January 31, 2023

मैं, तन-मन और जीवन

क वि ता  / 31-01-2023

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यह जो मेरा मन है, 

उससे मेरी अनबन है! 

यह जो मेरा तन है,

वह तो मेरा दुश्मन है!

मैं और जीवन क्या है,

दोनों को पता नहीं है, 

साँठ-गाँठ दोनों की ऐसी, 

व्याकुल सबका जीवन है!

यह दोनों जो हैं सबमें,

इक दूजे के बन्धन हैं, 

यह जो है उन दोनों में,

यह मैं ही तो जीवन है!

तन, है मिट्टी पानी आकाश,

मन है अगन, वायु है साँस,

इसमें ही सबको रहना है, 

इस घर में सबका है निवास,

घर तो आख़िर घर ही है, 

दुनिया लेकिन बाहर ही है, 

सब कुछ सबमें, सब सर्वत्र, 

लेकिन जीवन सर्वस्व ही है!

यह जो अपना ही  जीवन है,

यह जो सबका ही जीवन है, 

तन मन सबके अलग अलग हैं, 

पर एक सभी का जीवन है! 

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January 30, 2023

अज्ञान का अज्ञान

पता नहीं है, यह भी पता न होना! 
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भगवान् श्री रमण महर्षि द्वारा रचित सद्दर्शनम् का एक श्लोक : 
विद्या कथं भाति न चेदविद्या
विद्यां विना किं प्रविभात्यविद्या।। 
द्वयं च कस्येति विचार्य मूलं
स्वरूपनिष्ठा परमार्थ विद्या।।१२।।
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An ignorant one is ignorant of his ignorance too.
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If ignorance were not, how can knowledge be? And, If knowledge were not, how can ignorance be? Searching close the source of both, settled State there is knowledge true. 
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अज्ञानी को यह भी नहीं पता होता है कि वह अज्ञानी है। जब किसी को समझ में आता है कि मैं अज्ञानी हूँ, तो इस प्रकार की समझ होने पर ही उसका ध्यान इस ओर जाता है। अज्ञान का बोध भी ज्ञान ही है, जिसमें अपने अज्ञान का पता होता है। इस प्रकार का अज्ञान और ज्ञान जिस निज हृदय / चेतना में होता है, उस अपने स्वरूप की नित्यता और निजता को खोज लेना और वहीं निमग्न हो रहना परमार्थ निष्ठा है।
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श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार :
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परंतप।।२७।।
(अध्याय ७)
अर्थात् सभी भूतप्राणी जिसका भी जन्म हुआ है, जन्म से ही मोहबुद्धि से युक्त होता है इसलिए उसमें इच्छा और द्वेष दोनों ही जन्म से ही विद्यमान होते हैं।
इस मोहबुद्धि से ही प्रत्येक मनुष्य मूढ की तरह होता है। मूढ का तात्पर्य है पशु की तरह की बुद्धि से युक्त। लौकिक, व्यावहारिक शिक्षा प्राप्त करने पर भी वह संस्कारों से प्रेरित होने के कारण सभ्य भी अवश्य हो जाता है किन्तु फिर भी, संसार और उसके विषयों की अनित्यता को न देख पाने के फलस्वरूप उन विषयों में प्रतीत हो रहे सुखों के पीछे भागते हुए किसी मूढ की तरह ही आचरण करता है। अर्थात् वह पशु की तरह मूढ न होते हुए भी, यद्यपि विचार कर सकने के योग्य भी हो जाता है किन्तु अनित्य विषयों और उनके ऐसे ही अनित्य भोगों और इन विविध भोगों का जिन इन्द्रियों और शरीर के माध्यम से उपभोग किया जाता है, उनके अनित्य और क्षणिक होने के तथ्य से अपनी आँखें मूँद लेता है। इसलिए उसे मूढ न कहकर मूर्ख कहा जाता है। उसका ध्यान जब अपनी इस मूर्खता पर जाता है तो उसे अपने अज्ञानी होने का पता चलता है। तब वह विद्वान तो हो जाता है किन्तु उसकी बुद्धि वैचारिक ऊहापोह में ही फँसी रहती है। किन्तु जब नित्य और अनित्य क्या है इस पर वह ध्यान देता है, तब विवेक की प्राप्ति उसे होती है, जिससे उसके मन में संसार से वैराग्य पैदा हो जाता है। नित्य वस्तु के स्वरूप को जानने की उत्कंठा से ही अंततः वह उस नित्य वस्तु को अपनी चेतन आत्मा की तरह अत्यन्त निज की तरह से जान लेता है। तब वह स्थितधीः जिसकी बुद्धि स्थिर है, ऐसा हो जाता है। इस बुद्धि को ही यहाँ स्वरूपनिष्ठा अर्थात् परमार्थ विद्या कहा है। 
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January 27, 2023

मेरे भी घर में!

कविता / 27-01-2023

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पड़ गई हैं दीवारों पर भी, दरारें बहुत सी,

मेरे भी घर में और बाहर सड़कों पर भी।

अभी चार बरस पहले तक सब नया था, 

सड़कें, नालियाँ, छत, सभी कुछ नया था।

उत्साह भी नया था, उम्मीदें भी नयी थीं, 

पर इन चार बरसों में दरक गई है धरती, 

सड़कें पर बहुत सी लंबी दरारें पड़ गई हैं,

दो बरसों तक तो उनमें घास भी उगती रही, 

इस बरस और भी अधिक गहरी हो गई हैं!

पास के स्कूल में कल ही मनाया गया था, 

गणतंत्र दिवस, आनन्द उत्सव भी साथ में!

पर इन चार बरसों में दरक गई है धरती!

पड़ गई हैं दीवारों पर भी, दरारें बहुत सी!

मोबाइल से मैं तस्वीर लेता हूँ जब उनकी,

तो कोई चेहरा उभरता है उन तस्वीरों में, 

पता नहीं किसका है, यह अजनबी चेहरा!

वर्तमान, भविष्य का, मेरा या किसी और का!

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January 22, 2023

क्या संसार कविता / काव्य है?

कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू ...

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ईशावास्योपनिषद्  मंत्र ८

Truth can not be exact.

Krishnamurti's Notebook

(Gstaad,  Switzerland July 15 1961)

श्री जे. कृष्णमूर्ति की नोटबुक का अनुवाद करते समय उपरोक्त पंक्ति में 'exact' के लिए हिन्दी में कौन सा शब्द उपयुक्त होगा यह सोचते हुए मन में एक शब्द कौंधा :

'याथातथ्यतः'

इस शब्द का प्रयोग उस अनुवाद में शायद मैंने किया भी होगा, किन्तु वह शब्द उन लोगों की दृष्टि में 'गरिष्ठ' था जो मेरे अनुवाद के कार्य को प्रकाशित करने से पहले सरल भाषा प्रयोग करने पर जोर देते थे। चूँकि उनके इस मत से मैं पूरी तरह सहमत था कि श्री कृष्णमूर्ति के साहित्य के अनुवाद का कार्य अत्यन्त ही और पूरी सावधानी से किया जाना चाहिए, इसलिए मैंने अपना कार्य पूर्ण कर उन्हें पाण्डुलिपि सौंप दी ताकि वे उनके विवेक के अनुसार उसे संशोधित, स्वीकृत, अस्वीकृत प्रकाशित करें या न करें, या अनिश्चित समय के लिए विचाराधीन बनाए रखें। मेरा न तो कोई आग्रह था न आग्रह करने का मेरा कोई अधिकार ही था क्योंकि यह कार्य मैंने स्वयं ही करना चाहा था, और इसे करने के लिए किसी ने मुझसे कहा भी नहीं था।

अब, "याथातथ्यतः" :

इस पोस्ट के उप-शीर्षक का प्रयोग ईशावास्योपनिषद् के मंत्र ८ में इस प्रकार से किया गया है :

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रण-

मस्नाविर्ँ शुद्धमपापविद्धम्। 

कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूर्याथातथ्यतो-

ऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।।८।।

सः परि-अगात् शुक्रं अकायं अव्रणं अस्नाविरं शुद्धं-अपापविद्धं। कविः मनीषी परिभूः स्वयंभूः याथातथ्यतः अर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः।। 

One Who alone pervades within and also the without, Self-Resplendent, is not organism like a living body, has no blemish, abscess, hurt, defect, sore, injury or hurt, is without nervous activity, is Pure, ever so untouched by the sin.

Poet (कवि - सर्वत्र व्याप्त) Intelligent (मनीषा - मनसः ईश:) - is the Lord of the mind, is everywhere and beyond, An Expression of  Himself and on His own, One Who holds for all the times the Exact meaning / essence.

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वस्तु, विषय, विचार, व्यक्ति

और संबंध ... 

First The Poetry 

The Impulse! 

I Am But The Pulse, 

That Pulsates Within Me, 

Like A Throb Timelessly.

Thriving In The Form Of The World, 

That Is Me But Looks Like Mine, 

As If I'm Having A Role Dual!

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अभी अभी जब मैंने ये पंक्तियाँ बस लिखी ही थीं, कि किसी ने मुझसे कहा :

भगवान्! संसार आपके लिए कविता / काव्य है।

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इस पोस्ट में बहुत कुछ लिखने का मन था, लेकिन वह सब फिर कभी!

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January 17, 2023

तो मैं क्या करूँ?

श्रेयस्, कर्मनिष्ठा और ज्ञाननिष्ठा

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शास्त्रों और तथाकथित धर्मों, दर्शनों और परंपराओं के बीच में फँसे हुए मनुष्य के सामने प्रायः यह प्रश्न :

"तो मैं क्या करूँ?"

प्रायः आता ही रहता है।

और सामान्य मनुष्य का ध्यान इस तथ्य पर कभी जाता ही नहीं कि कर्म किसके द्वारा किए जाते हैं!

जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है :

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।।

विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।१४।।

शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।।

न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।१५।।

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।।

पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।।१६।।

(अध्याय १८)

और यह समझना वास्तव में बहुत कठिन भी है कि "मैं" किसी भी कर्म का कर्ता नहीं हो सकता। किन्तु फिर भी, अत्यन्त अल्प बुद्धि मनुष्य के लिए भी सरल तरीका यही है कि नित्य-अनित्य के भेद पर वह ध्यान दे, और इसे समझने का प्रयत्न करे। इस प्रकार उसे करने के लिए एक कार्य भी मिल जाता है। वेदान्त के शास्त्रों में सर्वप्रथम इसकी ही शिक्षा पर बल दिया जाता है :

आदौ नित्यानित्यवस्तुविवेकः परिगण्यते।

इहामुत्रफलभोगविरागस्तदनन्तरम्।

शमादिषट्कसम्पत्तिर्मुमुक्षत्वमिति स्फुटम्।।१९।।

(श्री शङ्कराचार्य कृत विवेकचूडामणि)

इस अभ्यास से :

"मैं क्या करूँ?"

यह प्रश्न स्वयं ही अनावश्यक और अप्रासंगिक हो जाता है। जैसे जैसे समस्त दृश्य देखे सुने गए विषयों की अनित्यता पर अपना ध्यान जाने लगता है वैसे वैसे मन / चित्त का उन विषयों के प्रति लगाव भी क्रमशः कम होने लगता है। विशेष बात यह है कि यह अभ्यास किसी भी परिस्थिति में किया जा सकता है। अभ्यास के दृढ हो जाने पर अपने विचार, स्मृतियाँ, भावनाएँ, चिन्ताएँ आदि भी क्रमशः अनित्य प्रतीत होने लगते हैं, जो कि सर्वाधिक वाँछित है।

अन्ततः मनुष्य का ध्यान इस पर जाता है कि चेतना ही एकमात्र नित्य वस्तु है और चेतना ही उसका स्वरूप अर्थात् निज आत्मा भी है।

किन्तु यह कोई वैचारिक प्रक्रिया या बौद्धिक निष्कर्ष न होकर उसका प्रत्यक्ष बोध होता है।

