July 30, 2025

THE MESONIC LODGE.

भूतखाना चौक

साल था 1985, माह दिसंबर, तारीख 14.

इसी दिन मेरा स्थानान्तरण उस शहर में हो गया था, जहाँ इस नाम से प्रसिद्ध एक क्षेत्र था / है। 16 दिसंबर के दिन मैं नए कार्यस्थल पर उपस्थित हो गया। बहुत दिनों बाद "श्री रमण महर्षि से बातचीत" पुस्तक में महात्मा गांधी के जीवन का वृत्तान्त पढ़ रहा था जिसे पहले 1983 के बाद भी पढ़ चुका था और भूल भी चुका था। 

इससे पहले के अर्थात् 1981 से तब तक के मेरे पिछले कुछ साल बड़े विचित्र बीते थे। स्वतंत्र ईश्वरीय संकल्प (Automatic Divine Action इस  विचार से मेरा परिचय उन्हीं दिनों हुआ था। इस विचार के जन्म का आधार था :

स्वतंत्र संकल्प  Free Will  की अवधारणा। 

उन दिनों  मैं "ध्यान, भगवान / ईश्वर, जीवन" और यह सब क्या है, इन और इस जैसी आध्यात्मिक धारणाओं के बारे में जानने-समझने का प्रयत्न कर रहा था। और श्री रमण महर्षि तथा मुझे श्री जे कृष्णमूर्ति के साहित्य से बहुत प्रेरणा मिलने लगी थी।

"श्री रमण महर्षि से बातचीत" नामक पुस्तक ही मेरा एकमात्र मार्गदर्शक ग्रन्थ था।

राजकोट में रहने लगा तो वहाँ पर श्री रामकृष्ण परमहंस के मठ में भी प्रायः जाने लगा था। इसी दौरान फिर एक बार उपरोक्त पुस्तक में गांधी जी के जीवन से संबंधित इस विवरण को पढ़ने का अवसर मिला, जिसमें वे कह रहे थे -

"राजकोट मैं क्यों जा रहा हूँ? शायद यह विधाता का ही विधान है।"

राजकोट में किसी समय Mesonic Lodge  नामक एक संस्था Theosophy  की स्थापना के समय से ही कार्य कर रही थी। इसे ही स्थानीय लोग भूतखाना कहा करते थे। उस संस्था से कुछ अंग्रेज और यूरोपय, और अन्य विदेशी लोग जुड़े रहे होंगे ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है।

अंग्रेजी भाषा का 

Meson / Mission शब्द, मिस्र / इजिप्ट के समय के पिरामिड्स के निर्माण के समय से ही प्रचलित है, जब फराओ Pharaoh के समय में मृतकों को "ममीफाय" किया जाने लगा था और मृत्यु हो जाने के बाद आत्मा के अस्तित्व की उस धारणा को सत्य माना जाता था जिसमें मृतक के शव को सुरक्षित रखा जाता था ताकि प्रलय के आने तक मृतक की आत्मा उन सब सुखों का उपभोग करती रह सके जिनका उपभोग उसने जीवित रहते हुए किया था। उन्हें यह आशा थी कि प्रलय के आने पर उन्हें पुनः जीवित किया जा सकेगा। यद्यपि यह विषय गूढ है और शायद अविश्वसनीय तथा विचित्र भी। किन्तु संभव है कि अब्राहमिक परंपराओं में अंतिम न्याय के दिन की परिकल्पना का प्रारंभ यहीं से हुआ है। जो भी हो यह सनातन वैदिक और पौराणिक धर्म की उन मान्यताओं पर ही अवलंबित था जिसमें प्रेतलोक और पितृलोक के अस्तित्व के बारे में कहा जाता है। मिस्र से मिस्री और मेसन तथा अंग्रेजी में इसी अर्थ में :

Meson / Mesonic / Mission / Missionary  

मेसनिक और मेसन शब्दों का प्रचलन प्रारंभ हुआ होगा, ऐसा कह सकते हैं।

तब से आज तक भी बहुत ही कम, इने गिने कुछ लोग पृथ्वी पर हैं जो आज भी उस प्रेत लोक और पितृ लोक के संपर्क में हैं और यद्यपि यह एक ऐसा रहस्यमय क्षेत्र है जहाँ रहनेवाली अशरीरी आत्माएँ सुदूर अतीत से सुदूर भविष्य की घटनाओं को देख सकती हैं, फिर भी औसत मनुष्य के लिए बहुत भयावह भी है। सामान्य मनुष्य इस बारे में शायद ही कभी कुछ जान सकता है। किन्तु आज जब से इंटरनेट टैक्नॉलॉजी का अत्यन्त अधिक विकास हुआ है, उन लोकों में रहनेवाली आत्माओं को सामान्य मनुष्य से जुड़ने का यह एक सुविधाजनक माध्यम प्राप्त हो गया है। आजकल के अधिकांश भविष्यवक्ता जो कि आकाशीय रेकॉर्ड्स तथा ऐन्जलिक कनेक्शन का दावा किया करते हैं इसीलिए मनुष्य और हमारी पूरी दुनिया के ही भविष्य के बारे में विश्वसनीय और प्रामाणिक रूप से बहुत सी बातों को वैसे ही देख सकते हैं जैसे आज हम इंटरनेट के उपयोग से मोबाइल या कंप्यूटर के स्क्रीन पर देखा करते हैं। वे आत्माएँ / Angels  जो ऋषि अङ्गिरा की ही परंपरा की हैं सदैव मनुष्यों से संपर्क करती रही हैं किन्तु आज यह और भी अधिक आसान हो गया है। बाबा वेंगा, नॉस्ट्रेडेमस या जापानी भविष्यदृष्टा इसीलिए वैसे ही सुनिश्चित भविष्यवाणी कर पाते हैं जैसे कि भृगु आदि प्राचीन ऋषि किया करते थे / हैं। 

