August 31, 2024

मेरा जीवन चरित्र

उसका, जो मैं हूँ और जैसा मैं अपनी और अपनी दुनिया की नजरों में दिखाई देता हूँ। 

जैसे एक सिरे पर हर कोई अपने को अवश्य ही जानता है, जो भी मैं हूँ वह होना और उसे जानना अलग अलग दो चीजें नहीं हो सकता। होना ही जानना है और जानना ही होना भी है। जब कोई अपने अलावा दूसरी किसी भी  चीज का सहारा लिए बिना ही जो कुछ भी जानता है तो वह अपने आपको ही जानता है। क्योंकि जिसे भी जाना जाता है उसे जानना और उसे जाननेवाला मैं ही हूँ।

मेरा होना ही मेरा अस्तित्व है और इसे जानना ही मेरा /  अपना, और हर किसी का, सभी का ही नित्य, मौलिक और वास्तविक स्वभाव है। किन्तु जैसा मैं अपने आपको और मेरी इस दुनिया में जिस किसी दूसरे को अपने बाद में जानता हूँ, वह मेरा स्वरूप निरन्तर बदलता ही रहता है। मेरा होना, जानना तो मेरा स्वभाव है, जबकि जैसा मैं दिखाई देता हूँ वह मेरा बाह्य रूप या स्वरूप है। इसलिए मेरा जीवन इन्हीं दो सिरों / ध्रुवों के बीच चुम्बकीय बल रेखाओं की तरह उसी तरह से गतिशील रहता है, जैसे वे चुम्बकीय रेखाएँ चुम्बक के उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव के बीच गतिशील रहती हैं। यह चुम्बकीय क्षेत्र, चुम्बक के आकार और आकृति, लंबाई-चौड़ाई से तय होता है और जैसे उस क्षेत्र में आनेवाली अन्य चुम्बकीय वस्तुओं को प्रभावित करता और उनसे प्रभावित भी होता है, लगभग उसी तरह मेरा अपना  जीवन भी संसार की भिन्न भिन्न चीजों से प्रभावित होता और उन्हें भी प्रभावित करता है। इन चीजों में भी मुख्य रूप से कुछ चुम्बकीय, तो कुछ अचुम्बकीय होती हैं। जैसे किसी चुम्बकीय क्षेत्र में दूसरी कोई चुम्बकीय वस्तु प्रविष्ट होकर उसके संपर्क में आती है तो दोनों की बल रेखाओं का परस्पर सामञ्जस्य किस प्रकार से होता है, इससे ही यह तय होता है कि उन दोनों की पारस्परिक प्रतिक्रिया का क्या परिणाम होगा, ठीक वैसे ही  अपने  प्रभाव-क्षेत्र में आनेवाली किसी सजीव (चुम्बकीय) और निर्जीव (अचुम्बकीय) और मेरे उससे होनेवाले पारस्परिक व्यवहार (interaction) से ही संसार-रूपी मेरा / अपना अनुभव तय होता है। ऐसे ही असंख्य अनुभवों का समूह मेरा जीवन चरित्र है।

बुद्धि  ही वह चुम्बकीय क्षेत्र है जो क्षीण या शक्तिशाली, विद्यमान या अविद्यमान होता है। निर्जीव वस्तुओं में यह लगभग अविद्यमान जान पड़ता है, फिर भी वह यंत्रवत प्रकृति के नियमों और सिद्धान्तों  से नियंत्रित, संचालित और अनुशासित अवश्य ही होता है। भौतिकशास्त्री तो बस केवल पदार्थों के व्यवहार करने की सुनिश्चितता के बीच कोई क्रम खोज लेते हैं और उस आधार पर विभिन्न विविध सिद्धान्तों को तय कर उन्हें विज्ञान कहते हैं। और क्या उनका यह कार्य उनमें इस बुद्धि की अभिव्यक्ति  होने के बाद ही संभव नहीं होता?

क्या बुद्धि स्वयं ही स्वयं को बुद्धि से जानती है?

या कि, 

वह कोई / कुछ और ही है, जो कि बुद्धि को जानता है, और जो कहता है कि मेरी बुद्धि कुंठित हो गई है, ठीक से काम नहीं कर रही है, या बहुत सजग और सक्रिय है, एकाग्र या विचलित है!

यह तो स्पष्ट ही है कि यह समझ कि मेरी बुद्धि मेरे जानने के लिए सहायक एक उपयोगी यंत्र या माध्यम है, न कि मैं स्वयं! जबकि मैं स्वयं समझ हूँ, बुद्धि या बुद्धि का कार्य नहीं हूँ। 

समझ का एहसास / अहसास / आभास,

और  एहसास / अहसास की समझ --

एहसास / अहसास / आभास है संवेदनशीलता, जबकि बुद्धि है निर्णय और निश्चय करने की शक्ति ।

संवेदनशीलता और निर्णय / निश्चय करने की शक्ति दोनों समय समय पर कम या अधिक होते रहते हैं किन्तु प्रथम कभी पूरी तरह समाप्त नहीं होती क्योंकि यदि समाप्त  होती भी हो तो उसे कौन प्रमाणित करेगा? क्योंकि होना और जानना परस्पर अनन्य और अभिन्न हैंं

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयो तत्वदर्शिभिः।।

बुद्धि और आभास दोनों ही जाने जाते हैं इसलिए नित्य ही जानने पर निर्भर, जानने से जुड़े हैं, जबकि जानना उनसे स्वतंत्र है। और यह जानना स्व-आश्रित है।

यह है मेरा जीवन चरित्र!

***

August 28, 2024

चित्तभेदात्तयोर्विभक्तः

Question / प्रश्न 105

चित्तभूमि और चित्त की विभिन्न भूमिकाओं के मध्य क्या संबंध है?

अनुभव और अनुभवकर्ता के बीच क्या संबंध और भेद है?

Answer /  उत्तर :

चित्  (चैतन्य) / Awareness, 

चित्त (mind, consciousness),

और चेतना ( Consciousness)

इन शब्दों का तात्पर्य जानने के बाद ही पातञ्जल योगसूत्र के अध्याय ४, कैवल्यपाद के निम्न सूत्रों को ठीक से समझा जा सकता है :

--

जन्मौषधिमन्त्रतपः समाधिजा सिद्धयः।।१।।

जात्यन्तरपरिणामः प्रकृत्यापूरात्।।२।।

निमित्तमप्रयोजकं प्रकृतीनां वरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत्।।३।।

निर्माणचित्तान्यस्मितामात्रात्।।४।।

प्रवृत्तिभेदे प्रयोजकं चित्तमेकमनेकेषाम्।।५।।

तत्र  ध्यानजमनाशयम्।।६।।

कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्।।७।।

(भाष्य -

चतुष्पदी खल्वियं कर्मजातिः।

कृष्णा शुक्लकृष्णा शुक्लाऽशुक्लाकृष्णा चेति।

तत्र कृष्णा दुरात्मनाम्।

शुक्लकृष्णा बहिःसाधनसाध्या।

तत्र परपीडानुग्रहद्वारेणैव कर्माशय प्रचयः।

शुक्ला स्वाध्यायध्यानवताम्।

सा हि केवल मनस्यायत्तत्वादबहिः साधनाधीना न परान्पीडयित्वा भवति।

अशुक्लाकृष्णा संन्यासिनाम् क्षीणक्लेशानां चरमदेहानामिति। 

तत्राशुक्लं योगिन एव फलसंयन्सादकृष्णं चानुपादानात्।

इतरेषां तु भूतानां पूर्वमेव त्रिविधमिति।)

ततस्तद्विपाकानुगुणानामेवाभिव्यक्तिर्वासनानाम्।।८।।

जातिदेशकालव्यवहितानामप्यानन्तर्यं स्मृतिसंस्कारयोरकरूपत्वात्।।९।।

तासामनादित्वं चाऽऽशिषो नित्यत्वात्।।१०।।

हेतुफलाश्रयलम्बनैः सङ्ग्रहीतत्वादेषामभावे तदभावः।।११।।

अतीतानागतं स्वरूपतोऽस्त्यध्वभेदाद्धर्माणाम्।।१२।।

ते व्यक्तसूक्ष्मा गुणात्मानः।।१३।।

परिणामैकत्वाद्वस्तुतत्वम्।।१४।।

वस्तुसाम्ये चित्तभेदात्तयोर्विभक्तः पन्थाः।।१५।। 

(पातञ्जल योगसूत्र अध्याय ४ कैवल्यपाद)

उपरोक्त सूत्रों में क्रमांक ५ और ६ को रेखांकित किया जा रहा है ताकि यह स्मरण रहे कि चेतना यद्यपि एक है फिर भी वह अनेक रूपों में चित्त के रूप में अभिव्यक्त होती है। सूत्र १५ तक इसे ही स्पष्ट किया गया है।

चित्त की भूमि तो एक ही है, और जैसे भिन्न भिन्न स्थानों की मिट्टी अलग अलग प्रकार की होती है, उसी तरह से चित्त में उठनेवाली वृत्तियाँ भिन्न भिन्न प्रकार की होती हैं। 

विभिन्न वृत्तियाँ ही चित्त की भूमिकाएँ हैं। जिनमें से पाँच प्रमुख हैं -

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।

जैसा कि योग की परिभाषा (योगानुशासनम्) में प्रारम्भ में ही समाधिपाद में कहा जा चुका है :

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।२।।

और अगले ही सूत्र में परिणाम अर्थात् निरोध-परिणाम  के बारे में भी :

तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।३।।

तब द्रष्टा स्वरूप में अवस्थित (किन्तु आवश्यक नहीं कि अधिष्ठित) होता है। और इसके बाद ही -

वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।४।।

का उल्लेख है, जिससे यह स्पष्ट है कि चित्तवृत्ति पर से निरोध-परिणाम के समाप्त होते ही चित्त पुनः शेष चार प्रकार मूढ, क्षिप्त, एकाग्र या सुषुप्ति में से किसी भी एक से तादात्म्ययुक्त (identified) हो जाती है। वृत्तिमात्र से यह विचलन ही तादात्म्य (identification) है, जिसमें विषय और विषयी के रूप में वृत्ति की पहचान स्थापित हो जाती है। पहचान, स्मृति और तादात्म्य एक ही वस्तु के भिन्न भिन्न नाम हैं। यही अनुभव और अनुभव की स्मृति काल्पनिक और एक स्वतंत्र अनुभवकर्ता के आभासी विभाजन को जन्म देती है। कल्पना वृत्ति है।  वैचारिक चिन्तन, वृत्ति है। और जैसा कहा जा चुका है,  वृत्ति का उद्भव और लय, प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति इन पाँच रूपों में होता है। इसलिए अनुभव और अनुभवकर्ता दोनों स्वरूपतः वृत्ति ही है। विचार और विचारकर्ता भी वृत्ति ही है। चूँकि वृत्ति को निरुद्ध करने पर भी "मैं" रूपी विचार पृष्ठभूमि में बना ही रहता है, अतः वह द्रष्टा / स्वरूपतः आत्मा नहीं होता। इसीलिए महर्षि पतञ्जलि बाद में सविचार / सवितर्क, सविकल्प और निर्विकल्प, निर्विचार, सबीज तथा निर्बीज समाधि का उल्लेख भी करते हैं।

जब तक कोई -

"Control" / निरोध किसका और कैसे?,

और आत्मज्ञान / आत्म-साक्षात्कार को "beyond experience" कहता है तब तक उसे " आरुरुक्षु" कहते हैं। और जब उसे यह स्पष्ट हो जाता है कि अनुभव और अनुभवकर्ता एक ही वस्तु (वृत्तिमात्र) हैं, तो उसे "योगारूढ" कहते हैं।

साँख्य दर्शन यहाँ से प्रारम्भ होता है।

योगाभ्यास करते समय चित्तवृत्ति पर जो तीन प्रकार के प्रभाव होते हैं उन्हें क्रमशः एकाग्रता- परिणाम, निरोध-परिणाम और समाधि-परिणाम कहा जाता है। जब तीनों प्रभाव संयुक्त होते हैं तो उसे संयम  कहा जाता है। 

त्रयमेकत्रः संयमः

सूत्र में संयम को परिभाषित किया गया है।

प्रायः भूल या प्रमादवश संयम और निरोध दोनों को ही "Control"  कह दिया जाता है, और उन्हें एक दूसरे के समान समझ लिया जाता है।

किन्तु जब तक "नियंत्रण / संयम  / control  किसका और कैसे?" यह प्रश्न है, और जिसे भी यह प्रश्न है वह "संशयकर्ता" ही अहं-प्रत्यय / अहं-संकल्प / अहं-वृत्ति है। उसका निवारण होना ही निर्बीज समाधि है। उसके बने रहने तक जो समाधि होती है उसे सबीज समाधि  कहते हैं। सबीज समाधि भी सविकल्प और निर्विकल्प प्रकार की हो सकती है। निर्विकल्प भी योगाभ्यास का परिणाम हो सकती है। तब उसे केवल निर्विकल्प कहा जाता है। और योगारूढ के लिए अब भी संस्कार-रूपी बाधाएँ विद्यमान होती हैं, और उनका शमन किया जाना होता है -

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।।

योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।

इसलिए आत्मज्ञान /आत्मसाक्षत्कार हो जाने के बाद भी (जो योगाभ्यास की चौथी भूमिका / तुरीय में हो जाता है), उपासना / साधना समाप्त नहीं होती, और अनायास होती है। इसे ही "तप" कहते हैं स्वयमेव होती है इसलिए इस स्थिति में आलस्य का कोई स्थान नहीं होता।

इसीलिए सात लोकों -

भूः - material existence, 

भुवः - consciousness / mind, Life, 

स्वः - sense of individuality,

जनः - Life-forms,

महः - greatness and spiritual, occult powers,

तपः

और,

सत्यं Ultimate Reality

में

तप - austerities

का स्थान सत्य से पूर्व है।

यह तप प्रतिरोध (resistance), प्रयास (effort)  नहीं बल्कि आत्मा ही है।

और महर्षि पतञ्जलि ने पाँच सार्वभौम व्रतों / यमों में सत्य से भी प्रथम स्थान अहिंसा रूपी  तप  को दिया है:

अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः।।

यमलोक में कोई यमराज के अनुशासन का उल्लंघन नहीं कर सकता।

***






August 27, 2024

युग-परिवर्तन

Question  /  प्रश्न 104

Has WWIII started? 

क्या महाभारत (कलियुग के अन्त का ) प्रारम्भ हो चुका है?

--

So Many astrologers believe / suggest that WWIII has already started.

I was watching such a channel, where it was claimed that in the year 2019, with the arrival of the Corona, the end of the  कलियुग / kaliyug  has started.

Just as at the end of the :

द्वापर-युग  / dwApara-yuga,

the War of  :

महाभारत  / MahAbhArata  took place, exactly so at the end of the :

कलियुग / kali-yuga,

There is going to be a War like the :

महाभारत / MahAbhArata,

which in proportion was nowhere lesser in mass destruction. than the possible   WWIII. that they believe.

Again, What I could understand in this text of the :

महाभारत / MahAbhArata,

Or maybe somewhere in some other text, this has been narrated in a story of the rise of a tribe which will destroy the clan / race of the :

 यदु  / Yadu  /  यादवyAdavas.

I can 

The Gita, in the chapter 10  points out this fact in the verse 37 :

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जय।।

मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।।३७।।

At the same time, the story narrates that once a few boys belonging to the same race / clan, अहीर / आभीर / यादव,  in their childish way, grazing their cows, tried to make fun of a safe who was famous for forecasting the future. The boys took a pestle hid it under a woman's cloths and one boy posing like a pregnant woman, went to the sage. They told the sage that this woman is pregnant, please tell us if she will give birth to a male child or a female one. 

One of the boys took a pestle, wrapped the pestle, around it in a woman's dress and in the guise of a woman went with the other boys to the sage. 

The sage though angry didn't show his anger but told them :

"She is going to deliver a pestle. And the whole clan of the Yadu / yAdavas will be killed by that pestle."

In the Sanskrit a pestle is called

मूसल / mUsal .

As soon as the sage answered to them, in this way, all they laughing away, left the place and threw the pestle in the sea, so that it couldn't kill and destroy them and their clan / race. In the  ऋग्वेदRgveda, we can refer to a सूक्तम्  / sUktaM in the ऋग्वेद / Rgveda, which points out where from the Arabic people might have come into existence.

If this be true, we can also conclude and relate to this to see how the Islam came from the Arabia / desert as is described in the above सूक्तम्  / sUktaM.

I've given this sUkta somewhere in my post in a blog, where it's said they are either from the ocean or from the पुरीष .

Please refer to my posts dated -

2nd May 2017,

25th July 2019,

And, 

07th September 2019 in my blog :

http://swaadhyaaya.blogspot.com )

Where under a label "Arab" I have tried to find out what, how and if this reference of 

ऋग्वेद मण्डल १, १६३  / 

Rgveda MaNDala 1, 163 

यदक्रन्दः प्रथमं जायमान उद्यन्समुद्रादुत वा पुरीषात्।

श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहू उपस्तुत्यं महा जातं ते अर्वण्।।१।।

यमेन दत्तं त्रित एनमायुनगिन्द्र एणं प्रथमो अध्यतिष्ठत।

गन्धर्वो अस्य रशनामगृभ्णात्सूरादश्वं वसवो निरतिष्ट।।२।।

असि यमो अस्यादित्यो अर्वन्नसि त्रित गुह्येन व्रतेन। 

असि सोमन् समया विपृक्त आहुस्ते त्रीणि बन्धनानि।।३।।

त्रीणि त आहुर्दिवि बन्धनानि त्रीण्यप्सु त्रीण्यन्तः समुद्रे।

उतेव मे वरुणश्छन्त्स्यर्वन्यत्रा त आहुः परमं जनित्रम्।।४।।

The above narration is a clear, concize and complete description of the history how the three (Abrahmic) Religions would come into existence.

The reference to Somalia, Yemen, Arab and Africa - respectively :

सोम, यम, अर्वन्  and अव-ऋचा

Is evident in the above text of  :

ऋग्वेद  / Rgveda. 

This may help us in understanding the History in a right perspective.

The word पुरीष  / purISha is again there in the : 

पुरुष सूक्तम्   or at some other place.

There are two different meanings of this word.

One another important comparison that comes to mind is of that of the Moon and the Yadu. yAdava, Yadu, Indu and the Moon are synonymous.

I've often pointed out that the name of India has its origin in Indu. It's not just a coincidence that in the :

தமிழ் / Tamizh, they use the word :

இன்தீ  to refer to the word :

Hindi  /  हिन्दी.

I also believe that Indonesia too has to do historically with this word.

I'll go no any further and leave it to the readers of this post to read between the lines and conclude accordingly.

Meanwhile, there is also something like Gazwa e hind.

I have nothing to say of and about this.

But as the War is imminent all over the world, I can feel it's going to be WWIII.

I claim nothing.

I can't say what the future holds and  comes out to be true.

In my approach to this we can certainly discover many a hidden clues. 

***


 


August 25, 2024

Question / प्रश्न 103

The Sin, The Virtue,

and The Freedom .

--

पाप, पुण्य और पाप-पुण्य दोनों ही से मुक्ति

--

Question / प्रश्न  103

क्या घृणा पाप है? 