सत्य की उपलब्धि का यह सरल उपाय है। 

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January 14, 2023

उठता-धँसता हिमालय

जोशीमठ

पिछले दो सप्ताह में जोशीमठ 9.4 सेंटीमीटर धँस चुका है और वहाँ स्थित सभी इमारतें धीरे धीरे धरती के भीतर उतर रही हैं। हिमालय की ऊँचाई पिछले कुछ वर्षों में कुछ सेंटीमीटर बढ़ गई है। जैसा कि मैंने अभी हिन्दुस्तान टाइम्स की खबरों में नेट पर पढ़ा। सभी भू-वैज्ञानिक जानते हैं कि हिमालय भूकम्प-सक्रिय क्षेत्र है अर्थात् वहाँ धरती के नीचे स्थित टेक्टोनिक प्लेट्स अभी सुस्थिर नहीं हुई हैं। और इसलिए हिमालय के इस क्षेत्र में विशेष रूप से जहाँ जोशीमठ है, और पूरे हिमालय-क्षेत्र में किसी भी प्रकार का निर्माण-कार्य नहीं किया जाना चाहिए। भारतवर्ष में, सदियों से यात्रा करने की यह परंपरा ही रही है कि वह तीर्थाटन के उद्देश्य से की जाती रही है। अब यात्राएँ टूरिज्म या एड्वेंचर-टूरिज्म के रूप में की जाने लगी हैं। सभी तीर्थस्थलों पर उन्नति और टूरिज्म को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से व्यावसायिक स्तर पर सड़कें और भवन, होटलें और सर्वसुविधाओं से युक्त स्थान निर्मित और विकसित किए जा रहे हैं, अब विभिन्न तीर्थस्थानों की यात्रा करना बहुत आसान हो गया है सुदूर और दुर्गम स्थानों तक सुविधाओं का विस्तार और जाल फैला हुआ है और किसी स्थान की यात्रा अब अधिकतर पर्यटन और मनोरंजन के उद्देश्य से ही की जाती है, न कि धार्मिक या आध्यात्मिक प्रेरणाओं के कारण। इस प्रकार की यात्राओं को करनेवाले लोगों का विश्वास और आस्था भी उन्हीं टेक्टोनिक प्लेट्स की तरह अस्थिर होते हैं जो कि हिमालय की धरती की गहराई में स्थित हैं। बहुत पहले तीर्थयात्राएँ अनेक कष्ट उठाकर की जाती थीं, जिनमें उन कष्टों को सहन करने को तप ही माना जाता था। किन्तु अब तप की यह भावना ही हमारी दृष्टि से ओझल हो चुकी है और हम किसी तीर्थ की यात्रा यदि करते भी हैं तो इसीलिए ताकि उसका प्रचार कर गौरव का अनुभव करें। इससे पुण्य मिलता है या नहीं, यह तो अपनी अपनी मान्यता और विश्वास है, किन्तु हमें यह सन्तोष अवश्य हो जाता है कि हमारा एक महत्वपूर्ण कार्य पूरा हो गया।किन्तु यह प्रश्न तो फिर भी अनुत्तरित ही रहा कि हम इसके लिए जो मूल्य दे रहे हैं वह कहाँ तक उचित है? प्रकृति की व्यवस्था और कार्य में हस्तक्षेप किया जाना कहाँ तक उचित है। इस प्रश्न की उपेक्षा यदि की जाती है तो इसके परिणामों से बचा भी नहीं जा सकता।

