत्पन्न भय का ही परिणाम नहीं है? स्वयं को संकटों में न पड़ने देना तो अवश्य ही हर किसी के जीवन की एक  सहज-स्फूर्त प्रेरणा और गतिविधि होती है और तदनुसार प्राणिमात्र ही अपनी रक्षा करने में प्रवृत्त होता ही है। यह परिस्थितियों से सामञ्जस्य करने का ही एक प्रकार है। किन्तु अपनी मृत्यु के बाद के उद्धार होने और किसी उद्धारकर्ता की कल्पना करना तो मानसिक और व्यर्थ की चेष्टा है। फिर भी दुनिया भर में प्रायः बहुत से लोग अपने उद्धार होने और ऐसे किसी उद्धारकर्ता के अस्तित्वमान होने का दृढ आग्रह करते हैं। वे इसके लिए न सिर्फ अपने प्राण देने तक के लिए सहर्ष तैयार होते हैं, बल्कि दूसरे के प्राण लेकर भी उन्हें अपना उद्धार होने की आशा होती है, और इसलिए वे दूसरों के प्राण भी उत्कट उत्साह और जोश से भरकर ले लेते हैं।

संयोग से अभी अभी ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक निर्णय के बारे में ज्ञात हुआ जिसके अनुसार भय से या लालच से किसी को धर्मान्तरण करने के लिए प्रेरित करना अपराध है। यद्यपि अपने धर्म का पालन और प्रचार करना भी हर किसी का अधिकार हो सकता है, किन्तु लालच, भय आदि का दबाव डालकर किसी को इसके लिए राजी कराना और उसका धर्मान्तरण कराना वैधानिक दृष्टि से आपराधिक कृत्य है।

इस सन्दर्भ में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय  पाँच में कहा गया है :

न कर्तृत्वं न कर्माणि

लोकस्य सृजति प्रभुः।।

न च कर्मफलसंयोगं

स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं

सुकृतं चैव न विभुः।। 

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं

तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं

येषां नाशितं आत्मनः।।  

तेषां आदित्यवज्ज्ञानं

प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

तात्पर्य यह कि यदि इस जगत्, संसार या दुनिया का बनानेवाला कोई है भी, तो वह न तो किसी का उद्धार करता है, और न ही किसी की रक्षा करता है।

यह जगत्, संसार या दुनिया स्वभाव या स्वप्रकृति से परिचालित होती है और इस पर किसी का कोई वश नहीं है।

ईश्वर है या नहीं, उसने दुनिया बनाई या नहीं इस बारे में तर्क वितर्क करना एक अपेक्षाकृत कम शक्तिशाली तर्क हुआ। इसकी तुलना में गीता के अध्याय 5 के उपरोक्त श्लोक शक्तिशाली तर्क हैं ऐसा कहा जा सकता है।  

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July 10, 2024

85. जन्म, मृत्यु और जीवन

Question प्रश्न 85

What is Birth, Death and Life?

What is Knowledge, Wisdom and Liberation? 

जन्म, मृत्यु और जीवन क्या है?

ज्ञान, प्रज्ञा और मुक्ति क्या है?

यावज्जीवेत्सुखं जीवेत्।। 

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Answer /  उत्तर :

संस्कृत "जि" धातु का प्रयोग पर्याय से जि > जयति और जि > जीवति के अर्थ में होता है। जि+इव से उपपन्न "जीव" किसी माता पिता से उत्पन्न संतान प्राणी है।

माता पिता में यह कामवृत्ति के रूप में अपने जन्म से भी पूर्व विद्यमान होता है। स्त्री प्रकृति है और पुरुष आत्मा। इस प्रकार पिता से ही प्राणी में आत्मा अभिव्यक्त होती है। यही अहंकार जीव का पर्याय है।

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्।।

यहाँ प्रकृति ही महत् ब्रह्म और परमात्मा ही उस गर्भ में  जीवरूपी बीज को जीवन प्रदान करता है। जबकि माता से उसे जन्म प्राप्त होता है। 

इस प्रकार, जीव अहंकार या अहं-वृत्ति है जो पुनः पुनः एक ही शरीर में, या एक के समाप्त या नष्ट हो जाने पर दूसरे नए शरीर में जन्म ग्रहण करती है। जैसे घट में रखा जल स्थिर होने से उसमें कोई वृत्ति / तरंग नहीं दिखाई देती है किन्तु थोड़ा भी हिलते ही अप्रकट से प्रकट रूप ले लेता है, जीवन इसी प्रकार नित्य विद्यमान तत्व है जो एक ही या एक से अधिक क्रमिक या अनेक शरीरों में व्यक्त और अव्यक्त होता रहता है। इस प्रकार एकमेव आत्मा ही परमात्मा अर्थात् जगत्पिता, प्रकृतिरूपी माता और जगत् रूपी संतान की विभिन्न भूमिकाओं में कार्य करता है। वही जीवन की तरह स्वयं ही स्वयं में व्याप्त होता है।