Answer  /  उत्तर :

एक विदुषी, साध्वी किसी आध्यात्मिक / धार्मिक ग्रन्थ को पढ़ रही थी। ग्रन्थ पढ़ते हुए उसकी दृष्टि इस वाक्य पर पड़ी -

"पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।"

उसने इसे काट दिया। 

उस ग्रन्थ को माननेवाले उसके किसी परिचित ने उससे पूछा : क्या पवित्र ग्रन्थ में दी गई शिक्षा में कोई त्रुटि है? 

उसने उत्तर दिया :

"घृणा ही पाप है, यह प्रश्न गौण है कि घृणा किससे की जाती है!"

उस परिचित ने पूछा :

"क्या घृणा सदैव ही पाप है?"

"हाँ! इस पर किसी को क्या सन्देह हो सकता है?"

"यह तो आसानी से समझा जा सकता है कि घृणा करना पाप है, किन्तु क्या घृणा होना भी पाप है?"

परिचित द्वारा पूछे गए इस प्रश्न से वह साध्वी विचार में पड़ गई।

"घृणा करना तो अवश्य ही पाप है, किन्तु किसी को घृणा करने के लिए बाध्य करना तो उससे भी बड़ा पाप है।"

"वह कैसे?"

"क्या घृणा न करना / घृणा न होना प्रेम है?"

"जिसे मैं नहीं जानता ही नहीं, मैं उससे प्रेम या घृणा कैसे कर सकता हूँ?"

"किसी से प्रेम या घृणा करने या होने के लिए पहले उसे जानना तो होगा ही। जिस तरह अपने-आपको यद्यपि तुम जानते हो फिर भी तुम अपने-आप से न तो प्रेम और न ही घृणा करते हो, और फिर भी कभी कभी तुम्हें अपने-आप से घृणा हो जाती है। यह भी सच है कि हर किसी को अपने-आपसे अनायास ही प्रेम होता है, फिर चाहे उसकी अपने आपके बारे में जो भी कल्पना या भावना हो। और इस ओर किसी का ध्यान शायद ही कभी जाता है, कि जिस अपने-आपको वह "मैं" कहता है, उसे वह ठीक से जानता भी है या नहीं! फिर भी जिस रूप में स्वयं को वह अनुभव करता है, अपने उस प्रकार से उसे अवश्य और अनायास ही प्रेम भी होता है और वह उसे सदा सुखी और प्रसन्न देखना चाहता है, - फिर चाहे वह उसका शरीर या मन हो या उसके अपनों के रूप में उस अपने-आप का विस्तार हो। और इस विस्तार में ही उसके संपर्क में आनेवाली वस्तुएँ और वे विभिन्न लोग भी हो सकते हैं जिन्हें कि वह अपना मानता है। जैसे कि उसका परिवार, समुदाय, धर्म, देश, आदर्श, लक्ष्य, मान्यताएँ, विश्वास, आग्रह आदि सब भी।"

"फिर वह किसी से घृणा क्यों करता है, या किसी से उसे घृणा क्यों होती है?

"जो उसे उसके अपने लिए अहितप्रद प्रतीत होते हैं, उनसे उसे भय अनुभव हो सकता है और तब उसके मन में उनसे घृणा उत्पन्न हो सकती है।"

"तात्पर्य यह, कि घृणा की यह भावना उसके मन में  किसी काल्पनिक या वास्तविक भय या प्रतिक्रिया के कारण भी पैदा हो सकती है! अर्थात् घृणा करने से या घृणा होने से वह बच भी नहीं सकता।"

"तो वह क्या करे?"

"अवश्य ही इस स्थिति का अवलोकन शान्त मन से  वह कर सकता है जिसमें उसके अपने मन में हो रही समस्त स्थितियों पर भी उसकी दृष्टि है, और वह उन से बिना किसी अपेक्षा किए, बिना उनकी वैचारिक समीक्षा या आलोचना किए, उनकी निन्दा या प्रशंसा किए, उन्हें अनुचित या उचित ठहराए बिना, स्थिति का सामना कर सकता है।

क्या तब वह वस्तुतः कुछ करता है?

जो भी होता है, बस होता है।

इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता है कि वह कुछ करता है, तो फिर 'वह क्या करे!' यह प्रश्न ही कहाँ उठता है?"

"तब वह जानता भर है और यह 'जानना', और यह  'होना' एक दूसरे से अलग नहीं हैं, इसे भी अनायास ही जानता है।"

"क्या तब उसके लिए घृणा होने या न होने, करने या न करने का प्रश्न शेष रहता है?"

***







August 23, 2024

Question / प्रश्न 102

Question  /  प्रश्न 102

What Is Desire?

Why / How The Desire Takes Place?

इच्छा क्या है?

इच्छा का उद्भव क्यों और कैसे होता है? 

--

अवधान, ध्यान, ज्ञान, प्रमाद, और उन सबकी पारस्परिक अन्तर्क्रियाएँ

Awareness, Attention, Knowledge,  Delusion, 

And

Their Mutual Interactions.

--

ध्यान ही चित्त है।

चित्तं चिद्विजानीयात् 

'त-कार'-रहितं यदा।।

'त-कार' विषयाध्यासो

विषयविषयिनौ उभौ।।

इसे उपदेश-सारः के श्लोक :

ज्ञानवर्जिताऽज्ञानहीन चित्।।

ज्ञानमस्ति किं ज्ञातुमन्तरम्।।२७।।

के साथ देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि चित् द्वैत-ज्ञान से रहित निष्ठा रूपी अद्वैत वास्तविकता है, जबकि चित्त है - ध्यान, -अहंकार।  

चित् / चैतन्य अन्तर्मुख या बहिर्मुख नहीं हो सकता, जबकि चित्त / चेतना का कार्य  अपरिहार्यतः द्वैत-युक्त होता है। और तब ध्यान विषय और विषयी में विभाजित हो जाता है। अनवधानयुक्त / अवधानरहित चित्त ही प्रमादपूर्ण होने से अपने आपको विषय और विषयी, अर्थात् स्व (अहंकार) और संसार इन परस्पर भिन्न दो सत्ताओं में बँटा अनुभव करता है। यह अनुभव, और अनुभवकर्ता होने की यह प्रतीति ही दृग्-दृश्य अविवेक है। यही प्रतीति विषयी और विषय के बीच प्रतीत होनेवाला आभासी विभाजन / विरोधाभास है। 

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय के निम्न श्लोक :

ध्यायतो विषयान्पुंसः

सङ्गस्तेषूपजायते।।

सङ्गात्सञ्जायते कामः

कामात्क्रोधोऽभिजायते।।६२।।

(अध्याय २)

से स्पष्ट है कि काम, कामना या इच्छा का उद्भव चित्त में तब होता है जब प्रमाद-वश, मोहित-बुद्धि अर्थात् अवधानरहित चित्त, विषय और विषयी को परस्पर भिन्न भिन्न  मान लेता है और फिर आत्मा से किसी अन्य वस्तु की तरह उसे ग्रहण करते ही उस विषय की इच्छा का उद्भव चित्त में हो जाता है।

विषय-विषयी रूपी द्वैत अस्तित्व में आते ही वह "ज्ञान"/ "अविद्या" भी अस्तित्व में पाई जाती है जिसमें विषयी अपने आपको बद्ध अनुभव करता है।

इस बारे में सद्दर्शनम् के निम्नलिखित तीन पद द्रष्टव्य हैं -

भवन्तु सद्दर्शनसाधनानि

परस्य नामाकृतिभिः सपर्या।।

सद्वस्तुनि प्राप्त तदात्मभावा

निष्ठैव सद्दर्शनमित्यवेहि।।१०।।

द्वन्द्वानि सर्वाण्यखिलस्त्रिपुट्यः

किञ्चित्समाश्रित्य विभान्ति वस्तु।।

तन्मार्गणे स्याद्गलितं समस्तम्

न पश्यतां सच्चलनं कदापि।।११।।

विद्या कथं भाति न चेदविद्या

विद्यां विना किं प्रविभात्यविद्या।।

द्वयं च कस्येति विचार्य मूलम्

स्वरूपनिष्ठैव परमार्थविद्या।।१२।।

Knowing the Self and abiding as and in that Self alone is the only True, Real, Ultimate and the Supreme Wisdom.

***



August 22, 2024

अथ धर्मानुशासनम्

 Question प्रश्न 101.

What is the Discipline of Dharma?

किं धर्मानुशासनम्? 

विवेक-सम्मत धर्म क्या है और धर्म-सम्मत विवेक क्या है?

--

This Question of Dharma!

For whatever reasons;

With the interaction between different cultures and societies, so many  Sanskrit / PrAkrit words entered the collective social consciousness, that has resulted in much confusion about what might be the essential and the salient features of :

 Dharma.

Those who came here in India from the far different and diverse cultures tried to study and because of political interests and influences of those, who sponsored them, interpreted and manipulated this and so many other words of  Sanskrit and PrAkrit - not to speak of all other vernacular languages too.

So let us have a fresh look into how the Sanskrit texts from the very beginning looked at and had a view of :

The Sense and meaning of  Dharma.   

To address this issue we need to see how this word has been used in the Sanskrit  texts throughout the history since the very beginning, when these texts were first written down.

Those who wrote down these texts were the disciples of the RSHi who first of all narrated these texts to them.

These texts especially the Veda were recited and learnt through listening to them which is called श्रुति / श्रवणम् .

Historically though there were many a ways to record this through in the local dialects, and accordingly the influences crept into the written texts.

The only two forms that originated were The देवनागरी / नागरी and the  ग्रन्थ लिपि  and both these forms strictly adhered to the vocal pronunciation of the language in which the Veda-texts  had to be recited, taught and learnt.

Except the தமிழ், the oldest, prevailing and still current till date, all languages maintained this status and structure of those Sanskrit texts, however  தமிழ்  created and adopted a kind of script to preserve this style in the form of  - 

ग्रन्थ लिपि.