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January 13, 2023

धर्म का ज्ञान

... और ज्ञान का धर्म ! मार्ग नहीं, -उपाय!
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धर्म क्या है? इस प्रश्न का सरल उत्तर यह हो सकता है कि जिस किसी भी स्वाभाविक प्रवृत्ति से प्रेरित होकर कोई भी कर्म किया जाता है वह स्वाभाविक प्रवृत्ति ही मूलतः हर किसी का धर्म है।
परिस्थितियों के बदलने से वह प्रवृत्ति नहीं बदलती यद्यपि समय समय पर परिस्थितियों के अनुसार किया जानेवाला कोई कर्म या कार्य अवश्य ही बदलते रहते हैं।
इसलिए शरीर का, इन्द्रियों का, प्राणों का, भावनाओं का, एवं स्मृति तथा बुद्धि का कार्य यद्यपि सतत बदलता रहता है, किन्तु उनका धर्म या स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं बदलती और न बदल ही सकती है। इसी प्रकार से विचार अर्थात् मन के द्वारा होनेवाला चिन्तन जो शब्दों और शब्द-समूह का कोई विशिष्ट क्रम होता है, जिस विशिष्ट प्रवृत्ति से प्रेरित होता है, उसे धर्म कहा जा सकता है। यह विशेष प्रवृत्ति लोभ, भय, शोक, हर्ष के रूप में मानसिक स्तर पर मन में सदैव अप्रकट रूप में रहती है और समय समय पर भिन्न भिन्न रूपों में व्यक्त होती रहती है। विचार जिन शब्दों का समूह होता है, वे सभी शब्द किसी न किसी भाषा में प्रयुक्त किए जाते हैं जिसे किसी समूह या समुदाय द्वारा मान्यता दी गई होती है। सभी भाषाओं का विकास भिन्न भिन्न समुदायों में भिन्न भिन्न प्रकार से हुआ और लोभ, भय, शोक और हर्ष आदि जिन विशेष प्रवृत्तियों का उल्लेख ऊपर किया गया उन प्रवृत्तियों ने भाषा को और भाषा ने उन प्रवृत्तियों को प्रभावित किया। सभी समुदायों में अधिक शक्तिशाली और कम शक्तिशाली इस प्रकार के दो वर्ग बन गए। समूह के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए उनके बीच व्यवस्था स्थापित हुई। इस प्रकार अनेक और भिन्न भिन्न समुदायों में भिन्न भिन्न सामाजिक व्यवस्थाएँ अपनाई गईं। किन्तु सभी समुदायों में व्यक्तिगत और सामूहिक लोभ, भय, हर्ष और शोक की प्रवृत्तियों ने ही समूह के व्यवहार को प्रेरित किया। भाषा और परंपरा ने ज्ञान का रूप लिया जो कि सूचना (information) का ही एक प्रकार था। मूलतः लोभ, भय, हर्ष और शोक ही वे प्रेरणाएँ थीं जिसे कि शायद धर्म भी कहा जा सकता है। सामाजिक नैतिकता (social ethics) और आचरण (morality) आदि परंपरा से ही तय किए गए। धर्म ने एक रूप वह लिया जिसमें लोभ या भय से प्रेरित होकर एक या अनेक देवताओं की कल्पना की गई और विचार के माध्यम से भिन्न भिन्न संप्रदायों (cults) की स्थापना की गई। इन भिन्न भिन्न संप्रदायों में वर्चस्व स्थापित करने के लिए युद्ध होने लगे। इस प्रकार धर्म ने सामूहिक राजनीतिक शक्ति का रूप ले लिया। यह धर्म सूचना-आधारित (information-based) व्यवस्था (system) था। कर्म ही इन समस्त धर्मों का आधार-बिन्दु था। 
कर्म के माध्यम से इस प्रत्यक्ष लोक में, और जिसका अनुमान किया गया, उस स्वर्ग या मृत्यु के बाद के लोक में कुछ पाया जा सकता है जो अनंत काल तक बना रहेगा, सभी धर्म इसी विचार पर आश्रित थे / हैं। किन्तु कुछ इस विचार से असहमत थे। ऐसे ही कुछ लोगों (ऋषियों) का ध्यान इस प्रश्न पर केन्द्रित हुआ कि अस्तित्व में "वह क्या है जो नित्य है?" वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ऐसी एकमात्र वस्तु जो असंदिग्ध और अकाट्य रूप से नित्य है, वह है निजता (individuality) / consciousness / चेतना ।
इन्हीं दो परंपराओं को क्रमशः कर्म-निष्ठा और ज्ञान-निष्ठा कहा गया। निजता का अर्थ हुआ अपना आध्यात्मिक अस्तित्व और निजता के रूप में उसकी पहचान। 
दूसरे शब्दों में : जिसकी आस्था / विश्वास कर्म या कर्म-निष्ठा में है वह "मैं क्या करूँ?" के सन्दर्भ से जीवन को देखना-समझना चाहेगा, और जिसकी उत्कंठा "नित्यता और निजता स्वरूपतः क्या है?" वह इस प्रश्न का समाधान कर इस सत्य को जानने का यत्न करेगा।
चूँकि निरपेक्ष सत्य को जानने का कोई मार्ग है ही नहीं, इसलिए निष्काम कर्म-योग (जिसमें किसी ईश्वर को माना या न भी माना जाता हो), भी उस सत्य तक पहुँचने का संभवतः एक उपाय हो सकता है। 

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January 12, 2023

किंकर्तव्यविमूढ!

अर्जुन विषाद-योग / मैं क्या करूँ!

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किंकर्तव्यविमूढो यो जानाति न कर्तव्यम् ।।

ईश्वरो हि प्रेरयिता तं प्रेरयति तेन यत्कुरुते।।

(-इसे संशोधित किया जा सकता है।)

यह प्रश्न जो कि पुराने से भी पुराना है, उतना ही नित्य-प्रति और प्रायः नये से नया भी है, जो हर मनुष्य के मन में अवश्य ही उठा करता है।

"मैं क्या करूँ!"

सर्वत्र, सर्वव्याप्त और सार्वकालिक प्रश्न है, और अपनी बुद्धि से, परिस्थिति या किसी और के आदेश से मनुष्य कुछ तय कर लेता है जिससे वह किसी न किसी कार्य में प्रवृत्त हो जाता है। यद्यपि  तात्कालिक रूप से यह प्रश्न हल हो गया, ऐसा भी प्रतीत होता है, किन्तु परिस्थिति के बदलते ही यह पुनः पुनः उभरकर सामने आता रहता है। विषाद ही इसका स्थायी भाव है और असंतोष इसका स्थायी चरित्र।

इसलिए अर्जुन विषाद योग केवल अर्जुन के लिए नहीं, प्रत्येक ही मनुष्य के मन की स्थिति है, जिसमें कि हर कोई फँसा रहता है। इसमें जाति, समुदाय, स्त्री -पुरुष आदि का भी प्रश्न नहीं है।

इस प्रश्न का मूल है कर्तृत्व की भावना, जो कभी भोक्तृत्व, कभी स्वामित्व तथा कभी ज्ञातृत्व की भावना में परिवर्तित हो जाया करती है। और इनमें से किसी भी रूप में कोई इंगित प्राप्त होते ही मनुष्य किसी न किसी कार्य में संलग्न हो जाता है। विचार या चिन्ता भी ऐसा ही एक कार्य है। भोग, कुछ प्राप्त होने का लोभ और कुछ खो जाने का भय भी मनुष्य को किसी कार्य को करने के लिए बाध्य कर देता है। किन्तु यह प्रश्न कभी पूरी तरह से हल नहीं हो पाता और पुनः पुनः सिर उठाता रहता है। किन्तु मनुष्य के मन में जैसे ही :

"नित्य क्या है और अनित्य क्या है?"

यह प्रश्न उठता है, तो उसके चिन्तन और सोच-विचार उसे एक नितान्त भिन्न दिशा में ले जाते हैं, और उसके लिए :

"मैं क्या करूँ?"

यह प्रश्न अप्रासंगिक और व्यर्थ भी हो जाता है।

यही सांख्यनिष्ठा है, जबकि

"मैं क्या करूँ?"

