~~~~~~~~ उन दिनों -65~~~~~~~~
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''वैसे उसके दोस्त भी कम नहीं थे, लेकिन उसका सबसे बड़ा और पहला दोस्त तो मैं ही था । क्रिकेट की उसकी एकटीम ही थी , ... ''
मैं बोर हो रहा था, वे चुप हो गए । शायद मेरी मुखमुद्रा से उन्हें आभास हो गया था । लेकिन फिर अपनी बात जारीरखते हुए बोले,
''एक दिन बोला, 'पापा, हर आदमी की ज़िंदगी दूसरे की ज़िंदगी से कितनी अलग होती है ? -एकदम अलग होती है न ?
'कैसे ?'
-मैंने पूछा ।
'वैसे लगता तो यही है कि हम सब एक ही दुनिया में रहते हैं, लेकिन मुझे इस पर शक है । भले ही वे एक ही धरतीपर रहते हों, एक-दूसरे को जानते भी हों, लेकिन रहते तो वे अपनी-अपनी, दूसरे बाकी सब लोगों से एकदम अलग ही दुनिया में जीते रहते हैं । '
'कैसे ? '
''मैं मेरे ख्यालों की दुनिया में, आप अपने ख्यालों की दुनिया में, इसी तरह बाकी के लोग भी । हम सब एक दूसरे के ख्यालों में भले ही आते-जाते रहते हों, लेकिन रहते तो अपने ही ख्यालों की दुनिया में हैं । और क्योंकि हमारी असली ज़िंदगी उन ख्यालों में तो नहीं होती, वह तो अपनी जगह, हमारे ख्यालों से बिलकुल अछूती अपनी जगहहोती है , जिसके बारे में हम शायद न तो कुछ जानते है , और न कभी जान ही सकेंगे । हमारी असली ज़िंदगी भी, हम जिसे जीते हैं, और जिसे महसूस भी करते हैं, हमारे ख्यालों की ज़िंदगी से बिलकुल अलग कुछ होती है । हमारीअसली ज़िंदगी में भले ही हम एक दूसरे के साथ होते हों, लेकिन ख्यालों और महसूस करने में बाकी सबसे बिलकुल अलग अपनी अपनी ज़िंदगी जीते रहते हैं न ?'
मैं हैरत से उसे देख रहा था, उसकी बात समझने की कोशिश कर रहा था । वह कोई दूसरों से सुनी या पढ़ी हुई कोई बात कह रहा हो, ऐसा नहीं लगा मुझे ।
'मैं जब भी चाहूँ, आपको अपने ख्यालों की दुनिया में आने से रोक सकता हूँ, और कभी-कभी तो मेरे ही ख़याल मुझपर इतने हावी होते हैं कि मैं आपको याद तक नहीं रख पाता, फिर आपके बारे में सोचना तो बहुत दूर की बात होती है । ऐसा नहीं कि मैं आपको ख्यालों में आने देना चाहता नहीं, लेकिन यह भी सच है कि तब मैं आपको अपनेख्यालों में नहीं आने दे पाता । तब आप कहाँ होते हैं ? उस समय तो आप बस आपके अपने ख्यालों की ही दुनिया मेंकहीं होते हैं न ? उस समय क्या मेरे और आपके बीच कोई ऐसी चीज़ होती है, जो हमें एक दूसरे से जोड़ती यामिलाती हो ? क्या तब आप मुझे, या मैं आपको अपने ख्यालों की दुनिया में बुला सकता हूँ ?'
मेरे गले में हाथ डालकर बोला था वह !
और सचमुच यही तो हुआ था । कौन किसे बुला सकता है, अपनी निजी दुनिया में ?कौन किसे जानता है ? बसआदमी में ख्यालों में जो कुछ होता है उस सबकी वह एक कम्पोजिट-इमेज बना लेता है, जिसे वह 'मेरी दुनिया'कहता-समझता है । जिसमें वह कैद होता है, जहाँ से न वह बाहर निकल सकता है, और न जहाँ किसी को अपनीमर्जी से बुला ही सकता है । ''
''और मुझे तो लगता है कि कोई अपनी मर्जी से चाहकर भी तो दूसरे की दुनिया में उसकी इच्छा के बिना जा भी नहींसकता । ''
-मैंने हस्तक्षेप किया ।
''बस यही तो ... ! यही तो वह कह रहा था । ''
''पर क्या यह सब भी कोरी खयाली बातें ही नहीं हैं ?''
-मैंने उन्हें फिर टोका ।
''हाँ, मन बड़ा चतुर होता है, पल भर में वह स्थान और समय की तमाम दूरियाँ लांघ जाता है । ''
''हाँ, और फिर भी स्थान और समय से पीछा नहीं छुड़ा पाता । ''
''जब तक जीवन है, यही रहेगा । -स्थान और समय की दुनिया, और उसमें हम व हमारी दुनिया । ''
पहले कभी मुझे उनके और मेरे बीच जमीन-आसमान का एक फर्क एक बार शिद्दत से महसूस हुआ था, फिलहाल मैं उसे भूल गया था, -मैं अपने सतही दिमाग से तर्क-वितर्क करने लगा था, लेकिन मुझे इसका भी होश कहाँ था ?
''सचमुच आपकी और मेरी दुनिया एक ही है ?''
-वे पूछने लगे ।
''क्या नहीं है हमारी दुनिया एक ही ? ये सूरज-चाँद-सितारे, धरती, आकाश, हिन्दुस्तान, भूख, प्यास, गरीबी, राजनीति, दुविधा, द्वंद्व और शक, .... ....?''
''अजय था तो लगता था कि वह सचमुच है, अब लगता है, वह सपना था, और यह भी कि अब कहाँ है अजय ?
-कहीं नहीं है ! एक सपना था, जो मन में उभरा था, और फिर मिट गया, दूसरे सपनों की तरह । ''
''और उस सपने के मिट जाने का दु:ख ?''
''वह पुन: एक नया सपना है । ''
''कौन देखता है इन सपनों को ? ''
-मैंने पूछा ।
''अपने होने का भ्रम ही इस सपने को पैदा करता है । वही सारे सपनों को, सारी दुनिया को, -उस दुनिया को, जिसेसब 'सबकी दुनिया' कहते-समझते हैं, उसे भी पैदा करता है, और हर कोई सोचता है कि एक 'दुनिया' सबकी है, जिसमें मेरी अपनी एक और दुनिया भी है । लेकिन सच तो यह है कि 'सबकी दुनिया' जैसी कोई चीज़ अलग से कहींनहीं होती । ''
''क्यों नहीं होती ?''
-मैंने अविश्वासपूर्वक, विस्मित होकर पूछा ।
''अपने होने से ही वह सबकी दुनिया होती है, जबकि सबकी दुनिया न भी होती हो, तो भी अपनी दुनिया तो होती हीहै, -हाँ, लेकिन थोड़ा और ध्यान से देखें तो असलियत यही है कि वह अपनी एक दुनिया होने का ख़याल भी बस एकख़याल ही तो होता है, जो अपने होने के भ्रम से पैदा हुआ एक और वहम ही तो होता है ।''
''और अपने 'न' होने का भ्रम ?''
मैं उनकी ईमानदारी को एक कोरा बौद्धिक तर्क समझकर अपने बौद्धिक तर्क से काटने की कोशिश करने लगा था ।
''भ्रम, -अपने 'न'-होने का तो एक असंभावना ही है, -एक नामुमकिन चीज़ । ''
-वे शांतिपूर्वक बोले ।
अँधेरे में जिसे मैंने तीर समझकर फेंका था, वह तो तिनका भी साबित न हुआ ।
''अपने होने का भ्रम तो मुमकिन है कि हो जाए, और जब तक बुद्धि कार्य करती है तब तक उसका न पैदा हो पानालगभग नामुमकिन ही होता है । वैसे ही जैसे दूसरे सारे भ्रम भी बुद्धि के सहारे से ही पैदा होते हैं । ... ... लेकिन अपने 'न'-होने का भ्रम, जैसा कि आपका ख़याल, विचार, आग्रह, मान्यता, प्रश्न,... आदि जो भी हो, वह भीअपने-होने के भ्रम से ही पैदा हो सकता है । उस पर ही टिका हो सकता है .-वैसे तो वह एक असंभावना ही है, फिरभी यदि आप सोचते हैं कि ऐसा कोई भ्रम हो सकता है तो, .... । ... 'किसे' होगा अपने 'न'-होने का भ्रम ? अपने होनेका भ्रम तो हर किसी को होता ही है, कट्टर विश्वास की तरह दिल में बसा होता है, इतना मज़बूत होता है कि उसेहटाने की कोशिश में भी उसे स्वीकार करना होता है । ''
-उन्होंने स्पष्ट किया ।
बात ठीक थी ।
''शायद इन्होंने तर्क-शास्त्र का खूब अध्ययन किया है ।''
-मन-ही-मन सोचते हुए मैंने अपने तरकश का आख़री तीर निकाला -
''मैं नतमस्तक हूँ, कृपया बतलाइये कि अपने होने के भ्रम से छुटकारा किसे मिलेगा ?
'''वह, जिसे अपने होने का ठीक-ठीक पता है, कि वह क्या है, वह सचमुच कुछ है भी, या कुछ नहीं है ! जिसे किसीप्रकार का कोई भ्रम है ही नहीं । ''
''अर्थात् जिसे आत्म-ज्ञान है ?!''
मैंने उनकी बातों को सार-संक्षेप में रखना चाहा ।
''हाँ, ऐसा कह सकते हैं, लेकिन आत्म-ज्ञान शब्द से भी हममें पुन: यह ख़याल आने लगते हैं, कि उसके लिए बहुतशास्त्र पढ़ने होंगे, गुरुओं के पास जाना होगा, न जाने कौन सी साधना से हो पायेगा, ..... । दूसरी ओर, हम सब इससबमें अटककर इसे भी आख़िर बाज़ार की ही एक चीज़ बना लेते हैं , और अपने होने के भ्रम को इससे ज़्यादासुरक्षा किसी दूसरी ज़गह कहीं नहीं मिल सकती । फिर एक बड़ा ख़तरा यह है कि हम इस सब से उस भ्रम केमिटने की संभावनाओं को ही लगभग ख़त्म कर डालते हैं, और हमें पता तक नहीं चल पाता कि हम कितने अभागेहैं । और ऐसे ही हम एक दिन बस समाप्त हो जाते हैं, -ख़त्म, फिनिश्ड !''
तो क्या आत्म-साक्षात्कार बिना किसी श्रम के हो जाता है ?''
''आत्म-साक्षात्कार की छोडिये, अपने होने के, -अपने कुछ ख़ास होने के इस भ्रम से भी अगर बुद्धि को छुटकारामिल जाए तो बहुत है, ... और उसके लिए ज़रूर श्रम, दिलचस्पी, और सबसे बड़ी बात लगन होना चाहिए ।''
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>>>>>>>> उन दिनों -66>>>>>>>>>
March 26, 2010
March 24, 2010
दृष्टिकोण (प्रायोगिक)
~~~~~~~~~प्रसंगवश ~~~~~~~~~
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मैं 'आई-टाइम्स' में आभा मित्तल द्वारा प्रस्तुत एक ब्लॉग पढ़ रहा था। इसमें विवाह, तलाक और प्यार के विषय में किसी विदेशी लेखक के विचार प्रदर्शित किये गए हैं ।
उपरोक्त ब्लॉग पर लिखी गयी मेरी टिप्पणी को ही यहाँ मैं पुन: प्रस्तुत कर रहा हूँ । टिप्पणी अपने-आपमें भी पूर्ण है, इसलिए ज़रूरी नहीं कि 'आई-टाइम्स' के उक्त ब्लॉग को भी पढ़ा ही जाये ।
'दृष्टिकोण' स्तंभ के अंतर्गत कुछ ऐसे ही भिन्न-भिन्न विषयों पर लिखते रहने का मेरा विचार है ।
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गुलज़ार का एक गीत, जिसे लताजी ने शायद 'खामोशी' नामक फिल्म के लिए गाया था, मुझे याद आता है :
''एक * एहसास है, ये रूह से महसूस करो,
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो । ''
"... ... ...
