बेबीलोन ओर मैसेपोटा
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भव्यलोकं और महापोतमेय
शायद 8 वर्ष पहले हातिमताई की कहानी स्वाध्याय या इस ब्लॉग में लिखी थी। उनमें से किसी में सन्दर्भ दिया था कि किस प्रकार से हजरत मूसा को इजिप्ट छोड़ना पड़ा और वे ईश्वर के घर (ईश्वरालय) की खोज में अपने अनुयायियों के साथ रेगिस्तान में चलते हुए यरुशलम में जा पहुँचे। यरुशलम संस्कृत "ईरुशैलम्" का ही अपभ्रंश जान पड़ता है। इसमें सन्देह नहीं कि यद्यपि अब्राहम ही यहोवा के धर्म (सैद्धान्तिक पूजा पद्धति) के संस्थापक थे और यहोवा अर्थात् YHVH वही "यह्वः" और "यह्वी" है जिसका उल्लेख ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर मिलता है। किसी पोस्ट में यह सन्दर्भ भी नेट से उद्धृत किया था कि एकमात्र एन्जिल गैबरियल ही एकमात्र एन्जिल थे तीनों प्रमुख अब्राहमिक परंपराओं के संस्थापकों से जिनका संपर्क हुआ था। स्पष्ट है कि वर्तमान इसरायल में अब भी इन तीनों परंपराओं से पहले विद्यमान सांस्कृतिक प्रमाण देखे जा सकते हैं। यदि नयी जानकारीनहीं मिलती तो मैं अपने अनुमानों की सत्यता के बारे में बहुत सुनिश्चित न। होता। संयोग से आज ही एक एक्स-मुस्लिम महिला का चैनल देखते समय कुछ पुराने सूत्र उद्घाटित हो उठे। हाइमा नामक उस महिला के यू-ट्यूब चैनल का नाम है : "Out of the box"
कल ही पता चला, शायद इस चैनल पर और भी कुछ लोग हैं। शायद यह एक्स-मुस्लिम्स के लिए है। इससे मुझे जानकारी तो मिली ही और जानकारी का मजहब या धर्म से क्या संबंध हो सकता है? धर्म तो हर मनुष्य की प्रकृति-प्रदत्त प्रेरणा और प्रवृत्ति होती है, जबकि पंथ परंपराओं से प्राप्त आचार-विचार और व्यवहार होता है।
उपरोक्त चैनल में उसने बेबीलोन की सभ्यता का सन्दर्भ देते हुए उल्लेख किया है कि उस समय में किसी स्त्री का विवाह होने पर वह एक रात्रि मन्दिर के देवता के साथ व्यतीत करते थी और देवता से उसे पुत्र की प्राप्ति होती थी। यह परंपरा थी जिसका पालन वे लोग गौरवपूर्वक किया करते थे। बेबीलोन में इस प्रकार से जो पुत्र जन्म लेते थे उनके 14 नाम थे, जिनमें से एक नाम "ईसा" था। याद आया कि श्रीमद्भगद्गीता में 14 मनु(ओं) का उल्लेख है। इस प्रकार यह कह सकते हैं कि इन्हीं 14 मनुओं से सभी मनुष्य पैदा हुए। उसी चैनल पर इब्राहिम का और इस्माइल का उल्लेख भी है। संस्कृत और वैदिक ज्ञान के आधार पर मुझे लगता है कि जैसे "अब्राहम" अब्रह्मन् का ही अपभ्रंश है, वैसे ही "इस्माइल" भी अस्मिल का अपभ्रंश है। इस प्रकार मनुष्य की चेतना की अभिव्यक्ति क्रमशः ब्रह्म, अब्रह्म और अस्मिल इन तीन रूपों में हुई। एन्जिल गैबरियल की उत्पत्ति के मूल को अंगिरा और जाबाल ऋषि के साथ तुलना कर देखा जा सकता है। अंगिरा और जाबाल ऋषियों का वर्णन उपनिषदों में पाया जाता है जहाँ मुण्डकोपनिषद् में अंगिरा / अंगिरस् का उल्लेख है, वहीं ऋषि जाबाल के नाम पर तो केवल एक नहीं बल्कि दो उपनिषद् पाए जाते हैं। जाबाल ऋषि शैव दर्शन के आचार्य कहे जाते हैं और यह केवल संयोग नहीं प्रतीत होता कि आज भी इसरायल (ईश्वरालय) में शे'बा (Sheba) एक अत्यन्त पवित्र और सम्मानजनक शब्द समझा जाता है। वैदिक और पौराणिक परंपराओं और ग्रन्थों में शिव का नाम शर्व और उनकी शिवा का नाम शर्वणी प्रसिद्ध ही है। संभवतः शर्वरी का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में शबरी के रूप में किया गया है। उर्दू भाषा में "शब" का अर्थ "रात्रि" होता है और इसका ही वेद में भी इसी अर्थ में किया गया है।
शिव की उपासना ही शैव मत है, जो प्रमुखता पश्चिम के स्थानों में हमेशा से प्रचलित रहा। जाबाल ऋषि इसलिए भी अब्राहम परंपराओं के मार्गदर्शक हैं। चूँकि शैव मत में वेद से विपरीत तत्व भी पाए जाते हैं इसलिए वैदिक मत के अनुयायियों से उनका मत-वैभिन्न्य होना स्वाभाविक ही है। वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड सर्ग 87 में एक परम प्रतापवान और पराक्रमी चक्रवर्ती राजा / सम्राट का उल्लेख है, जिसका नाम था "इल"। समस्त पृथ्वीलोक के मनुष्य - राक्षस, गंधर्व, किन्नर, नाग और यक्ष उसे ही "एकमात्र परमेश्वर" मानकर उसकी पूजा करते थे। वह भी वैदिक सनातन-धर्म का ही पालन करता था। संसार में एकेश्वरवाद की अवधारणा का प्रारंभ यहीं से हुआ। क्योंकि वेद उपनिषद् आदि प्रकृति के "देवताओं" को तो मानते हैं किन्तु "ईश्वर" एक है या नहीं इस पर कोई मत प्रदान नहीं करते। देवी अथर्वशीर्ष या शिव अथर्वशीर्ष के अनुसार ईश्वर को एक, अनेक और शून्य के वर्गीकरण में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है। यहाँ तक कि ईश्वर से भी उच्चतर है आत्मा अर्थात् वह ईश्वर को जाननेवाला या उस संबंध में विचार करनेवाला। केवल मनुष्य ही इस प्रकार से विचार कर सकता है।
मनुष्यों और सभी प्राणियों के अपने अपने वंश होते हैं। इसी प्रकार जातियाँ और वर्ण भी। इसी आधार पर दो आधिदैविक तत्व हैं :
देवता (divine) और दैत्य (Deity, Dutch, और Deutsche)
मनुष्यों में दानव (दीन / Dane / Dyna, Dyne).
इस्लाम का "दीन" यही है। अरब / अर्वण् और दीनार का उल्लेख संभवतः वेदों में भी पाया जाता सकता है। यह अरबी 'दीन' से व्युत्पन्न है।
हिन्दी / संस्कृत भाषा में 'दीन' शब्द को निर्धन के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है जिसकी संगति 'हीन' से होती है।
इस पोस्ट का और भी अधिक विस्तार किया जा सकता है क्योंकि यह विषय ही बहुत व्यापक है, इसलिए इसमें और अधिक अनुसंधान किया जाना आवश्यक है।
इसलिए यहीं विराम दे रहा हूँ।
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