यह प्रश्न मनुष्य की कर्मनिष्ठा का द्योतक है।

श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में सांख्यनिष्ठा के पात्र जिज्ञासु के लिए तथा बाद के सभी अध्यायों में कर्मनिष्ठा के पात्र जिज्ञासु के लिए उसके अनुरूप तदनुसार शिक्षा दी गई है, किन्तु अध्याय १८ में दोनों निष्ठाओं का एक ही फल होने से दोनों को समन्वित कर दिया गया है। 

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January 11, 2023

... युद्धाय कृतनिश्चयः।।

संन्यास, संकल्प और निश्चय
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संशय और संकल्प दोनों ही अज्ञान के दो भिन्न प्रतीत होनेवाले प्रकार हैं। निश्चय, अज्ञान और ज्ञान के बीच की वह एक स्थिति है, जब अज्ञान का अंधकार अभी दूर नहीं हुआ होता और ज्ञान का आभास भी दूर दूर तक कहीं नहीं होता।
श्रीमद्भगवद्गीता का अर्जुन विषाद योग नामक प्रथम अध्याय ही अर्जुन की विषादपूर्ण मनःस्थिति के उल्लेख के माध्यम से योग की भूमिका प्रस्तुत करता है।
दूसरे अध्याय में साङ्ख्ययोग अर्थात् ज्ञानयोग के वर्णन से ग्रन्थ का अभीष्ट स्पष्ट हो जाता है जहाँ यह कहा गया है कि कर्म और ज्ञान के बीच कारण-कार्य जैसा कोई संबंध है ही नहीं :
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।
जिसे मैंने :
"कुरुक्षेत्र उद्घोषणा" Kurukshetra Declaration"
कहा है।
चूँकि दूसरे अध्याय के अन्त तक भी अर्जुन के द्वन्द्व का निवारण नहीं हो पाता है, और वे ज्ञान की तुलना में कर्म को त्याज्य मान बैठते हैं, इसलिए कर्म-योग नामक तीसरा अध्याय प्रारंभ होता है जहाँ दो प्रकार की निष्ठाओं का भेद स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि संसार में दो भिन्न प्रकार की निष्ठाएँ मनुष्य में पाई जाती हैं। एक है ज्ञाननिष्ठा और दूसरी है कर्मनिष्ठा। इन्हीं दोनों के बारे में ईशावास्योपनिषद् के प्रथम और द्वितीय मंत्रों में इस प्रकार से कहा गया है :
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।१।।
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्ँसमाः।।
एवं त्वयि नान्यथेतोस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।२।।
इस प्रकार कर्म और ज्ञान दोनों की भूमिका एक दूसरे से भिन्न भिन्न है। कर्म की अपरिहार्यता इसी अध्याय ३ में इस प्रकार से कही गई है :
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।५।।
पुनः चूँकि कर्म और कर्मफल का निरर्थक दुष्चक्र अर्थहीन ही नहीं है, बल्कि मुक्ति की प्राप्ति में बाधा भी है, अतएव अध्याय ४ "ज्ञान-कर्म-संन्यास-योग" में यह स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार ज्ञान-रूपी अग्नि में समस्त कर्म (और कर्मफल भी) दग्ध हो जाते हैं :
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।३७।।
अध्याय ५ में पुनः कर्म-योग और कर्म-संन्यास योग की तुलना करते हुए कहा गया है :
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।२।।
यद्यपि संन्यास (साङ्ख्य-ज्ञान) और कर्म-योग दोनों ही श्रेयस् की प्राप्ति के लिए उपाय हैं, संन्यास की अपेक्षा कर्म-योग इस अर्थ में विशिष्ट है कि इस माध्यम से किया जानेवाला कर्म ज्ञान में बाधक नहीं होता। वास्तविक संन्यास तो वही है, जिसमें कर्म को नहीं, कर्तृत्व (की भावना) को ही त्याग दिया जा सके। यदि यह हो सकता है, तो फिर कर्म करने / किए जाने, या न करने / न किए जाने का प्रश्न ही नहीं उठता।
कर्तृत्व की भावना सहित किया जानेवाला कोई भी कर्म अवश्य ही संकल्प और संशय से युक्त होगा। किन्तु जब "कर्तव्य क्या है" इसका निश्चय हो जाता है, तो संकल्प और संशय शेष नहीं रहते।

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January 10, 2023

विकल्प और निश्चय

निर्णय और अनिर्णय के बीच

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पिछले एक पोस्ट में संकल्प और संशय के बारे में विवेचना की गई थी। यह विचित्र किन्तु सत्य भी है, कि जब शब्दों और उनके प्रयोग की भूलभुलैया में अर्थ / तात्पर्य फँसकर रह जाता है, तो जहाँ बुद्धि / intellect - स्तब्ध / stuck, और stunned / कुंठित, और विचार / वृत्ति (thought) अवरुद्ध हो जाती है, वहीं ज्ञान (intelligence) भी विलुप्तप्राय हो जाता है। 

जैसे उस उल्लिखित पोस्ट में श्रीमद्भगवद्गीता के सन्दर्भों से इस समस्या को समझने का यत्न किया गया था, उसी प्रकार यहाँ भी किया जा सकता है। वैसे तो मेरा एक ब्लॉग विशेष-रूप से श्रीमद्भगवद्गीता को ही समर्पित है, किन्तु सभी ब्लॉग्स में इतना अधिक लिख चुका हूँ कि किसी के भी विषय का सन्दर्भ किसी भी दूसरे में देखा जा सकता है। स्वयं मेरे लिए यह वस्तु-स्थिति है, न कि कोई चिन्ता।

श्रीमद्भगवद्गीता में निम्न श्लोकों पर ध्यान देने से संकल्प और निश्चय का भाव और तात्पर्य स्पष्ट हो जाता है :

निश्चितम् -

2/7,

कार्पण्यदोषोऽपहतस्वभावः

पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।।

यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे

शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।७।।

(अध्याय २)

18/6,

एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च।।

कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितमतमुत्तमम्।।६।।

(अध्याय १८)

निश्चित्य -

3/2,

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।।

तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।२।।

(अध्याय ३)


निष्ठा -

3/3,

लोक अस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।। 

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।

(अध्याय ३)

17/1,

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।।

तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः।।१।।

18/50,

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।।

समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।।५०।।

(अध्याय १८) 

निश्चयेन -

6/23,

तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।।

स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।।

(अध्याय ६)