एक sub-atomic particle   होता है  मॅसॉन /  Meson जो मनुष्यों और उन अशरीरी आत्माओं के बीच इसी संपर्क को संभव बनाता है। वे लोग सब कुछ, अतीत और भविष्य, जानते हैं और उन्हें यह भी पता है कि मनुष्य का अपने आपके स्वतंत्र संकल्प का विचार उसका कोरा अज्ञान और भ्रम ही है। यद्यपि वे समष्टि चेतना / collective consciousness के माध्यम से ही यह सब जानते हैं किन्तु उन्हें यह भी पता है कि वे न तो किसी घटना को और न ही किसी मनुष्य या उसके भाग्य को प्रभावित कर सकते हैं।

विधाता ने जैसा पहले से से सुनिश्चित किया है वैसा होना अवश्यम्भावी, अचल और अटल है।

ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त में इसे ही 

यथा धाता पूर्वमकल्पयत् ...

इन शब्दों से इंगित किया गया है। 

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July 22, 2025

Endeavor and Adventures!

यह दौर!

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खूब है वक्त का यह दौर भी, 

चलते रहना है अभी तो और भी!

संघर्ष स्वभाव है, अवसर नहीं,

आ गया है, आज तो यह ठौर भी!

हर रात और रोज ही, दिन में भी,

ताकतवर कभी, तो कमजोर भी,

युद्ध घमासान भी, घनघोर भी,

खूब है वक्त का यह दौर भी,

चलते रहना है अभी तो और भी!

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Walking Into Void!

Hindi Poetry

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सिर्फ वहीं तक चलना है, 

जहाँ तक राह दिखाई दे!

सिर्फ तभी तक चलना है, 

कदम जहाँ तक चल पाएँ, 

चाह तो गहरी है लेकिन,

उमंग भी उतनी है उत्कट,

न्यौछावर सब कुछ करना है,

जितना, जैसा भी कर पाएँ!

योद्धा होना, योगी होना, 

कर्मठ होना, त्यागी होना, 

संकल्प नहीं, निश्चय होना,

असंभव है, जो डर जाएँ!

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July 17, 2025

Fifty Years Hence.

50 वर्षों पहले

वर्ष था 1975

तब से भटक रहा हूँ। वैसे तो जन्मों जन्मों से भटक रहा हूँ ऐसा किसी ने बताया था। और मैंने भी उनकी बात को बिना संदेह किए सच मान लिया था। तब मुझे यह सूझा ही नहीं कि पता लगाऊँ कहीं वे मुझे भ्रमित तो नहीं कर रहे थे! मैं तो बस इस चिन्ता में डूब गया कि इस तरह से मुझे कब तक भटकते रहना है! यह तो बहुत बाद में पता चला कि भटकाव तो बुद्धि का स्वभाव ही है। और यह भी पता चला कि बुद्धि की कठिन से कठिन चेष्टा से भी बुद्धि का भटकाव दूर नहीं हो सकता है।

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July 14, 2025

PHASE-RULE

 ब्रह्मा और  विश्वकर्मा

विश्वकर्मा ब्रह्मा के मानस-पुत्र हैं।

और यह कहा जा सकता है कि ब्रह्मा स्वयं भी भगवान् श्रीमहाविष्णु श्रीहरि के मानस-पुत्र हैं।

ब्रह्मा और विश्वकर्मा नित्य, नित्य-अनित्य, और सनातन भी हैं और सतत सृष्टिकर्ता भी हैं। ऐसे ही किसी समय पर ब्रह्मा के मन से कल्पित अतीत में, कल्पना के रूप में विश्वकर्मा का जन्म हुआ और विश्वकर्मा ने उन्हें प्रणाम करने के बाद प्रश्न किया :

पिताजी मेरे लिए क्या आज्ञा है जिसका मैं पालन करूँ!

तब ब्रह्मा ने उनसे कहा :

वत्स! तुम्हें पता ही है कि तुम मेरे ही अंशावतार हो और अब मेरे द्वारा स्थूल महाभूतों की सृष्टि करने के बाद तुम इनके असंख्य रूपाकारों में प्राण प्रतिष्ठपना करो ताकि उनमें से प्रत्येक में व्यष्टि चेतना जागृत हो।

तब विश्वकर्मा ने प्रश्न किया :

किन्तु पिताजी! प्राण भी सर्वत्र व्याप्त हैं और चेतना भी इसी तरह सर्वत्र व्याप्त है। अर्थात् चूँकि सब कुछ चेतना और प्राण में व्याप्त है और चेतना और प्राण सबमें इसी प्रकार से, तो व्यष्टि- प्राण और व्यष्टि-चेतना का संयोजन भिन्न भिन्न रूपाकारों में किन किन  भिन्न भिन्न प्रकारों में करना उचित होगा जिससे कि पूरे संसार का कल्याण हो न कि विनाश?

ब्रह्मा ने कहा :

तुम्हें द्यु-लोक और पितृ-लोक अर्थात् द्यु-पितरौ इन दोनों की सहायता से ऐसा करना होगा। द्यु लोक द्युति अर्थात् वैद्युत् और पितृ प्राण और रयि का अधिष्ठान सूर्यलोक है, जिसका अंश बृहस्पति है। रयि चन्द्र है और पृथ्वी-तत्व भूमि है। इन सब तत्वों का भिन्न भिन्न प्रकार से संयोजन करने पर जीव-सृष्टि प्रकट होगी और प्रत्येक रूपाकार में पृथक् पृथक् व्यष्टि-चेतना व्यक्त होगी। इन असंख्य जीवों का ज्ञान अज्ञान से आवरित हो जाने के कारण उनमें से प्रत्येक में अपने कर्मों के स्वतंत्र और पृथक् कर्ता, और अपने सुख दुःखों के स्वतंत्र भोक्ता होने का, अपने शरीर, मन, बुद्धि, प्राणों तथा अन्य सभी लौकिक वस्तुओं के स्वामी होने का एवं इसी प्रकार इस मिथ्या ज्ञान से उत्पन्न अभिमान के पृथक् और स्वतंत्र ज्ञाता होने की कल्पना का जन्म होगा। यह सब नियति से ही तय है और नियति में ही प्रसुप्त तथा अप्रकट रहता है और काल की गति के साथ व्यक्त और पुनः अव्यक्त होता रहता है। यही शं और प्रशम् है। शं का अर्थ है शमन शान्तभाव और प्रशम् का अर्थ है प्रशान्ति, जो सृष्टिक्रम के साथ साथ चलनेवाला गतिविधि होती है। प्रशस्ति, प्रश्यः, प्रथ्यते, प्रथमः इति प्रशान्तिः।