अनेक और असंख्य शरीरों में वह पृथक् पृथक् भी दिखलाई पड़ता है और स्वयं ही  ही अपने असंख्य रूपों को देखा भी करता है। उसके आश्रय से, प्रत्येक जीव अपनी स्वतंत्र, आभासी और पृथक् सत्ता कल्पित कर लेता है और यही व्यक्तिगत अहंकार है। अहंकार ही शरीर विशेष में अपना जन्म होने और उस शरीर के समाप्त होने पर अपनी मृत्यु हो जाने को सत्य मानकर शरीर के सुखों दुःखों, चिन्ताओं आदि से प्रसन्न या व्याकुल होता रहता है। शरीर के समाप्त हो जाने पर उसके परिजन उनके अपने मत-विश्वासों के अनुसार उसका अंतिम संस्कार कर देते हैं। वे उसके शरीर का दहन कर देते हैं या उसे दफ़ना देते हैं। रोचक तथ्य यह है कि अर्थ / उच्चारण की दृष्टि से अरबी / फ़ारसी का "दफ़न" शब्द संस्कृत भाषा के "दहन" से व्युत्पन्न, या अपभ्रंश cognate हो सकता है। और चूँकि दोनों शब्द अंतिम संस्कार के ही सूचक हैं। जो भी हो, यह तो मानना ही पड़ेगा कि अंतिम संस्कार, इसी उद्देश्य से किया जाता है जिससे मृत्यु के बाद दिवंगत आत्मा की सद्गति हो। इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण प्राप्त होना कठिन है कि मृत्यु के बाद जीवात्मा किस गति को प्राप्त करता है, परन्तु गरुड़-पुराण और कठोपनिषद् में प्राप्त वर्णन के अनुसार जीव या जीवात्मा अपने शुभ अथवा अशुभ कर्मों के फल भोगने हेतु क्रमशः स्वर्ग-नरक आदि लोकों को प्राप्त करता है।

सनातन धर्म के अनुयायी शायद मृतकों का इसलिए दाह संस्कार करते हैं ताकि जीवात्मा अपने मृत शरीर को पञ्चतत्वों में विलीन होते हुए देखकर स्वयं अपने आपके मृत्यु से रहित होने के तथ्य को जान ले। यह ज्ञान कोई बौद्धिक मत, धारणा या जानकारी न होकर प्रत्यक्ष अनुभव का ही विषय है, और उसी प्रकार से जाना जाता है।

पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद  के अनुसार :

भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम्।।१९।।

श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्।।२०।।

स्पष्ट है कि "भवप्रत्यय" मृत्यु के बाद प्राप्त "पुनः" होनेवाली स्थिति का द्योतक है। और इस स्थिति में दिवंगत मनुष्य कुछ काल तक अपने शुभ-अशुभ कर्मों के फल स्वर्ग या नरक में भोगता है और फिर  उसके बाद पुनः मनुष्य के रूप में मृत्युलोक में एक शरीर विशेष में उसका जन्म या आविर्भाव होता है। या अन्यत्र प्राप्त वर्णन के अनुसार वह तिर्यक् योनि में पैदा होता है जिसमें कि अनिश्चित काल तक सूक्ष्म रूप में देव, पितर, यक्ष, गंधर्व, नाग, किंनर आदि की तरह से बना रह सकता है। यह प्रेत-योनि से भिन्न है। नास्तिक से भिन्न दूसरे सभी मत चूँकि ऐसी आत्माओं के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। प्रेत योनि को प्राप्त होनेवाले किसी मृतक की क्या गति होती होगी यह स्पष्ट नहीं है।

किन्तु तिर्यक् योनि देव योनि व मनुष्य योनि के मध्य एक तल है जिसमें स्थित आत्माएँ मनुष्यों से और देवताओं से भी संपर्क कर सकती हैं। और इन्हें सिद्ध भी कह सकते हैं, जबकि सिद्ध का एक तात्पर्य केवल साँख्य / ज्ञान के माध्यम से कैवल्य ज्ञान प्राप्त "सिद्ध" भी होता है। जैसा कि गीता में कहा गया है :