विनिश्चितैः -

13/4,

ऋषिभिर्बहुधागीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्।।

ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः।।४।।

(अध्याय १३)

निश्चित्य -

16/11,

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।।

कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चित्य।।११।।

(अध्याय १६)

निश्चयम् -

18/4,

निश्चयं शृणु मे तत्र त्याग भरतसत्तम।।

त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः।।४।।

(अध्याय १८)

यह विवेचना इस आधार पर और इस दृष्टि से की गई है कि जहाँ एक ओर संकल्प तथा संशय को त्याग दिए जाने और उनका निषेध किए जाते हुए उनकी निन्दा की गई है, वहीं दूसरी ओर, निश्चय के महत्व पर ध्यान आकर्षित भी किया गया है।

संक्षेप में -- निश्चय का अर्थ होगा : चयन न करते हुए तथ्य का अवलोकन किये जाने पर जाग्रत हुआ बोध। 

अंग्रेजी में इसे 

Choicelessness, choiceless awareness

भी कहा जा सकता है।

'संकल्प' / will में कोई लक्ष्य पहले ही से तय कर लिया जाता है, जो तथ्य के अवलोकन में बाधक भी हो सकता है और तब दुविधा ही संकल्प और संशय की तरह कृत्य को तय करती है। ऐसा कृत्य और अधिक संशय का कारण होता है। 

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खुद से खुद तक!

कविता / 10-01-2023

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खुद से खुद तक की जो है, कितनी है दूरी, 

खुद से खुद तक का जो है, फासला कितना!

खुद से खुदा तक की जो है, कितनी है दूरी, 

खुद से खुदा तक का जो है, फासला कितना! 

क्या कभी तय कर पाओगे, जो है यह दूरी, 

क्या कभी मिट सकेगा, जो है यह फासला!

क्या खुद से परे, कहीं अलग और कुछ है भी!

क्या खुदा से परे, कहीं अलग और है कुछ भी!

जहाँ भी जाओगे, खुद को ही तो तुम पाओगे,

जहाँ खुदा न हो, क्या जगह ऐसी भी कभी पाओगे! 

तो कौन सी वो दूरी है, खुद से खुद तक की, 

तो कौन सा फासला है, खुदा से खुद तक का !

कौन सा फासला है, खुद से खुदा तक का जिसे, 

पाटने का, मिटाने का, तुम करते हो खयाल!

वो क्या है कि जो दूर करता है खुद को खुद से, 

वो क्या है कि जो, फासला, खुद से खुदा तक का,

तो कर लो फैसला पहले तसल्ली से यही,

उसको ही तय कर लो, मिटा दो उसको ही!

ये मुश्किल तो नहीं है, न बहुत आसान मगर,

दिल में हो तुम्हारे, ज़ुनून और जोश अगर!

तो सवाल ये कभी न कभी तो हल होना ही है,

अगर पूछोगे ही नहीं, तो फासला न मिटना है!

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January 07, 2023

संकल्प और संशय

चेतना, विचार और बुद्धि

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चेतना (ज्ञातृत्व) की दृष्टि से प्रत्येक ही प्राणवान और चेतन वस्तु / पुरुष में अपने होने का जो भान अनायास विद्यमान होता है, उसकी सत्यता का खंडन किसी भी तर्क, अनुभव या उदाहरण से नहीं किया जा सकता। यह भान स्वयं-भू, स्व-आश्रित होता है न कि कोई वैचारिक, अनुभवपरक या बौद्धिक निष्कर्ष जो कि सदा इस आधारभूत भान पर ही अवलंबित होते हैं और उनका उद्भव इसी भान से होता है। किन्तु यह भान कर्तृत्व, भोक्तृत्व, और स्वामित्व की भावना में रूपान्तरित हो जाता है, जो पुनः अज्ञान अर्थात् संकल्प और संशय  का रूप ग्रहण कर लेते हैं। यह एक नितान्त ही स्वाभाविक क्रम है और यही व्यक्तिगत 'स्व' या अहंकार (ego or individual) है। विशुद्ध चेतना पर ही इस प्रकार से चार वर्ण आरोपित हो जाते हैं। ब्राह्मण अर्थात् वह जो - "मैं जानता हूँ" ऐसा अभिमान करता है। क्षत्रिय अर्थात् वह जो - "मैं कर्म करता हूँ" ऐसा अभिमान करता है। वैश्य अर्थात् वह जो - "मैं भोग करता हूँ" ऐसा अभिमान करता है और शूद्र अर्थात् वह जो - "मैं स्वामी हूँ" ऐसा अभिमान करता है। ये सभी वर्ण अपने अस्तित्व के विशुद्ध भान-मात्र पर आरोपित हो जाते हैं और यह कार्य प्रकृति के द्वारा होता है। इसे और अच्छी तरह समझने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न कुछ श्लोक सहायक हैं --

काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता।।

क्षिप्रं हि मानषे लोक सिद्धिर्भवति कर्मज।।१२।।

चतुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।।

तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।।

इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।१४।।

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।।

कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वतः पूर्वतरं कृतम्।।१५।।

(अध्याय ४)

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।।

सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।४८।।

(अध्याय १८)

किन्तु कर्म मोक्ष का गौण उपाय / साधन है, जबकि बुद्धि-योग मोक्ष का प्रधान उपाय / साधन है। 

इसे ही इस प्रकार से स्पष्ट किया जाता है --

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।

(अध्याय२)

क्योंकि,

न कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।।

कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।५।।

(अध्याय ३)

ईशावास्योपनिषद् के प्रथम दोनों मंत्र भी क्रमशः बुद्धियोग और कर्म-योग के महत्व के सूचक हैं --

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।१।।

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्ँसमाः।।

एवं त्वयि नान्यथेतोस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।२।।

तथा "विवेकचूडामणि" के अनुसार :

चित्तस्य शुद्धये कर्म न तु वस्तूपलब्धये।।

वस्तुसिद्धिर्विचारेण न किञ्चित्कर्मकोटिभिः।।११।।

कर्म की प्रेरणा ही संकल्प के रूप में व्यक्त होती है और उससे ही मनुष्य किसी फल-विशेष की आकाङ्क्षा करता हुआ संकल्प और संशय सहित कर्म-विशेष में संलग्न होता है। अपनी अपनी निष्ठा के अनुसार कोई भी मनुष्य बुध्दि-योग (साँख्यनिष्ठा) या / और निष्काम कर्म-योग का साधन लेते हुए श्रेयस् को प्राप्त कर लेता है।

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January 05, 2023

A Voyage Into The Unknown.