तब विश्वकर्मा ने उन असंख्य रूपाकारों में वायु के द्वारा प्राणों का संचार किया। प्राणों का वायु के साथ शरीर में संचार होते ही उनमें विद्यमान समष्टि चेतना व्यष्टि चेतना में सीमित और बद्ध हो गई और उस सीमित प्राण-चेतना के सक्रिय होते ही श्वास के आवागमन से प्राण-चेतना को 'अत्ता' या श्वास ग्रहण और विसर्जित करनेवाला अर्थात् "आत्मा" नाम प्राप्त हुआ। श्वास की गति के साथ साथ तंत्रिका तंत्र की तीन प्रमुख नाड़ियों में प्राणों का प्रवाह प्रारंभ हो गया जिन्हें क्रमशः इडा, पिंगला और सुषुम्ना कहा गया। उन समस्त रूपाकारों के लिए व्यष्टि-जीवन जीने हेतु यह पर्याप्त था।

प्रत्येक व्यष्टि-जीवन या व्यक्ति में तब उसके अपने लोक में निरंतर सुख प्राप्त करते रहने की लालसा और दुःखों से भय का जन्म हुआ। क्रमशः बुद्धि परिष्कृत, परिपक्व और स्थिर होने पर नित्य क्या है और अनित्य क्या है इस ओर ध्यान आकर्षित हुआ और दीर्घकाल तक अनुसंधान करते हुए उसने अपने भीतर नित्य विद्यमान अविकारी आत्मा का साक्षात्कार कर लिया।

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July 13, 2025

Vimal Mitra

বিমল মিত্র

जब मैं कॉलेज में पढ़ता था तो विक्रम विश्वविद्यालय के जीवाजीराव पुस्तकालय से पढ़ने के लिए किताबें लाया करता था। यहाँ तक कि मेरे पिताजी भी शौक से उन्हें पढ़ा करते थे। ऐसी ही एक किताब थी विमल मित्र की पुस्तक "मन क्यों उदास है?"

आज अचानक मन व्याकुल हुआ तो मन में प्रश्न उठा :

मन क्यों व्याकुल है?

कुछ देर तक मोबाइल पर यूँ ही समय बिताता रहा। फिर अचानक याद आया कि आज सुबह से कुछ ऐसा होता रहा कि मन व्याकुल हो उठा। मेरे साथ तो नहीं, किन्तु कुछ दूसरों, अपरिचित लोगों के साथ, जिनकी खबरें मोबाइल पर देख और पढ़ रहा था। बाढ़, भूकम्प, हत्या, हिंसा की खबरें। धीरे धीरे मन बोझिल हो उठा। जब मन व्याकुल हो उठता है तो हम शायद ही कभी इस बात पर ध्यान देते हैं कि मन व्याकुल कब और क्यों हुआ! कभी कभी अवश्य ही कुछ कारण होते हैं और मन उदास हो जाता है, कभी तो क्षुब्ध, क्रुद्ध, उद्विग्न और कभी कभी तो बहुत विचलित भी। दफ्तर जाने की हड़बड़ी, समय पर दफ्तर न पहुँच पाने का डर, किसी का जरूरी फोन कॉल आ जाना और ऐसी ही अनेक स्थितियों का सामना करते हुए लगातार तनाव में होने पर क्या मन शान्त रह सकता है! फिर जब थोड़ा सा वक़्त मिलता है तब भी उन सब बातों की चिन्ता तो रह ही जाती है। मेरी स्थिति अवश्य ही बाकी लोगों से बहुत अलग है। जंगल हाउस में रहते हुए न तो किसी काम के जल्दी होने या करने का दबाव, न  प्रतीक्षा,  न दफ्तर जाने की चिंता, न किसी के आने जाने का सवाल। कभी कभी तो महीनों तक किसी के दर्शन नहीं होते। न कोई दोस्त न परिचित, बस अपने स्थान से पाँच मिनट की दूरी पर स्थित नर्मदा के पुराने पुल तक जाना और लौट आना। इस पुल पर ट्रैफिक भी कम रहता है, या कहें कि होता ही नहीं है। कभी कभी पुल पर दर्जन भर गाय बैल जरूर बैठे रहते हैं, जिनके बीच से रास्ता निकालना मुश्किल नहीं होता। 

आज जब उस पुल पर पहुँचा तो देखा कि नर्मदा बाढ़ पर आई हुई है। किनारे पर चार दिन पहले जहाँ शंकरजी पत्थर के जिस चबूतरे पर विराजित थे, वह चबूतरा और शंकर जी भी नर्मदा नदी के जल में डूब चुके थे। पानी उनके सिर से एक फुट ऊपर चला गया था। वहीं दूसरे किनारे पर ऊँचाई पर विराजमान दूसरे शंकर जी आँखें बंद किए ध्यानमग्न थे। दूसरी तरफ नए पुल पर वाहन आ जा रहे थे।

