Question प्रश्न 49
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"उसके नोट्स" से --
धर्म ही एकमात्र सत्य, वास्तविकता अर्थात् आत्मा और ईश्वर अर्थात् परमेश्वर है जिसके आधारभूत पाँच स्कन्ध
पाँच यम :
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यही हैं।
जो इनसे विरुद्ध और विपरीत है वह सभी अधर्म ही है।
"धर्म क्या है?"
के उत्तर में पहले जैसा कि कहा जा चुका है, वह सब धर्म-लक्षण है, उससे विरुद्ध और विपरीत जो कुछ भी है सब अधर्म-लक्षण है।
संक्षेप में :
प्राणिमात्र से वैर, ईर्ष्या, द्वेष न रखना अहिंसा है।
जो नित्य अविकारी और सर्वत्र विद्यमान है, सत्य है।
जिस पर अपना न्यायसंगत अधिकार नहीं है, उसकी कामना तक न करना अ-स्तेय है।
सर्वत्र और सब कुछ एकमेव अद्वितीय ब्रह्म है सबको इस दृष्टि से देखना और अपने आपको भी वही जानते हुए सबके प्रति ऐसी अभेद-बुद्धि होना ही ब्रह्मचर्य है। चूँकि ब्रह्म पूर्ण है अतः उसमें कामवासना का नितान्त अभाव होना भी उसके लिए स्वाभाविक ही है। ऐसे ब्रह्मचर्य में काम-इच्छा और विषयों के प्रति लिप्तता, सुख-बुद्धि या आसक्ति भी कैसे हो सकती है! प्रजा की वृद्धि करना भी धर्म ही है, इसलिए ऐसा मनुष्य संतान की उत्पत्ति करने के ध्येय से और केवल कर्तव्य का निर्वाह करने की दृष्टि से प्रजनन के कार्य में संलग्न होता है क्योंकि उसे कर्तव्य को पूर्ण करने के लिए तो आग्रह हो सकता है, और न ही द्वेष हो सकता है।
और अंतिम है अ-परिग्रह -- अर्थात् अनावश्यक संग्रह न करना। यदि ऐसी कोई संपत्ति, धन आदि व्यर्थ ही नष्ट हो रहे हों तो उसका किसी योग्य और पात्र व्यक्ति को दान कर देना।
क्या आज के समय में केवल लोभ, भय, प्रमादवश, या हठ और अज्ञानवश हम इनमें से अधिकांश का उल्लंघन नहीं कर रहे हैं?
यह तो हुई दो पुरुषार्थों धर्म और अर्थ के संबंध में हमारी दृष्टि। तीसरा पुरुषार्थ "काम" है, जिसका तात्पर्य है सुख की प्राप्ति और दुःख की निवृत्ति करने की आवश्यकता अनुभव होना। जैसे संपत्ति के सृजन और उससे प्राप्त हो सकनेवाले सुखों का उपभोग करने के लिए श्रम का और मानसिक संकल्प का बल होना आवश्यक होता है वैसे ही "काम" के पुरुषार्थ की सिद्धि के लिए यह आवश्यक है कि विषयों में सुख-बुद्धि रखे बिना ही कामना को पूर्ण करने की चेष्टा की जा सके। धर्म से "अ-विरुद्ध काम" के प्रति हमारी क्या दृष्टि होना चाहिए इसे श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न दो श्लोकों में स्पष्ट किया गया है :
अध्याय ७
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।११।।
अध्याय १०
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पो सर्पाणामस्मि वासुकिः।।२८।
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