विचार-प्रक्रिया जड या चेतन? 

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इससे पहले के पोस्ट में यह समझने का प्रयास किया गया था कि विचार तथा विचार-प्रक्रिया घटना है न कि ऐसा कोई कृत्य, कर्म, या कार्य, जिसके संपन्न हो सकने के लिए किसी साधन की सहायता लेना आवश्यक होता हो, और इस प्रक्रिया में इस साधन का प्रयोग करनेवाला उस साधन से भिन्न कोई और हो। 

किसी यंत्र कंप्यूटर आदि में भी अपनी पहले से सुनिश्चित कोई विचार-प्रक्रिया होती है जिसके अनुसार ही वह सभी कार्यों को सुचारु रीति से कर पाता है। हमारा मस्तिष्क भी एक अत्यन्त सूक्ष्म संगणक है जो उससे भी अधिक सूक्ष्म-चेतना और प्राणों के माध्यम से सैकड़ों जटिल आपरेशन पलक झपकते कर लेता है। प्रश्न यह है कि जैसे किसी कम्प्यूटर में सी. पी. यू. यह सभी कार्य निष्पन्न करता है क्या हमारा मस्तिष्क भी उसी प्रकार कार्य करता है? किन्तु यह तो स्पष्ट ही है कि जैसे हममें अपने चेतन होने की भावना स्वाभाविक रूप से विद्यमान होती है, कंप्यूटर में क्या ऐसी किसी भावना को प्रोग्रामिंग के जरिए फीड किया जा सकता है? हममें अपने चेतन होने की जो भावना अनायास ही होती है, क्या वह किसी प्रक्रिया का परिणाम है, या मूलतः केवल अस्तित्व का वह भान होती है जो कि बाद में अनुभवों की स्मृतियों को मस्तिष्क द्वारा क्रम (पैटर्न) दिए जाने से हमारी वैयक्तिक पहचान बन जाता है? इस प्रकार "मैं" की यह भावना वस्तुतः कृत्रिम ज्ञान है जिसका निर्माण मस्तिष्क द्वारा इसलिए किया जाता है कि आभासी संसार में अपने को यथासंभव ठीक तरह से समायोजित किया जा सके। यह रोचक है कि मस्तिष्क की यह व्यवस्था हमारे जाग्रत होने पर ही सुसंगत रीति से कार्य करती है, जबकि हमारे अचेत (बेहोश, unconscious) होने या स्वप्न तथा सुषुप्ति आदि की स्थितियों में इसकी कोई भूमिका नहीं होती। उस समय मस्तिष्क अपनी सहज यान्त्रिक प्रक्रिया से परिचालित होता है। केवल जागने पर ही अपने आपको इस शरीर और इससे संबद्ध इसके विभिन्न कार्यों और घटनाओं का नियामक मान लिया जाता है, जो कि वैसे तो एक मान्यता होती है, किन्तु समय के साथ दृढ आग्रह बन जाती है। इस प्रकार से यह मान्यता विचार-प्रक्रिया की ही उत्पत्ति है, न कि कोई स्वतंत्र वस्तु। किन्तु मस्तिष्क को प्राप्त होनेवाली सभी जानकारियों को परस्पर संबद्ध कर एक सूत्र में बाँधती तो है ही। और फिर इससे ही मनुष्य में अनेक और विभिन्न प्रकार के विरोधाभासी विश्वास पैदा होते हैं, जो अपने आपके एक व्यक्ति-विशेष होने के आग्रह को बनाए रखते हैं। तब मनुष्य अपने  पृथक्, स्तंवत्र अस्तित्व को आधारभूत रूप से सत्य मानकर "मैं करूँगा / करता हूँ / मैं नहीं करूँगा", आदि संकल्पों से प्रेरित होता है। "मैं सोचता हूँ, विचार करता हूँ, नहीं सोचता, विचार नहीं करता, मैं चाहता हूँ, मैं नहीं चाहता ..." जैसे अनेक संकल्प इस प्रकार से चेतना पर आधिपत्य कर लेते हैं और चेतना उस सीमित दायरे में उस तक सीमित प्रतीत होती है। जबकि न तो संकल्प करनेवाला ही कहीं कोई स्वतंत्र कर्ता है, न ही यह प्रक्रिया स्वयं कोई संकल्प करती या कर सकती है, क्योंकि यह चेतन नहीं है, जबकि इस प्रक्रिया को जाननेवाला न तो प्रक्रिया होता है, न ही प्रक्रिया को किसी भी प्रकार से प्रभावित कर सकता है। वह चेतन, जो कि न तो प्रक्रिया को प्रभावित करता है, और जिसे कि प्रक्रिया भी नहीं प्रभावित करती या नहीं कर सकती, वह भी "मैं" नहीं !

इस प्रकार "मैं" एक अस्थायी आभास / विचार है, और दूसरे सभी विचारों की अपेक्षा स्थिर होने से स्वयं ही अपने आपको उनके केन्द्र में स्थापित कर लेता है। चेतना स्वयं भी इस "मैं" का आधारभूत सत्य होने से वस्तुतः नित्य स्थिर अधिष्ठान है। 

"मैं", विचार या विचार-प्रक्रिया कभी स्वयं का अतिक्रमण नहीं कर सकते इसलिए "मैं" सतत, अनवरत पुनः पुनः बनता मिटता रहता है और चेतना की नित्यता से अपनी एक आभासी नित्यता स्थापित कर लेता है।

इस पूरी गतिविधि को देख लिए जाने पर यह गतिविधि विलीन हो जाती है, जबकि जीवन निरंतर नये से और भी नये तलों नये आयामों पर आगे बढ़ता रहता है। "मैं" और मैं-भावना से रहित यह जीवन अज्ञात से अज्ञात में एक चिरंतन यात्रा :

An Eternal Voyage Into The Unknown होता है।

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January 04, 2023

विचार और मैं ...