रविवार के दिन यहाँ अकसर कुछ अतिरिक्त दुकानें खुल जाती हैं जो शाम होते होते बंद हो जाया करती हैं। कुछ चाय नाश्ता की दुकानें एक दो सब्जी और फल आदि की और बाकी नारियल, चने चिरौंजी, कुंकुम और नर्मदा जी के फोटो की। फल की दुकान से केले लिए, सब्जी कोई नहीं मिली और वापस आ गया। बाहर निर्माण कार्य चल रहा है। अब जब यह लिख रहा हूँ तो धूप खुलकर चमक रही है।

सुबह चार केले और दो लड्डू खाए थे। घंटे भर बाद चाय पी थी और फिर बाहर घूमता रहा।

लेकिन मन अब भी व्याकुल है।

अब याद आया, एक मित्र से फोन पर बात हो रही थी। दो दिन पहले ही वह मिलने आया था। उससे बातें करते हुए ही मन उचट गया था। फिर भी करीब 40 मिनट तक हम बातें करते रहे। एक बुद्धिजीवी मित्र। कुछ किताबें वे लिख रहे हैं। अध्यात्म में भी दखल है। बातचीत तो होती रही पर बात नहीं हुई।

सब कुछ भूलकर, यू-ट्यूब देखकर मन लगाने का प्रयास किया और उसमें भी कुछ ऐसा नहीं मिला जिसका कोई मतलब रहा है। फिर उसे बंद कर दिया। भोजन बनाना था, नहाना तो बारिश में हो चुका था। बस यूँ ही कट रही है आजकल जिन्दगी।

उदासी और व्याकुलता के बीच कभी कभी नींद तो कभी नर्मदा के दर्शन करते हुए मन एकाएक अत्यन्त शान्त तो कभी बहुत प्रसन्न, स्तब्ध हो जाता है। पल भर में सारी व्याकुलता हवा हो जाती है।

और यह प्रश्न भी!

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July 12, 2025

Romantic Escapades.

जीवन-साथी

सरसिज, मनसिज और सुख-बुद्धि

अकेलेपन के बारे मे पिछले पोस्ट में कुछ लिखा था, जिसे किसी ने पढ़ा और प्रश्न पूछा कि धर्म, नैतिकता और शील के परिप्रेक्ष्य में एक जीवन साथी की मृत्यु हो जाने पर विकल्प के रूप में किसी दूसरे के साथ विवाह कर या बिना विवाह किए रहना कितना उचित है, इससे समाज में क्या संदेश जाता है? 

धर्म अर्थात् आचरण, नैतिकता अर्थात् अभ्यास और शील अर्थात् अनुशासन। संभवतः इसके लिए उपयुक्त अंग्रेजी शब्द Character, Ethics, Morality  और Discipline हो सकते हैं। धर्म का अर्थ होगा - प्राकृत व्यवहार, - natural predisposition.

वास्तव में, अंग्रेजी भाषा के religion शब्द की उत्पत्ति relegate शब्द से हुई है। religion वह है जो किसी को अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति से बाहर ले जाता है और किसी भिन्न, सुनिश्चित प्रणाली के अनुसार पूर्वनिर्धारित आचरण या व्यवहार करने के लिए बाध्य कर देता है। और प्रणाली सामाजिक और समुदाय विशेष की रीति रिवाजों से तय होती है। भिन्न भिन्न संप्रदायों, समुदायों,  religions और traditions के अनुयायियों में भी  सभी प्रकार की प्रवृत्तियों वाले अनेक मनुष्य होते हैं और उनमें से कुछ कम तो कुछ अधिक शक्तिशाली होते हैं जो कि कम शक्तिशाली लोगों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लेते हैं जिसका कारण होता है लोभ, भय,  ईर्ष्या और उससे उत्पन्न प्रतिद्वन्द्विता की भावना।  यह केवल एक संयोग ही नहीं है कि ऐसे सभी संप्रदायों के बीच आपस में और भीतर भी सदैव संघर्ष चलता रहता है। विवाह नामक व्यवस्था की अवधारणा और समाज पर इसे लागू करने का आधार वैसे तो यही होता है, ताकि समाज में परस्पर सामञ्जस्य बना रहे क्योंकि मनुष्यों का समाज परिवार की अवधारणा  पर आधारित होता है और पति पत्नी, माता पिता, भाई बहन, पिता पुत्र, पिता पुत्री, माता और पुत्र तथा माता और पुत्री के बीच स्नेह संबंध स्वाभाविक रूप से सौहार्दपूर्ण होने के लिए आवश्यक है कि उन्हें मर्यादा का पालन करना होगा। मनुष्य, मनुष्यों का परिवार और समाज इस दृष्टि से पशुओं से भिन्न होता है कि वह पशुओं की तरह यौन प्रवृत्तियों का उच्छृंखल और निर्द्वन्द्व, मर्यादारहित उपभोग नहीं कर सकता, और मनुष्य की सभ्यताओं के प्राचीन से प्राचीन रूपों में इसे इसीलिए धर्म के आवश्यक अंग की तरह स्वीकार किया जाता रहा है, जिसका पालन करने की अपेक्षा सभी से की जाती है, और इसका उल्लंघन करने पर अनेक तरह के उपहास, दंड और निंदा का भागी होना पड़ता है। और यह इस तरह हजारों वर्षों से मनुष्य के सामूहिक मन में संस्कार की तरह स्थापित हो चुका है। सनातन वैदिक परंपराओं में इस पर बहुत सूक्ष्मता से अनुसंधान किया गया है और इसलिए विवाह को एक पवित्र संबंध माना गया है। पति और पत्नी के बीच के यौन संबंध को उपभोग की तरह तो महत्वपूर्ण माना ही गया है, किन्तु यह सभी का एक दायित्व भी है कि कोई भी पुरुष हो या स्त्री, विवाहेतर यौन संबंध का उपभोग कदापि न करे। इतना ही नहीं, यहाँ तक कि पर पुरुष या पर नारी से व्यवहार करते समय मनुष्य को इस मर्यादा का स्मरण रखना चाहिए। चूँकि स्त्री पुरुष के बीच का काम व्यवहार न तो निंदा और न ही हँसी मजाक का विषय है, और न तो मानसिक कल्पना का, इसलिए सामान्यतः मनुष्य के लिए यह समझ पाना कठिन हो जाता है कि वह अपनी काम-भावना को किस प्रकार नियंत्रण में रखे जिससे कि समाज में परस्पर कलह उत्पन्न न हो और हर पुरुष तथा स्त्री शान्तिपूर्वक दाम्पत्य जीवन का उपभोग करता रहे, न कि लंपट की तरह पशुवत कामचिंतन करता रहकर कुंठाग्रस्त या वृत्तियों भरा जीवन व्यतीत करता रहे। यदि मनुष्य अपनी काम संवेदनशीलता के प्रति सजग है और इसे कुंठा या अभ्यस्तता नहीं बनने देता है तो लगभग आधा जीवन बीत जाने पर वह आत्मीयतापूर्ण प्रेम तथा वासना के बीच के अन्तर को जान लेता है और जीवन साथी की आकस्मिक मृत्यु हो जाने पर भी काम वासना से पीड़ित या त्रस्त नहीं रहता। तब उस आयु में अपने जीवन साथी को कामोपभोग की दृष्टि से नहीं देखता है और तब काम उसके लिए बाध्यता या समस्या नहीं बन पाता है। स्त्री हो या पुरुष तब अधिक आयु हो जाने और जीवन साथी से बिछुड़ जाने पर किसी और को जीवन साथी बनाकर अच्छे और आत्मीय मित्र की तरह साथ रह सकते हैं और इसमें समाज के किसी और व्यक्ति या लोगों के द्वारा हस्तक्षेप किया जाना धृष्टता ही होगा। आज के समय में समाज में विवाह और स्त्री-पुरुष के विवाह करने या न करने के बावजूद एक साथ रहने के बारे में भिन्न भिन्न दृष्टिकोण और मत हैं तो हमें प्रकृति की व्यवस्था पर ध्यान देना होगा जहाँ पशु पक्षी भी बिना किसी नैतिकता, धर्म, आदि के नियंत्रण में रहते हुए भी केवल उचित समय आने पर ही अपने जीवन साथी का चुनाव करते हैं और संतान को जन्म देकर एक दूसरे से दूर भी हो जाते हैं।