एक खामोशी है, सुनती है, कहा करती है, ..."
(* एक या इश्क ?, मुझे ठीक से याद नहीं , -बस अनुमान है मेरा । )
समाज प्यार को बाँधना चाहता है, परिभाषित करना चाहता है, हर व्यक्ति को डर लगता है कि यदि ऐसा नहीं किया गया तो समाज पतित हो जाएगा, विखंडित हो जाएगा । हर व्यक्ति इस बारे में सशंकित रहता है, अपने-आपके भीतर, और इसीलिये दूसरों के संबंध में भी । लेकिन फिर भी समाज पतित हो रहा है इसमें संदेह की तनिक भी गुंजाइश नहीं है । क्योंकि हम प्यार को जानते ही नहीं, हम तथाकथित 'सुख' को ही जानते हैं, भयों को जानते हैं, असुरक्षाओं को जानते हैं । भय बदनामी का भी हो सकता है, अपने-आपके भटक जाने का, और यह भी हो सकता है कि जाने-अनजाने कहीं दूसरों को भी इस जाल में न लपेट लें । हम सतत एक द्वंद्व से, दोहरेपन से त्रस्त रहते हैं । क्योंकि हम अपनी उद्दाम सुख-लिप्साओं को ज़रूर जानते हैं, (जबकि इसे स्वीकार करना नहीं चाहते कि हम उनमें बुरी तरह फँसे हुए हैं, ) जिन्हें हम कभी ठीक से समझ तक नहीं पाते, और फिर भी तथाकथित शर्म, या बेशर्मी के साथ-साथ, आदर्श आचरण करने और दूसरों को आदर्श आचरण करने के लिए प्रेरित करने की कोशिश में लगे रहते हैं । तब पाखण्ड हमारी जीवन-शैली का अनिवार्य हिस्सा हो जाता है । और तब स्वयं को, अपने-आपको, अर्थात् अपने 'मन' को, अपनी मानसिकता को समझ पाना और भी मुश्किल हो जाता है ।
इस बारे में जब तक हमारी मानसिकता नहीं बदलती, तब तक इस समस्या (?) का कोई हल या समाधान नहीं है । और ज़ाहिर है कि जब तक हम मनुष्य के ( न कि हिन्दू, मुस्लिम, या अन्य किसी सम्प्रदाय या धर्म आदि के )मन को नहीं समझते, तब तक इस द्वंद्व की समाप्ति असंभव है । यदि हमें यह स्पष्ट है, तो तमाम नैतिक, सामाजिक मूल्य, वर्जनाएं, आदर्श, बाध्यताएँ, शायद हमें इस ओर आगे जाने में सहायक भी हो सकती हैं । लेकिन मनुष्य के मन को ठीक से समझे बिना ही बलपूर्वक आरोपित कोई भी व्यवस्था, चाहे वह विवाह के नाम पर हो, तलाक के नाम पर हो, या लिव-इन रिलेशनशिप के नाम पर हो, हमारे मन को द्वंद्व से मुक्त कभी नहीं कर सकती, समस्या का समाधान नहीं हो सकती ।
प्यार संबंध हो भी सकता है, और नहीं भी हो सकता है । प्यार और यौन-प्रवृत्ति साथ-साथ हो भी सकते हैं, या नहीं भी हो सकते । उन दोनों को परस्पर जोड़ देना ही समस्या है । यौन-प्रवृत्ति प्रकृति का एक वरदान है, एक उपहार भी है । और यहाँ प्रश्न उठता है यौन-शुचिता का । यदि अपनी यौन-प्रवृत्ति (sexuality) विकृत है, तो हम यौन-व्यवहारमें 'सुख' ढूँढने लगते हैं । यौन क्रियाकलापों में संलिप्तता से हमें सांसारिक तनावों से, परेशानियों से एक किस्म की तात्कालिक राहत भी मिलती हुई प्रतीत होती है, किन्तु एक अपराध-बोध भी उससे जुड़ा होता है । इसका यह अर्थ नहीं कि हम यौन आचरण में गौरव अनुभव करें, या स्वच्छंद यौन-व्यवहार करने लगें ! समस्या यौन-आचरण के प्रति हमारे दृष्टिकोण के कारण है । जब तक हम यौन-क्रियाकलाप के माध्यम से कोई राहत या सुख पाना चाहते हैं, तब तक वह हमारे लिए एक दुश्चक्र ही रहेगा । क्योंकि वह एक नकारात्मक-सुख है, अर्थात् एक आभासी सुख भर है, बस दु:ख का विस्मरण मात्र है । जिसे वस्तुत: पाया नहीं जा सकता । वह एक नशा है, जो कुछ समय के लिए हमारे जीवन की वास्तविकताओं से हमें दूर ले जाता प्रतीत होता है । और हम इस भुलावे के शिकार होते रहते हैं ।
इसलिए जब तक यौन-प्रवृत्ति को 'सुख' का साधन समझा जाता है, तब तक वह हमारे लिए एक दुश्चक्र (और एक दु:स्वप्न भी) ही बना रहता है ।
जब यौन-भावना को उसके सही परिप्रेक्ष्य में, अर्थात् प्रकृति के एक उद्देश्यपरक तत्त्व की तरह से पहचानकर उससे सामंजस्य रखते हुए, उसके प्रति सम्मान और अनुग्रह की भावना रखते हुए जीवन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा समझा जाता है, तो मन तद्विषयक सारे द्वंद्वों से मुक्त हो जाता है । तब एकाएक ही, वर्त्तमान में प्रचलित हमारे समाज की तमाम 'बुराइयों', (जिनके बारे में हम अखबारों, फिल्मों, टीवी, नेट आदि में पढ़ते / देखते रहते हैं) की निरर्थकता समझ में आ सकती है ।
यौन-प्रवृत्ति प्रकृति का एक वरदान है, जिसे हम अनुग्रह-भाव से नहीं बल्कि सुख-बुद्धि से ग्रहण करते हैं, और फिर तमाम उपद्रव हमारे अपने, और अपनों के जीवन को विषाक्त और विनष्ट कर देता है । तब सच्चा 'प्यार' क्या है, और 'वासना-युक्त प्यार' क्या है, जैसे ऐसे प्रश्नों का सामना हमें करना होता है जिनके कोई उत्तर हमारे पास कभी नहीं हो सकते हैं ।
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मैं 'आई-टाइम्स' में आभा मित्तल द्वारा प्रस्तुत एक ब्लॉग पढ़ रहा था। इसमें विवाह, तलाक और प्यार के विषय में किसी विदेशी लेखक के विचार प्रदर्शित किये गए हैं ।
उपरोक्त ब्लॉग पर लिखी गयी मेरी टिप्पणी को ही यहाँ मैं पुन: प्रस्तुत कर रहा हूँ । टिप्पणी अपने-आपमें भी पूर्ण है, इसलिए ज़रूरी नहीं कि 'आई-टाइम्स' के उक्त ब्लॉग को भी पढ़ा ही जाये ।
'दृष्टिकोण' स्तंभ के अंतर्गत कुछ ऐसे ही भिन्न-भिन्न विषयों पर लिखते रहने का मेरा विचार है ।
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गुलज़ार का एक गीत, जिसे लताजी ने शायद 'खामोशी' नामक फिल्म के लिए गाया था, मुझे याद आता है :
''एक * एहसास है, ये रूह से महसूस करो,
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो । ''
"... ... ...
एक खामोशी है, सुनती है, कहा करती है, ..."