The traditional learning of Veda  also ran in a parallel way by applying the diacritical marks so as to preserve and maintain the accuracy of pronouncing the word(s).

This was so precisely accurate that even the  साम / sAma too strictly complied with this. From sAma साम, further evolved the sAmaveda and the  सङ्गीत / samgita - the "muse" /  छन्द . Even the "Muse" was  thus an offshoot of Veda.

Let us now come upon the Dharma.

Essentially, Dharma is synonymous with Sanatana. So fundamentally and basically, there is nothing like 

सनातन धर्म / sanAtana Dharma.

For Dharma itself is what sanAtana is, and sanAtana is, what Dharma is.

Obviously, neither Dharma and nor the  sanAtana could be restricted to religion. Because religion though be according to and supported by Dharma, it's still kind of a practice which may be according to OR opposite and may be against  विवेक / Conscience.

However, the word conscience could be derived from Sanskrit in the two ways :

शंस्  - शंसयति, to commend, recommend, 

संश् - संशयति, to doubt, to suspect.

The word Science is an example to see how it too could be derived from these above two verb-roots. And still the sense and meaning persists!

So there is :

विवेक-सम्मत धर्म,

And 

धर्म-सम्मत विवेक .

Therefore the word "Dharma" could be what is Just according to Justice; that to according to the :

प्राकृतिक न्याय  / Natural Justice.

Maybe, just for the reference we can see how the word  "Just" itself too could be derived from the Sanskrit verb-root : युक्तं . I'm not going to go in details!! 

Accordingly there is : 

वर्ण-धर्म  / varNa-dharma,

and the : 

The  आश्रम-धर्म / Ashrama-dharma,

and again the  वर्णाश्रम धर्म .

So there is:

ब्रह्मचर्य धर्म, ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ धर्म, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ धर्म, वानप्रस्थ आश्रम, संन्यास धर्म and the संन्यास आश्रम.

This whole structure and pattern of the sanAtana has the support /  foundation of the Natural Justice. Nature is Dharma as well as the sanAtana too.

This may help us in understanding what is :

विवेक-सम्मत धर्म  and the धर्म-सम्मत विवेक.

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August 16, 2024

सर्वसंकल्पसंन्यासी

Question / प्रश्न 100.

What Is Choiceless Awareness?

निर्विकल्प-चेतना  / चुनावशून्य अवधान क्या है?

Answer / उत्तर :

In a book written by :

"K" - (Bharadwaja Kapali Shastri), a disciple of Ganapati Muni, and a devotee of Bhagawan Shri Ramana Maharshi wrote a commentary on the "Sat-Darshanam" -- forty stanzas on Reality, of Sri Ramana Maharshi.

In the introductory chapter :

Doubts Cleared

The devotee asks Sri Ramana :

"How one can be free of thoughts (संकल्प)?"

In the answer Sri Ramana says :

"No one can make any effort to free oneself from the thoughts (संकल्प). There is a time (when you are driven by thoughts -संकल्प), and for you, and presently, it is just not possible for you to stop the effort, to be free from the thought, but there will be a time, when it will be impossible for you to make any effort, and to become free of thought (संकल्प)".

(The following is my own view -) 

This happens when you discover that all thought is ignorance only.

Patanjali calls it vRtti / वृत्ति .

Sri Ramana says in the  उपदेश सारः /  UpadeshaSaraH   :

मानसं तु किं मार्गणे कृते।।

नैव मानसं मार्ग आर्जवात्।।

and, 

वृत्तयस्त्वहंवृत्तिमाश्रिताः।।

वृत्तयो मनः विद्ध्यहं मनः।।

मन वृत्ति है, और समस्त वृत्तियाँ मन का ही पर्याय हैं और सभी अहं-वृत्ति (Since of I) पर ही आश्रित होती हैं। अहं-वृत्ति ही अहं-संकल्प (I-thought) है। इसलिए इस संकल्प के स्वरूप को समझ लिया जाना ही इसका निरसन है। किसी भी दूसरे संकल्प से इस संकल्प का निरसन (elimination) नहीं किया जा सकता है।

तात्पर्य यह हुआ कि संकल्पमात्र का निरसन अहं-संकल्प की निवृत्ति हो जाने पर ही संभव होता है। 

क्योंकि संकल्पमात्र ही चुनाव और विकल्प भी है। और इसीलिए चुनावशून्य अवधान (Choiceless Awareness)  में ही समस्त वृत्तियों और संकल्प का निवारण हो जाता है।

सर्वसंकल्पों से रहित हो जाना, चुनावशून्य अवधान -Choiceless Awareness  या "मन क्या है" इस प्रकार के अनुसंधान (questioning about what is mind -enquiry of the nature and the structure of mind;  how it comes into existence, how the mind assumes Reality and becomes all in all)  ही इसलिए एकमात्र उपाय है जैसा कि ऊपर कहा गया - 

मानसं तु किं मार्गणे कृते।। 

नैव मानसं मार्ग आर्जवात्।।

जिसका दूसरा नाम है चुनावशून्य जागरूकता / Choiceless Awareness.

Choiceless Awareness happens in the ending of thought, and the ending of thought happens when the mind is attentive only, when in there is the Choiceless Awareness.

The same truth is underlined in the Gita in the following verses 3 and 4 of chapter 6

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।।

योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।३।।

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।।

सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते।।४।।

(अध्याय ६)

संक्षेप में, जिज्ञासु और मुमुक्षु प्रथमतः आरुरुक्षु होता है, और बाद में परिपक्व हो जाने पर योगारूढ हो जाता है जब उसके समस्त संकल्पों का शमन हो जाता है, उसके समस्त शान्त हो जाते हैं।

योगारूढ दशा ही सर्वसंकल्पसंन्यास है,

अर्थात् यही चुनावशून्य अवधान,

Choiceless Awareness भी है। 

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August 15, 2024

97 योगभूमि

Question  / प्रश्न 97

What are the 5 grounds (kinds) of Mind (चित्त) prior to beginning the practice of Yoga?

योगाभ्यास प्रारम्भ करने से पहले की चित्त की पाँच भूमिकाएँ क्या हैं? 

Answer / उत्तर :

चित्त की भिन्न भिन्न प्रकार की वे पाँच भूमिकाएँ जिन्हें जानने के बाद ही योगाभ्यास प्रारम्भ किया जा सकता है, क्रमशः इस प्रकार से हैं :

1.मूढ Indolent

2.क्षिप्त Distracted

3.एकाग्र Centred  / Focused

4.समाहित / Absorbed  /  Identified

5.निरुद्ध / Arrested / Completely Under Control

इनमें से सर्वप्रथम प्रकार मूढ है जिसका लक्षण है प्रमाद और प्रकृति से प्रेरित गतिशीलता। प्रमाद तमोगुण और गतिशीलता रजोगुण है और दोनों ही अपने अस्तित्व के सहज स्वाभाविक भान अर्थात् सतोगुण के जागृत होने पर ही उससे मिलकर चित्त का निर्माण करते हैं। सामान्य द्रव्य-पिण्ड में चित्त के उद्भव के बाद अर्थात् जीवन के व्यक्त होने पर ही चित्त व्यक्त और विद्यमान होता है। यही चित्त मूढवत पूर्णतः प्रकृति के वश में तथा उससे ही संचालित होता है। किसी पशु या पक्षी, जलचर या वृक्ष वनस्पति आदि में यही विभिन्न अनुभवों से गुजरता हुआ स्वयं को स्वतंत्र अनुभवकर्ता के रूप चिन्हित कर स्मृति में अंकित कर लेता है। अनुभवकर्ता होने की कल्पना ही स्मृति को जन्म देती है और स्मृति ही अनुभवकर्ता होने की कल्पना को बल प्रदान करती है। यह एक दुष्चक्र ही है और यही मूल अविद्या है।

चित्त का दूसरा प्रकार है क्षिप्त अर्थात् बिखरा हुआ और द्वन्द्वबुद्धियुक्त जैसा कि गीता, अध्याय ७ के निम्नलिखित श्लोक में वर्णन है :

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।। 

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।

चित्त का तीसरा प्रकार है एकाग्र, जिसमें कि चित्त किसी विशेष विषय से संलग्न होकर यद्यपि उस विषय से बँध जाता है, किन्तु किसी भी समय उस विषय से विचलित भी हो सकता है। साधारणतः जिसे "मन लग जाना" भी कहा जाता है किन्तु चूँकि तब किसी भी क्षण किसी भी कारण से या बाध्यतावश मन ध्यान उस विषय से उचक भी सकता है।

चित्त का चौथा प्रकार है समाहित अर्थात् पूर्णतः निमग्न होकर किसी विशेष विषय से एकात्म हो जाना, उसमें निमज्जित हो जाना। चित्त उस विषय में इतना रम जाता है कि उसे वहाँ से बाहर खींचकर लाना बहुत कठिन हो जाता है। जैसे गहरी नींद में सो रहा कोई व्यक्ति जिसे कि उस नींद से जगाया जाना बिलकुल अच्छा नहीं लगता। वैसे जागृत अवस्था में भी कभी कभी कोई कलाकार या चित्रकार, संगीतकार, नर्तक या गायक भी इतना तल्लीन हो सकता है कि उसे संसार विस्मृतप्राय सा हो जाता है। 

उपरोक्त चार प्रकारों से बहुत भिन्न प्रकार है निरुद्ध चित्त जिसमें वृत्तिमात्र को अवरुद्ध कर दिया जाता है। 

अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।।१२।।

(समाधिपाद)

गीता अध्याय ६ के निम्नलिखित श्लोक में भी यह कहा गया है :

श्रीभगवानुवाच --

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।३५।।

इस प्रकार मन अर्थात् चित्त को पूर्णतः नियंत्रित करना ही उसका निरोध करना है। इसी चित्त को निरुद्ध कहा जाता है। क्या इसका अनुमान या इसकी कल्पना की जा सकती है कि चित्त की इस प्रकार की स्थिति में वह किस दशा में होता होगा? नहीं - क्योंकि प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि के अनुसार प्रमाण भी वृत्ति अर्थात् चित्तलक्षण ही होता है। इसे अनुभव भी नहीं किया जा सकता है।  अनुभव / आगम भी पुनः प्रमाण अर्थात् एक वृत्ति ही है।

अनुभव तथा अनुभवकर्ता वृत्ति के ही दो रूप होते हैं।

***

August 12, 2024

दंभ और पाखंड

Question  / प्रश्न 99

Is Awareness Consciousness? 