तो विवाहित अथवा अविवाहित रहना और किसी साथी के साथ रहना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि अपनी काम भावना को दमन, कुंठाओं, कुत्साओं और विकृतियों से कैसे मुक्त रखा जा सकता है। वासनाग्रस्त बने रहना न तो स्वस्थता है और न ही यह स्वाभाविक है। स्वस्थ मन ही परिवार और समाज के स्वस्थ बने रहने के लिए आधार और सहायक हो सकता है।

चेतना जल की तरह सर्वत्र व्याप्त जीवन का ही नाम है।जैसे जल में कमलपुष्प खिलते हैं और इसलिए कमल को सरसिज कहा जाता है, वैसे ही चेतना में मन प्रकट और अप्रकट होता है। काम को मनसिज कहा जाता है, जो मन में ही जन्म लेता है और मन में ही विलीन भी हो जाता है। काम कठिन समस्या न बन जाए इसके लिए आवश्यक है कि इसका आत्मीयता में रूपान्तरण कैसे  हो सकता है इस पर ध्यान दिया जाए। इस दृष्टि से पशु भी मनुष्य की तुलना की अपेक्षा कहीं अधिक समझदार होता है। शायद मनुष्य पशुओं से कुछ सीख सकता है। पशु सुखबुद्धि की कल्पनाओं में नहीं जीते। और विचार नामक शाब्दिक बौद्धिकता से तो वे नितान्त ही अनभिज्ञ होते ही हैं।  

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July 11, 2025

THE BETA VERSION

बेटा! 

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्। 

यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।४५।।

(गीता अध्याय १)

"बत" - संस्कृत भाषा के व्याकरण के अनुसार अव्यय पद है, जिसके रूप सदा अविकारी रहते हैं। 

उपरोक्त श्लोक में "बत" पद का प्रयोग खेद प्रकट करने के अर्थ में किया गया है। यह "बत" पुनः "वत्" पद का समानार्थी है। "वत्" शतृ शानच् प्रत्यय है जिसका प्रयोग "वान्" के अर्थ में किया जाता है। इससे व्युत्पन्न "वत् स" / "वत् स" / "वत्स" पद का प्रयोग संतान या पुत्र के अर्थ में किया जाता है। इससे ही "वात्सल्य" शब्द प्राप्त होता है जो संतान के प्रति स्नेह का द्योतक है।

भाव ही भाषा का जनक और भावना ही भाषा की माता है। और इसलिए तमाम भाषाओं में मूलतः समानता पाई जाती है। भाषा के प्रयोजन के अनुसार यह संस्कृत या प्राकृत हो जाती है और भाव तथा भावना ही भाषा के पिता और माता हैं। इसलिए यह धारणा कि किस भाषा की उत्पत्ति किस दूसरी भाषा से हुई है, मूलतः भ्रामक है। अक्षरसमाम्नाय संस्कृत-व्याकरण का आधार है, और पालि तथा प्राकृत व्याकरण अन्य सभी भाषाओं का।

अभी हम "बत" पद पर विचार करें -

यह संयोगमात्र नहीं है कि अंग्रेजी भाषा के But और What शब्द जो क्रमशः समुच्चयबोधक और सर्वनाम पद हैं इसी "बत" के

अपभ्रंश /सजात / सज्ञात /  cognate हैं -

समुच्चयबोधक अर्थात् - conjunction,

सर्वनाम अर्थात्  pronoun.