(* एक या इश्क ?, मुझे ठीक से याद नहीं , -बस अनुमान है मेरा । )
समाज प्यार को बाँधना चाहता है, परिभाषित करना चाहता है, हर व्यक्ति को डर लगता है कि यदि ऐसा नहीं किया गया तो समाज पतित हो जाएगा, विखंडित हो जाएगा । हर व्यक्ति इस बारे में सशंकित रहता है, अपने-आपके भीतर, और इसीलिये दूसरों के संबंध में भी । लेकिन फिर भी समाज पतित हो रहा है इसमें संदेह की तनिक भी गुंजाइश नहीं है । क्योंकि हम प्यार को जानते ही नहीं, हम तथाकथित 'सुख' को ही जानते हैं, भयों को जानते हैं, असुरक्षाओं को जानते हैं । भय बदनामी का भी हो सकता है, अपने-आपके भटक जाने का, और यह भी हो सकता है कि जाने-अनजाने कहीं दूसरों को भी इस जाल में न लपेट लें । हम सतत एक द्वंद्व से, दोहरेपन से त्रस्त रहते हैं । क्योंकि हम अपनी उद्दाम सुख-लिप्साओं को ज़रूर जानते हैं, (जबकि इसे स्वीकार करना नहीं चाहते कि हम उनमें बुरी तरह फँसे हुए हैं, ) जिन्हें हम कभी ठीक से समझ तक नहीं पाते, और फिर भी तथाकथित शर्म, या बेशर्मी के साथ-साथ, आदर्श आचरण करने और दूसरों को आदर्श आचरण करने के लिए प्रेरित करने की कोशिश में लगे रहते हैं । तब पाखण्ड हमारी जीवन-शैली का अनिवार्य हिस्सा हो जाता है । और तब स्वयं को, अपने-आपको, अर्थात् अपने 'मन' को, अपनी मानसिकता को समझ पाना और भी मुश्किल हो जाता है ।
इस बारे में जब तक हमारी मानसिकता नहीं बदलती, तब तक इस समस्या (?) का कोई हल या समाधान नहीं है । और ज़ाहिर है कि जब तक हम मनुष्य के ( न कि हिन्दू, मुस्लिम, या अन्य किसी सम्प्रदाय या धर्म आदि के )मन को नहीं समझते, तब तक इस द्वंद्व की समाप्ति असंभव है । यदि हमें यह स्पष्ट है, तो तमाम नैतिक, सामाजिक मूल्य, वर्जनाएं, आदर्श, बाध्यताएँ, शायद हमें इस ओर आगे जाने में सहायक भी हो सकती हैं । लेकिन मनुष्य के मन को ठीक से समझे बिना ही बलपूर्वक आरोपित कोई भी व्यवस्था, चाहे वह विवाह के नाम पर हो, तलाक के नाम पर हो, या लिव-इन रिलेशनशिप के नाम पर हो, हमारे मन को द्वंद्व से मुक्त कभी नहीं कर सकती, समस्या का समाधान नहीं हो सकती ।
प्यार संबंध हो भी सकता है, और नहीं भी हो सकता है । प्यार और यौन-प्रवृत्ति साथ-साथ हो भी सकते हैं, या नहीं भी हो सकते । उन दोनों को परस्पर जोड़ देना ही समस्या है । यौन-प्रवृत्ति प्रकृति का एक वरदान है, एक उपहार भी है । और यहाँ प्रश्न उठता है यौन-शुचिता का । यदि अपनी यौन-प्रवृत्ति (sexuality) विकृत है, तो हम यौन-व्यवहारमें 'सुख' ढूँढने लगते हैं । यौन क्रियाकलापों में संलिप्तता से हमें सांसारिक तनावों से, परेशानियों से एक किस्म की तात्कालिक राहत भी मिलती हुई प्रतीत होती है, किन्तु एक अपराध-बोध भी उससे जुड़ा होता है । इसका यह अर्थ नहीं कि हम यौन आचरण में गौरव अनुभव करें, या स्वच्छंद यौन-व्यवहार करने लगें ! समस्या यौन-आचरण के प्रति हमारे दृष्टिकोण के कारण है । जब तक हम यौन-क्रियाकलाप के माध्यम से कोई राहत या सुख पाना चाहते हैं, तब तक वह हमारे लिए एक दुश्चक्र ही रहेगा । क्योंकि वह एक नकारात्मक-सुख है, अर्थात् एक आभासी सुख भर है, बस दु:ख का विस्मरण मात्र है । जिसे वस्तुत: पाया नहीं जा सकता । वह एक नशा है, जो कुछ समय के लिए हमारे जीवन की वास्तविकताओं से हमें दूर ले जाता प्रतीत होता है । और हम इस भुलावे के शिकार होते रहते हैं ।
इसलिए जब तक यौन-प्रवृत्ति को 'सुख' का साधन समझा जाता है, तब तक वह हमारे लिए एक दुश्चक्र (और एक दु:स्वप्न भी) ही बना रहता है ।
जब यौन-भावना को उसके सही परिप्रेक्ष्य में, अर्थात् प्रकृति के एक उद्देश्यपरक तत्त्व की तरह से पहचानकर उससे सामंजस्य रखते हुए, उसके प्रति सम्मान और अनुग्रह की भावना रखते हुए जीवन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा समझा जाता है, तो मन तद्विषयक सारे द्वंद्वों से मुक्त हो जाता है । तब एकाएक ही, वर्त्तमान में प्रचलित हमारे समाज की तमाम 'बुराइयों', (जिनके बारे में हम अखबारों, फिल्मों, टीवी, नेट आदि में पढ़ते / देखते रहते हैं) की निरर्थकता समझ में आ सकती है ।
यौन-प्रवृत्ति प्रकृति का एक वरदान है, जिसे हम अनुग्रह-भाव से नहीं बल्कि सुख-बुद्धि से ग्रहण करते हैं, और फिर तमाम उपद्रव हमारे अपने, और अपनों के जीवन को विषाक्त और विनष्ट कर देता है । तब सच्चा 'प्यार' क्या है, और 'वासना-युक्त प्यार' क्या है, जैसे ऐसे प्रश्नों का सामना हमें करना होता है जिनके कोई उत्तर हमारे पास कभी नहीं हो सकते हैं ।
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March 22, 2010
देवनागरी लिपि
~~~~~~~~ताकि सनद रहे ~~~~~~~~
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अंग्रेज़ी भाषा और रोमन लिपि के बढ़ते प्रभुत्त्व से जहाँ एक ओर न केवल भारतीय भाषाओं के अस्तित्त्व पर ही संकट के बादल मंडरा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर हिन्दी सहित उन सभी भाषाओं के वर्त्तमान स्वरूप में उत्पन्न हो रहे विकार भी चिंता या चिंतन का विषय हैं ।
इस संबंध में मेरे मित्र श्री सुयश सुप्रभ के प्रश्न के उत्तर में मैंने कुछ इस प्रकार से लिखा था । रिकॉर्ड के लिए,
'ताकि सनद रहे ।'
उसे पुन:श्च इस ब्लॉग में प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
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पहले हमें यह सोचना होगा कि अंग्रेज़ी का प्रभुत्त्व क्यों है !
अपने भारत में, अगर हम भिन्न-भिन्न भाषाओं की लिपि देखें, तो नेपाली, और मराठी भाषाओं का उदाहरण काफी प्रेरक होगा ।
लेकिन इसके भी पहले हमें चाहिए कि यदि एक 'भारतीय'-भाषालिपि-आन्दोलन', जिसके अंतर्गत दूसरी सारी भारतीय भाषाओं के लोकप्रिय साहित्य को देवनागरी लिपि में प्रकाशित कर जन-सामान्य को तुलनात्मक रूप से कम मूल्य पर उपलब्ध कराया जा सके, तो सभी भारतीय भाषाओं का व्यवहार करनेवाले, भारतीय-भाषा-भाषी, धीरे-धीरे हिन्दी से जुड़ जायेंगे ।
उर्दू का उदाहरण हमारे सामने है । सिंधी का भी, और शायद पंजाबी का भी । उर्दू के सिवा शेष सभी भाषाओं तथा उनकी लिपि के स्वाभाविक उद्गम को संस्कृत में देखा जा सकता है । इन सभी भारतीय भाषाओं में जहाँ एक ओर बोली के तौर पर संस्कृत भाषा के शब्दों और समासों को, प्रत्ययों और उपसर्गों को, अपभ्रंश-स्वरूप प्राप्त हुआ, वहीं लिपि में भी, देवनागरी के वर्ण-विन्यास में विरूपण (परिवर्त्तन, बदलाव) आया ।
अब यदि पालि भाषा के बारे में देखें, तो देखना आसान है कि जिसे संस्कृत अच्छी तरह से आती है, वह पालि के संस्कृत उद्गम को अनायास पहचान लेगा । मैंने विधिवत पालि नहीं सीखी, लेकिन पालि के एक-दो प्रसिद्ध ग्रंथों के यत्किंचित अध्ययन से लगता है कि पालि भाषा, खासकर बौद्ध और जैन दर्शन के ग्रंथों में प्रयोग की जानेवाली भाषा संस्कृत के इतने निकट है जितनी कि हिन्दी या दूसरी कोई भी भारतीय भाषा शायद ही हो ।
तात्पर्य यह कि हिन्दी के लिए अनायास प्राप्त इस अमूल्य विरासत को कचरे में फेंककर, देवनागरी जैसी वैज्ञानिक लिपि को छोड़कर, रोमन जैसी अपेक्षाकृत अवैज्ञानिक एवं अनाम माता-पिता से उत्पन्न संतान को हिन्दी या किसी भी दूसरी भारतीय मूल की भाषा के लिए अपनाना, माता को नौकरानी का, तथा नौकरानी को माता का स्थान प्रदान कर देने जैसा होगा ।
शुरुआत दक्षिण भारतीय भाषाओं से की जानी चाहिए क्योंकि, दक्षिण भारतीय भाषाएँ, जैसे कि मलयालम, कन्नड़ तथा तेलुगु के शब्दों के उच्चारण जहाँ हिन्दी की ही भाँति, वर्ण-विन्यास के अनुरूप, अर्थात् यथालिखित-तथापठित होते हैं, वहीं तमिळ इस दृष्टि से कुछ भिन्न है ।
अब यदि तमिळ की संरचना को देखें तो उसके ऐसा होने के मूल में अपना ऐतिहासिक और वैज्ञानिक आधार है, जो स्वरोच्चार (फोनेटिक्स) के कुछ ऐसे नियमों का पालन करता है, जो संस्कृत में अपवादस्वरूप मान्य हैं । यहाँसिर्फ संकेत दिया जा सकता है कि जैसे संस्कृत के वैदिक स्वरूप में कुछ ऐसे नियम व्याकरण के प्रयुक्त होते हैं, जो संस्कृत के पौराणिक और साहित्यिक, वेदेतर प्रयोग में नहीं पाए जाते, उसी प्रकार से तमिळ व्याकरण औरभाषा-संरचना में भी ऐसे कुछ नियम हैं, और वे पूर्णत: वैज्ञानिक भी हैं । उस सबका अपना महत्त्व है, और वह तमिळ के आध्यात्मिक पक्ष का हिस्सा भी है । तमिळ का अपना समृद्ध इतिहास रहा है, किन्तु वह संस्कृत की सहवर्ती-भाषा के रूप में और उसकी सहायता से ही हुआ है, न कि उसके विरोध में । 'द्रविड़' यह शब्द भी शुद्धत: एक संस्कृत शब्द है । 'आर्य' की ही तरह, किन्तु आर्य-द्रविड़ की भिन्नता को जिस प्रकार हम पर आरोपित कर हमें विभाजित किया गया है, उसके मूल में दुष्ट शक्तियों के अपने निहित स्वार्थ हैं इस संबंध में जागरूकता बहुत ज़रूरी है ।
तात्पर्य यह कि अंग्रेज़ी का प्रभुत्व जिस प्रकार स्थापित हुआ, हिन्दी तथा देवनागरी का वर्चस्व भी उसी रीति से, और उससे अधिक अच्छी तरह से करने के अवसर हमारे पास हैं । 'सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट' के सन्दर्भ में देखें, तो वह आवश्यक भी है ।
जब हम वृक्ष की दूर-दूर तक फ़ैली हुई अनेक जड़ों में से किसी एक ही जड़ को सींचते हैं, तो बाकी जड़ें और पूरा वृक्ष ही अंतत: सूख जाता है । किन्तु यदि सभी जड़ों को सींचते हैं तो पूरा वृक्ष विकसित होता है । इससे हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं का भला होगा ।
संस्कृत को अन्य भाषाओं के विरोध में खड़ाकर विलायती आज भी भारतीय भाषाओं में वैमनस्य पैदा करने में संलग्न हैं । किन्तु सारी भारतीय भाषाओं के प्राण संस्कृत में ही हैं, इसे यदि हम न भूलें, तो उनके षड्यंत्र के शिकारहोने से बच सकेंगे ।
जैसा कि पहले हमने देखा, इस बारे में एक दूसरा और उतना ही महत्त्वपूर्ण कदम यह होगा कि हम हिन्दी के श्रेष्ठ और लोकोपयोगी, लोकप्रिय साहित्य को हिन्दी में ही, लेकिन देवनागरी की बजाय दूसरी सभी भारतीय भाषाओं में -उनकी अपनी उन ख़ास लिपियों में भी प्रकाशित करें ।
इस बारे में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य हमारे सामने है -
'क्या देवनागरी में लिखे जाने से मराठी भाषा के विकास और उसकी समृद्धि में कोई अवरोध आया ?'
इस प्रश्न के उत्तर में हमें इस सवाल का जवाब मिल जाता है कि क्या अन्य भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठ और लोकप्रिय ,लोकोपयोगी साहित्य को देवनागरी लिपि में प्रकाशित कर सुलभ मूल्य पर उपलब्ध कराने से उन भाषाओं के विकास और समृद्धि में कोई अवरोध आयेगा ?