Is Consciousness Knowledge? 

Is Knowledge Intellect?

Is Intellect Wisdom? 

Is Wisdom Intelligence?

Is Intelligence Ultimate Freedom?

क्या चैतन्य चेतना है? 

क्या चेतना जानकारी है? 

क्या जानकारी बुद्धि है?

क्या बुद्धि विवेक है?

क्या विवेक प्रज्ञा है?

क्या प्रज्ञा परम स्वतंत्रता है?

--

Answer / उत्तर :

इन प्रश्नों का यह क्रम किसी विशिष्ट प्रयोजन से प्रेरित है। इसकी पूर्व भूमिका के लिए हमें एक बार पुनः मेरे द्वारा लिखे गए पहले के :

ज्ञान का भ्रम और भ्रम का ज्ञान

और इससे संबंधित दूसरे कुछ पोस्ट्स का अवलोकन करना सहायक हो सकता है।

उपरोक्त शीर्षक से लिखे गए पोस्ट में इसका उल्लेख किया गया है किस प्रकार नैतिकता / Ethics और  शालीनता / Morality  की शिक्षा सभ्य समाज के निर्माण हेतु अपरिहार्यतः आवश्यक हैं और यह तब तक व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है जब तक स्वयं शिक्षक में ही आचरण की यह प्रवृत्ति स्वतःस्फूर्त ही न हो। यदि शिक्षक ने अपने भीतर ही सतत जागरूक अवधान से यह न जान लिया हो कि जागरूकता अर्थात् चैतन्य / Awareness स्वरूपतः क्या है, तो उसके लिए यह संभव नहीं कि वह सहजस्फूर्त और स्वाभाविक रूप से नैतिकता / Ethics और शालीनता / Morality  से का आचरण दूसरों से संबंधित अपने व्यवहार में कर सके। क्योंकि बहुत संभव तो यही है कि  मन  नामक     वस्तु कैसे कार्य करती है इसकी समझ उसे न हो, किन्तु  उसने केवल यंत्रवत्  (Machine Learning)  की  रीति से केवल सामाजिक और औपचारिक आचरण  / protocol  से सभ्यता और शिष्टाचार के नियमों को सीख लिया हो। यह सब कुछ केवल स्मृति और अभ्यास से ही उसे अवगत हुआ हो। और संक्षेप में, इस प्रकार से  विनम्रता / being humble, क्या है, इसे जाने बिना ही वह  ज्ञान के भ्रम से ग्रस्त होकर और इस भ्रम के ज्ञान से अनभिज्ञ रहते हुए पाखंड का अभ्यस्त हो गया हो। स्वयं के ज्ञानी होने के भ्रम के दंभ ने ही उसे पाखंडी prudish बना दिया हो और उसे कल्पना या अनुमान तक न हो कि दुर्भाग्य से किस संकट में वह फँस गया है।

उपरोक्त प्रश्न श्रृंखला का प्रयोजन केवल इस ओर संकेत करने के लिए है कि तथाकथित शिक्षा, नैतिकता और सभ्यता के क्या अर्थ और मापदंड हो सकते हैं इस बारे में शायद ही कोई जागृति / Awareness  हममें हो।

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August 10, 2024

The Ignorance!

The Deep State.

Question / प्रश्न 98

What is the Mystery of Deep State?

क्या है गुह्य राज्य का रहस्य?

--

P O E T R Y.

Deep is the mystery,

Of the Deep State,

And far more deeper are,

Still deeper are its roots,

Spreading through,

All over and upon,

Within and across, 

The land and earth,

On the surface and,

In the skin and flesh,

In the blood and in, 

The heart and brain, 

The mind of the world,

Has become a victim, 

Of the spirit evil,

Call it the God, 

Or Call it the Devil.

No one is cared, 

No one is spared, 

No one is safe.

No one is secure.

The Divine and The Evil,

The God and The Devil, 

Fight within the heart,

Of all and everyone,

In the very mind, 

Soul and the brain,

In the desires, fears, 

In the spirit of the man.

So many groups, 

So many a Religions,

So many a Faiths, 

Hues and the versions.

Recognizing them all, 

Identifying them all,

Uprooting them all, 

Eradicating them all, 

Eliminating them all, 

Is indeed a great challenge, 

Before the humanity whole, 

No one other can ever help,

But search it deep within,

In your own very soul.

Maybe you could succeed, 

You would find the seed,

And maybe root it out, 

Maybe you can than shout,

Maybe you give a clarion call, 

From the rooftops aloud!

It's not for the ambitious, 

It's not for the missionaries,

Never for the ideologies,

Nor for the political parties.

It's only for the individual,

To seek within the man, 

Where is rooted the Devil, 

Where is hidden the Divine.

Who else then yourself,

Is indeed  there to help, 

Find out, discover within,

That's only in the very self.

And, as you might have heard,

Just as very saint has a past,

And every sinner has a future,

Still there is a Wise Rare,

Who is worried over never,

Who is beyond the past, 

Who is beyond the future. 

Who knows perfectly well,

There is neither Heaven nor hell, 

The waters in a pond or a lake,

The waters in the ocean or a river,

Is intrinsically but pure water,

Looks though, dirty and unclear,

So is the spirit of the God, 

Of The Divine or The Human, 

Is ever so pure and clean,

Ever so radiant, shining, clear.

The impurities there any, 

Are there of body and mind, 

The Self is ever so pure, 

Always chaste, pure and divine.

No dirt or dust cloud touch it, 

No impurities can make it dirty, 

No ignorance can ever spoil it,

Such is the spirit of humanity!

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August 09, 2024

ज्योति दिन रैना जागे!!

अस्ति भाति  प्रीति

अस्तित्व तो प्रत्यक्ष कालनिरपेक्ष अकाट्य सत्य है।

और अस्तित्व का भान भी वैसा ही कालनिरपेक्ष और अकाट्य सत्य है। 

यह भान जिसे है, वह है बोध अर्थात्  चेतना ।

बोध या चेतना भी कालनिरपेक्ष है, जिसमें जिसका भान होता है उसे जगत् कहा जाता है और जिसे इस जगत् का भान है वह है स्वयं कोई। ये दोनों साथ साथ ही दृष्टिगत होते हैं और इसी प्रकार दोनों साथ साथ ही दृष्टि से ओझल भी होते रहते हैं।

कस्मिन् सति?

सत्ब्रह्मणि। यत् तत् सत् तदेव ब्रह्म सत्पर्यायम्। अतो हि सति वा ब्रह्मणि। यद्भानं वर्तते तत्र, तस्मिन् ब्रह्मणि एव स्वस्य भानम्। अपि च, तद्भानं न तु जायते, न लीयते वा। यज्जायते, वर्तते, लीयते वा तद् बुद्धिः। बोधाद्धि सा बुद्धिः। सतो वा ब्रह्मणः न जन्म न च अवसानम्। एतद्धि ब्रह्मज्ञानम्।

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः।।१६।।

(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २)

अपि बुद्धेः जन्मनि तद्ब्रह्मज्ञानं व्यष्टिबोधं भवति। अस्मिन् व्यष्टिबोधे हि ब्रह्मणि वा सति जायते स्वस्य जन्मबोधम् व्यष्टिबोधे व्यष्टिरूपेण च।।

एतस्मिन् व्यष्टिबोधे हि भवतः स्व-जगती। यत्र स्व इति शरीरविशेषः वा अहं, अपि जगत् इति च इदम्।।

एवं ब्रह्मज्ञानं भवति व्यष्टिज्ञानमस्मिन् भासमाने जगति।

तस्मात् अस्मिञ्जगत्येव कालस्थानौ कल्प्येते।।

न तौ सति वा ब्रह्मणि कथं वा कदाचन्।।

अपि व्यष्टिबोधे तौ प्रतीयेते एवं तयोः स्मृतिः च जायते।।

स्मृतिः इति वृत्तिः।।

अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः।।११।।

(समाधिपाद)

एवं हि जायते स्वस्य प्रतिमा अस्मिन् शरीरे।

वृत्तिर्हि चित्तम्।। 

चित्तमेव चित्तं,

प्रवृत्तिभेदे प्रयोजकं चित्तमेकमनेकेषाम्।।५।।

उपरोक्त

(कैवल्यपाद)

तस्मात् न व्यष्टेः स्वतन्त्रसत्ता।।

व्यष्टिभावापन्नंं चित्तं हि अज्ञानम् स्वरूपस्य द्रष्टुः।।

द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् चेद्योगः।।

चेतनो हि चेतना व्यष्टिरूपेण समष्टिरूपेण वापि।

तयोर्द्वयोरेकरूपतया।।

अतः अस्ति भाति प्रीति ही पर्याय से सत् चित् प्रेम है।

चेतनारूपी यही ज्योति नित्य, सनातन और शाश्वत जीवन है और यही आत्मज्ञान भी है।

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।।

न च कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः।।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः।।

तेषां आदित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १५)

आशा है कि यदि उपरोक्त विवेचना में संस्कृत व्याकरण की कोई संभावित त्रुटियाँ हों तो उनका शोधन सुधी और विद्वज्जन स्वयं ही कर लेंगे। 

***











August 08, 2024

अब कह सकता हूँ ...