इसी वत् से व्युत्पन्न वत्स का रूपान्तरण हिन्दी में बच्चा 

तथा वत्स से व्युत्पन्न "वत्सल" का लैटिन भाषा में -

Bachelor  में हुआ।

gradus baccalaurei 

(Bachelor degree) 

तात्पर्य यह नहीं कि सभी भाषाओं का उद्गम संस्कृत से हुआ और संस्कृत ही सब भाषाओं की जननी है। जिन्हें अधिक जिज्ञासा है वे देवी अथर्वशीर्ष का अध्ययन कर सकते हैं।

चूँकि वेद श्रुतिपरक हैं अर्थात् ध्वनि का तत्व ही उनका मर्म और आधार है इसलिए वेदमंत्र विशिष्ट ध्वनियों के विशिष्ट संयोजन हैं जिनके उच्चारण की शुद्धता उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कि किसी कंप्यूटर के किसी प्रोग्राम के लिए किसी कंप्यूटर भाषा का कोडिंग और डिकोडिंग होता है। एक भी संकेत / कोड की त्रुटि पूरे प्रोग्राम को नष्ट कर देती है। इसलिए वेदमंत्रों के शुद्ध उच्चारण पर ध्यान देना सर्वाधिक आवश्यक और महत्वपूर्ण है। 

परंपरा के अनुसार वेदमंत्रों की शिक्षा आचार्य के द्वारा छात्र को वाणी के माध्यम से दी जाती है जिसे अपनी सुविधा के लिए लिपिबद्ध कर सकता है। इस रीति से लिपि का प्रयोग भाषा को स्मृतिबद्ध करने के लिए किया गया। लिपियों का विकास ब्राह्मी, देवनागरी और द्राविड इन तीन प्रकारों में हुआ । ब्राह्मी जो ब्रह्मा और ब्रह्माणी शारदा / सरस्वती है, श्रीलिपि जो लक्ष्मी है और नागरी या देवनागरी जो नागवदन गणपति है। श्रीलिपि से ही ऋषि भाषा का उद्भव हुआ जिसका अपभ्रंश रूसी की सिरिल / Cyril  लिपि में हुआ जिससे पुनः ग्रीक और फिर हिब्रू भाषाएँ क्रमशः अस्तित्व में आईं। अरबी भाषा मूलतः पर्शियन / पहलवी के ही प्रयोग का विस्तार है, जबकि भ्रान्तिवश समझा यह जाता है कि पर्शियन / पहलवी का उद्गम अरबी से हुआ।

जहाँ तक द्राविड भाषा और लिपि का प्रश्न है, उसके भी दो प्रकार हैं जिनमें प्रथम है प्रचलित लोकभाषा के रूप में  தமிழ்,  తెలుగు, ಕನ್ನಡ  और  മലയാളം - अर्थात् तमिष़, तेलुगू, कन्नड और मलयालम, जो सभी द्राविड ही हैं। इसमें एक विशेष और महत्वपूर्ण बात यह है कि यद्यपि वेदमंत्रों को  தமிழ்  के अलावा इन सभी भाषाओं की लिपियों में यथासंभव शुद्धतापूर्वक लिखा जा सकता है और इसलिए द्राविड को  தமிழ்  लिपि में लिखे जाने के लिए ग्रन्थलिपि का अविष्कार ऋषियों ने ही किया। ग्रन्थलिपि में समस्त वेदमंत्रों को वैसा ही पढ़ा जाता है और वैसा ही उच्चारण भी किया जाता है जैसा कि उन्हें लिखा जाता है, जबकि लोकभाषा के रूप में प्रचलित  தமிழ்  द्राविड लिपि के प्रयोग में यह नहीं किया जा सकता है।

अतः निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि हिन्दी में प्रचलित संतान / पुत्र के अर्थ में प्रयुक्त "बेटा" शब्द का उद्भव और लोकभाषा में प्रचलन इसी "बत" / "वत्" से हुआ।

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Widow and Widower

विधवा और विधुर

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कोई उम्मीद बर नहीं आती,

कोई सूरत नजर नहीं आती!

इस शे'र में एक शब्द है "बर", जिसे मराठी में "बरऽ" कहा जाता है और गुजराती में  "સારુ"।  यह "बर" शब्द संस्कृत के "वर" का पर्याय है और  "સારુ"  संस्कृत के "चारु" का। वैसे उर्दू भाषा में, जैसा कि उपरोक्त उद्धृत शे'र में है, यह संस्कृत के "वर", "ज्वर" और "ज्वल" का अपभ्रंश है।

एक मराठी भजन याद आया -

"तो हा विट्ठल बरवा, तो हा माधव बरवा .."

तात्पर्य यह कि वह जो विट्ठल के नाम से प्रसिद्ध है, वही यह माधव के नाम से भी प्रसिद्ध है।

माधव शब्द में दो पद हैं - मा और धव। 

मा का अर्थ है जिसे मापा जा सकता है, अंग्रेजी में कहें तो  measurable. यह कहना अनुचित न होगा कि अनुभव की दृष्टि से, -

measurable  और  miserable पर्याय हैं। जो भी measurable है वह miserable होगा ही, और जो भी  miserable  होगा  उसका कष्ट असीमित तो नहीं होगा, फिर वह कितना भी  miser  या miserly हो! 

दूसरा पद है "धव"। धव का अर्थ है - पति या स्वामी। इसलिए माधव का अर्थ हुआ मायापति। माया अर्थात् ऐश्वर्य / लक्ष्मी, और मायापति का अर्थ हुआ ईश्वर।

विधवा का अर्थ हुआ वह स्त्री जिसके पति की मृत्यु हो चुकी है। स्त्री ही गृह और गृहस्थी की धुरी है। इसलिए जिस पुरुष की स्त्री की मृत्यु हो जाती है, उसे विधुर कहा जाता है।

बहुत संभव है कि अंग्रेजी भाषा के शब्द :

widow और widower

इन्हीं दोनों शब्दों के अपभ्रंश हों!