 सिद्धानां कपिलो मुनिः।।

पुनः उस तरंग या अहं-वृत्ति के बारे में जो अहं (अर्थात् आत्मा) से उठने और पुनः पुनः उसमें ही लौट जानेवाली वृत्ति है जो जीव की पहचान है। समाधि में यह वृत्ति कुछ समय के लिए विलीन हो जाती है और मृत्यु में सदैव के लिए शरीर को त्याग देती है। इसलिए आयुर्वेद में भी समाधि शब्द का प्रयोग मृत्यु के अर्थ में भी किया जाता है। समाधियाँ कई प्रकार की होती हैं जिनमें निर्विकल्प समाधि को अंतिम माना जाता है। यह भी पुनः दो प्रकारों की "केवल निर्विकल्प" और "सहज निर्विकल्प" कही जाती है। योगाभ्यास करते हुए "केवल निर्विकल्प" तक पहुँचा जा सकता है, और साँख्य योग से आत्मानुसंधान करता हुआ जिज्ञासु "सहज निर्विकल्प" का साक्षात्कार भी कर लेता है।  

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July 07, 2024

84 विचार, विश्वास और विवेक

Question  /  प्रश्न 84 :

What is Destiny, Thought (noun and verb), Belief (idea / concept) and the Discrimination?

And, What is the Fate / whatever that happens / the Event?

प्रश्न : नियति, विचार (संज्ञापद और कर्मपद तथा क्रियापद), विश्वास और विवेक क्या है?

और प्रारब्ध क्या है? 

Answer   /  उत्तर :

Scaler / अदिश and और Vector /  सदिश :

मात्रा Quantum, quantity

बल Force, और 

वेग Velocity.

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A Scaler quantity (अदिश राशि) is the value of quantum (मात्रा)  and is independent of  direction, while vector / (सदिश राशि) has a direction. An example of this is :

Speed and velocity.

We can say that a car is moving with the speed of 60 km per hour, when there is no direction has been mentioned.

We can likewise say the speed of light or sound is a particular fixed quantity. 

But when we talk about its direction, the speed is considered in terms of velocity : northwards or eastwards, towards or from a direction.

It's implied that there is energy involved in this movement of an object.

The Force (बल) is the action exerted and applied onto the object.

This is the Physics of Matter, Mass and Energy.

This is verily the Physical Science.

The same principle could be helpful in  understanding the Physics of Mind too because Matter and Mind both of the two are the aspects of the Known while the knowing is the consciousness where-in this phenomenon takes place.

Basically the perception that is an event is a non-verbal aspect of phenomenon.

The verbal aspect of an event is only the description in the form of Thought as a noun and also as a verb.

A noun is independent of Time, a verb is essentially with reference to Time.

Thought is a perceptible event either as a noun or as a verb in assumed Time.

The Knowing though is independent of Thought and Time, it's with or without Thought.

Is there something / someone, a Knower that could said to exist and be apart and different from Thought and at the same  time other than and from Knowing?

Isn't this assumed Knower again only an unquestioned, Unexamined idea or a  concept only that too is Known in and because of consciousness where there is no division of object and subject exists.

Only from and out of the consciousness arises the experience / perception of an object and according to the multiplicity of perceived objects, a subject appears to have existence and is accepted as the self.

The phenomenon of emergence of many verbal thoughts depends on so many words, and a language how-so-ever primitive or a developed one. 

This phenomenal Thought, the memory, the information is knowledge.

The memory of the self and the multiple objects constitutes an imaginary, and so an assumed world of the self or oneself. 

Every individual has one's own such an objective world independent of all such so many worlds of all the so many other  individuals.

Once came into existence, the superficial idea of this self at once assumes as the core truth and the only Reality.

This self, the individual strung upon the memory assumes continuity of the world and oneself, though changing, it remaines fixed as well.

After the arrival of the verbal thoughts, this becomes a firm and strong ground for the belief - a set of so many thoughts and ideas all the time giving rise to what is called concepts.

Concepts then carve out a religion where it needs repeated affirmations always.

Accordingly a Faith gets divided into so many factions though looks as if it is one and whole a Single Reality.

The Single Reality though One, survives with the help of the middlemen who try to explain and interpret the Book that is again a compilation of words only.

This is how Thought, Belief and Faith rule over the minds of men.

Thought is the Energy, Belief is the Force and Faith is the Speed with or without a direction. With Direction, it is called a Religion.