मेरा जीवन : एक तीर्थयात्रा,

सनातन 

--

मैं जीवन भर घास ही नहीं काटता रहा, हालाँकि अकसर लोग मेरे बारे में यही सोचते हैं और मौका मिलते ही दबी ज़बान से कह भी देते हैं।

उन्हें जीवन में वैसी समृद्धि और सफलता मिली है, जैसी समृद्धि और सफलता मुझे भी किसी हद तक मिली थी, लेकिन मैंने उस तरह की समृद्धि और सफलता की कभी न तो चाह की थी, न उसके मिलने पर कभी उनकी तरह बौराया ही था। और यद्यपि मैं आज भी उतना ही विपन्न हूँ, जैसा कि बचपन से अब तक रहता आया, फिर भी मैं अपने जीवन से उन सबकी तलना में अधिक संतुष्ट और प्रसन्न अनुभव करता हूँ, क्योंकि मैंने हिन्दू और हिन्दुत्व  की इस पहेली को सुलझा लिया है, और अब मैं हिन्दुत्व को सभ्यता और संस्कृति भर मानता हूँ, न कि धर्म।

धर्म नित्य, शाश्वत और सनातन है, जबकि विभिन्न  सभ्यताएँ, संस्कृतियाँ और संप्रदाय समय समय पर धर्म अर्थात् सनातन की भूमि पर उत्पन्न होते, फलते फूलते और अंततः मिटकर समाप्त हो जाते हैं।

धर्म इसलिए वैदिक सत्य है - स्मृतियाँ, पुराण तथा इतिहास आदि उसके ही विविध प्रकार और रूप हैं। इसलिए सनातन, धर्म और वैदिक सत्य एक दूसरे के पर्याय हैं।

कोई भी सभ्यता, संस्कृति और संप्रदाय वैदिक सत्य पर आधारित हो सकता है, उसका कुछ रूपांतरित प्रकार या उससे नितान्त ही भिन्न अथवा विपरीत भी हो सकता है। तब उस प्रकार की परंपरा को विधर्म या अधर्म कहा जा सकता है।

सनातन अर्थात् धर्म को हिन्दू / हिन्दुत्व या अन्य कोई नाम देना मौलिक भ्रम है जिससे हम सबकी बुद्धि भ्रष्ट और दूषित हो गई है। सैद्धान्तिक दृष्टि से भी, हिन्दू के रूप में अपनी पहचान स्थापित करना तब तो एक बड़ी भूल है, जब हम भारतीय के रूप में अपनी वास्तविक पहचान को विस्मृत कर देते हैं। यह हमारी भयंकर और आत्मघाती भूल है। इसलिए पहले हम भारतीय हैं और उसके बाद ही हमारी कोई हिन्दू पहचान भी हो सकती है। इसलिए हिन्दुत्व को राजनीतिक हथियार बनानेवालों से मेरा हमेशा से गहरा मतभेद और विवाद होता रहा है। वे  फिर हिन्दुत्व के तथाकथित पक्षधर रहे हों, समर्थक आदि, या हिन्दुत्व के विरोधी हों। विडम्बना यह है वे सभी सनातन / धर्म के ही यद्यपि विभिन्न प्रकार हैं किन्तु वे इस सच्चाई को भूल गए हैं, और हिन्दुत्व के पक्ष में या विरोध में संगठित हो गए हैं। इसका ज्वलन्त प्रमाण यह है कि भारत हिन्दू राष्ट्र हो या न हो, है या नहीं है, इस बारे में कभी सहमत नहीं हो पाते। और इसलिए भारत तथा भारतीयता के विरोधी भारत से विद्वेष करने वाले इसका भरपूर दुरुपयोग करने और हमारी इस भूल का लाभ लेने से हिचकिचाते नहीं।

सनातन / धर्म के दो पक्ष हैं -

लौकिक / सांसारिक जिसे Secular शब्द के इतिहास के आधार पर सेकुलर भी कहा जा सकता है, तथा दूसरा है - आध्यात्मिक / Spiritual, और दोनों के प्रयोजन एक दूसरे से स्वतंत्र हैं। अध्यात्म के दृष्टिकोण से यद्यपि  संसार का कोई मूल्य नहीं है, किन्तु धर्म के दृष्टिकोण से चूँकि संसार अध्यात्म की ही एक अभिव्यक्ति है इसलिए उसका परित्याग किया जाना अनुचित तो है ही, असंभव भी है।

कभी कभी सोचता हूँ कि अपना नाम 

"विनय वैद्य"

से बदलकर 

"विनय सनातनी" रख लूँ! 

***

 



August 07, 2024

96. The Conscious Mode.

Question / प्रश्न 96

What is the relation between the Mind and the Consciousness? What connects the two? 

मन और चेतना का परस्पर क्या संबंध है? कौन सी वस्तु उन्हें परस्पर संबद्ध करती है?

Answer  /  उत्तर :

The only thing that connects the two is :

The Attention,

That is the ground and expression of the underlying principle, the Reality, and the ever-present truth. The Attention could never be denied neither by logic, example or experience.

जो एकमात्र वस्तु उन्हें संबद्ध करती है वह वस्तु है :

अवधान

अवधान ही वह एकमात्र आधारभूत सत्य तत्व है, मन और चेतना में अन्तर्निहित वह उभयनिष्ठ वास्तविकता है, जिसे किसी भी तर्क से, उदाहरण या अनुभव से अमान्य या अस्वीकृत नहीं किया जा सकता।

चेतना और वृत्ति एकमेव और एकमात्र वास्तविकता हैं, जो सतत एक से दूसरे रूप में प्रतिबिम्बित होते रहते हैं। चूँकि वे एक दूसरे से अनन्य हैं, इसलिए स्वरूपतः और व्यावहारिक तल पर, चेतना ही मन, और मन ही चेतना है। एक ही मन या चेतना वृत्ति के रूप में तर्क, उदाहरण तथा अनुभव से नित्यसिद्ध है, जो कि जीवन ही है और उस प्रकार से प्रत्येक जैव-प्रणाली में संचरित होता है। जिस शक्ति से यह संचरण घटित होता है वह ज्ञानशक्ति और कार्यशक्ति इन दो रूपों में कार्य करती है, और स्वरूपतः वैसे ही परस्पर अभिन्न हैं जैसे मन और चेतना। 

मन समस्त भावी और भव्य की समष्टि है, जबकि चेतना शुद्ध ज्ञान / जानना मात्र है।

प्रकृति ही अव्यक्त और व्यक्त इन दोनों रूपों में निरन्तर कार्यरत है -

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।।

अव्यक्त निधनान्येव तत्र का परिदेवना।।

(श्रीमद्भगवद्गीता)

अव्यक्त और व्यक्त दोनों ही स्तरों पर प्रकृति असंख्य जैव-प्रणालियों में विद्यमान होकर उन सभी को उनके अपने अपने निज धर्मों में प्रवृत्त करती है।

इस प्रकार प्रकृति के गुणों से प्रेरित होकर वे कर्म करने के लिए बाध्य होते हैं, और जहाँ ज्ञानशक्ति उनमें उनके अज्ञान से आवरित होने के कारण उनकी बुद्धि में अहं और इदं की प्रतीति को उत्पन्न करती है, वहीं प्रकृति अपने गुणों के प्रभाव से क्रियाशक्ति को, उनमें कर्मों के अपने द्वारा किए जाने का अर्थात् अहं कर्मों के कर्ता होने का भ्रम उत्पन्न करती है।

वृत्तयस्त्वहंवृत्तिमाश्रिताः।। 

वृत्तयो मनः विद्ध्यहं मनः।।

(उपदेश-सारः)

उपरोक्त विशद प्रस्तावना के बाद यह समझना सरल है कि जिसे मन कहा जाता है, वृत्ति उसका ही अभिव्यक्त रूप है।

स्पष्ट है कि किसी भी वृत्ति के सक्रिय होते ही उसके होने का ज्ञान भी उससे संयुक्त होता ही है, अर्थात् उस स्थिति में तब उस वृत्ति को जाननेवाला भी वृत्ति की पृष्ठभूमि में अपरिहार्यतः विद्यमान होता ही है। जाननेवाला ही वह है, -जिसे द्रष्टा कहा जाता है। वृत्ति दृश्य, और जाननेवाला दृक् / दृग् या द्रष्टा होता है। द्रष्टा ही दर्शन है क्योंकि दोनों एक ही वस्तु के लिए प्रयुक्त होनेवाले दो भिन्न प्रतीत होने वाले शब्दमात्र हैं।

जाननेवाला के अवधान / Attention  के अनुसार ही कोई जाननेवाला अपने आपके स्वयं के ही स्वतन्त्र कर्ता होने की भावना से ग्रस्त होता है, जबकि दूसरा कोई इस भावना से कि वह केवल द्रष्टा है, न कि विभिन्न कार्यों का कर्ता। यही वह प्रस्थान-बिन्दु है जहाँ आध्यात्मिक तत्व का प्रत्येक जिज्ञासु साँख्य का या योगमार्ग का अवलंबन स्वीकार कर तदनुसार उपासना करने में प्रवृत्त होता है।

साँख्य मार्ग का अवलंबन लेनेवाला सीधे ही आत्मा और ईश्वर के तत्व का अनुसंधान करने में संलग्न हो सकता है जबकि योगमार्ग का अवलंबन करनेवाला अपने आपके स्वतंत्र होने की मान्यता के कारण मन की वृत्तियों पर नियंत्रण करते हुए, उन्हें निरुद्ध करने के लिए उन सभी साधनों का सहारा लेता है जिनका वर्णन पतञ्जलि के द्वारा उनके योगदर्शन में इस प्रकार से किया गया है :