इसके अतिरिक्त इस प्रकार के प्रयास जहाँ एक ओर अपनी गतिविधि में अनायास राष्ट्रीय मेल-मिलाप, राष्ट्रीयता की भावना बढ़ाने में उत्प्रेरक होगा, वहीं दूसरी ओर इससे रोज़गार के बहुत से अवसर भी अनायास पैदा होंगे ।
मैं मानता हूँ कि यह अभियान देवनागरी के लिए ही नहीं, बल्कि हम सबके लिए और भावी पीढ़ियों के लिए भी, संपूर्ण विश्व के लिए ही सर्वथा कल्याणकारी होगा ।
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अंग्रेज़ी भाषा और रोमन लिपि के बढ़ते प्रभुत्त्व से जहाँ एक ओर न केवल भारतीय भाषाओं के अस्तित्त्व पर ही संकट के बादल मंडरा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर हिन्दी सहित उन सभी भाषाओं के वर्त्तमान स्वरूप में उत्पन्न हो रहे विकार भी चिंता या चिंतन का विषय हैं ।
इस संबंध में मेरे मित्र श्री सुयश सुप्रभ के प्रश्न के उत्तर में मैंने कुछ इस प्रकार से लिखा था । रिकॉर्ड के लिए,
'ताकि सनद रहे ।'
उसे पुन:श्च इस ब्लॉग में प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
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पहले हमें यह सोचना होगा कि अंग्रेज़ी का प्रभुत्त्व क्यों है !
अपने भारत में, अगर हम भिन्न-भिन्न भाषाओं की लिपि देखें, तो नेपाली, और मराठी भाषाओं का उदाहरण काफी प्रेरक होगा ।
लेकिन इसके भी पहले हमें चाहिए कि यदि एक 'भारतीय'-भाषालिपि-आन्दोलन', जिसके अंतर्गत दूसरी सारी भारतीय भाषाओं के लोकप्रिय साहित्य को देवनागरी लिपि में प्रकाशित कर जन-सामान्य को तुलनात्मक रूप से कम मूल्य पर उपलब्ध कराया जा सके, तो सभी भारतीय भाषाओं का व्यवहार करनेवाले, भारतीय-भाषा-भाषी, धीरे-धीरे हिन्दी से जुड़ जायेंगे ।
उर्दू का उदाहरण हमारे सामने है । सिंधी का भी, और शायद पंजाबी का भी । उर्दू के सिवा शेष सभी भाषाओं तथा उनकी लिपि के स्वाभाविक उद्गम को संस्कृत में देखा जा सकता है । इन सभी भारतीय भाषाओं में जहाँ एक ओर बोली के तौर पर संस्कृत भाषा के शब्दों और समासों को, प्रत्ययों और उपसर्गों को, अपभ्रंश-स्वरूप प्राप्त हुआ, वहीं लिपि में भी, देवनागरी के वर्ण-विन्यास में विरूपण (परिवर्त्तन, बदलाव) आया ।
अब यदि पालि भाषा के बारे में देखें, तो देखना आसान है कि जिसे संस्कृत अच्छी तरह से आती है, वह पालि के संस्कृत उद्गम को अनायास पहचान लेगा । मैंने विधिवत पालि नहीं सीखी, लेकिन पालि के एक-दो प्रसिद्ध ग्रंथों के यत्किंचित अध्ययन से लगता है कि पालि भाषा, खासकर बौद्ध और जैन दर्शन के ग्रंथों में प्रयोग की जानेवाली भाषा संस्कृत के इतने निकट है जितनी कि हिन्दी या दूसरी कोई भी भारतीय भाषा शायद ही हो ।
तात्पर्य यह कि हिन्दी के लिए अनायास प्राप्त इस अमूल्य विरासत को कचरे में फेंककर, देवनागरी जैसी वैज्ञानिक लिपि को छोड़कर, रोमन जैसी अपेक्षाकृत अवैज्ञानिक एवं अनाम माता-पिता से उत्पन्न संतान को हिन्दी या किसी भी दूसरी भारतीय मूल की भाषा के लिए अपनाना, माता को नौकरानी का, तथा नौकरानी को माता का स्थान प्रदान कर देने जैसा होगा ।
शुरुआत दक्षिण भारतीय भाषाओं से की जानी चाहिए क्योंकि, दक्षिण भारतीय भाषाएँ, जैसे कि मलयालम, कन्नड़ तथा तेलुगु के शब्दों के उच्चारण जहाँ हिन्दी की ही भाँति, वर्ण-विन्यास के अनुरूप, अर्थात् यथालिखित-तथापठित होते हैं, वहीं तमिळ इस दृष्टि से कुछ भिन्न है ।
अब यदि तमिळ की संरचना को देखें तो उसके ऐसा होने के मूल में अपना ऐतिहासिक और वैज्ञानिक आधार है, जो स्वरोच्चार (फोनेटिक्स) के कुछ ऐसे नियमों का पालन करता है, जो संस्कृत में अपवादस्वरूप मान्य हैं । यहाँसिर्फ संकेत दिया जा सकता है कि जैसे संस्कृत के वैदिक स्वरूप में कुछ ऐसे नियम व्याकरण के प्रयुक्त होते हैं, जो संस्कृत के पौराणिक और साहित्यिक, वेदेतर प्रयोग में नहीं पाए जाते, उसी प्रकार से तमिळ व्याकरण औरभाषा-संरचना में भी ऐसे कुछ नियम हैं, और वे पूर्णत: वैज्ञानिक भी हैं । उस सबका अपना महत्त्व है, और वह तमिळ के आध्यात्मिक पक्ष का हिस्सा भी है । तमिळ का अपना समृद्ध इतिहास रहा है, किन्तु वह संस्कृत की सहवर्ती-भाषा के रूप में और उसकी सहायता से ही हुआ है, न कि उसके विरोध में । 'द्रविड़' यह शब्द भी शुद्धत: एक संस्कृत शब्द है । 'आर्य' की ही तरह, किन्तु आर्य-द्रविड़ की भिन्नता को जिस प्रकार हम पर आरोपित कर हमें विभाजित किया गया है, उसके मूल में दुष्ट शक्तियों के अपने निहित स्वार्थ हैं इस संबंध में जागरूकता बहुत ज़रूरी है ।
तात्पर्य यह कि अंग्रेज़ी का प्रभुत्व जिस प्रकार स्थापित हुआ, हिन्दी तथा देवनागरी का वर्चस्व भी उसी रीति से, और उससे अधिक अच्छी तरह से करने के अवसर हमारे पास हैं । 'सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट' के सन्दर्भ में देखें, तो वह आवश्यक भी है ।
जब हम वृक्ष की दूर-दूर तक फ़ैली हुई अनेक जड़ों में से किसी एक ही जड़ को सींचते हैं, तो बाकी जड़ें और पूरा वृक्ष ही अंतत: सूख जाता है । किन्तु यदि सभी जड़ों को सींचते हैं तो पूरा वृक्ष विकसित होता है । इससे हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं का भला होगा ।
संस्कृत को अन्य भाषाओं के विरोध में खड़ाकर विलायती आज भी भारतीय भाषाओं में वैमनस्य पैदा करने में संलग्न हैं । किन्तु सारी भारतीय भाषाओं के प्राण संस्कृत में ही हैं, इसे यदि हम न भूलें, तो उनके षड्यंत्र के शिकारहोने से बच सकेंगे ।
जैसा कि पहले हमने देखा, इस बारे में एक दूसरा और उतना ही महत्त्वपूर्ण कदम यह होगा कि हम हिन्दी के श्रेष्ठ और लोकोपयोगी, लोकप्रिय साहित्य को हिन्दी में ही, लेकिन देवनागरी की बजाय दूसरी सभी भारतीय भाषाओं में -उनकी अपनी उन ख़ास लिपियों में भी प्रकाशित करें ।
इस बारे में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य हमारे सामने है -
'क्या देवनागरी में लिखे जाने से मराठी भाषा के विकास और उसकी समृद्धि में कोई अवरोध आया ?'
इस प्रश्न के उत्तर में हमें इस सवाल का जवाब मिल जाता है कि क्या अन्य भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठ और लोकप्रिय ,लोकोपयोगी साहित्य को देवनागरी लिपि में प्रकाशित कर सुलभ मूल्य पर उपलब्ध कराने से उन भाषाओं के विकास और समृद्धि में कोई अवरोध आयेगा ?
इसके अतिरिक्त इस प्रकार के प्रयास जहाँ एक ओर अपनी गतिविधि में अनायास राष्ट्रीय मेल-मिलाप, राष्ट्रीयता की भावना बढ़ाने में उत्प्रेरक होगा, वहीं दूसरी ओर इससे रोज़गार के बहुत से अवसर भी अनायास पैदा होंगे ।
मैं मानता हूँ कि यह अभियान देवनागरी के लिए ही नहीं, बल्कि हम सबके लिए और भावी पीढ़ियों के लिए भी, संपूर्ण विश्व के लिए ही सर्वथा कल्याणकारी होगा ।
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March 21, 2010
अहसास
~~~~~~~~अहसास ~~~~~~~~
~~~एक छोटी सी कविता ~~~~
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यह मेरा शतकीय (हिंदी-का-)ब्लॉग है । वैसे 'उन दिनों' आधे से भी ज़्यादा लिखना शेष है, इसलिए, इस शतकीय के लिए एक छोटी सी कविता, जिसे शायरी भी कह सकते हैं, प्रस्तुत है :
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
झूठी पहचान को ढोते रहे हम,
इसलिए उम्र भर रोते रहे हम ।
फसलें दु:ख की ही काटते रहे,
झूठ ही झूठ बस बोते रहे हम ॥
रात महफ़िल में गुजारी हमने,
सुबह से साँझ तक सोते रहे हम ॥
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
आज दिनांक २२-मार्च २००९ को संशोधित ।
पुन:दिनांक २६-मार्च २००९ को आख़िरी कड़ी लिखी ।
~~~एक छोटी सी कविता ~~~~
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यह मेरा शतकीय (हिंदी-का-)ब्लॉग है । वैसे 'उन दिनों' आधे से भी ज़्यादा लिखना शेष है, इसलिए, इस शतकीय के लिए एक छोटी सी कविता, जिसे शायरी भी कह सकते हैं, प्रस्तुत है :
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झूठी पहचान को ढोते रहे हम,
इसलिए उम्र भर रोते रहे हम ।
फसलें दु:ख की ही काटते रहे,
झूठ ही झूठ बस बोते रहे हम ॥
रात महफ़िल में गुजारी हमने,
सुबह से साँझ तक सोते रहे हम ॥
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आज दिनांक २२-मार्च २००९ को संशोधित ।
पुन:दिनांक २६-मार्च २००९ को आख़िरी कड़ी लिखी ।
March 16, 2010
उन दिनों -64.
~~~~~~~उन दिनों -64 ~~~~~~~~
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स्थितप्रज्ञस्य का भाषा ?
~~~~~~~~~~~~~~~
उनके बारे में सोचता हूँ, तो लगता है कि गीता श्लोक 54, अध्याय 2 में वर्णित लक्षण उन में काफी हद तक देखे जासकते हैं । पिछले ब्लॉग में छान्दोग्य उपनिषद के बारे में श्री रमण महर्षि से बातचीत के जो अंश मैंने उद्धृत कियेहैं, उन्हें भी देखता हूँ, तो मुझे निश्चय होने लगता है कि वे एन्लाइटेन्ड अवश्य हैं । मेरा मतलब है स्पिरिच्युअली- एन्लाइटेन्ड होने से है । लेकिन अब भी कई संदेह मन में कुलबुलाते रहते हैं। क्योंकि ज़ाहिर है कि मैं तो नहीं हूँ, अभी स्पिरियुअली एन्लाइटेन्ड !