प्रसंगवश,

हालाँकि मैंने कभी विवाह नहीं किया किन्तु जिन्होंने भी किया और एक सुदीर्घ और सुखद वैवाहिक जीवन जिया और दुर्भाग्यवश जिनके जीवन साथी की मृत्यु हो गई, संतानें अपने अपने परिवार बसाकर उनमें रच बस गईं, ऐसे भी मेरे कुछ मित्र और सगे संबंधी हैं, जिनके बारे में लगता है कि वे एक नया जीवन साथी चुन लें तो उनका जीवन सुचारु और सुव्यवस्थित हो सकता है। उनमें से अधिकतर इतने अधिक निराश और दुःखी हो जाते हैं,  depression में चले जाते हैं, कि इस दिशा में न तो सोच पाते हैं, न पारिवारिक और सामाजिक दबावों में संकोचवश आगे बढ़ पाते हैं। यहाँ तक कि इस बारे में बातचीत तक करने में उन्हें हिचकिचाहट होती है। यह तो समझा जा सकता है कि ऐसे जीवन में अकेलापन और भी अधिक बोझिल हो जाता है और तब वे तथाकथित आध्यात्मिक या धार्मिक संस्थाओं या क्रियाकलापों से जुड़कर अपने अकेलेपन और खालीपन को भरने की असफल प्रयत्न करने लगते हैं जबकि उन्हें आवश्यकता होती है सामाजिक और पारिवारिक सहारे की। वृद्धाश्रम में भी 'समय बिताने का प्रश्न' तो होता ही है। अपना कोई जब तक ऐसा न हो जिससे कि आत्मीयता हो, तब तक मनुष्य का अकेलापन और खालीपन दूर नहीं हो सकता। अपने बारे में कहूँ, तो मुझे बचपन से ही एकाकीपन से अत्यन्त लगाव रहा है। अपना अकेलापन और खालीपन हमेशा ही इतना अद्भुत् लगता रहा है कि किसी से मिलने तक की आवश्यकता अनुभव नहीं होती। यहाँ तक कि लोगों से संवाद संभव न हो पाने पर केवल समय बिताने के लिए किसी बातचीत करना भी असुविधाजनक और व्यर्थ का एक अनावश्यक उपद्रव ही लगता है। मनोरंजन के किसी भी साधन और सामग्री को मैं अपनी निजता और एकाकीपन में बाधा ही अनुभव करता हूँ। मैं मानता हूँ कि और लोगों से कुछ भिन्न, कुछ विचित्र, असामान्य भी हूँ मैं, किन्तु किसी के जीवन में हस्तक्षेप नहीं करता, और न किसी से यह अपेक्षा करता हूँ कि वह मेरे जीवन में हस्तक्षेप करे। जिन किन्हीं भी जड चेतन प्राणियों से मेरा संपर्क होता है उनसे मुझे आत्मीयता तो अनुभव होती है, परिचय और परिचय की स्मृति भी बनती और मिटती रहती है, किन्तु संबंध किसी से हो, यह मेरे लिए  संभव ही नहीं है। मेरी दृष्टि में, समस्त संबंध ही स्मृतिगत संबंध धारणाएँ मात्र होती हैं जिनका व्यावहारिक उपयोग अवश्य हो सकता है किन्तु उन्हें कभी भी छोड़ दिया जा सकता है और हर कोई ही परिस्थितियों के अनुसार या स्वेच्छा से भी ऐसा करता भी है। यह सब स्वाभाविक है। किसी किसी के लिए जीवन साथी से संबंध / आत्मीयता भी ऐसी ही एक तत्कालिक व्यावहारिक आवश्यकता है सकती है।

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June 29, 2025

Dead As Dodo.

लाहौर से कपिलवस्तु 

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तस्य लोपः

उपदेशे हलि अन्त्यस्य लोपो स्यात्।।

भगवान शिव के ढक्का से उद्भूत अक्षरसमाम्नाय के १४ सूत्रों का श्रवण करने के पश्चात् महर्षि पाणिनी के द्वारा संस्कृत भाषा के व्याकरण की रचना की गई।

"हल्" प्रत्याहार "हयवरट्" उपदेश से "शषसर्" ... "हल्" उपदेश तक प्रयुक्त व्यञ्जनों की समष्टि है।

समझा जाता है कि उनका जन्म अविभाजित भारत के पञ्जाब में "लहातुर" नामक स्थान पर हुआ था, जिसे बाद में "लाहौर" कहा जाने लगा। 

उसी पञ्च-आप अर्थात् पञ्जाब में जहाँ महर्षि अष्टावक्र के पिता ऋषि कहोळ / कहोड का जन्म हुआ था और उसे बाद में कहूटा कहा जाने लगा जो कि भारतवर्ष के विभाजन के बाद वर्तमान समय में पाकिस्तान में है, जहाँ पाकिस्तान का यूरेनियम संवर्धन प्लांट स्थित है।