An altogether different movement in the consciousness  / at the individual level of the man and at the collective level of the human Mind, however goes on in the abeyance where nothing happens.

No event, no happening, no conflict, nor thought, idea, no belief nor Faith, beyond Time. This may be called the Awareness or the Attention.

Attention and consciousness together are two aspects of Reality. Either of them isn't found in the absence of the other.

With the emergence of Discrimination / (विवेक) an altogether new understanding emerges out and in the light of this new revelation is the ending of all conflict. 

Summarily, in a nutshell this may be the Answer to the Question 84.

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July 03, 2024

सदानीरा सरिता

कविता / 03 जुलाई 2024

इस पावस में!!

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बस, कि कुछ लिखते रहो

ब्लॉग पर दिखते रहो!

सदानीरा सरिता जैसे,

सदा तुम बहते रहो!

हाँ ये सरिता भी कभी, 

सागर में मिल ही जाना है, 

नाम गुम ही जाना है, 

चेहरा भी बदल जाना है,

भाप बनकर गगन में,

बादल बन जाना है,

लौटकर पावस बून्दों को, 

धरती पर ही आना है!

ध्वंस का उल्लास अपने, 

ब्लॉग में कहते रहो, 

सदानीरा सरिता जैसे,

सदा तुम बहते रहो!

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July 02, 2024

83 धर्म और रिलीजन

Question / प्रश्न 83

What is the relation / the difference between  Dharma and the Religion?

धर्म और रिलीजन के बीच क्या संबंध / भिन्नता है?

Answer / उत्तर :

The difference between the Dharma and the Religion could be best explained and understood by the following stanza of Chapter 4 in the Shrimadbhagvad-gita :

धर्म और रिलीजन के बीच जो भिन्नता है उसकी  व्याख्या करने के लिए और उसे समझने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ४ का निम्नलिखित श्लोक पर्याप्त और पूर्ण है :

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।।

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।१७।।

जिसे अंग्रेजी भाषा में रिलीजन कहा जाता है वह वस्तुतः और तत्वतः "कर्म" का ही नाम है। कर्ममात्र शुभ, अशुभ और मिश्रित हो सकता है जबकि धर्म प्रकृति का नित्य शुद्ध स्वभाव या गतिविधि होता है। उपरोक्त श्लोक के संदर्भ में मनुष्य का कर्म आचरण है। यद्यपि उपनिषद् में कहा जाता है :

सत्यं वद। धर्मं चर।

आचरण स्वभाव / धर्म के अनुरूप, उससे विपरीत या भिन्न हो सकता है। ऐसा आचरण ही कर्म, विकर्म और अकर्म का रूप ग्रहण कर सकता है। इसीलिए भिन्न भिन्न रिलीजन्स का पालन करनेवाले धर्म के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ, श्रद्धा से रहित और उस विषय में संशयग्रस्त होते हैं, और किसी प्रकार के बौद्धिक या वैचारिक सिद्धांत को स्मरण रख उस पर आचरण करने का अभ्यास करते हैं।

अध्याय १२ के निम्न श्लोक के अनुसार :

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।

किन्तु उपनिषद् की शिक्षाओं पर आचरण करने के लिए धर्म को तत्वतः जान लिया जाना आवश्यक है। यह जानना अनुसन्धान का विषय है न कि शाब्दिक विचार या सिद्धान्त।

धर्म के तत्व को तीन स्तरों पर जाना जाता है :

आधिभौतिक अर्थात् स्थूल विज्ञान पर आधारित पदार्थ और विषयपरक ज्ञान जिसे Science कहा जाता है, और जो हमेशा विषय-परक  Objective  होता है। 

आधिदैविक अर्थात् मन और भिन्न भिन्न चेतन तत्वों, बुद्धि, संवेदनशीलता, भावनाओं, स्मृति, चित्त और अहंकार नामक देवताओं से संबंधित ज्ञान जो सदा आत्म-परक Subjective होता है। 