__________________________________
दूसरे दिन मैंने सोचा कि कहीं मैं उनके साथ अन्याय तो नहीं कर रहा हूँ ! मुझे उन पर कोई प्रतिक्रिया देने से पहलेएक बार धीरज से उन्हें समझना चाहिए । नहीं तो नुकसान मेरा ही है ।
सुबह वे अखबार पढ़ते रहे । नाश्ता उन्होंने कब तैयार कर लिया, मुझे मालूम ही नहीं हो सका । जब मैं सोकर उठा, तो वे ड्रॉइंग-रूम में बैठे अखबार पढ़ रहे थे । मुझे देखते ही अखबार पटककर किचन में चले गए । मैं वॉश-बेसिनपर मुँह-हाथ धो ही रहा था, कि उनकी आवाज़ सुनाई दी,
'कौस्तुभ आपकी चाय ठंडी हो रही है ।'
दो बड़े मग्ज़ में चाय रखी थी, वे बस इंतज़ार कर रहे थे । मेरे पहुँचते ही उन्होंने पीना शुरू कर दिया था ।
''अच्छी नींद आई आपको ?''
-उन्होंने मुस्कुराकर पूछा ।
रात में रोज की अपेक्षा कल मैं कुछ देर से सो सका था, इसलिए नींद देर से खुल पाई ।
कल की चर्चा से कुछ घबराया हुआ भी था । नाश्ते का समय होते-होते मेरी घबराहट खो चुकी थी ।
''कल की चर्चा आश्चर्यजनक थी । ''
-मैंने अपेक्षा भरी नज़रें उन पर डालते हुए कहा । वे इंतज़ार कर रहे थे । उन्होंने तत्काल कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्तकी ।
''मतलब आपको भी किसी जमाने में ध्यान या मेडिटेशन जैसी किसी चीज़ में दिलचस्पी रही होगी !''
''हाँ, वो अजय की ही प्रेरणा थी, ऐसा भी कह सकते हैं । ''
अजय फिर वहाँ था । एक अमूर्त देह, निराकार उपस्थिति ।
''अजय की प्रेरणा ?''
-मैंने उन्हें उकसाया ।
''वह परेशान कर देता था । ''
वे हँसने लगे ।
''उससे बचने का यही तरीका था कि अपने आसन पर बैठकर ध्यान करो । उस समय वह कभी भूलकर भी मुझेडिस्टर्ब नहीं करता था, और कोई कितना भी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति आ जाए, वह ओंठों पर तर्जनी रखकर फुसफुसाता - 'श..श ! पापा ध्यान कर रहे हैं अभी ।' और खुद भी झूठमूठ ध्यान करने लगता । ''
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>>>>>> उन दिनों -65>>>>>>>>>>
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स्थितप्रज्ञस्य का भाषा ?
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उनके बारे में सोचता हूँ, तो लगता है कि गीता श्लोक 54, अध्याय 2 में वर्णित लक्षण उन में काफी हद तक देखे जासकते हैं । पिछले ब्लॉग में छान्दोग्य उपनिषद के बारे में श्री रमण महर्षि से बातचीत के जो अंश मैंने उद्धृत कियेहैं, उन्हें भी देखता हूँ, तो मुझे निश्चय होने लगता है कि वे एन्लाइटेन्ड अवश्य हैं । मेरा मतलब है स्पिरिच्युअली- एन्लाइटेन्ड होने से है । लेकिन अब भी कई संदेह मन में कुलबुलाते रहते हैं। क्योंकि ज़ाहिर है कि मैं तो नहीं हूँ, अभी स्पिरियुअली एन्लाइटेन्ड !
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दूसरे दिन मैंने सोचा कि कहीं मैं उनके साथ अन्याय तो नहीं कर रहा हूँ ! मुझे उन पर कोई प्रतिक्रिया देने से पहलेएक बार धीरज से उन्हें समझना चाहिए । नहीं तो नुकसान मेरा ही है ।
सुबह वे अखबार पढ़ते रहे । नाश्ता उन्होंने कब तैयार कर लिया, मुझे मालूम ही नहीं हो सका । जब मैं सोकर उठा, तो वे ड्रॉइंग-रूम में बैठे अखबार पढ़ रहे थे । मुझे देखते ही अखबार पटककर किचन में चले गए । मैं वॉश-बेसिनपर मुँह-हाथ धो ही रहा था, कि उनकी आवाज़ सुनाई दी,
'कौस्तुभ आपकी चाय ठंडी हो रही है ।'
दो बड़े मग्ज़ में चाय रखी थी, वे बस इंतज़ार कर रहे थे । मेरे पहुँचते ही उन्होंने पीना शुरू कर दिया था ।
''अच्छी नींद आई आपको ?''
-उन्होंने मुस्कुराकर पूछा ।
रात में रोज की अपेक्षा कल मैं कुछ देर से सो सका था, इसलिए नींद देर से खुल पाई ।
कल की चर्चा से कुछ घबराया हुआ भी था । नाश्ते का समय होते-होते मेरी घबराहट खो चुकी थी ।
''कल की चर्चा आश्चर्यजनक थी । ''
-मैंने अपेक्षा भरी नज़रें उन पर डालते हुए कहा । वे इंतज़ार कर रहे थे । उन्होंने तत्काल कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्तकी ।
''मतलब आपको भी किसी जमाने में ध्यान या मेडिटेशन जैसी किसी चीज़ में दिलचस्पी रही होगी !''
''हाँ, वो अजय की ही प्रेरणा थी, ऐसा भी कह सकते हैं । ''
अजय फिर वहाँ था । एक अमूर्त देह, निराकार उपस्थिति ।
''अजय की प्रेरणा ?''
-मैंने उन्हें उकसाया ।
''वह परेशान कर देता था । ''
वे हँसने लगे ।
''उससे बचने का यही तरीका था कि अपने आसन पर बैठकर ध्यान करो । उस समय वह कभी भूलकर भी मुझेडिस्टर्ब नहीं करता था, और कोई कितना भी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति आ जाए, वह ओंठों पर तर्जनी रखकर फुसफुसाता - 'श..श ! पापा ध्यान कर रहे हैं अभी ।' और खुद भी झूठमूठ ध्यान करने लगता । ''
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>>>>>> उन दिनों -65>>>>>>>>>>
March 15, 2010
अस्तित्त्व
~~~~~~~अस्तित्त्व~~~~~~
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संज्ञाएँ,
-नाम हैं,
विशेषण,
-उपाधि,
वे बाँटते नहीं हैं,
-अस्तित्त्व को !
-अस्तित्त्व,
नहीं टूटता,
-उनमें कभी !
वे तो ,
सौन्दर्य हैं,
-अस्तित्त्व का !!
बस देखो,
उनमें उसे !
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संज्ञाएँ,
-नाम हैं,
विशेषण,
-उपाधि,
वे बाँटते नहीं हैं,
-अस्तित्त्व को !
-अस्तित्त्व,
नहीं टूटता,
-उनमें कभी !
वे तो ,
सौन्दर्य हैं,
-अस्तित्त्व का !!
बस देखो,
उनमें उसे !
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March 14, 2010
उन दिनों -63.
~~~~~~~~~~~उन दिनों -63~~~~~~~~~~
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~~~~मेरी डायरी से ~~~~~~
------------------------------
104.... ...
... ...
... ... ...
महर्षि : आत्मा से अधिक समीप कुछ भी नहीं है ।
भक्त : तीन माह पूर्व मुझे श्रीकृष्ण ने दर्शन देकर कहा,
"मुझसे निराकार उपासना की प्रार्थना क्यों करते हो ?
''सर्वभूतस्थ मात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि '' (गीता 6/29)
(आत्मा सबमें है तथा सब आत्मा में है । )
महर्षि : इसमें सम्पूर्ण सत्य निहित है । यह भी औपचारिक है । वास्तव में आत्मा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है ।जगत मान का प्रक्षेपण मात्र है । मान का उदय आत्मा से होता है । अत: आत्मा ही एकमात्र सत्ता है ।
भक्त : किन्तु इसका अनुभव होना कठिन है ।
महर्षि : कुछ भी अनुभव नहीं करना है । वह नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त अवस्था है । यह अवस्था सहज तथा नित्य है ।किसी नवीन वस्तु की प्राप्ति नहीं करना है । इसके विपरीत मनुष्य को अपना अज्ञान त्यागना है । बस इतना हीकरना है ।
इस अज्ञान के मूल को खोजना होगा । यह अज्ञान किसको है ? व्यक्ति किससे ( इससे?) अनभिज्ञ हैं । वहाँ द्रष्टा एवंदृश्य हैं । यह द्वैत भाव तो केवल मन का गुण है । मन आत्मा से है ।
भक्त : हाँ, अज्ञान स्वत: नहीं रह सकता ।
(अंत में उसने समर्पण करते हुए निवेदन किया,
'जिस प्रकार चिकित्सक रोगी का रोग जानकर उसी प्रकार उसकी चिकित्सा करता है, कृपाकर श्रीभगवान वैसे हीमेरी चिकित्सा करें ।'
उसने यह भी कहा कि उसकी ग्रंथों के अध्ययन तथा उनसे ज्ञान प्राप्त करने की सारी प्रवृत्ति नष्ट हो गयी है । )
105. महर्षि : येन अश्रुतं श्रुतं भवति ... ... (छान्दोग्य उपनिषद) (जिसे जानकर, न जाना हुआ भी जाना जाता है । )
श्री भगवान् के परिचारक माधवस्वामी : क्या छान्दोग्य उपनिषद में वर्णित महावाक्य 'तत्त्वमसि' की दीक्षा की नौपद्धतियाँ हैं ?
महर्षि : नहीं, ऐसा नहीं । पद्धति एक ही है । उद्दालक ने उपदेश प्रारंभ किया -
सत् एव सौम्य ... (केवल अस्तित्त्व है ...) इसको स्पष्ट करने हेतु श्वेतकेतु को उपवास का दृष्टांत दिया ।
(1) उपवास से सत् , व्यक्ति में अस्तित्त्व, स्पष्ट हो जाता है ।
(2) यह (सत्अस्तित्त्व, भिन्न-भिन्न पुष्पों से संगृहीत मधु की भाँति सब में एक-सा ही है ।
(3) गहन निद्रा के उदाहरण से जाना जाता है कि व्यक्तियों के सत् में कोई अंतर नहीं है । प्रश्न उठता है,- यदि ऐसाहै, तो सुषुप्ति में प्रत्येक व्यक्ति उसे क्यों नहीं जान पाता ?
(4) चूँकि वहाँ व्यक्तित्त्व नहीं रहता, वहाँ केवल स त् ही रहता है ।
उदाहरणार्थ : सरिताएँ सागर में विलीन हो जाती हैं । यदि विलीन होती हैं, तो क्या वहाँ सत् है ?
(5) निश्चय है - जैसे वृक्ष को तराशने से वह पुन: उगता है । यह उसकी जीवनी-शक्ति का निश्चित प्रमाण है, किन्तुक्या यह शक्ति उस सुशुप्त अवस्था में भी विद्यमान रहती है ?
(6) अवश्य, लवण तथा जल का उदाहरण लो । जल में लवण सूक्ष्म रूप से है । यद्यपि यह दृष्टिगोचर नहीं है, किन्तुअन्य इन्द्रियों से अनुभूत है । इसका ज्ञान कैसे हो ?
