उसका, जो मैं हूँ और जैसा मैं अपनी और अपनी दुनिया की नजरों में दिखाई देता हूँ।
जैसे एक सिरे पर हर कोई अपने को अवश्य ही जानता है, जो भी मैं हूँ वह होना और उसे जानना अलग अलग दो चीजें नहीं हो सकता। होना ही जानना है और जानना ही होना भी है। जब कोई अपने अलावा दूसरी किसी भी चीज का सहारा लिए बिना ही जो कुछ भी जानता है तो वह अपने आपको ही जानता है। क्योंकि जिसे भी जाना जाता है उसे जानना और उसे जाननेवाला मैं ही हूँ।
मेरा होना ही मेरा अस्तित्व है और इसे जानना ही मेरा / अपना, और हर किसी का, सभी का ही नित्य, मौलिक और वास्तविक स्वभाव है। किन्तु जैसा मैं अपने आपको और मेरी इस दुनिया में जिस किसी दूसरे को अपने बाद में जानता हूँ, वह मेरा स्वरूप निरन्तर बदलता ही रहता है। मेरा होना, जानना तो मेरा स्वभाव है, जबकि जैसा मैं दिखाई देता हूँ वह मेरा बाह्य रूप या स्वरूप है। इसलिए मेरा जीवन इन्हीं दो सिरों / ध्रुवों के बीच चुम्बकीय बल रेखाओं की तरह उसी तरह से गतिशील रहता है, जैसे वे चुम्बकीय रेखाएँ चुम्बक के उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव के बीच गतिशील रहती हैं। यह चुम्बकीय क्षेत्र, चुम्बक के आकार और आकृति, लंबाई-चौड़ाई से तय होता है और जैसे उस क्षेत्र में आनेवाली अन्य चुम्बकीय वस्तुओं को प्रभावित करता और उनसे प्रभावित भी होता है, लगभग उसी तरह मेरा अपना जीवन भी संसार की भिन्न भिन्न चीजों से प्रभावित होता और उन्हें भी प्रभावित करता है। इन चीजों में भी मुख्य रूप से कुछ चुम्बकीय, तो कुछ अचुम्बकीय होती हैं। जैसे किसी चुम्बकीय क्षेत्र में दूसरी कोई चुम्बकीय वस्तु प्रविष्ट होकर उसके संपर्क में आती है तो दोनों की बल रेखाओं का परस्पर सामञ्जस्य किस प्रकार से होता है, इससे ही यह तय होता है कि उन दोनों की पारस्परिक प्रतिक्रिया का क्या परिणाम होगा, ठीक वैसे ही अपने प्रभाव-क्षेत्र में आनेवाली किसी सजीव (चुम्बकीय) और निर्जीव (अचुम्बकीय) और मेरे उससे होनेवाले पारस्परिक व्यवहार (interaction) से ही संसार-रूपी मेरा / अपना अनुभव तय होता है। ऐसे ही असंख्य अनुभवों का समूह मेरा जीवन चरित्र है।
बुद्धि ही वह चुम्बकीय क्षेत्र है जो क्षीण या शक्तिशाली, विद्यमान या अविद्यमान होता है। निर्जीव वस्तुओं में यह लगभग अविद्यमान जान पड़ता है, फिर भी वह यंत्रवत प्रकृति के नियमों और सिद्धान्तों से नियंत्रित, संचालित और अनुशासित अवश्य ही होता है। भौतिकशास्त्री तो बस केवल पदार्थों के व्यवहार करने की सुनिश्चितता के बीच कोई क्रम खोज लेते हैं और उस आधार पर विभिन्न विविध सिद्धान्तों को तय कर उन्हें विज्ञान कहते हैं। और क्या उनका यह कार्य उनमें इस बुद्धि की अभिव्यक्ति होने के बाद ही संभव नहीं होता?
क्या बुद्धि स्वयं ही स्वयं को बुद्धि से जानती है?
या कि,
वह कोई / कुछ और ही है, जो कि बुद्धि को जानता है, और जो कहता है कि मेरी बुद्धि कुंठित हो गई है, ठीक से काम नहीं कर रही है, या बहुत सजग और सक्रिय है, एकाग्र या विचलित है!
यह तो स्पष्ट ही है कि यह समझ कि मेरी बुद्धि मेरे जानने के लिए सहायक एक उपयोगी यंत्र या माध्यम है, न कि मैं स्वयं! जबकि मैं स्वयं समझ हूँ, बुद्धि या बुद्धि का कार्य नहीं हूँ।
समझ का एहसास / अहसास / आभास,
और एहसास / अहसास की समझ --
एहसास / अहसास / आभास है संवेदनशीलता, जबकि बुद्धि है निर्णय और निश्चय करने की शक्ति ।
संवेदनशीलता और निर्णय / निश्चय करने की शक्ति दोनों समय समय पर कम या अधिक होते रहते हैं किन्तु प्रथम कभी पूरी तरह समाप्त नहीं होती क्योंकि यदि समाप्त होती भी हो तो उसे कौन प्रमाणित करेगा? क्योंकि होना और जानना परस्पर अनन्य और अभिन्न हैंं
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयो तत्वदर्शिभिः।।
बुद्धि और आभास दोनों ही जाने जाते हैं इसलिए नित्य ही जानने पर निर्भर, जानने से जुड़े हैं, जबकि जानना उनसे स्वतंत्र है। और यह जानना स्व-आश्रित है।
यह है मेरा जीवन चरित्र!
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