अथ योगानुशासनम्।।१।।

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।२।।

तदा दृष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।३।।

वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।४।।

वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।५।।

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।।

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।८।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।

अभाव-प्रत्ययालम्बना वृत्तिः निद्रा।।१०।।

अनुभूतविषयासम्प्रमोषः वृत्तिः स्मृतिः।।११।।

अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।।१२।।

इनमें से प्रमाण नामक वृत्ति प्रत्यक्ष, अनुमान अथवा आगम के रूप में होती है। यह शुद्ध इंद्रियानुभव, केवल बौद्धिक निष्कर्ष, या भावनात्मक अनुभूति के रूप में भी होना संभव है।

विपर्यय नामक वृत्ति वस्तु के त्रुटिपूर्ण और आधारहीन ज्ञान (जानकारी) के रूप में होती है। और पुनः वस्तु की इस त्रुटिपूर्ण जानकारी का शोधन भी किया जा सकता है जिससे विपर्यय का निरसन (elimination) हो जाता है।

विकल्प नामक तीसरे प्रकार की वृत्ति तब उठती है जब किसी शब्द से प्रतीत होनेवाली वैसी किसी भी वस्तु का अस्तित्व होता ही नहीं है।

चौथी निद्रा नामक वृत्ति वह है जो कि अभाव प्रत्यय पर आलंबित होती है - अर्थात् किसी भी वस्तु के अभाव की ही प्रतीति होना।

पाँचवी और अंतिम वृत्ति स्मृति है जो कि किसी अनुभूत विषय के पुनः चित्त में आने पर उठती है।

उपरोक्त पाँचों प्रकार की वृत्तियों में व्यक्त ज्ञान जानकारी की कोटि में होता है और इसे वृत्तिज्ञान कहा जाता है। समस्त शास्त्रीय (Scriptural knowledge) और तथाकथित वैज्ञानिक (Scientific knowledge)  जिसे भौतिक ज्ञान के रूप में सीखा और सिखाया जाता है, विश्वसनीय नहीं हो सकता। सूचना और इनफॉर्मेशन तकनीक, आर्टीफीशियल इन्टेलिजेन्स की भी इसीलिए सीमित उपयोगिता है।  

शुद्ध चेतना में ग्रहण किया जानेवाला ज्ञान / ज्ञानवृत्ति ज्ञात से परे (beyond the knowledge and the known) होता है और इसलिए असंदिग्ध रूप से सर्वत्र और सदैव परम ज्ञान की कोटि में रखा जा सकता है।

***


  





वहाँ और यहाँ होना

निर्णायक

क्या पूरी उम्र भर मनुष्य, वहाँ से वहाँ भटकते रहता है? 

क्या पूरी उम्र भर मनुष्य कभी, वहाँ से यहाँ नहीं लौटता?

यहाँ होना वास्तविकता है, जबकि वहाँ होना कल्पना, स्मृति, भविष्य और अतीत है।

वहाँ होना, परिचय और अपरिचय है, विचार, स्मृति और  संबंध है, अतीत और भविष्य हैं, जबकि यहाँ होना, जो है वह, और अभी होना है।

तब आप किसी अतीत या भविष्य की स्मृति या कल्पना से रहित होते हैं, और उन समस्त काल्पनिक सन्दर्भों से भी रहित होते हैं जो आपका ध्यान जो है -उससे हटाते हैं। परन्तु वह, -जो है, वहाँ कहीं नहीं हो सकता, जहाँ विचार उसकी खोज में वहाँ से वहाँ गति करता रहता है। 

वहाँ होना, यहाँ होने से नितान्त भिन्न एक सतत यात्रा है जबकि यहाँ होना विचार की वैचारिक यात्रा से निवृत्ति और उस सबकी परिसमाप्ति है जो कुछ भी वहाँ है। यहाँ से कहीं भी जाते ही कोई वहाँ होता है जो कल्पना और विचार के आयाम को यहाँ पर आरोपित कर देता है।  यह कोई भी वहाँ की ही एक वैचारिक प्रतिमा होता है, जिसका प्रतिबिम्ब वह वहाँ स्वयं ही होता है। इस प्रकार विचारमात्र एक ऐसा विचारजनित विभ्रम होता है जिसमें कोई काल्पनिक विचारकर्ता वहाँ से वहाँ भटकते रहता है और अत्यन्त थक जाने पर भी वहाँ ही एक ऐसा स्थायी आश्रय खोजता रहता है जिसका अस्तित्व पुनः विचार में ही संभव है। विचार से ही उसका उद्भव और पुनः विचार में ही उसकी विलुप्ति भी होती रहती है।

इसके बारे में संभवतः यह कहा जा सकता है कि इसका उद्भव रूप से होता है, रूप में ही विचरता हुआ यह एक आभासी रूप से दूसरे किसी नये आभासी रूप को ग्रहण करते ही पहले प्राप्त हुए रूप को त्याग देता है। इस अर्थ में, यह एक रूपसमूह में ही इसका जन्म और जीवन ही वहाँ से वहाँ के मध्य सतत अस्तित्वमान और गतिशील होता है।

जब कोई मनुष्य वहाँ से वहाँ तक की इस यात्रा के रोचक तथ्य के रहस्य को जान लेता है तो वहाँ से वहाँ तक आने जाने की व्यर्थता को देखकर इस प्रपञ्च की पकड़ उस पर नहीं रह जाती।

समस्त समस्याएँ, अपेक्षाएँ,  वहाँ से वहाँ तक में ही पैदा होती हैं, यहाँ कभी कोई समस्या, निराशा, कुन्ठा न तो जन्म ले सकती है न ही कभी उसका समाधान खोजने की कोई आवश्यकता ही होती है। 

किन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि वह कौन है जो वहाँ से वहाँ की अन्तहीन, दुःखद, आशा, अपेक्षाओं और आशंकाओं से ग्रस्त होकर सतत यात्रा करता हुआ जीवन के अन्त में अपनी स्वयं की, अपना कहे जानेवाले शरीर की और उस संसार की पहचान से परे चला जाता होगा? पूरी आयु तक वह यहाँ क्यों नहीं लौट पाता और अन्त में अनिश्चय, संदेह और संशय में ही यहाँ को जाने पहचाने बिना ही, यहाँ से कहीं किसी अज्ञात लोक की दिशा में चला जाता होगा!

क्या वस्तुतः ऐसा कोई होता भी है, या यह विचारजनित स्व और स्व का विचार या कल्पना ही होता है जो वहाँ की कृत्रिम पहचान में अपने आपके उसके केन्द्र में होने के अपरीक्षित भ्रम / मान्यता / विश्वास की उपज ही होता है? क्योंकि जब तक शरीर है तब तक भविष्य में उसके नष्ट होना अपरिहार्य है ही। फिर मृत्यु की कल्पना मन के जागृत वर्तमान अवस्था में ही सत्य प्रतीत होती है। निद्रा में अवस्थित मनुष्य क्या आगामी मृत्यु की कल्पना या विचार से भयभीत होता है? स्पष्ट है कि यह जाग्रत दशा में प्रकट हुआ व्यक्त मन ही है जो कि अस्तित्व से अपने आपको भिन्न, पृथक् और स्वतंत्र स्व कहता है।

क्या प्रत्येक और सभी समस्याएँ जाग्रत होते ही इसके ही साथ, इसके ही लिए नहीं उत्पन्न होती हैं?

सो जाने पर यह समस्याग्रस्त "स्व" कहाँ होता है?

स्व या स्व का विचार / कल्पना ही समस्त समस्याओं को सृजित करता है, और स्व ही उनके रूप में अपना मिथ्या अस्तित्व बनाए रखता है। निद्रा में अस्थायी रूप से यह विलीन हो जाता है, जबकि मृत्यु में इसका स्थायी अन्त हो जाता है।  

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August 06, 2024

और, ठीक आठ साल बाद,

अब,

आज 06 अगस्त है। परसों 04 08 2024 के दिन दोपहर 02 बजे उज्जैन से चला था और कल 05 08 2024 के दिन सुबह 05:30 के लगभग यहाँ पहुँचा।

वर्ष 2016 के मार्च माह की 19 तारीख को उज्जैन से नर्मदातट पर स्थित केवटग्राम नावघाटखेड़ी के लिए निकला था जहाँ पर 31 07 2016 पर स्वास्थ्य बिगड़  गया था और वहाँ आगे रह पाना असंभव हो गया था। एक मित्र को फोन पर बताया तो उन्होंने एम्बुलेंस भेज दी, जो इलाज के लिए इंदौर-खंडवा-रोड पर स्थित चिकित्सालय ले गई। ठीक हो जाने पर अगस्त 2016 की 05 तारीख को मैं देवास चला गया। देवास से वर्ष 2019 के नवंबर में किसी दिन पुनः उज्जैन के लिए वहाँ से रवाना हुआ। उज्जैन में रहने के उस दौरान कोरोना फैला और वर्ष 2023 के मई माह तक उज्जैन में रहा। फिर एक मित्र के गाँव चला गया।  उस गाँव में 2024 के मार्च माह तक रहने के बाद पुनः उज्जैन चला आया। मार्च-अप्रैल 2024 के बाद 05-08-2024 तक जैसे तैसे उज्जैन में रहने के बाद तय पाया कि उज्जैन में आगे और रहना संभव नहीं है, इसलिए 05-08-2024 के दिन वहाँ से निकला और कल याने अगस्त  06-08-2024 के दिन सुबह यहाँ पहुँचा। 2016 का वह एक सप्ताह और 2024 का यह सप्ताह आश्चर्यजनक रूप से समान थे। बिल्कुल ही समान और मानों वैसी ही मानसिक और शारीरिक स्थितियों की पुनरावृत्ति भर हो रही है ऐसा लगता है।

नर्मदा-तट पर पहले वर्ष 1984 में एक दिन के लिए, और फिर 1991-92 में अनेक बार आया और वहाँ से अन्यत्र जा चुका था किन्तु इस बार का यहाँ का आना अप्रत्याशित और आकस्मिक संयोग ही जान पड़ता है। आभास होता है कि अपनी शेष आयु यहीं पर बिता सकूंगा।।

नर्मदे हर!!