(7) खोज से, जिस प्रकार गांधार वन में भूला हुआ व्यक्ति घर तक पुन: आ गया ।
(8) विकास और संकोच में, व्यक्त एवं अव्यक्त में, केवल सत् की ही सत्ता है । तेज: परस्याम देवतायम - (प्रकाशब्रह्म में लीन हो जाता है । )
(9) अग्नि परीक्षा में दोषी पीड़ित हो जाता है । अग्नि उसके दोष को प्रकट कर देती है । सरलता स्वत: प्रकट है ।सत्पुरुष तथा आत्म-ज्ञानी पुरुष प्रसन्न रहता है । उस पर दृश्य-प्रपञ्च का, ( अर्थात् जगत् जन्म-मृत्यु आदि का) प्रभाव नहीं पड़ता । जबकि कपटी तथा अज्ञानी व्यक्ति दुखी रहता है ।
(जैसा मैंने ,
श्री रमण महर्षि से बातचीत,
प्रकाशक शिवलाल अग्रवाल एंड कंपनी,
आगरा-३,
कॉपी-राईट : श्री रमणाश्रम,
तिरुवण्णामलै, तमिलनाडु
से नोट किया था । )
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>>>>>>>> उन दिनों -64 >>>>>>>
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~~~~मेरी डायरी से ~~~~~~
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104.... ...
... ...
... ... ...
महर्षि : आत्मा से अधिक समीप कुछ भी नहीं है ।
भक्त : तीन माह पूर्व मुझे श्रीकृष्ण ने दर्शन देकर कहा,
"मुझसे निराकार उपासना की प्रार्थना क्यों करते हो ?
''सर्वभूतस्थ मात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि '' (गीता 6/29)
(आत्मा सबमें है तथा सब आत्मा में है । )
महर्षि : इसमें सम्पूर्ण सत्य निहित है । यह भी औपचारिक है । वास्तव में आत्मा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है ।जगत मान का प्रक्षेपण मात्र है । मान का उदय आत्मा से होता है । अत: आत्मा ही एकमात्र सत्ता है ।
भक्त : किन्तु इसका अनुभव होना कठिन है ।
महर्षि : कुछ भी अनुभव नहीं करना है । वह नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त अवस्था है । यह अवस्था सहज तथा नित्य है ।किसी नवीन वस्तु की प्राप्ति नहीं करना है । इसके विपरीत मनुष्य को अपना अज्ञान त्यागना है । बस इतना हीकरना है ।
इस अज्ञान के मूल को खोजना होगा । यह अज्ञान किसको है ? व्यक्ति किससे ( इससे?) अनभिज्ञ हैं । वहाँ द्रष्टा एवंदृश्य हैं । यह द्वैत भाव तो केवल मन का गुण है । मन आत्मा से है ।
भक्त : हाँ, अज्ञान स्वत: नहीं रह सकता ।
(अंत में उसने समर्पण करते हुए निवेदन किया,
'जिस प्रकार चिकित्सक रोगी का रोग जानकर उसी प्रकार उसकी चिकित्सा करता है, कृपाकर श्रीभगवान वैसे हीमेरी चिकित्सा करें ।'
उसने यह भी कहा कि उसकी ग्रंथों के अध्ययन तथा उनसे ज्ञान प्राप्त करने की सारी प्रवृत्ति नष्ट हो गयी है । )
105. महर्षि : येन अश्रुतं श्रुतं भवति ... ... (छान्दोग्य उपनिषद) (जिसे जानकर, न जाना हुआ भी जाना जाता है । )
श्री भगवान् के परिचारक माधवस्वामी : क्या छान्दोग्य उपनिषद में वर्णित महावाक्य 'तत्त्वमसि' की दीक्षा की नौपद्धतियाँ हैं ?
महर्षि : नहीं, ऐसा नहीं । पद्धति एक ही है । उद्दालक ने उपदेश प्रारंभ किया -
सत् एव सौम्य ... (केवल अस्तित्त्व है ...) इसको स्पष्ट करने हेतु श्वेतकेतु को उपवास का दृष्टांत दिया ।
(1) उपवास से सत् , व्यक्ति में अस्तित्त्व, स्पष्ट हो जाता है ।
(2) यह (सत्अस्तित्त्व, भिन्न-भिन्न पुष्पों से संगृहीत मधु की भाँति सब में एक-सा ही है ।
(3) गहन निद्रा के उदाहरण से जाना जाता है कि व्यक्तियों के सत् में कोई अंतर नहीं है । प्रश्न उठता है,- यदि ऐसाहै, तो सुषुप्ति में प्रत्येक व्यक्ति उसे क्यों नहीं जान पाता ?
(4) चूँकि वहाँ व्यक्तित्त्व नहीं रहता, वहाँ केवल स त् ही रहता है ।
उदाहरणार्थ : सरिताएँ सागर में विलीन हो जाती हैं । यदि विलीन होती हैं, तो क्या वहाँ सत् है ?
(5) निश्चय है - जैसे वृक्ष को तराशने से वह पुन: उगता है । यह उसकी जीवनी-शक्ति का निश्चित प्रमाण है, किन्तुक्या यह शक्ति उस सुशुप्त अवस्था में भी विद्यमान रहती है ?
(6) अवश्य, लवण तथा जल का उदाहरण लो । जल में लवण सूक्ष्म रूप से है । यद्यपि यह दृष्टिगोचर नहीं है, किन्तुअन्य इन्द्रियों से अनुभूत है । इसका ज्ञान कैसे हो ?
(7) खोज से, जिस प्रकार गांधार वन में भूला हुआ व्यक्ति घर तक पुन: आ गया ।
(8) विकास और संकोच में, व्यक्त एवं अव्यक्त में, केवल सत् की ही सत्ता है । तेज: परस्याम देवतायम - (प्रकाशब्रह्म में लीन हो जाता है । )
(9) अग्नि परीक्षा में दोषी पीड़ित हो जाता है । अग्नि उसके दोष को प्रकट कर देती है । सरलता स्वत: प्रकट है ।सत्पुरुष तथा आत्म-ज्ञानी पुरुष प्रसन्न रहता है । उस पर दृश्य-प्रपञ्च का, ( अर्थात् जगत् जन्म-मृत्यु आदि का) प्रभाव नहीं पड़ता । जबकि कपटी तथा अज्ञानी व्यक्ति दुखी रहता है ।
(जैसा मैंने ,
श्री रमण महर्षि से बातचीत,
प्रकाशक शिवलाल अग्रवाल एंड कंपनी,
आगरा-३,
कॉपी-राईट : श्री रमणाश्रम,
तिरुवण्णामलै, तमिलनाडु
से नोट किया था । )
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March 12, 2010
उन दिनों -62.
~~~~~~~~~~ उन दिनों -62~~~~~~~~~
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उनसे मैंने तमाम बातें की हैं, -दुनिया भर की, सुख-दुःख की, पाप-पुण्य, धर्म और धर्मों की, राजनीति और राजनेताओं की, नैतिकता, दर्शन-शास्त्र, मनोविज्ञान, साहित्य और साहित्यकारों की, कला और कलाकारों की, इतिहास की, तंत्र, योग और भगवानों, बाबाओं, स्वामियों, ज्ञानियों, अज्ञानियों, और तथाकथित ज्ञानियों के बारे में भी, बहुत सी चीज़ों के बारे में उन्हें कुछ भी नहीं पता, और वे इसे स्वीकार भी करते हैं, उन्हें कुछ जरूर पता है, जिसके बारे में उपनिषद कहते हैं, ;
''जिसे जानने पर जानने के लिए और कुछ शेष नहीं रहता । ''
छान्दोग्य-उपनिषद् में श्वेतकेतु को इस बारे में पूछा और उपदेश दिया गया ।
(उन दिनों -63 देखें । )
वे भी जानते होंगे, वे कभी उल्लेख नहीं करते, पर मेरा ख़याल है कि उन्होंने कभी अध्ययन अवश्य किया होगा ।
ज्योतिष, चमत्कारों, हिप्नोटिज्म, अतीन्द्रिय-ज्ञान आदि के बारे में, तंत्र के बारे में वे कहते हैं कि उन्हें कभी दिलचस्पी तक नहीं हुई । चायनीज़ मेडिसिन, फेंग-शुई, तिबेटन-बुद्धिज्म, के बारे में भी उन्हें शायद कोई दिलचस्पी नहीं है । वेदान्त, भक्ति, सूफिज्म, पौराणिक विषयों से भी वे बहुत अभिगि नहीं हैं, नाथपंथ की शिक्षाओं, कबीर या दूसरे ऐसे रहस्यवादियों की उलटबांसियों के बारे में पूछने पर वे बस उत्सुकता से देखते भर रहते हैं ।
सचमुच वे इतने सहज और निर्लिप्त हैं कि मुझे उनसे रश्क होने लगा । रश्क की बजाय एम्युलेशन कहना ज़्यादा मुनासिब होगा । वे इतने सरल हैं, कि बहुत देर बाद ही मुझे अपनी तुच्छता का एहसास हो सका । वे केवल विनम्रतावश ही सारी बातें कर रहे थे, और लगता था कि उन्हें उन बातों में दिलचस्पी भी है, लेकिन बस वहीं तक । उन्हें कोई अपेक्षा नहीं थी, बतलाने के लिए उनके पास कोई अनुभव या सिद्धांत नहीं थे, -ऐसा वे कभी-कभी इशारे से या गिने-चुने शब्दों में भी कह देते थे । हर बात की समाप्ति पर उनकी आँखें वैसी ही शांत और स्नेहशील रहतीं थीं, जैसी कि शुरुआत में होतीं थीं । वहाँ न अपेक्षा थी, न शिकायत, न दु:ख, न कामना, न आग्रह । अपनत्त्व ज़रूर था, लेकिन नि:स्पृहता भी थी, विनम्रता थी, लेकिन दीनता नहीं थी, गर्व या अधिकार भावना भी नहीं थी । जो था, प्रकट था, -बनावटीपन नहीं था । सब-कुछ अनायास, संतुलित, और सहज ।
''हम बचपन में ''चंदामामा'' पढ़ा करते थे, आपने भी पढ़ा ही होगा । ''
''हाँ, ''
मैंने उत्तर दिया ।
''उसमें वेताल-कथा होती थी, 'बेताल-पच्चीसी' जैसी कोई नई कहानी, -सन्दर्भ वहीं से लिया जाता था कि राजा शव को कंधे पर लादकर श्मशान की ओर चल पड़ता है, तब शव में स्थित वेताल कहता है, :
'हे राजन ! तुम जिस प्रकार इतना श्रम कर रहे हो, उसे देखकर मुझे राजा सूर्यविक्रम की कथा याद आ रही है, यदि तुम्हें आपत्ति न हो तो मैं सुनाऊँ ? इससे तुम्हारे श्रम में तुम्हारी थकान कुछ दूर होगी ।
... ...
और कहानी के अंत में कोष्ठक में 'कल्पित' लिखा होता था ।
इसी प्रकार कुछ धारावाहिकों, जैसे 'कपाल-कुण्डला' में, 'दुर्गेश-नंदिनी' में, तथा अंत में कोष्ठक में लिखा रहता था, ''...और है । ''
वे उत्साह से कहते हैं ।
'पराग में धर्मयुग में, और दूसरी पत्रिकाओं में भी, जब धारावाहिक कथा या उपन्यास का प्रारंभ होता था,
तो,
'अब तक आप पढ़ चुके हैं ....'
और फिर,
'गतांक से आगे ...'
होता था ।
वे मुझे बचपन में लौटा लाये थे ।
''तो ?''