यह कुछ कठिन है किन्तु दुरूह नहीं है! 

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मैं कभी कुछ नहीं सोचता, क्योंकि मैं तो सोच सकता ही नहीं! विचार अनायास आते और जाते हैं, पर मैं विचार नहीं करता। क्योंकि विचार एक घटना है, क्रिया, कृत्य, कर्म या कार्य नहीं!

व्याकरण के सन्दर्भ में उपरोक्त वक्तव्य में "मैं" पद को उत्तम पुरुष एकवचन या अन्य पुरुष एकवचन, किसी भी आधार पर समझा जा सकता है।

"मैं विचारकर्ता नहीं", -यह जानना कितना अद्भुत् है!

विचारों के क्रम से ही अपने किसी विचारकर्ता के रूप में होने का एक और नया  इस प्रकार का आभास / विचार उत्पन्न होता है। 

इसी प्रकार मैं कभी कुछ नहीं चाहता, क्योंकि मैं तो चाह सकता ही नहीं! क्योंकि चाह / इच्छा एक घटना है, क्रिया, कृत्य, कर्म या कार्य नहीं!

पहले की ही तरह, व्याकरण के सन्दर्भ में उपरोक्त वक्तव्य  में "मैं" पद को उत्तम पुरुष एकवचन या अन्य पुरुष एकवचन,  किसी भी आधार पर समझा जा सकता है।

"मैं इच्छा नहीं करता", -यह जानना कितना अद्भुत् है! 

यदि मैं विचार नहीं करता, यदि मैं इच्छा नहीं करता, न ही कर सकता, तो यह जो विचारकर्ता और / या इच्छा करनेवाला है, वह कौन / क्या है?

क्या शरीर विचार या इच्छा करता / कर सकता है? 

क्या हृदय / मस्तिष्क विचार या इच्छा करता / कर सकता है?

क्या चेतना / चेतनता जो जाग्रत से स्वप्न, स्वप्न से स्वप्न-रहित निद्रा और स्वप्न-रहित निद्रा से पुनः स्वप्न और स्वप्न से पुनः जाग्रत दशा में अनायास आती जाती है, विचार या इच्छा कर सकती है?

यहाँ कोई निष्कर्ष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि निष्कर्ष प्राप्त करना बुद्धि का कार्य है, और प्रश्न यह है कि क्या बुद्धि स्वतंत्र रूप से, -चेतना / चेतनता पर आश्रित हुए बिना, अर्थात् चेतना के अभाव में कार्य कर सकती है?

यहाँ केवल इतना ही कहा जा सकता है।

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January 03, 2023

यथास्थितिवाद के पक्ष में!

कविता / 03-01-2022

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क्या ही अच्छा हो कि कुछ न अब लिखा जाए,

क्या ही अच्छा हो कि कुछ न अब पढ़ा जाए!

क्या ही अच्छा हो कि कुछ न अब कहा जाए, 

रहते हुए चुपचाप, बस सब कुछ अब सहा जाए!

कौन सा है रास्ता भीतर या बाहर की तरफ,

जिस तरफ और भी आगे को अब बढ़ा जाए,

कौन सा पर्वत-शिखर है, जिस पर अब चढ़ा जाए, 

कौन सा मुहावरा नया कोई अब गढ़ा जाए, 

कौन सा आरोप और, किस पर अब मढ़ा जाए!

क्या ही अच्छा हो कि कुछ न अब लिखा जाए,

क्या ही अच्छा हो कि कुछ न अब पढ़ा जाए!

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और यह लो आ गया!

कविता / 03-01-2023

अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।

ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाम् रताः।।

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फिर से, यह नया एक और साल!

हर साल की तरह, इस बार भी!

यूँ तो लगता है कि क्या नया हुआ,

बीते हुए उस साल में, जो बीत गया, 

हाँ, बीत गया, यह भी क्या कम है!

फिर भी यह जरूर लगता है कि,

बदल रहा है सब कुछ धीरे धीरे!

आदर्श, मूल्य, आचार विचार, संस्कृति,

इतिहास-बोध और इतिहास-दृष्टि भी, 

पर नहीं बदला है अगर कुछ तो,  

मनुष्य के पाखंड का इतिहास! 

लोभ, लालच, कपट, छल, दंभ!

बदला है कुछ अगर, तो वह है,

मुखौटा राजनीति, दुराग्रह, हठ का,

जिसके नीचे छुपा है वही चेहरा, 

जो कि सदियों से असलियत है!

पर हाँ, सब धीरे धीरे बदल रहा है,

बहुत धीरे धीरे, इतना धीरे धीरे, 

कि उस पर ध्यान ही नहीं जाता!

कुछ अविद्या की उपासना में रत हैं, 

तो बाकी सभी विद्या की उपासना में!

कुछ असम्भूति की उपासना में रत हैं,

बाकी सभी सम्भूति की उपासना में!

तो एक प्रश्न यह भी उठ सकता है -

"कस्मै देवाय हविषा विधेम!?"

इसलिए सब कुछ निरंतर बदल रहा है, 

और फिर भी कहीं कुछ नहीं बदलता! 

हर कोई सब कुछ बदलना चाहता है, 

लेकिन कहीं कुछ भी बदलता नहीं!

वह देवता भी नहीं बदलता है! 

और यह लो, आ गया !

फिर से नया एक और साल!

दीजिए शुभकामनाएँ एक दूसरे को! 

कीजिए मुँह मीठा एक दूसरे का,

मनाइये उत्साह, उल्लास से नया वर्ष!

कीजिए बातें शान्ति और सौहार्द की, 

बनाए रखिए परंपरा युद्ध, और घृणा की! 

विषाद, उत्तेजना, अवसाद, और दंभ की!

स्वागत! नववर्ष!! 

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