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August 04, 2024

95 The Crucifixion / संशयात्मा

सूली पर टँगा हुआ मन और मनुष्य  

श्रीमद्भगवद्गीता 

अध्याय ४

श्रद्धावानंल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।।

ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।३९।।

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।४०।।

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"आत्मा" / "आत्मन्"

पद का प्रयोग संस्कृत भाषा में -

आवश्यकता के अनुसार शरीर, मन और स्वयं के अर्थ 

में हो सकता है। किसी भी मनुष्य का शरीर तो जन्म से मृत्यु तक सूली पर टँगा ही होता है। जबकि मन अर्थात् स्वयं और स्वयं की पहचान जो क्षण क्षण बदलती रहती है, कभी पीड़ा और संकट की आशंका, तो कभी उनसे क्षणिक मुक्ति की प्रतीति होने के समय काल्पनिक सुख अर्थात सुखाभास से मोहित रहा करती है।

आत्मा, उपरोक्त तीनों ही अर्थों में नित्य उत्पन्न / प्रकट और / या नित्य ही मृत है, जैसा कि,

अध्याय २

के निम्नलिखित श्लोक में वर्णन किया गया है --

अथ चेत् नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।।

तथापि त्वं महाबाहो न शोचितुमर्हसि।।२६।।

इसी प्रकार क्षण क्षण उत्पन्न होते और विलीन होता रहने वाला विचार, जो कि क्षण क्षण उत्पन्न और विलीन होती रहने वाली व्यक्त बुद्धि का ही शाब्दिक रूप होता है, तथा इस बुद्धि को भी नित्यजात और / या नित्य-मृत माना जा सकता है।

वह पीड़ा, जो मूलतः शारीरिक होती है केवल शरीर की प्रकृति की ही कोई गतिविधि होती है, जबकि कोई मानसिक चिन्ता, भय, आशंका, व्याकुलता -क्षणिक होते हुए भी  उस क्षणमात्र में असीम और अन्तहीन जान पड़ते हैं, जो नित्य आत्मा और अनित्य शरीर, विचार, मन एवं बुद्धि आदि को "मैं" कहे जाते ही अस्तित्वमान और सत्य भी प्रतीत होने लगते हैं।

इस तरह देखें, तो शरीर और मन अर्थात्  ("मैं") क्षण क्षण ही सूली पर टँगे रहते हैं, जबकि मनुष्य की निज, नित्य, और  सत्य आत्मा सदा ही सनातन आधारभूत और जन्म मृत्यु से रहित वास्तविकता है।

अध्याय ४ :

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनः तत्वदर्शिनः।।३४।।

श्रद्धा होने पर ही इस आत्मा के ज्ञान को ज्ञानियों के द्वारा उपदेश दिए जाने पर पात्र के द्वारा ग्रहण किया जाता है।

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August 02, 2024

ठीक आठ साल पहले

31 जुलाई 2016 के दिन मैं नर्मदा-तट पर स्थित एक छोटे से गाँव नावघाटखेड़ी में था। 

हफ्ते भर पहले से  मौसम हफ्ते भर से भी अधिक समय से वैसा ही था जैसा अभी :

wet bulb atmosphere

की तरह यहाँ है। ऐसा मौसम, जब हवा में बहुत अधिक नमी, उमस और गर्मी से होती है और पसीना बहुत आता है किन्तु न तो उड़ पाता है, न सूख पाता है, शरीर गीला और चिपचिपा होता है।

हैरत कि बात यह कि अभी ही जब 01 जुलाई 2024 से मुझ पर एक ओर तो स्थान छोड़ने का दबाव बढ़ रहा था किन्तु दूसरी ओर स्थान छोड़ना या बदल पाना भी उतना ही मुश्किल था, और वह 20 जुलाई पर चरम पर पहुँचने लगा था तो मेरा ध्यान इस संयोग पर गया कि ठीक आठ वर्ष पहले 2016 में भी इन्हीं तारीखों में यही स्थिति मेरे साथ हो रही थी।

31 जुलाई 2016 की शाम मुझे अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था। अब यद्यपि अस्पताल में भर्ती होने की जरूरत या संभावना नहीं है, किन्तु अनिश्चितता बिलकुल वैसी ही है। जैसे उस समय अस्पताल में बहुत आराम था वैसे ही अभी भी है। 

31 जुलाई 2016 से 05 अगस्त तक अस्पताल में रहा। अस्पताल छोड़ने के बाद आगे कहाँ जाना होगा, तय न था।

आज 02 अगस्त है और मैं उसी मनःस्थिति में हूँ, उसी मनःस्थिति को जी रहा हूँ।

क्या यह सब संयोगमात्र है, या कुछ और है, नहीं पता! 

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94. Is Attention "Activity"??

Question / प्रश्न 94

Is Attention "Activity / Process" ?

क्या ध्यान कृत्य है?

Attention and / or Meditation  --

प्रारंभ यहाँ से -

"क्या आप ध्यान करते हैं??

"आप किस प्रकार का ध्यान करते हैं?"

"क्या आप ध्यान-साधना करते हैं?"

"आप किस प्रकार की ध्यान-साधना करते हैं?

"ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।।

सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।"

उपरोक्त वाक्यों में "ध्यान" शब्द का प्रयोग क्रियापद के अर्थ में होता है। जबकि :

"तब मेरा ध्यान इस प्रश्न / समस्या पर गया।"

"ध्यान एकाग्र करो!"

"तुम्हारा ध्यान कहाँ है?"

"इस ओर अधिक / बिल्कुल ध्यान मत दो!"

उपरोक्त वाक्यों में "ध्यान" शब्द का प्रयोग संज्ञापद के अर्थ में होता है।

यह जानना महत्वपूर्ण है कि ध्यान के दोनों प्रकार के प्रयोग को ध्यान में कैसे रखा जाए! 

इसके लिए एक सूत्रवत् निष्कर्ष अगली पंक्तियों में इस तरह से प्राप्त किया जा सकता है -

ध्यान हमारा प्रत्यक्ष स्वरूप अर्थात् अव्यक्त और व्यक्त आत्मा ही है। हम कभी ध्यान-रहित नहीं होते यह जानना प्रकृति होने से पुरुष होने और पुरुष होने से उत्तम पुरुष (पुरुषोत्तम / परमात्मा) होने तक की यात्रा का प्रारम्भ है, -आध्यात्मिक विकास का प्रथम चरण है। 

ध्यान के वश में होना,

ध्यान का वश में होना।

समष्टि प्रकृति  

पुरुषोत्तम के वश में है जबकि पुरुषोत्तम परमात्मा उससे स्वतंत्र है।

परमात्मा के तेजरूपी ध्यान का प्रकृति पर अवतरण होते ही प्रकृति में ध्यान का स्फुरित हो उठता है और व्यष्टि ध्यान प्रकृति से संयुक्त होकर उसके वश में हो जाता है। यह हुआ प्रकृति का ध्यान के वश में होना। जब पुनः यह ध्यान और भी विकसित होता है तो प्रकृति की प्रथम अभिव्यक्ति, -जड शरीर के वश में होता है जो कि सचेतन ध्यान से रहित अचेतन ध्यान के प्रभाव से नियंत्रित और उससे परिचालित पृथ्वी तत्व हुआ।

1 :

ध्यान का पृथ्वी तत्व के वश में होना,

पृथ्वी तत्व का ध्यान के वश में होना। 

2 :

ध्यान का शरीर के वश में होना, 

शरीर का ध्यान के वश में होना।

3 :

ध्यान का इंद्रियों के वश में होना, 

इंद्रियों का ध्यान के वश में होना।

4 :

ध्यान का मन के वश में होना, 

मन का ध्यान के वश में होना।

5 :

ध्यान का बुद्धि के वश में होना, 

बुद्धि का ध्यान के वश में होना।

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इंद्रियाणि पराण्याहुः इंद्रियेभ्यः परं मनः।। 

मनसः परया बुद्धिः यः बुद्धेः परतस्तु सः।।

(श्रीमद्भगवद्गीता के उक्त श्लोक को केवल संदर्भ के लिए यहाँ स्मृति के आधार पर उद्धृत किया जा रहा है, इसमें कोई त्रुटि हो सकती है, अतः कृपया इसकी शुद्धता की पुष्टि कर लें।)

न तत् स्वाभासं दृश्यत्वात्।।१९।।

(योगसूत्र - कैवल्यपाद)

यहाँ तत् पद पर अधिक विस्तार दिया जाना चाहिए किन्तु अभी वह संभव नहीं प्रतीत हो रहा अतः इसे छोड़ दिया जा रहा है।  

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ध्यान और चेतना एक ही वस्तु -परमात्मा के तेज के ही दो नाम हैं।

इस प्रकार ध्यान / चेतना का क्रमशः उत्परिवर्तन ही वास्तविक आध्यात्मिक उन्नति है।

इन उपरोक्त पाँच के रूप में जब ध्यान / चेतना का आरोहण होते हुए जब ध्यान / चेतना का बुद्धि से परे के सत्य को स्पर्श कर उसमें भली प्रकार से प्रतिष्ठित हो जाना ही आध्यात्मिक विकास का चरम उत्कर्ष होता है।

ध्यान इस प्रकार से एक प्रक्रिया और उसका चरम भी है।

यही जीवन है।

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उत्परिवर्तन / Mutation मन और बुद्धि दोनों ही स्तरों पर विचारणीय है ।

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