महर्षि अष्टावक्र की माता का नाम सुजाता था। ऋषि कहोड को राजदरबार में वरुण (देव) के द्वारा नियुक्त किसी विद्वान से हार का सामना करना पड़ा था और इसके फलस्वरूप उन्हें वहाँ से बन्दी बनाकर समुद्र पार वरुण के देश में निर्वासित कर दिया गया था। अष्टावक्र के जन्म के बाद जब वह बारह वर्ष की आयु के थे, उन्हें इसका पता चला तो वे राजा के दरबार जा पहुँचे और राजा वरुण द्वारा नियुक्त उस विद्वान को शास्त्रार्थ में हरा कर पिता को वरुण के बन्दीगृह से मुक्त करवाया। वरुण वैसे भी पश्चिम दिशा के दिक्पाल और वसु हैं और उनके यज्ञ को पूर्ण करने के लिए उन्हें वैदिक कर्मकाण्ड में निष्णात पंडितों की आवश्यकता थी और इसीलिए उन्होंने ऐसे पंडितों को उनके देश में एकत्रित करने के उद्देश्य से यह जाल रचा था। कैसे ऋषि कहोड का जन्म बाद में कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन के पुत्र के रूप में हुआ जिसे सिद्धार्थ का नाम प्राप्त हुआ था, और कैसे राजकुमार सिद्धार्थ ने घोर तप के द्वारा आत्मज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया था, कैसे अष्टावक्र की माता जो कि सिद्धार्थ के इस जन्म के समय में वनदेवी के रूप में अवतरित हुई थी और कहोड का अनुसरण करती हुई उनकी सेवा में सतत संलग्न थी, और सिद्धार्थ को उस समय खीर प्रदान की थी जब वे निरञ्जना नदी से स्नान कर बाहर आए थे और अत्यन्त कृश और दुर्बल हो जाने के कारण थककर बोधिवृक्ष तले  बैठ गए थे, इस बारे में विस्तार से मेरे इसी या स्वाध्याय ब्लॉग में मैं लिख चुका हूँ। यहाँ केवल संदर्भ के लिए इसका उल्लेख कर रहा हूँ। यहाँ पर मुख्य ध्येय है - महर्षि पाणिनी के जीवन के एक प्रसंग के बारे में लिखना।

यह तो प्रख्यात है कि पाणिनी की अष्टाध्यायी के सूत्र

डुकृञ्करणे

को आधार बनाकर आदि शंकराचार्य ने द्वादशपञ्जरिका और चर्पटपञ्जरिका आदि सतोत्रों की रचना की, किन्तु यह भी कहा जाता है कि स्वयं महर्षि पाणिनी ने भी इस सूत्र को एक दूसरी कथा में आधार की तरह प्रयुक्त किया था। उसकी कथा यह है -

महर्षि अपने गुरुकुल में छात्रवृन्द के मध्य अपने आसन पर वटवृक्ष के तले विराजमान थे। ज्ञानयज्ञ अर्थात् वहाँ उपस्थित एक वृद्ध ने महर्षि से निवेदन किया -

भगवन्! 

कृपया इस सूत्र पर प्रकाश डालें ताकि हमारे ज्ञानचक्षु खुल सकें। महर्षि ने कुछ दूर पर स्थित एक वृक्ष की ओर संकेत किया और बोले -

उस वृक्ष पर अनेक पक्षी उसके फलों का भक्षण करने के लिए आते हैं उस फल का भक्षण करने पर उसके बीज भी उनके पेट में चले जाते हैं। उस वृक्ष का संस्कृत नाम तो डुडु है, जो उकारान्त पुंल्लिंग पद है और उसके रूप प्रथम विभक्ति में एकवचन, द्विवचन और बहुवचन में -

डुडु डुडू डुडवः

इस प्रकार से होंगे। 

तो जब विभिन्न पक्षी उस वृक्ष के फलों का भक्षण करते हैं और पेट में पच जाने के बाद में बीज जब उन पक्षियों के मल के साथ निकल जाते हैं। लेकिन उनका आवरण कठोर होता है इसलिए वे सड़-गल नष्ट हो जाते हैं और उनका अंकुरण नहीं है पाता। किन्तु उन पक्षियों में केवल एक पक्षी ऐसा भी होता है जिसके पेट में जाने के बाद इन बीजों पर का कठोर आवरण उसके पेट में ही गल जाता है और तब वे बीज उसके मल के साथ जब बाहर निकल जाते हैं तो आसानी से अंकुरित हो जाते हैं। इस प्रकार वह पक्षी और यह वृक्ष दोनों का अस्तित्व सदैव बना रहता है। उस पक्षी का प्रसिद्ध नाम "डुडु" शायद इसीलिए है। वृक्ष और पक्षी दोनों को इसी नाम से जाना जाता है।

जैसा कि स्पष्ट है, "डु" और "कृ" / "कृञ्" क्रियापद हैं जो कृत्य या कर्म की प्रक्रिया के द्योतक हैं।

(यह समझना कठिन नहीं है कि अंग्रेजी भाषा में 

Do और Create

इन्हीं दोनों क्रियापदों  verb-roots के सजात / सज्ञात / cognate  हैं। क्योंकि उनके उच्चारण और अर्थ -

Pronunciation and phonetic sense

से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है।)

अब ज्ञान और अज्ञान के बारे में -

धारणा ही अज्ञान है और धारणा रहने तक अज्ञान और अज्ञान रहने तक धारणा व्यक्त से अव्यक्त और अव्यक्त से व्यक्त रूप ग्रहण करते रहते हैं।

अज्ञान और धारणा, ठीक इस "डुडु" वृक्ष और पक्षी की तरह अन्योन्याश्रित हैं। इसलिए इसे ही पतञ्जलि महर्षि ने "वृत्ति" कहा है। वृत्ति का निरोध, एकाग्रता और संयम तो हो सकता है किन्तु मन का अस्तित्व रहने तक किया नहीं जा सकता। क्योंकि मन ही वृत्ति है और वृत्ति ही मन है और अहं-वृत्ति ही समस्त वृत्तियों का मूल है और सभी वृत्तियाँ अहं-वृत्ति का ही प्रकार हैं। 

धारणा के रहने तक अज्ञान का और अज्ञान के रहने तक धारणा का आभासी अस्तित्व बना रहता है। यह दुष्चक्र तभी विलीन होता है जब विचार को विचारकर्ता,और विचारकर्ता को विचार की तरह, एक ही वस्तु की तरह देख लिया जाता है।

"देखना" (Awareness) कर्म नहीं स्वभाव है।

इतना कहकर महर्षि मौन हो गए। 

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