-मैं पूछ बैठा ।
''कुछ नहीं, अपनी चर्चाएँ भी शायद उसी तरह हुआ करती हैं । ''
वे मंद-मंद मुस्कुराते हुए आज की चर्चा की भूमिका बाँधते हुए बोले । सामान्यत: वे कम बोलते थे, लेकिन यदा कदा उनमें कुछ ऐसा भी नज़र आता था जिसे उन्होंने हृदय में छिपा रखा हो, और उसे किसी से बाँटने में वे उत्सुक हों । क्या यह 'दु:ख' था ?
मैंने उनसे पूछा भी था । और उन्हें एक मौक़ा मिला कि मुझसे कुछ कहें, -ऐसा कुछ जिसे इससे पहले उन्होंने शायद ही किसी और से कहा हो ।
''अजय की मृत्यु से दु:ख उपजा था, लेकिन मैंने वह दु:ख किसी से शेयर नहीं किया, बाँटा नहीं, और मुझे एक दिन अचानक ही पता चला, '-वन फाइन मॉर्निंग' आय डिस्कवर्ड, कि हम दु:ख को भी सिर्फ इसलिए पाल रखते हैं, कि उसके बहाने अपना अस्तित्त्व जारी रखें । ''
वे क्या कह रहे थे, देर तक मैं कुछ भी न समझ सका ।
''दु:ख के बहाने हम अपने झूठे 'मैं' को, -अपने 'होने' के भ्रम को पुख्ता बनाए रखते हैं । ''
दो मिनट इंतज़ार करने के बाद शांत स्वरों में वे बोले ।
मैं सचमुच स्तब्ध रह गया था । वे पागल नहीं थे, उनकी वाणी और शब्दों, उनके द्वारा बोले जा रहे शब्दों और उनके तात्पर्य में न तो बौद्धिक दुरूहता थी और न विसंगति ही थी । वे मुझे कोई नया या पुराना सिद्धांत भी नहीं समझा रहे थे । उनके शब्दों को सुनने के लिए सचमुच बहुत धैर्य की जरूरत थी, और साथ रहते हुए मैं जिसे सीख भी रहा था । ''अपने होने का भ्रम ''
-वे बोले ।
''अब यदि ऐसी बातें मैं किसी से कहूँ तो लोग मुझे पागल ही समझेंगे न ?''
-उन्होंने सरलता से पूछा ।
''आपको भी शायद मेरी बातों से ऐसा ही महसूस हुआ हो तो मुझे आश्चर्य नहीं !''
उन्होंने बालवत उत्सुकता से प्रश्न किया । फिर बोले,
'' लेकिन मुझे होश न था, 'सोचना'बंद हो गया था, उदासी का ज्वार बढ़ते-बढ़ते जब चरम पर पहुंचा तो मैं न था । ''
''आप नहीं थे ? -क्या मतलब ?''
-मैंने अचकचाकर पूछा ।
''नहीं, मैं किसी समाधि या बेहोशी, मूर्च्छा या कल्पनालोक में भी नहीं था । ''
''और दुनिया थी तब ?''
-मैंने साहस कर पूछा ।
उन्होंने मुझे कोई जवाब नहीं दिया । वे 'अपने होने के भ्रम ' के बारे में बतलाने लगे थे :
''सचमुच हम अपने होने के भ्रम से किस बुरी तरह ग्रस्त हो जाते हैं ! लेकिन ऐसा कहना भी अपने-आपमें एक विरोधाभासपूर्ण वक्तव्य ही होगा न ? अजय की मृत्यु के बाद बिटिया की शादी और उसके बाद में जो शून्यता आई, उसे भरने के प्रति उत्साह तो दूर, मुझमें कोई उत्सुकता तक नहीं थी । और तब मुझे बरसों पुरानी घटना याद हो आई थी, -अजय की मृत्यु के समय की, उससे पैदा होनेवाले दु:ख की, उस दु:ख को गले लगाकर जीते रहने की ।''
वे कुछ रूककर बोले,
'' - मतलब अपने होने के भ्रम को पुख्ता करते रहने की और दु:खी रहने में अपने होने के इस भ्रम की निरंतर पुष्टि करते रहने और एक विचित्र किस्म की संतुष्टि पाते रहने की ।''
''यह एक ही समूची घटना थी । ''
-वे बोले ।
''फिर /''
''इसी बीच मैंने उसी विचित्र मन:स्थिति के दौरान वह विज्ञापन अखबार में प्रकाशित करवाया था । ''
''कौन सा विज्ञापन ?''
वे मुझे एकटक देखते हुए बोले,
''वही, जिसे आपने पढ़ा था !
'-एक बार मिल तो लें,
-राजेश । '
''क्यों ?''
''मैं उसे राजेश कहता था, कभी कभी राजू, -यह उसका घर का नाम था । और बहुत कई बार कोशिश की थी कि प्लैनचेट की मदद से उससे बात करूँ, ... ''
वे थोड़ा रुके,
''क्या कहूँ, बड़े अजीब अनुभव हो रहे थे, -कभी लगता कि मैं ही राजेश हूँ, कभी लगता कि मैं अजय हूँ, कभी मैं अजय बन जाता, कभी राजेश । धीरे धीरे स्थिति यह हो गयी कि अपने पूजा के कमरे में ध्यान के आसन पर आँखें मींचकर बैठा मैं, दुनिया की नज़रों में भले ही मेडिटेशन कर रहा होता, लेकिन इस दौरान अपने भीतर राजू या अजय से बातें करता रहता । मुझे पक्का भरोसा हो गया था कि राजू की मृत्यु उसके शरीर की मृत्यु ज़रूर है, लेकिन वह अभी ज़िंदा है, उसकी आत्मा अभी भी मुझसे sanpark बनाए हुए hai ।
बहुत धीरे धीरे मैं यह स्वीकार करने की मन:स्थिति में आ पाया कि उससे होनेवाली मेरी 'मुलाकातें' मेरे हीअवचेतन मन का खेल है, और मैं जब तक चाहूँ, इसे जारी रख सकता हूँ, लेकिन वह न सिर्फ सच्चाई से पलायन है, बल्कि उसके द्वारा मैं बस अपने-आपको विनष्ट ही कर रहा हूँ । और उन्हीं दिनों शायद इसी समझदारी से मैं नर्वसब्रेक-डाउन का शिकार होते-होते बच भी गया । क्योंकि जैसे ही मैंने अपने मन के इस झूठ को पहचान लिया, जिसेकि मैंने ही सिर्फ इसलिए गढ़ा था, कि अपने होने के भ्रम को बचाए रख सकूँ, वैसे ही कुछ ऐसा घटा जिसकीकल्पना नहीं की जा सकती । ''
-वे चुप हो गए ।
''क्या घटा ?''
''पहली बात तो यह कि कल्पना करनेवाला 'मैं' ही जब एक भ्रम है, -मौलिक भ्रम, जो मन के साथ ही जन्म लेता हैयह पता चलते ही, ... ... ''
वे फिर चुप हो गए । फिर थोड़ी देर रूककर बोले,
''... ... एक उदासी, गहन उदासी, कभी-कभी मन को अज्ञात में ले जाती । ''
'' अज्ञात याने ?''
''याने चेतना का ऐसा नया आयाम, जहाँ 'जानना' तो था, किन्तु 'जाननेवाला' भी नहीं था, और न 'जानने' से भिन्नकोई ऐसी वस्तु ही थी, जिसे 'मैं ' अर्थात् 'जाननेवाला' जानने का दावा कर सके । लेकिन वह एक ऐसी स्थिति थीजिसे पहले कभी देखा, सुना या अनुभव नहीं किया था । चूँकि वहाँ इन्द्रिय-संवेदनों में ग्रहण किया जा सकनेवालाकुछ नहीं था, इसलिए उसके बारे में कुछ कहना या सोचना संभव नहीं । हाँ वहाँ द्वंद्व नहीं हैं, संसार भी नहीं है, औरन मैं-जैसी कोई व्यक्तिगत या निर्वैयक्तिक सत्ता । ''
''लेकिन क्या ऐसा कुछ होता भी है ?''
-मैं उसे निर्विकल्प समाधि की तुलना से समझना चाह रहा था ।
''हाँ, -बस वही सचमुच है, लेकिन उसे कोई नाम या शब्द दे देने से क्या उसके बारे में कुछ कहा या समझा जासकता है ?''
''अज्ञात ?''
-मैंने पुन: पूछा ।
''हाँ, लेकिन यह अपने होने के भ्रम जैसा, या किसी भी तरह का कोई भ्रम या विभ्रम नहीं है । क्योंकि सारे भ्रम इसीमें जन्म लेते और मिटते हैं । यह उनके पैदा होने या मिटने से संबंधित कोई चीज़ नहीं है ।''
मुझे लगा कहीं वे पागल तो नहीं हो गए ?
''भोजन कर लेते हैं ।
मैंने विषय-परिवर्त्तन करते हुए कहा ।
''हाँ,''
-वे इतनी सरलता से बोले मानों इस सारी चर्चा में वे थे ही नहीं ।
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>>>>>>>>> उन दिनों 63>>>>>>>
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उनसे मैंने तमाम बातें की हैं, -दुनिया भर की, सुख-दुःख की, पाप-पुण्य, धर्म और धर्मों की, राजनीति और राजनेताओं की, नैतिकता, दर्शन-शास्त्र, मनोविज्ञान, साहित्य और साहित्यकारों की, कला और कलाकारों की, इतिहास की, तंत्र, योग और भगवानों, बाबाओं, स्वामियों, ज्ञानियों, अज्ञानियों, और तथाकथित ज्ञानियों के बारे में भी, बहुत सी चीज़ों के बारे में उन्हें कुछ भी नहीं पता, और वे इसे स्वीकार भी करते हैं, उन्हें कुछ जरूर पता है, जिसके बारे में उपनिषद कहते हैं, ;
''जिसे जानने पर जानने के लिए और कुछ शेष नहीं रहता । ''
छान्दोग्य-उपनिषद् में श्वेतकेतु को इस बारे में पूछा और उपदेश दिया गया ।
(उन दिनों -63 देखें । )
वे भी जानते होंगे, वे कभी उल्लेख नहीं करते, पर मेरा ख़याल है कि उन्होंने कभी अध्ययन अवश्य किया होगा ।
ज्योतिष, चमत्कारों, हिप्नोटिज्म, अतीन्द्रिय-ज्ञान आदि के बारे में, तंत्र के बारे में वे कहते हैं कि उन्हें कभी दिलचस्पी तक नहीं हुई । चायनीज़ मेडिसिन, फेंग-शुई, तिबेटन-बुद्धिज्म, के बारे में भी उन्हें शायद कोई दिलचस्पी नहीं है । वेदान्त, भक्ति, सूफिज्म, पौराणिक विषयों से भी वे बहुत अभिगि नहीं हैं, नाथपंथ की शिक्षाओं, कबीर या दूसरे ऐसे रहस्यवादियों की उलटबांसियों के बारे में पूछने पर वे बस उत्सुकता से देखते भर रहते हैं ।
सचमुच वे इतने सहज और निर्लिप्त हैं कि मुझे उनसे रश्क होने लगा । रश्क की बजाय एम्युलेशन कहना ज़्यादा मुनासिब होगा । वे इतने सरल हैं, कि बहुत देर बाद ही मुझे अपनी तुच्छता का एहसास हो सका । वे केवल विनम्रतावश ही सारी बातें कर रहे थे, और लगता था कि उन्हें उन बातों में दिलचस्पी भी है, लेकिन बस वहीं तक । उन्हें कोई अपेक्षा नहीं थी, बतलाने के लिए उनके पास कोई अनुभव या सिद्धांत नहीं थे, -ऐसा वे कभी-कभी इशारे से या गिने-चुने शब्दों में भी कह देते थे । हर बात की समाप्ति पर उनकी आँखें वैसी ही शांत और स्नेहशील रहतीं थीं, जैसी कि शुरुआत में होतीं थीं । वहाँ न अपेक्षा थी, न शिकायत, न दु:ख, न कामना, न आग्रह । अपनत्त्व ज़रूर था, लेकिन नि:स्पृहता भी थी, विनम्रता थी, लेकिन दीनता नहीं थी, गर्व या अधिकार भावना भी नहीं थी । जो था, प्रकट था, -बनावटीपन नहीं था । सब-कुछ अनायास, संतुलित, और सहज ।
''हम बचपन में ''चंदामामा'' पढ़ा करते थे, आपने भी पढ़ा ही होगा । ''
''हाँ, ''
मैंने उत्तर दिया ।
''उसमें वेताल-कथा होती थी, 'बेताल-पच्चीसी' जैसी कोई नई कहानी, -सन्दर्भ वहीं से लिया जाता था कि राजा शव को कंधे पर लादकर श्मशान की ओर चल पड़ता है, तब शव में स्थित वेताल कहता है, :
'हे राजन ! तुम जिस प्रकार इतना श्रम कर रहे हो, उसे देखकर मुझे राजा सूर्यविक्रम की कथा याद आ रही है, यदि तुम्हें आपत्ति न हो तो मैं सुनाऊँ ? इससे तुम्हारे श्रम में तुम्हारी थकान कुछ दूर होगी ।
... ...