किन्तु उपरोक्त दोनों ही प्रकार के धर्मों के ज्ञान का अधिष्ठान चेतनता / चेतना  consciousness  ही  है जो न तो केवल विषय-परक हो सकती है, और न ही केवल आत्म-परक । चेतना सदैव विषय-विषयी के रूप में होती है। जब तक ज्ञाता, और ज्ञेय होता है तब तक उस प्रकार का ज्ञान द्वैतपरक ज्ञान होता है। विषय-परक और आत्म-परक समस्त ज्ञान ऐसा ही होता है क्योंकि इसमें ध्यान, ध्याता और ध्येय-रूपी त्रिपुटी आवश्यक रूप से होती ही है। ध्यान अर्थात् attention  जिसमें ध्यान विषय और विषयी की तरह इन दोनों दिशाओं में कार्यरत होता है। इस तरह के ध्यान में चित्त अनेक बाह्य विषयों में से किसी न किसी विषय पर संलग्न होता है, जब अपने आपका विस्मरण भी नहीं होता, इसलिए चित्त "मैं" या स्वयं अर्थात् विषयी पर पुनः पुनः लौटता ही रहता है। विषयों से चित्त का संलग्न होना ही चित्तवृत्ति अथवा केवल "वृत्ति" भी कहा जाता है।

अध्याय २ -

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।।

सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोपजायते।।६२।।

क्रोधात्भवति सम्मोहः सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः।।

स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।६३।।

किसी भी कर्म का आचरण वृत्ति में परिणत होता है और विलोम-क्रम से यह भी कहा जा सकता है कि वृत्ति विशेष के उत्पन्न होते ही किसी कर्म-विशेष को करने की प्रवृत्ति का जन्म होता है। और इस पूरी गतिविधि में "मैं" अर्थात् अहंकार / अपने स्वयं के अस्तित्वमान होने की भावना, अप्रकटतः व्यक्त या अव्यक्त रूप से उपस्थित होती ही है। "मैं"  विषयी होता है, और ध्यान / चित्त जिस पर संलग्न होता है, उसे विषय कहते हैं।

महर्षि पतञ्जलिकृत योगदर्शन में प्रारंभ में ही वृत्ति के निरोध को ही "योग" कहा गया है। और वृत्तिमात्र के पाँच प्रकारों को --

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।। 

के रूप में स्पष्ट किया जाता है।

जहाँ 

प्रत्यक्षानुमानागमाः 

-प्रमाणरूपी वृत्ति है, 

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।

अभाव-प्रत्यययालम्बना वृत्तिः निद्रा।।

अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः।। 

क्रमशः विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति रूपी वृत्तियाँ हैं।

इन पाँचों ही प्रकारों में विषय-विषयी रूपी द्वैतपरक दशा होती ही है। किन्तु वृत्तिमात्र के निरोध का अर्थ हुआ विषयमात्र से रहित केवल विषयी का होना।  जिसे द्रष्टा कहा जाता है --

तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।। 

वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।

द्रष्टा का ज्ञान ही आध्यात्मिक धर्म है।

द्रष्टा नित्य अक्रिय और अविकारी है, जबकि वृत्ति सतत परिवर्तित, विकारशील है। विषय अनित्य है। वृत्ति विषय और विषयी के बीच की स्थिति है। इस प्रकार विषय, वृत्ति और आत्मा तीनों के स्वाभाविक धर्मों को क्रमशः आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक कहा जाता है। इन सबको समष्टि धर्म भी कह सकते हैं। 

कर्म या Religion केवल कर्ता, कारण और कार्य की मान्यता पर आधारित कल्पना है।

अध्याय ५ के अनुसार :

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।।

न तु कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः।।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः।। 

तेषां आदित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

प्रभु अर्थात् स्वामी या ईश्वर, 

विभु अर्थात् व्यक्त जीव,

एक ही चेतना उपाधि के अनुसार प्रभु और विभु है। 

इसलिए कर्म, कर्तृत्व, तथा कर्ता ईश्वरसृजित वस्तु नहीं बल्कि अज्ञान से उत्पन्न हुई एक भ्रान्ति मात्र है, जिसका अधिष्ठान चेतना ही है 

अध्याय १८ के अनुसार :

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।।

भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्।।१२।।

पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।।

साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्माणाम्।।१३।। 

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।।

 विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।

कर्म और कर्मफल का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हो सकता। और इसी प्रकार न कर्ता, करण और पृथक् चेष्टाओं का, वे सब किसी वास्तविक अधिष्ठान द्रष्टा के ही आश्रित हैं जो कल्पित नहीं है, किन्तु जिसमें और जिससे कल्पना आकृति ग्रहण करती है और पुनः उसमें ही विलीन हो जाती है।

Accordingly :

Dharma is Nature, while Religion is the action or Karma. Religions are therefore a plenty while Dharma is always the Only One Unique and is to be discovered and followed but never to be "practised". Because whatever is practiced and by who-so-ever is in appearance only. So really there is no clash or conflict between the two. However there is inevitably, always such a difference and conflict, clash and disputes between various and so many Religions of many kinds in the world. 

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