और कहानी के अंत में कोष्ठक में 'कल्पित' लिखा होता था ।
इसी प्रकार कुछ धारावाहिकों, जैसे 'कपाल-कुण्डला' में, 'दुर्गेश-नंदिनी' में, तथा अंत में कोष्ठक में लिखा रहता था, ''...और है । ''
वे उत्साह से कहते हैं ।
'पराग में धर्मयुग में, और दूसरी पत्रिकाओं में भी, जब धारावाहिक कथा या उपन्यास का प्रारंभ होता था,
तो,
'अब तक आप पढ़ चुके हैं ....'
और फिर,
'गतांक से आगे ...'
होता था ।
वे मुझे बचपन में लौटा लाये थे ।
''तो ?''
-मैं पूछ बैठा ।
''कुछ नहीं, अपनी चर्चाएँ भी शायद उसी तरह हुआ करती हैं । ''
वे मंद-मंद मुस्कुराते हुए आज की चर्चा की भूमिका बाँधते हुए बोले । सामान्यत: वे कम बोलते थे, लेकिन यदा कदा उनमें कुछ ऐसा भी नज़र आता था जिसे उन्होंने हृदय में छिपा रखा हो, और उसे किसी से बाँटने में वे उत्सुक हों । क्या यह 'दु:ख' था ?
मैंने उनसे पूछा भी था । और उन्हें एक मौक़ा मिला कि मुझसे कुछ कहें, -ऐसा कुछ जिसे इससे पहले उन्होंने शायद ही किसी और से कहा हो ।
''अजय की मृत्यु से दु:ख उपजा था, लेकिन मैंने वह दु:ख किसी से शेयर नहीं किया, बाँटा नहीं, और मुझे एक दिन अचानक ही पता चला, '-वन फाइन मॉर्निंग' आय डिस्कवर्ड, कि हम दु:ख को भी सिर्फ इसलिए पाल रखते हैं, कि उसके बहाने अपना अस्तित्त्व जारी रखें । ''
वे क्या कह रहे थे, देर तक मैं कुछ भी न समझ सका ।
''दु:ख के बहाने हम अपने झूठे 'मैं' को, -अपने 'होने' के भ्रम को पुख्ता बनाए रखते हैं । ''
दो मिनट इंतज़ार करने के बाद शांत स्वरों में वे बोले ।
मैं सचमुच स्तब्ध रह गया था । वे पागल नहीं थे, उनकी वाणी और शब्दों, उनके द्वारा बोले जा रहे शब्दों और उनके तात्पर्य में न तो बौद्धिक दुरूहता थी और न विसंगति ही थी । वे मुझे कोई नया या पुराना सिद्धांत भी नहीं समझा रहे थे । उनके शब्दों को सुनने के लिए सचमुच बहुत धैर्य की जरूरत थी, और साथ रहते हुए मैं जिसे सीख भी रहा था । ''अपने होने का भ्रम ''
-वे बोले ।
''अब यदि ऐसी बातें मैं किसी से कहूँ तो लोग मुझे पागल ही समझेंगे न ?''
-उन्होंने सरलता से पूछा ।
''आपको भी शायद मेरी बातों से ऐसा ही महसूस हुआ हो तो मुझे आश्चर्य नहीं !''
उन्होंने बालवत उत्सुकता से प्रश्न किया । फिर बोले,
'' लेकिन मुझे होश न था, 'सोचना'बंद हो गया था, उदासी का ज्वार बढ़ते-बढ़ते जब चरम पर पहुंचा तो मैं न था । ''
''आप नहीं थे ? -क्या मतलब ?''
-मैंने अचकचाकर पूछा ।
''नहीं, मैं किसी समाधि या बेहोशी, मूर्च्छा या कल्पनालोक में भी नहीं था । ''
''और दुनिया थी तब ?''
-मैंने साहस कर पूछा ।
उन्होंने मुझे कोई जवाब नहीं दिया । वे 'अपने होने के भ्रम ' के बारे में बतलाने लगे थे :
''सचमुच हम अपने होने के भ्रम से किस बुरी तरह ग्रस्त हो जाते हैं ! लेकिन ऐसा कहना भी अपने-आपमें एक विरोधाभासपूर्ण वक्तव्य ही होगा न ? अजय की मृत्यु के बाद बिटिया की शादी और उसके बाद में जो शून्यता आई, उसे भरने के प्रति उत्साह तो दूर, मुझमें कोई उत्सुकता तक नहीं थी । और तब मुझे बरसों पुरानी घटना याद हो आई थी, -अजय की मृत्यु के समय की, उससे पैदा होनेवाले दु:ख की, उस दु:ख को गले लगाकर जीते रहने की ।''
वे कुछ रूककर बोले,
'' - मतलब अपने होने के भ्रम को पुख्ता करते रहने की और दु:खी रहने में अपने होने के इस भ्रम की निरंतर पुष्टि करते रहने और एक विचित्र किस्म की संतुष्टि पाते रहने की ।''
''यह एक ही समूची घटना थी । ''
-वे बोले ।
''फिर /''
''इसी बीच मैंने उसी विचित्र मन:स्थिति के दौरान वह विज्ञापन अखबार में प्रकाशित करवाया था । ''
''कौन सा विज्ञापन ?''
वे मुझे एकटक देखते हुए बोले,
''वही, जिसे आपने पढ़ा था !
'-एक बार मिल तो लें,
-राजेश । '
''क्यों ?''
''मैं उसे राजेश कहता था, कभी कभी राजू, -यह उसका घर का नाम था । और बहुत कई बार कोशिश की थी कि प्लैनचेट की मदद से उससे बात करूँ, ... ''
वे थोड़ा रुके,
''क्या कहूँ, बड़े अजीब अनुभव हो रहे थे, -कभी लगता कि मैं ही राजेश हूँ, कभी लगता कि मैं अजय हूँ, कभी मैं अजय बन जाता, कभी राजेश । धीरे धीरे स्थिति यह हो गयी कि अपने पूजा के कमरे में ध्यान के आसन पर आँखें मींचकर बैठा मैं, दुनिया की नज़रों में भले ही मेडिटेशन कर रहा होता, लेकिन इस दौरान अपने भीतर राजू या अजय से बातें करता रहता । मुझे पक्का भरोसा हो गया था कि राजू की मृत्यु उसके शरीर की मृत्यु ज़रूर है, लेकिन वह अभी ज़िंदा है, उसकी आत्मा अभी भी मुझसे sanpark बनाए हुए hai ।
बहुत धीरे धीरे मैं यह स्वीकार करने की मन:स्थिति में आ पाया कि उससे होनेवाली मेरी 'मुलाकातें' मेरे हीअवचेतन मन का खेल है, और मैं जब तक चाहूँ, इसे जारी रख सकता हूँ, लेकिन वह न सिर्फ सच्चाई से पलायन है, बल्कि उसके द्वारा मैं बस अपने-आपको विनष्ट ही कर रहा हूँ । और उन्हीं दिनों शायद इसी समझदारी से मैं नर्वसब्रेक-डाउन का शिकार होते-होते बच भी गया । क्योंकि जैसे ही मैंने अपने मन के इस झूठ को पहचान लिया, जिसेकि मैंने ही सिर्फ इसलिए गढ़ा था, कि अपने होने के भ्रम को बचाए रख सकूँ, वैसे ही कुछ ऐसा घटा जिसकीकल्पना नहीं की जा सकती । ''
-वे चुप हो गए ।
''क्या घटा ?''
''पहली बात तो यह कि कल्पना करनेवाला 'मैं' ही जब एक भ्रम है, -मौलिक भ्रम, जो मन के साथ ही जन्म लेता हैयह पता चलते ही, ... ... ''
वे फिर चुप हो गए । फिर थोड़ी देर रूककर बोले,
''... ... एक उदासी, गहन उदासी, कभी-कभी मन को अज्ञात में ले जाती । ''
'' अज्ञात याने ?''
''याने चेतना का ऐसा नया आयाम, जहाँ 'जानना' तो था, किन्तु 'जाननेवाला' भी नहीं था, और न 'जानने' से भिन्नकोई ऐसी वस्तु ही थी, जिसे 'मैं ' अर्थात् 'जाननेवाला' जानने का दावा कर सके । लेकिन वह एक ऐसी स्थिति थीजिसे पहले कभी देखा, सुना या अनुभव नहीं किया था । चूँकि वहाँ इन्द्रिय-संवेदनों में ग्रहण किया जा सकनेवालाकुछ नहीं था, इसलिए उसके बारे में कुछ कहना या सोचना संभव नहीं । हाँ वहाँ द्वंद्व नहीं हैं, संसार भी नहीं है, औरन मैं-जैसी कोई व्यक्तिगत या निर्वैयक्तिक सत्ता । ''
''लेकिन क्या ऐसा कुछ होता भी है ?''
-मैं उसे निर्विकल्प समाधि की तुलना से समझना चाह रहा था ।
''हाँ, -बस वही सचमुच है, लेकिन उसे कोई नाम या शब्द दे देने से क्या उसके बारे में कुछ कहा या समझा जासकता है ?''
''अज्ञात ?''
-मैंने पुन: पूछा ।
''हाँ, लेकिन यह अपने होने के भ्रम जैसा, या किसी भी तरह का कोई भ्रम या विभ्रम नहीं है । क्योंकि सारे भ्रम इसीमें जन्म लेते और मिटते हैं । यह उनके पैदा होने या मिटने से संबंधित कोई चीज़ नहीं है ।''
मुझे लगा कहीं वे पागल तो नहीं हो गए ?
''भोजन कर लेते हैं ।
मैंने विषय-परिवर्त्तन करते हुए कहा ।
''हाँ,''
-वे इतनी सरलता से बोले मानों इस सारी चर्चा में वे थे ही नहीं ।
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